Monday, January 9, 2012

प्रवासी दिवस : न खुदा ही मिला न विसाले सनम

एक और प्रवासी दिवस सम्पन्न हो रहा है। इण्डिया शाइनिंग के दौर में राजग की सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसकी नींव डाली थी। उद्देश्य था बाहर बसे भारतीयों को देश में निवेश के लिये प्रोत्साहित करना। आकड़े बताते हैं कि इस दिशा में कुछ भी उल्लेखनीय हासिल नहीं हुआ। यह दूसरी बात है कि प्रवासी भारतीयों के निवेश को आकर्षित करने के लिये भारत के सभी प्रमुख राज्यों के मुख्यमंत्री इस कार्यक्रम में अपनी दुकान सजाने जरूर आते हैं। इनमें भी सबसे ज्यादा सक्र्रिय रहे हैं, बिहार के मुख्यमंत्री। पर क्या वे उल्लेखनीय निवेश आकर्षित कर पाये ? उत्तर है नहीं। दूसरी तरफ देश में अजय पीरामल जैसे उद्योगपति हैं जो लगभग 22 हजार करोड़ रूपया दो वर्षों से बैंक में रखे बैठे हैं। क्योंकि उन्हें भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश करने का हौसला नहीं पैदा हो रहा। वे देश के माहौल को देखकर सोचते हैं कि क्यों न यह निवेश चीन जैसे किसी देश में किया जाये।

श्री पीरामल अकेले नहीं हैं। उनके जैसे दूसरे तमाम उद्योगपति हैं जो बाहर निवेश करने में होड़ लगाये हुए हैं। दूसरी तरफ देश में ही मध्यमवर्गीय निवेशक भी लाखों की तादाद में हैं, जो अफ्रीका, पूर्वी यूरोप और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में लघु या मध्यमवर्गीय उद्योग लगा रहे हैं। व्यापारी तो वहीं जायेगा न जहाँ उसे लाभ दिखायी देगा। उसकी निष्ठा किसी देश की सीमाओं से ज्यादा अपने मुनाफे में होती है। इसलिये इन्हें दोष नहीं दिया जा सकता।

पर सवाल उठता है कि अगर भारत में ही इतने सारे निवेशक मौजूद हैं तो हमें प्रवासी भारतीयों के पीछे दौड़ने की क्या जरूरत है ? पिछले 12 वर्षों से हम प्रवासी दिवस पर करोडों रूपया खर्च करते आ रहे हैं। न तो इससे भारत में निवेश बढा और न ही भारत की साख।  जरूरत इस पर विचार करने की है। दरअसल देश के आधारभूत ढांचे में अभी बहुत कमी है। सड़कें, बिजली की आपूर्ति, कानून और व्यवस्था की स्थिति और नौकरशाही का थका देने वाला रवैया किसी बाहरी निवेशक को यहाँ आकर्षित नहीं कर पाता। इसलिये प्रवासी दिवस में दुकान लगाने की बजाय प्रांतों के मुख्यमंत्रियों को अपने प्रांतों में आधारभूत संरचना को सुधारने का काम प्राथमिकता से करना चाहिये। अगर ऐसा होगा तो निवेशक स्वयं ही दौड़े चले आयेंगे। फिर वे चाहें देशी हों या प्रवासी। फिर वो चाहें राजस्थान हो या बिहार।

तकलीफ की बात यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ शोर तो बहुत मचता रहता है, पर उस शोर से अभी तक सरकारों पर इतना असर नहीं पड़ा कि वे अपने तौर-तरीके में बदलाव लायें। नतीजतन हम सारी संभावनाओं के होते हुए भी आर्थिक प्रगति की दौड़ में चीन से पिछड़ते जा रहे हैं। चीन हमारी अर्थव्यवस्था पर हावी होता जा रहा है। हम डर व्यक्त करते हैं। अपनी सरकारों को कोसतेे भी हैं। पर अपने हालात सुधारने के लिये आगे नहीं आते। आधारभूत ढांचे को सुधारने के लिये आजादी के बाद से आज तक अरबों रूपया खर्च हो चुका है, पर खर्चे के मुकाबले में हमारी उपलब्धि नगण्य रही है। निवेश नहीं होता तो रोजगार का सृजन भी नहीं होता। जिससे युवाओं में भारी हताशा फैलती है और वे हिंसक प्रतिरोध के लिये सड़कों पर उतर आते हैं। कभी वे नक्सलवादी बनते हैं, कभी माक्र्स लेनिन वादी और कभी तालिबान बनते हैं तो कभी अपराधी। यह खतरनाक प्रवृत्ति है।

प्रवासी दिवस में आने वाले भारतीय भी निवेश को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहते। वे तो आते हैं यहाँ छुट्टी मनाने और मनोरंजन करने। इस बहाने वे अपने गाँव का दौरा कर लेते हैं और कुछ मौज-मस्ती व सैर-सपाटा भी। हैदराबाद के प्रवासी दिवस में मैं भी 3 दिन रहा था। मुझे प्रवासी भारतीयों से बात करके यही लगा कि वे केन्द्र एवं राज्य की सरकारों के सब्जबागों से प्रभावित नहीं थे। बल्कि आन्ध्र प्रदेश की सरकार के आयोजन की खामियों से नाराज ज्यादा थे। ऐसे में भारत सरकार के ओवरसीज मंत्रालय के विषय में यही कहा जा सकता है कि न खुदा ही मिला, न विसाले सनम। न इधर के रहे, न उधर के रहे। इस मंत्रालय को इस पूरी कवायद की उपयोगिता पर एक निष्पक्ष मूल्यांकन करना चाहिये और इसके प्रारूप में समयानुकूल परिवर्तन कर इसकी लागत घटानी चाहिये और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये तय किये गये लक्ष्यों को हासिल करने के लिये कुछ नये प्रयास करने चाहिये।

