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Monday, April 17, 2017

वैदिक मार्गदर्शन से बचेंगे जल प्रलय से

सूर्य नारायण अपने पूरे तेवर दिखा रहे हैं। ये तो आगाज है 10 साल पहले ही जलवायु परिवर्तन के विशेषज्ञों द्वारा चेतावनी दे दी गई थी कि 2035 तक पूरी धरती के जलमग्न हो जायेगी। ये चेतावनी देने वाले दो वैज्ञानिकों को, राजेन्द्र पचैरी व भूतपूर्व अमेरिकन उप. राष्ट्रपति अलगौर को ग्लोबल पुरस्कार से नवाजा गया था। इस विषय पर एक डाक्यूमेंट्री ‘द इन्कवीनियेंट टू्रथ’ को भी जनता के लिए जारी किया गया था। विश्व के 3000 भूगर्भशास्त्रियों ने एक स्वर में ये कहा कि अगर जीवाष्म ईंधन यानि कोयला, डीजल, पेट्रोल का उपभोग कम नहीं किया गया, तो वायुमंडल में कार्बनडाई आक्साइड व ग्रीन हाऊस गैस की वायुमंडल में इतनी मोटी धुंध हो जायेगी कि सूर्य की किरणें उसमें में से प्रवेश करके धरती की सतह पर जमा हो जायेंगी और बाहर नहीं निकल पायेंगी। जिससे धरती का तापमान 2 डिग्री से बढ़कर 15-17 डिग्री तक जा पहुंचेगा। जिसके फलस्वरूप उत्तरी, दक्षिणी ध्रुव और हिमालय की ग्लेशियर की बर्फ पिघलकर समुद्र में जाकर जल स्तर बढ़ा देगी। जिससे विश्व के सारे द्वीप- इंडोनेशिया, जापान, फिलीपींस, फिजी आईलैंड, कैरिबियन आईलैंड आदि जलमग्न हो जायेंगे और समुद्र का पानी ठांठे मारता समुद्र के किनारे बसे हुए शहरों को जलमग्न करके, धरती के भू-भाग तक विनाशलीला करता हुआ आ पहुंचेगा। उदाहरण के तौर पर भारतीय संदर्भ में देखा जाए, तो बंगाल की खाड़ी का पानी विशाखापट्टनम, चेन्नई, कोलकाता जैसे शहरों को डुबोता हुआ दिल्ली तक आ पहुंचेगा।


ठससे घबराकर पूरे विश्व ने ‘सस्टेनेबल ग्रोथ’ नारा देना शुरू किया। मतलब कि हमें ऐसा विकास नहीं चाहिए, जिससे कि लेने के देने पड़ जाए। पर अब हालात ऐसे हो गये हैं कि चूहों की मीटिंग में बिल्ली के गलें में घंटी बांधने की युक्ति तो सब चूहों ने सुझा दी। लेकिन बिल्ली के गले में घंटी बांधने के लिए कोई चूहा साहस करके आगे नहीं बढ़ा। अमेरिका जैसा विकसित ‘देश कोयले, पैट्रोल और डीजल का उपभोग कम करने के लिए तैयार नहीं हो सका। उसने सरेआम  ‘क्योटो प्रोटोकोल’ की धज्जियां उड़ा दी। दुनिया की हालत ये हो गई है कि ‘एक तरफ कुंआ, दूसरी तरफ खाई, दोनों ओर मुसीबत आई’। ऐसे मुसीबत के वक्त भारतीय वैदिक वैज्ञानिक सूर्य प्रकाश कपूर ने भूगर्भ वैज्ञानिकों से प्रश्न पूछा कि धरती का तापमान 15 डिग्री सें किस स्रोत से है? तो वैज्ञानिकों ने जबाव दिया कि 15 डिग्री से तापमान का अकेला स्रोत सूर्य की धूप है। तो अथर्ववेद के ब्रह्मचारी सूक्त के मंत्र संख्या 10 और 11 में ब्रह्मा जी ने स्पष्ट लिखा है कि धरती के तापमान के दो स्रोत है- एक ’जीओेथर्मल एनर्जी’ भूतापीय उर्जा और दूसरा सूर्य की धूप। याद रहे कि विश्व में 550 सक्रिय ज्वालामुखियों के मुंह से निकलने वाला 1200 डिग्री सें0 तापमान का लावा और धरती पर फैले हुए 1 लाख से ज्यादा गर्म पानी के चश्मों के मुंह से निकलता हुआ गर्म पानी, भाप और पूरी सूखी धरती से निकलने वाली ‘ग्लोबल हीट फ्लो’ ही धरती के 15 डिग्री सें तापमान में अपना महत्वपूर्णं योगदान देती हैं। कुल मिलाकर सूर्य की धूप के योगदान से थोड़ा सा ज्यादा योगदान, इस भूतापीय उर्जा का भी है। यूं माना जाए कि 8 डिग्री तापमान भूतापीय उर्जा और 7 डिग्री सें तापमान का योगदान सूर्य की धूप का है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली के किसी मैदान में एक वर्ग मि. जगह के अंदर से 85 मिलीवाट ग्लोबल हीट फ्लो निकलकर आकाश में जाती है, जो कि धरती के वायुमंडल को गर्म करने में सहयोग देती है। इस तरह विश्व की एक महत्वपूर्णं बुनियादी मान्यता को वेद के मार्ग दर्शन से गलत सिद्ध किया जा सका।