Monday, January 2, 2012

लोकपाल बिल-जन आंदोलन का भविष्य

Rajasthan Patrika 2Jan2012
आज देशवासियों के मन में एक बार फिर हताशा है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध जो माहौल देश में बना था, वह टीम अन्ना के अनुभवहीन महत्वाकांक्षी नेतृत्व और राजनैतिक दलों के रवैये के कारण ठंडा पड़ गया। संसद के विशेष सत्र के बाद यह साफ हो गया है कि कोई भी राजनैतिक दल भ्रष्टाचार के विरूद्ध कठोर कानून बनाने को तैयार नहीं है। इसलिये सारी ऊर्जा मामले को उलझाने में खर्च की गयी। उल्लेखनीय है कि लोकपाल की सारी बहस के बाद बात सी बी आई की स्वायत्तता के ऊपर आ कर अटक गयी। बार-बार संसद में व मीडिया में सर्वोच्च न्यायालय के 1997 के ‘‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार‘‘ फैसले का उल्लेख किया गया। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने सी बी आई की स्वायत्तता के व्यापक निर्देश जारी किये थे। जिनकी अवहेलना करके एन डी ए सरकार ने 2003 में एक लुंज-पुंज सी वी सी एक्ट बना दिया। अगर इस फैसले को ठीक से लागू किया जाता तो न तो इस आन्दोलन की जरूरत पड़ती और न ही लोकपाल कानून विधेयक पेश करने की। विडम्बना यह है कि इतनी बहस के बावजूद किसी भी दल ने इस फैसले को लागू करने की बात नहीं की।
 दरअसल सरकार के जिस लोकपाल विधेयक को कमजोर बताकर दरकिनार किया जा रहा है, उस बिल में अनेक ऐसे प्रभावी प्रावधान किये गये हैं जिनसे भ्रष्टाचार को रोकने में कुछ सीमा तक मदद मिलेगी और बाकी का सुधार आने वाले वर्षों में अनुभव के आधार पर किया जा सकता है।
लेकिन विपक्ष इसका राजनैतिक लाभ लेना चाहता है। विशेषकर भाजपा। जिसने सिविल सोसायटी के मंचों पर तो लोकायुक्त की माँग का समर्थन किया था और संसद में इसका विरोध। सी बी आई की स्वायत्तता को लेकर जितना हल्ला भाजपा मचा रही है, उसके पर कतरने का काम उन्हीं की एन डी ए सरकार ने 2003 में सीवीसी एक्ट के माध्यम से किया था। इसलिये भाजपा के पास इस बिल पर हमला करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। दूसरी तरफ यूपीए सरकार ने भी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को निपटाने का काम बिना संजीदगी के किया। जिससे उसके इरादों पर शक पैदा होने लगा। अन्ना के पहले धरने से लेकर और संसद में फ्लोर मैनेजमेंट तक ऐसा नहीं लगा कि काॅग्रेस की रणनीति स्पष्ट हो। ऐसे में अब दो ही रास्ते बचते हैं, एक तो यह कि बजट सत्र में यूपीए सरकार संसद के दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाकर इस बिल को फिर से पेश कर सकती है, जैसा कि वो कह भी रही है। दूसरा यह कि वह सीबीआई की स्वायत्तता केा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार स्थापित कर दे। जिससे जन लोकपाल बिल के काफी प्रावधानों की जरूरत ही नहीं बचेगी और न ही राजनैतिक दलों को इस बिल के ऊपर ज्यादा विरोध करने की। इससे प्रमुख दलों की यह माँग भी पूरी हो जायेगी कि सरकार सी बी आई को अपने शिकंजे से मुक्त करे।
जहाँ तक जन आन्दोलन का प्रश्न है, श्री हजारे का मुम्बई और दिल्ली का उपवास उनकी अपेक्षा के विपरीत विफल रहा और वह धैर्य खो बैठे। इससे यह स्पष्ट हो गया कि जनता का विश्वास टीम अन्ना के नेतृत्व से हट गया हैं। जनता उनसे भ्रष्टाचार के मुददे पर जुड़ी थी पर टीम अन्ना ने उसे राजनैतिक रंग दे दिया है। यह जानते हुए भी कि लोकपाल विधेयक को पारित करने में कोई भी दल गंभीर नहीं है, टीम अन्ना एक ही दल के विरोध में खड़ी दिखायी दे रही है। इससे उसकी साख काफी गिरी है। लोगों को समझ में आ गया है कि भ्रष्टाचार के विरोध के झण्डे के पीछे व्यक्तिगत राजनैतिक महत्वाकांक्षा छिपी है।

पहले बाबा रामदेव और फिर अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के असफल होने से भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को गहरा आघात लगा है। जनता बदलाव चाहती है, इसलिये यह लड़ाई तो कभी धीमी और कभी तेज चलती रहेगी, पर व्यावहारिक ज्ञान, सही दृष्टि और अनुभव से युक्त नेतृत्व ही इस संघर्ष को सही दिशा दे पायेगा। अन्यथा टीम अन्ना तो अपना रूख साफ कर चुकी है कि वह आगामी चुनावों में काॅग्रेस का विरोध करेगी और जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा। भाजपा टीम अन्ना के सदस्यों को मालायें पहनाकर एवं जिन्दा शहीद घोषित कर अपने मंचों पर ले जायेगी और उनसे अपना चुनावी प्रचार करवा लेगी। पर इससे टीम अन्ना की रही सही साख भी समाप्त हो जायेगी। इसलिये देश के चिन्तनशील और अनुभवी लोगों के जाग्रत होने की जरूरत है। आवश्यकता इस बात की है कि देश के समझदार और संघर्षशील लोग खुले दिल व दिमाग से, इकट्ठा होकर एक मंच पर आयें। उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ इस मुहिम को और आगे ले जाना चाहिये। इससे धीरे-धीरे देश की परिस्थितियाँ सुधरेंगी एवं भ्रष्टाचार के विरूद्ध मुहिम को सही दिशा व गति मिलेगी।
टीम अन्ना केवल लोकपाल बनाने की माँग पर अड़ी रही है। जबकि हकीकत यह है कि दुनिया में कोई भी अपराध कानून बनाने से मात्र 5 फीसदी तक कम होता है। भ्रष्टाचार के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। इसके अलावा अन्य मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक उपाय भी करने पड़ते हैं जिनका कि कोई जिक्र टीम अन्ना ने अपने आंदोलन में नहीं किया। उनका दुराग्रह देश के लोगों को अच्छा नहीं लगा। भविष्य में जन-आंदोलनों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि वे सामाजिक सारोकार के मुद्दों को राजनैतिक जामा न पहनायंे। तभी बात आगे बढेगी वरना देश में फिर हताशा फैल जायेगी।

Sunday, December 18, 2011

विकास के साथ राजनीति

राजस्थान पत्रिका 18 Dec
यूरोप व अमेरीका की मंदी के बाद पूरी दुनिया की निगाहें भारत और चीन पर टिकी हैं। पर अब कहा जा रहा है कि मंदी भारत के दरवाजे पर भी दस्तक दे रही है। खाद्य पदार्थों की कीमत में आई गिरावट और ऑटोमोबाइल बाजार की मांग में गिरावट को इसका संकेत माना जा रहा है। गौरतलब बात यह है कि जब महंगाई बढ़ती है तो विपक्ष और मीडिया इस कदर तूफान मचाता है कि मानो आसमान टूट पड़ा हो। वह यह भूल जाता है कि जहां मुद्रास्फिति डकैत होती हैं वहीं मुद्रविस्फिति हत्यारी होती है। लूटा हुआ आदमी तो फिर से खड़ा हो सकता है पर जिसकी हत्या हो जाए वह क्या करेगा ? इसलिए महंगाई को विकास का द्योतक माना जाता है। इसीलिए पिछले दिनों जब महंगाई बढ़ी और विपक्ष एवं मीडिया ने आसमान सिर पर उठा लिया तो सरकार ने चेतावनी दी थी कि महंगाई कम करने के चक्कर में मंदी आने का डर है।
विपक्ष के पास भी अर्थशास्त्रियों की कमी नहीं है। वह जानता था कि सरकार की बात में दम है पर महंगाई के विरोध में शोर मचाना हर विपक्षी दल की राजनैतिक मजबूरी होती है। मजबूरन सरकार ने कुछ मौद्रिक उपाए किए जैसे बैंकों की ब्याज दर बढ़ाई। ब्याज दर बढ़ने से लोग उधार कम लेते हैं जिससे मांग में कमी आती है और कीमतें गिरने लगती है। सरकार की मौद्रिक नीति के अपेक्षित परिणाम सामने आए,पर यह हमारी अर्थ व्यवस्था के लिए ठीक नहीं रहा।
 पिछले दिनों भारत पूरी दुनिया में अपनी आर्थिक मजबूती का दावा करता रहा है। विदेशी मुद्रा के भण्डार भी भरे हैं। वैश्विक मंदी के पिछले वर्षों के झटकें को भी भारत आराम से झेल गया था। ये बात विदेशी ताकतों को गवारा नहीं होती इसलिए वे भी मीडिया में ऐसी हवा बनाते हैं कि सरकार रक्षात्मक हो जाए। कुल मिलाकर यह मानना चाहिए कि अगर मंदी की आहट जैसी कोई चीज है तो उसके लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने महंगाई पर शोर मचाकर विकास की प्रक्रिया को पटरी से उतारने का काम किया है। उदाहारण के तौर पर खाद्यान्न की महंगाई से किसको परेशान होना चाहिए था ? देश के गरीब आदमी को ? पर इस देश की 68 फीसदी आबादी जो गांव में रहती है, खाद्यान्न की महंगाई से उत्साहित थी क्योंकि उसे पहली बार लगा कि उसकी कड़ी मेहनत और पसीने की कमाई का कुछ वाजिब दाम मिलना शुरू हुआ। क्योंकि यह आबादी खाद्यान्न के मामले में अपने गांवों की व्यवस्था पर निर्भर है। शोर मचा शहरों में। शहरों के भी उस वर्ग से जो किसान और उपभोक्ता के बीच बिचैलिए का काम कर भारी मुनाफाखोरी करता है। उस शोर का आज नतीजा यह है कि आलू और प्याज 1 रूपया किलों भी नहीं बिक रहा है। किसानों को अपनी उपज सड़कों पर फेंकनी पड़ी रही है। भारत मंदी के झटके झेल सकता है, अगर हम आर्थिक नीतियों को राजनैतिक विवाद में घसीटे बिना देश के हित में समझने और समझाने का प्रयास करें तो।
 वैसे भी मंदी तब मानी जाए जब आर्थिक संसाधनों की कमी हो। पर देश का सम्पन्न वर्ग, जिसकी तादाद कम नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर से भी ऊंचा जीवन-यापन कर रहा है। जरूरत है साधन और अवसरों के बटवारें की। उसके दो ही तरीके हैं। एक तो साम्यवादी और दूसरा बाजार की शक्तियों का आगे बढ़ना। इससे पहले कि मंदी का हत्यारा खंजर लेकर भारतीय अर्थ व्यवस्था के सामने आ खड़ा हो, देश के अर्थशास्त्रियों को उन समाधानों पर ध्यान देना चाहिए जिनसे हमारी अर्थ व्यवस्था मजबूत बने। वे एक सामुहिक खुला पत्र जारी कर सभी राजनैतिक दलों से अपील कर सकते हैं कि आर्थिक विकास की कीमत पर राजनीति न की जाए।

Monday, December 12, 2011

अभिव्यक्ति पर बंदिश

Rajasthan Patrika 11Dec
जबसे टेलिकॉम मंत्री कपिल सिबल ने फेस बुक पर सेंसर लगाए जाने की बात की है, तब से इंटरनेट से जुड़े देश के करोड़ों लोगों में उबाल आ गया गया है। श्री सिबल ने इससे पहले इंटरनेट कंपनियों के मालिकों से बात की थी। सरकार ने गुगल, याहू, माइक्रोसाफ्ट व फेस बुक के अधिकारियों से कहा था कि वे अपनी इन साइट्स पर से कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह व मोहम्मद साहब से जुड़ी अपमानजनक, भ्रामक व भड़काऊ सामग्री हटाए। पर इन अधिकारियों का जवाब था कि अगर कोई सामग्री धार्मिक भावनाएं भड़काती हैं या उससे सुरक्षा को खतरा है तो वे उसे हटाने को तैयार हैं पर लोगों की राय और टिप्पणियां हटाना उनके लिए संभव नहीं है। यह बात श्री सिबल को नागवार गुजरी। उन्होंने आनन-फानन में घोषणा कर डाली कि इस मामले में अब सरकार ही पहल करेगी। उनके इस वक्तव्य को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में दखलंदाजी माना जा रहा है। अब यहां कई प्रश्न खड़े होते हैं।