इस सबका एक समाधान है कि सभी सक्रिय ज्वालामुखियों के मुख के ऊपर ‘जीओथर्मल पावर प्लांट’ लगाकर 1200 डिग्री तापमान की गर्मी को बिजली में परिवर्तित कर दिया जाए और उसका योगदान वायुमंडल को गर्म करने से रोकने में किया जाए। इसी प्रकार गर्म पानी के चश्मों के मुंह पर भी ‘जीओथर्मल पावर प्लांट’ लगाकर भूतापीय उर्जा को बिजली में परिवर्तित कर दिया जाए। इसके अलावा सभी समुद्री तटों पर और द्वीपों पर पवन चक्कियां लगाकर वायुमंडल की गर्मी को बिजली में परिवर्तित कर दिया जाए, तो इससे ग्लोबल कूलिंग हो जायेगी और धरती जलप्रलय से बच जायेगी।
भारत के हुक्मरानों के लिए यह प्रश्न विचारणीय होना चाहिए कि जब हमारे वेदों में प्रकृति के गहनतम रहस्यों के समाधान निहित हैं, तो हम टैक्नोलोजी के चक्कर में सारी दुनिया में कटोरा लेकर क्यों घूमते रहते हैं? पर्यावरण हो, कृषि हो, जल संसाधन हो, स्वास्थ हो, शिक्षा हो या रोजगार का सवाल हो, जब तक हम अपने गरिमामय अतीत को महत्व नहीं देंगे, तब तक किसी भी समस्या का हल निकलने वाला नहीं है।

Monday, October 6, 2014

सफाई की समस्या का व्यावहारिक समाधान ढूंढना होगा

देश में नई सरकार की प्राथमिकताएं दिखनी शुरू हो गयी हैं | पिछले हफ्ते स्वच्छता की बात उठी | जितनी तीव्रता से इस विचार को सामने लाया गया उससे नई सरकार के योजनाकार भी भोचक हैं | खास तौर पर इस बात पर कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सफाई के काम को छोटा सा काम बताया | जबकि अबतक का अनुभव बताता है की सफाई का काम उन बड़े बड़े कामों से कम खर्चीला नहीं है जिनके लिए हम हमेशा पैसा कि कमी का रोना रोते रहे हैं|

देश के 50 बड़े शहरों में साफ़ सफाई के लिए क्या कुछ करने कोशिश नहीं की गई ? 600 से ज्यादा जिला मुख्यालयों में जिला प्रशासन और स्थानीय प्रशासन अगर वाकई किसी मुद्दे पर आँखे चुराते हुए दिखता है तो वह साफ सफाई ही है | और उधर 7 लाख गावों को इस अभियान से जुड़ने के लिए हम न जाने कितने साल से लगे हैं | यानी कोई कहे कि इतने छोटे से काम पर पहले किसी का ध्यान नहीं गया तो यह बात ठीक नहीं होगी | महत्वपूर्ण बात यह होगी कि इस सर्वभौमिक समस्या के समाधान के लिए व्यवहारिक उपाय ढूंढने के काम पर लगा जाय |