पहली बात तो यह कि दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में अब यह चलन आम हो गया है कि जनता राजनेताओं या मशहूर हस्तियों के संबंध में अपनी राय खुलकर, बेधड़क सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर व्यक्त करतीं हैं। यह तकनीकी का कमाल है कि कोई घटना घटित होते ही दुनिया भर से हजारों-लाखों लोग उस पर अपनी प्रतिक्रिया देने लगते हैं। मसलन, क्रिकेट मैंच हारने वाली टीम को उसके प्रशंसक इतना जलील करते हैं कि बिचारे खिलाड़ी मुंह दिखाने लायक न बचें।

पर सबसे ज्यादा लक्ष्य राजनेताओं को बना कर टिप्पणियां की जाती हैं। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होने के बावजूद राजनेताओं का सम्वाद जनता से लगभग टूट जाता है क्योंकि व्यवहारिक रूप से भी एक राजनेता के लिए यह संभव नहीं होता कि वो हर व्यक्ति से व्यक्तिगत वार्ता कर सके। ऐसे में उसके मतदाता उसके प्रति अपने विचार और आक्रोश सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अब अभिव्यक्त करने लगे हैं। लोकतंत्र के नजरिए से इसे एक अच्छी शुरूआत माना जाना चाहिए क्योंकि लोगों की राय जानने के बाद राजनेता या मंत्री अपना स्पष्टीकरण दे सकते हैं और अगर उनके आचरण में कोई कमी है तो उसे दूर कर सकते हैं। अगर इतना ही हो तो सेंसर की कोई जरूरत नहीं है।

पर पिछले दिनों देखने में आया है कि राजनैतिक दल और सिविल सोसायटी के कुछ समूह बहुत सारे प्रोफेशनल्स को महंगे वेतन देकर इसी काम में लगा रखे हैं जो उनके विरोधियों के मुंह काले करें। कॉल सेंटर की तरह आउटसोर्स किए जाने वाले ये टेलेंट्स तालिबान की तरह आक्रामक होते हैं। इनकी भाषा और अभिव्यक्ति इतनी हमलावर और घातक होती है कि इनका लक्ष्य तिलमिला कर रह जाता है। अक्सर देखने में आ रहा है कि इस तरह से एक अभियान चला कर हमला करने वालों की फौज बिना तथ्यों की तहकिकात किए हमला बोल देते हैं और बिना प्रमाण के आरोपों के बौछार कर देते हैं। बात यहीं तक नहीं रूकी। अपने अभियान में ये समूह इस हद तक आगे चले जाते हैं कि सामने वाले का चरित्र हनन करने या अश्लीलता की हद तक उस पर कीचड़ उछालने में संकोच नहीं करते। चूंकि इन हमलावरों को सीधे पकड़ना संभव नहीं है इसलिए इनके विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं हो पाती। फिर जरूरी नहीं कि हमलावरों की यह टोली उसी देश में बैठी हो जिस देश के नेतृत्व को लक्ष्य बना कर ये हमला कर रहे हों। इंटरनेट की दुनिया में सूचना का आदान-प्रदान सेंकेंड़ों में एक देश से दूसरे देश को हो जाता है। टिप्पणी सही हो या गलत आनन-फानन में आग की तरह पूरी दुनिया में फैल जाती है। फिर प्रतिष्ठा का जो नुकसान होता है उसकी भरपाई करना आसान नहीं है। शायद इस परिस्थिति से निपटने के लिए ही टेलीकॉम मंत्री सिबल ने यह कदम बढ़ाया है।

पर उनके आलोचक उनसे तीखे सवाल पूछ रहे हैं, मसलन, जब इन साइट्स पर अत्यंत अश्लील और समाज के लिए हानिकारक सामग्री प्रचारित होती है तब मंत्री महोदय कहां सोए रहते हैं ? जब भ्रष्टाचार के मामलों में सबूत के बावजूद हर दल के केन्द्रीय और प्रांतीय सरकारें आरोपियों को बचाने में लगी रहती हैं, तब जनता क्या करें ? क्या अपनी भड़ास भी न निकाले। बात यह भी कही जा रही है कि अगर ऐसी भड़ास न निकालने दी गई तो फिर जनता हिन्सक होकर सड़कों पर भी निकल सकती है। इसलिए उन्हें सलाह दी जा रही है कि वे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर शिकंजा कसने की बजाय अपनी सरकार की छवि सुधारने का काम करें। इन आरोपों में दम हैं। पर फिर सवाल उठता है कि क्या यह प्रतिक्रिया वास्तव में उन लोगों की है जो मतदाता हैं, पीड़ित हैं और नाराज हैं ? या फिर उन लोगों की है जो भाड़े के टटू हैं और किसी एक दल या समूह के राजनैतिक लाभ के लिए इस हमले में जुड़े हैं। अगर ऐसा है तो यह प्रवृत्ति ठीक नहीं क्योंकि राजनैतिक हमले की जगह संसद है। छिप कर वार करना ठीक नहीं। इसलिए कि अगर यह प्रवृत्ति बढ़ती गई तो फिर इस आग की लपेट से कोई नहीं बचेगा। हर दल, हर राजनेता और हर जागरूक समूह ऐसे हमलों का शिकार बन सकता है। इससे समाज में भारी अराजकता फैलेगी।

आवश्यकता इस बात की है कि इस मामले पर देशभर में एक बहस छेड़ी जाए जिसके बाद इस खेल के नियम तय हों, इस माध्यम को स्वस्थ्य लोकतांत्रित परम्पराओं के विस्तार के लिए अवश्य इस्तेमाल किया जाए। अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश न लगे पर भाड़े के टटू इसे राजनैतिक हथियार के रूप में प्रयोग न करें। ये पहल भी समाज को करनी होगी सरकार को नहीं।

Monday, December 5, 2011

क्या दक्षिणी चीन में संघर्ष होगा ?


Rajasthan Patrika 4Dec

पिछले दिनों चीन और भारत के बीच हुए वाक युद्ध को गंभीरता से लिया जाए तो इस बात की संभावना बनती है कि निकट भविष्य में भारत और चीन के बीच संघर्ष विकसित हो सकता है। पर इससे पहले कि स्थिति बिगड़े दोनों ही देशों को दक्षिणी चीन सागर की हकीकत को समझना होगा। चीन इस बात से नाराज है कि भारत के तेल व प्राकृतिक गैस आयोग की विदेशी शाखा ओ.वी.एल. वियतनाम के साथ मिलकर इस सागर में तेल की खुदाई का काम तेजी से आगे बढ़ा रही है। पिछले दिनों जब भारत के विदेश मंत्री श्री एस.एम. कृष्णा हनोई गए थे तो वहां उनके और चीन के बीच इस विषय पर जो बयानबाजी हुई उससे चीन सहमत नहीं था। चीन इस क्षेत्र में अपने वर्चस्व को कायम रखना चाहता है और इस बात से खफा है कि वियतनाम, फिलीपिन्स जैसे देश उसकी चेतावनी के बावजूद भारत और अन्य देशों के साथ मिलकर इस सागर में अपनी आर्थिक गतिविधियां बढ़ा रहे हैं। 

चीन यह भूल जाता है कि वह पाकिस्तान के साथ मिलकर पाक अधिकृत कश्मीर में न सिर्फ महंगे सामरिक प्रोजेक्ट खड़े कर रहा है बल्कि उसने अपनी फौजें भी वहां तैनात कर रखी हैं। पाक अधिकृत क्षेत्र उसी तरह विवादास्पद है जिस तरह दक्षिणी चीन सागर। क्योंकि इस समुद्र को लेकर अमरीका भी अपने ‘राष्ट्रीय हित’ का दावा कर चुका है जिसे चीन मानने को तैयार नहीं हैं और वह इसे निर्विवाद रूप से अपना अधिकार क्षेत्र मानता है। यह बात दूसरी है कि सागर में प्राकृतिक तेल निकालने का जो प्रयास आज चर्चा में आया है उसकी शुरूआत तो मई 2006 में हुई थी जब भारत और वियतनाम के बीच इस आशय का समझौता हुआ था। वैसे इस क्षेत्र से तेल निकाले का काम तो 2003 में ही शुरू हो गया था। तो अब चीन इतना शोर क्यों मचा रहा है ? 

Punjab Kesari 5Dec
जबकि यह बात अंतर्राष्ट्रीय कानूनों में मानी गई है कि तट से 200 नाटिकल मील दूर तक का क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण की दृष्टि से उसी देश का माना जाएगा जिसके तट से सागर लगा होगा। पर इसका अर्थ यह नहीं कि ऐसे समुद्र से व्यावसायिक जल पोतों का आवागमन नहीं होगा। बल्कि उनके स्वतंत्रापूर्वक आने-जाने की आम सहमति है। इतना ही नहीं संचार से जुड़े तार बिछाने की भी छूट सब देशों को है। इसलिए चीन का फड़फड़ाना किसी के गले नहीं उतर रहा है। सामरिक परिस्थितियों के विशेषज्ञों का मानना है कि चीन चाहे फड़फड़ाए जितना वह इस सागर को लेकर कोई बड़ा विवाद खड़ा करने नहीं जा रहा है, जिसका कारण बड़ा साफ है। वियतनाम और भारत के साथ चीन का अरबों रूपए का द्विपक्षीय व्यापार है। वियतनाम के साथ तो चीन के आर्थिक संबंधों की एक लंबी कड़ी है। वियतनात उन अतिविशिष्ट देशों में हैं जहां चीन का विनियोग सबसे ज्यादा है। यह बात दूसरी है कि कुछ विशेषज्ञ भारत से चीन के खिलाफ कड़े कदम उठाने की अपेक्षा रखते हैं। वे कहते हैं कि वियतनाम का तो चीन के खिलाफ लड़ने का इतिहास है। छोटा होते हुए भी वियतनाम दबने वाला नहीं हैं। वियतनाम ही क्यों दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों का महासंघ (आसियान) भी चीन की दादागिरी से विचलित है और चाहता है कि भारत आसियान के पक्ष में सामरिक रूप से खड़ा रहे और चीन के इस सागर में बढ़ते साम्राज्यवादी दावों को खारिज करने में उनकी मदद करे। ऐसे में भारत को बहुत सोच-समझ कर कदम उठाने होंगे।

दरअसल भरत इस मामले में शुरू से सजग रहा है। भारत की नौसेना के 2007 के दस्तावेजों में समुद्र संबंधी भारतीय नीति में अरब सागर से दक्षिण चीन सागर तक के बीच भारतीय हितों को रेखांकित किया गया है। 1910 में भारत उन 12 देशों में से था जिन्होंने अमरीका के इस प्रस्ताव का समर्थन किया कि दक्षिणी चीन सागर का मामला द्विपक्षीय मामला न होकर बहुपक्षीय मामला है। जुलाई 2011 में भी भारत की विदेश सचिव निरूपमा राव ने साफ शब्दों में कहा कि भारत का इस सागर में आर्थिक हित है और भारत इसके स्वतंत्र समुद्री मार्ग होने की बात को समर्थन करता है। 

कारण साफ है कि सागर का यह हिस्सा प्रशांत महासागर और हिन्द महासागर के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी है। एशिया प्रशांत देशों के बीच होने वाले भारत के व्यापार का आधे से ज्यादा हिस्सा इसी समुद्री मार्ग से होकर जाता है। इतना ही नहीं जापान और कोरिया जैसे देशों को उनकी ऊर्जा की आवश्यकतापूर्ति के लिए भारत से की जा रही तेल की आपूर्ति भी इसी मार्ग से होकर की जाती है। अगर चीन इस इलाके पर अपनी दादागिरी जमाता है तो भारत का इन देशों से व्यापार बुरी तरह प्रभावित होगा। इसलिए भारत ऐसा कभी नहीं होने देगा। 

भारत के नौसेना प्रमुख एडमिरल निर्मल वर्मा का यह सुझाव प्रशंसनीय है कि भारत और चीन को दक्षिण चीन सागर के संबंध में एक साझी नौसैनिक समिति का गठन कर देना चाहिए जिससे इस क्षेत्र में आए दिन उठने वाले विवादों का यह समिति गंभीरता से विचार कर समाधान निकाल सके। इससे अनावश्यक संघर्ष की स्थिति पैदा नहीं होगी। यह ठीक वैसी ही समिति होगी जैसी भारतीय सेना और पाकिस्तानी सेना ने मिलकर घुसपैठ बनाई है जो युद्धविराम की स्थिति में यथासंभव विवादों का शांतिपूर्ण हल खोजती रहती है। आज पूरी दुनिया, विशेषकर विकसित राष्ट्र आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहे हैं और चीन एवं भारत भी अपनी आर्थिक प्रगति की दर को कायम रखने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे माहौल में नाहक संघर्ष एशिया के इन दोनों ही देशों की उभरती आर्थिक भूमिका को करारा झटका दे सकता है, जिसके लिए शायद दोनों ही देश तैयार नहीं होंगे।

Sunday, November 27, 2011

जन आन्दोलन से उपजती हिंसा

Rajasthan Patrika 27Nov2011
प्रशांत भूषण की दफ्तर में पिटाई हो या केन्द्रीय कृषि मंत्री श्री शरद पवार के गाल पर पड़ा थप्पड़, दोनों खतरे की घण्टी बजा रहे हैं। अगर जनान्दोलन का नेतृत्व करने वाले जनता को भड़काने के बयान देते रहेंगे, तो स्थिति कभी भी बेकाबू हो सकती है। क्योंकि जिस भीड़ पर नियन्त्रण करने की नेतृत्व में क्षमता न हो, उसे इसे हद तक उकसाना नहीं चाहिए कि हालात बेकाबू हो जाऐं। महात्मा गाँधी जैसा राष्ट्रीय नेता, जिनकी एक आवाज पर पूरा देश सड़क पर उतर आता था, उन तक को यह विश्वास नहीं था कि वे जनता को हिंसक होने से रोक पाऐंगे। इसलिए जब आन्दोलनकारियों ने चैरा-चैरी थाने में आग लगाकर पुलिस कर्मियों को जला दिया, तो महात्मा गाँधी ने बड़े दुखी मन से फौरन ‘असहयोग आन्दोलन‘ को वापिस ले लिया। हालांकि उनकी कांग्रेस पार्टी के कुछ हिस्सों में भारी निन्दा हुई, पर गाँधी जी का कहना था कि अभी हमारा देश सत्याग्रह के लिए तैयार नहीं है। यह बात दूसरी है कि दोबारा आन्दोलन खड़ा करने में फिर कई वर्ष लग गए।

जब महात्मा गाँधी जैसी शख्सियत को भीड़ के आचरण पर भरोसा नहीं था, तो टीम अन्ना के सदस्य तो बापू के सामने बहुत छोटे कद के हैं। उनकी बात कौन सुनेगा? आज केन्द्रीय कृषि मंत्री के गाल पर थप्पड़ जड़ा है, कल राजनेताओं के समर्पित कार्यकर्ता या गुण्डे, टीम अन्ना के ऊपर वार कर सकते हैं। या फिर टीम अन्ना के समर्थक उन लोगों पर हमला कर सकते हैं, जो टीम अन्ना के तौर-तरीकों से इत्तेफाक नहीं रखते। इस तरह की हिंसा से प्रतिहिंसा पैदा होगी।

भारत जैसे विविधता के देश में, जहाँ भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक विषमता का भारी विस्तार है, वहाँ छोटी सी बात पर भीड़ का भड़कना और हिंसक हो जाना, या तोड़-फोड़ की गतिविधियों में लिप्त हो जाना, सामान्य बात होती है। ऐसी हालत में तीन परिणाम सामने आ सकते हैं। या तो हुक्मरान एकजुट होकर जनान्दोलन को लाठी और गोली से कुचल देंगे, अगर वे ऐसा न कर पाए और जनता इतनी बेकाबू हो गई कि सत्ता के हथियार भौंथरे सिद्ध होने लगे, तो कोई वजह नहीं है कि भारतीय सेना अपनी बैरकों से बाहर न निकल पड़े। यह कहना कि भारत का लोकतंत्र इतना मजबूत है कि यहाँ कभी सैनिक तानाशाही आ ही नहीं सकती, दिन में सपने देखने जैसा है। यह सही है कि भारतीय सेना, पाकिस्तान की सेना की तरह सत्ता के लिए जीभ नहीं लपलपाती, पर इसका मतलब यह नहीं कि सीमा पर लड़ने वाले अपनी देशभक्ति को गिरबी रख चुके हैं। अगर सेना को लगेगा कि राजनेताओं और जनान्दोलनों के नेताओं के टकराव से समाज में उथल-पुथल और अराजकता हो रही है, तो वह सत्ता की बागडोर संभालने में संकोच नहीं करेगी। हम सभी जानते हैं कि सेना की तानाशाही स्थापित हो जाने के बाद, भ्रष्टाचार का मुद्दा तो दूर, व्यवस्था की आलोचना मात्र करने की भी छूट लोगों को नहीं होती। अभिव्यक्ति की आजादी कुचल दी जाती है। फिर जन्म लेता है अधिनायक वाद, जिसके भ्रष्टाचार की कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है। दुख और चिंता की बात है कि टीम अन्ना के सभी सदस्य, जिनमें अन्ना हजारे भी अपवाद नहीं, बिना इस हकीकत को समझे लोगों की भावनाऐं भड़का रहे हैं। इसलिए उन्हें आगाह करने की आज बहुत जरूरत है।

दरअसल मैंने तो 4 जून, 2011 को ही एक खुला पत्र छापकर दिल्ली में बंटबाया था। जिसमे बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के विरूद्ध माहौल बनाने के लिए बधाई देते हुए कुछ सावधानी बरतने की भी सलाह दी थी। उस पत्र में मैंने और मेरे मित्र समाजकर्मी पुरूषोत्मन मुल्लोली ने लिखा था कि, ‘रामदेव जी आपकी लड़ाई का सबसे बड़ा मुद्दा विदेशों में जमा धन है। आप कहते हैं कि चार सौ लाख करोड़ रूपया विदेशों में जमा है। एक जिम्मेदार और देशभक्त नागरिक होने के नाते आपका यह कर्तव्य बनता है कि ऐसा दावा करने से पहले उसके समर्थन में सभी तथ्यों को जनता के सामने प्रस्तुत करें। अगर आप इन तथ्यों को प्रकाशित नहीं करना चाहते तो कम से कम यह आश्वासन देश को जरूर दें कि इस दावे के समर्थन में आपके पास समस्त प्रमाण उपलब्ध हैं। अन्यथा यह बयान गैर जिम्मेदाराना माना जाएगा और देश की आम जनता के लिए बहुत घातक होगा, जिसे आपने सुनहरा सपना दिखा दिया है।

विदेशों में जमा धन देश में लाकर गरीबी दूर करने का बयान आप दे रहे हैं और सपने दिखा रहे हैं, वैसा तो होने वाला नहीं है। पहली बात यह धन आप नहीं सरकार लायेगी, चाहें वह किसी भी दल की हो और उसे खर्च भी वही सरकार करेगी। तो आप कैसे उस पैसे से गरीबी दूर करने का दावा करते हैं? आप कहते हैं कि विदेशों से यह धन लाकर आप देश में विकास कार्यों की रफ्तार तेज करेंगे। शायद आप जानते ही होंगे कि इस तरह के अंधाधुंध व जनविरोधी विकास कार्यों से ही ज्यादा भ्रष्टाचार पनपता रहा है। फिर आप देश की जमीनी हकीकत को अनदेखा क्यों करना चाहते हैं? रामदेव जी अनेक मुद्दों पर आपके अनेक बयान बिना गहरी समझ के, जाने-अनजाने भावनाऐं भड़का रहे हैं। इससे आम जनता में भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। कृपया इससे बचें।

अन्ना हजारे जी और रामदेव जी, हम आप दोनों को एक साथ मानते हैं और इसलिए आपको यह याद दिलाना चाहते हैं कि आतंकवादी ताकतें, माओवादी ताकतें और साम्प्रदायिक ताकतें विदेशी ताकतों के हाथ में खेलकर इस देश में ‘सिविल वाॅर’ की जमीन तैयार कर चुकी हैं। जरा सी अराजकता से चिंगारी भड़क सकती है। इन ताकतों से जुड़े कुछ लोग आपके खेमों में भी घुस रहे हैं। इसलिए आपको भारी सावधानी बरतनी होगी। कहीं ऐसा न हो कि आपकी असफलता जनता में हताशा और आक्रोश को भड़का दे और उसका फायदा ये देशद्रोही ताकतें उठा लें। इन परिणामों को ध्यान में रखकर ही अपनी रणनीति बनायें तो देश और समाज के लिए अच्छा रहेगा। यह हमारा पहला खुला पत्र है। आने वाले दिनों में हम आपसे यह संवाद जारी रखेंगे। कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनमें बिना सोचे-समझे बयानबाजी करके आप दोनों गुटों ने देश के सामने विषम परिस्थितियाँ पैदा कर दी हैं। जिनके खतरनाक परिणाम सामने आने वाले हैं।’

Sunday, November 20, 2011

भारत में अभी काफी दम है


जहाँ एक तरफ धनी देश एक के बाद एक, आर्थिक संकट में फंसते जा रहे हैं, वहीं राहत की बात यह है कि एशिया की विकासशील अर्थव्यवस्थाऐं और यूरोप के पड़ौसी देशों में आर्थिक प्रगति की दर काफी उत्साहजनक रही है। टर्की का सकल घरेलू उत्पाद 2010 में नौ फीसदी सालाना रहा। जो कि चीन की विकास दर के करीब था। इसी तरह 27 देशों के यूरोपीय संघ में से पौलेंड की आर्थिक प्रगति भी ठीक रही। पर जिस तरह का आर्थिक संकट यूनान व इटली में सामने आया, उससे यूरोपीय संघ के नेतृत्व के नीचे से जमीन सरक गई है। भारी घाटे की वित्तीय व्यवस्था से चलती यूरोप के कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं ने बैंकों का विश्वास डिगा दिया है। इन अर्थव्यवस्थाओं को उबारने के लिए जिस तरह के राहत पैकेज पेश किए गए, वे नाकाफी रहे हैं। यूरोपीय बैंकों पर दबाब है कि वे बाहर के देशों में ऋण न देकर, यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था को उबारने में मदद करें। यहाँ तक कि जर्मनी के दूसरे सबसे बड़े बैंक ‘कॉमर्स बैंक’ ने कहा है कि वह अपने देश के बाहर कोई ऋण नहीं देगा। अगर बैंक यह नीति अपनाते हैं, तो पहले से खाई में सरकती यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाऐं और भी गहरे संकट में फंस जाएंगी। 

यूरोपीय देशों के इस पतन का कारण वहाँ का, अब तक का, आर्थिक मॉडल और जीवनशैली रही है। इन देशों ने पहले तो पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद का सहारा लेकर, उपनिवेशों का शोषण किया और उनके आर्थिक संसाधनों का दोहन किया तथा अपनी अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत बनाया। उपनिवेशवाद के बाद इन्होंने तकनीकि की श्रेष्ठता के आधार पर, दुनिया के व्यापार में अपना फायदा कमाया। 

पर जबसे एशियाई देशों की आर्थिक प्रगति ने जोर पकड़ा है, तबसे उत्पादक और उपभोक्ता, दोनों ही इन देशों  में पनपे हैं। जिससे यूरोप की श्रेष्ठता बेमानी हो गई है। अब न तो यूरोप का तकनीकि ज्ञान चाहिए और न ही उनके बाजार से कोई ज्यादा उम्मीद है। इसलिए यूरोप के देश विश्व अर्थव्यवस्था में अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। एक तरफ यह आर्थिक मार और दूसरी तरफ यूरोप वासियों का वैभवपूर्ण जीवन जीने का पुराना रवैया, दोनों में विरोधाभास है। ‘आमदनी अठन्नी और खर्चा रूपया’, इसलिए वहाँ बज रहा है हर घर का बाजा। जनता में भारी हताशा और असुरक्षा घर कर गई है। मौज-मस्ती और सैर-सपाटों में लगे रहने वाले यूरोपवासी अब आए दिन सड़कों पर धरने, प्रदर्शन और घेराव कर रहे हैं। इस सबके बावजूद यूरोप के राजनेताओं और नौकरशाहों ने अपना विलासितापूर्ण खर्चीला व्यवहार पूरी तरह बदला नहीं है। हालांकि उसमें पहले के मुकाबले काफी गिरावट आयी है। फिर भी यूरोपीय देशों में सबसे ताकतवर अर्थव्यवस्था वाले जर्मनी की चांसलर को यह कहना पड़ा कि इन देशों की सरकारों को आर्थिक अनुशासन के मामले में कड़ाई बरतनी पड़ेगी। 

दूसरी तरफ भारत की आर्थिक प्रगति ने दुनियाभर अपने झण्डे गाढ़े हैं। जो बात पश्चिम को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रही है, वह है भारत का लोकतंत्र के साथ उदारीकरण को अपनाना। जबकि चीन की आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही है। भारतीय मॉडल की अपनी सीमाऐं हैं और अपने खतरे भी हैं। मसलन भारी भ्रष्टाचार, आधारभूत ढांचे की बेहद कमी और व्यापक गरीबी। जो कभी भी इस प्रक्रिया को पटरी से उतार सकती है। जहाँ तक भ्रष्टाचार की बात है, दूरसंचार साधनों की प्रगति ने, जनता में भ्रष्टाचार के प्रति जागृति पैदा की है। जो धीरे-धीरे जनान्दोलनों का स्वरूप लेती जा रही है। आधारभूत ढांचे की कमी से निपटने के लिए भारत के उद्योगपति अपनी ही व्यवस्थाऐं खड़ी कर लेते हैं। गरीबी से निपटना बहुत बड़ी चुनौती है और जब तक आर्थिक विकास के साथ आर्थिक बंटवारा भी समानान्तर रूप से साथ नहीं चलेगा, तब तक अनिश्चितता बनी रहेगी। 

इस सबके बावजूद भारतीय औद्योगिक घरानों ने जिस तरह दुनियाभर में अपने पंख फैलाए हैं, उससे पश्चिमी देश सकते में आ गए हैं। टाटा का रॉल्स रॉयस व जगुआर जैसी कम्पनियाँ खरीदना, लक्ष्मी मित्तल का स्टील साम्राज्य, इन्फोसिस का आई.टी. उद्योग में छा जाना, महेन्द्रा और हिन्दुजा जैसे घरानों का दुनियाभर में कारोबार फैलाना, कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि भारत का उद्यमी अब दुनिया में कहीं भी बड़े-बड़े विनियोग करने में सक्षम है। इतने महंगे दामों पर भारतीयों द्वारा विदेशी कम्पनियों को खरीदा गया है कि दुनिया के पैसे वाले और बड़े-बड़े बैंक हैरान रह गए हैं। 

भारत के उद्योगपतियों में तीन तरह की नेतृत्व क्षमता देखी गई है। एक तो वे समूह हैं, जिनके नेतृत्व ने जोखिम उठाना ठीक नहीं समझा और परिवार के नियन्त्रण में अपने पारंपरिक साम्राज्य को नियन्त्रित रखा। नए विकल्पों पर ध्यान नहीं दिया। ऐसे औद्योगिक घराने इस दौर में पीछे छूट गए। दूसरे वे हैं, जिन्होंने हवा के रूख को पहचाना और अपने साम्राज्य का विस्तार अनेक दिशाओं में किया, जैसे टाटा, महिन्द्रा आदि। तीसरे वे हैं, जो पिछले बीस सालों में अपने बलबूते पर उठे और दुनिया के नक्शे पर छा गए। जैसे इन्फोसिस, रिलायंस, अडानी, मित्तल आदि। इनमें भी दो तरह के समूह रहे हैं। एक वे, जिन्होंने व्यक्तिग योग्यता और सामूहिक प्रबन्धन को महत्व दिया और सही मायने में कॉरपोरेट संस्कृति को विकसित किया। दूसरे वे हैं, जिन्होंने इस देश की राजनैतिक व्यवस्था की कमजोर नब्ज पर अपनी उंगलियाँ रखीं और इस राजनैतिक व्यवस्था का पूरा इस्तेमाल अपनी प्रगति के लिए किया तथा आशातीत सफलता प्राप्त की। इस बात की परवाह किए बिना कि उनके तौर-तरीकों को लेकर देश में कई सवाल खड़े होते रहे हैं। 

कुल मिलाकर भारतीय उद्यमियों ने दुनिया को दिखा दिया कि उद्योग और व्यापार के मामले में हिन्दुस्तानी किसी से कम नहीं। अब तो दुनिया भी मानने लगी है कि भारत जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था और जिसे सैंकड़ों साल लूटा गया, वह एक बार फिर सोने की चिड़िया बनने की कगार पर है। भारत की इस नई बनती पहचान से हमें गर्व होना अस्वाभाविक बात नहीं। पर साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि इसी भारत माँ के 60 करोड़ बच्चे अभी भी बदहाली की जिन्दगी जी रहे हैं। अगर इनकी आर्थिक प्रगति साथ-साथ नहीं हुई, तो इनका संगठित आक्रोश भारत के जमे जमाए उद्योग को उसी तरह उखाड़ सकता है, जैसे बंगाल के आम लोगों ने नैनो कार के प्लांट को बनने से पहले ही उठाकर बाहर फैंक दिया। 

इसलिए हमें दोनों पैरों पर चलना है, एक पैर से औद्योगिक विकास व दूसरे पैर से कृषि तथा कुटीर उद्योग से आम लोगों की आर्थिक प्रगति। इसके साथ ही भ्रष्टाचार से मुक्ति और सरकारी फिजूलखर्ची पर कड़ा अनुशासन। अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो निश्चय ही भारत अगले 10-15 वर्षों में, दुनिया की सबसे सशक्त अर्थव्यवस्था बन सकता है।