गांधी जयन्ती पर नई सरकार के तमाम मंत्री किस तरह खुद झाड़ू लेकर सड़कों पर सफाई करते दिखे उससे लगता है कि इस समस्या को कर्तव्यबोध बता कर निपटाने की बात सोची गयी है | यानी हम मान रहे हैं कि नागरिक जबतक अपने आसपास का खुद ख़याल नहीं रखेंगे तबतक कुछ नहीं होगा | इस खुद ख्याल रखने की बात पर गौर ज़रूरी है |

शोधपरख तथ्य तो उपलब्ध नहीं है लेकिन सर्वभौमिक अनुभव है कि देश के मोहल्लों / गलियों में इस बात पर झगड़े होते हैं कि ‘मेरे घर के पास कूडा क्यों फेंका’ यानी समस्या यह है कि घर का कूड़ा कचरा इकठा करके कहाँ ‘फेंका’ जाय ?

निर्मला कल्याण समिति जैसी कुछ स्वयमसेवी संस्थाओं के पर्यीवेक्षण है कि उपनगरीय इलाकों में घर का कूड़ा फेकने के लिए लोगों को आधा किलोमीटर दूर तक जाना पड़ रहा है | ज़ाहिर है कि देश के 300 कस्बों में लोगों की तलाश बसावट के बाहर कूड़ा फेंकने की है | खास तौर पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का अनुभव यह है कि हमारे बेशकीमती जलसंसाधन मसलन तालाब, कुण्ड और कुँए – कूड़ा कचरा फेंकने के खड्ड बन गए हैं | इन नए घूरों और खड्डों की भी अपनी सीमा थी पर अब हर जगह ये घूरे और कूड़े से पट गए हैं| आने वाले समय में नई चुनौती यह खड़ी होने वाली है कि शहरों और कस्बों से निकले कूड़े-कचरे के पहाड़ हम कहाँ-कहाँ बनाए ? उसके लिए ज़मीने कहाँ ढूंढें ?

गाँव भले ही अपनी कमज़ोर माली हालत के कारण कूड़े कचरे की मात्रा से परेशान न हों लेकिन जनसँख्या के बढते दबाव के चलते वहां बसावट का धनत्व बढ़ गया है | गावों में तरल कचरा पहले कच्ची नालियों के ज़रिये भूमिगत जल में मिल जाता था | अब यह समस्या है कि गावों से निकली नालियों का पानी कहाँ जाए | इसके लिए भी गावों की सबसे बड़ी धरोहर पुराने तालाब या कुण्ड गन्दी नालियों के कचरे से पट चले हैं |

यह कहने की तो ज़रूरत है ही नहीं कि बड़े शहरों और कस्बों के गंदे नाले यमुना जैसी देश की प्रमुख नदियों में गिराए जा रहे हैं | चाहे विभिन्न प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हों और चाहे पर्यावरण पर काम करने वाली स्वयमसेवी संस्थाएँ – और चाहे कितनी भी चिंतित सरकारें – ये सब गंभीर मुद्रा में ‘चिंता’ करते हुए तो दिखते हैं लेकिन सफाई जैसी बहुत छोटी ? या बहुत बड़ी ? समस्या पर ‘चिंताशील’ कोई नहीं दिखता | अगर ऐसा होता तो ठोस कचरा प्रबंधन, औद्योगिक कचरे के प्रबंधन, नदियों के प्रदूषण स्वच्छता और स्वास्थ के सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी हमें बड़े अकादमिक आयोजन ज़रूर दिखाई देते हैं | विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दिवसों और राष्ट्रीय दिवसों पर सरकारी पैसे से कुछ सेमीनार और शोध सम्मलेन होते ज़रूर हैं लेकिन उनमें समस्याओं के विभिन्न पक्षों की गिनती से ज्यादा कुछ नहीं हो पाता | ऐसे आयोजनों में आमंत्रित करने के लिए विशेषज्ञों का चयन करते समय लालच यह रहता है कि सम्बंधित विशेषज्ञ संसाधनों का प्रबंध करने में भी थोड़ा बहुत सक्षम हो | और होता यह है कि ऐसे समर्थ विशेषज्ञ पहले से चलती हुई यानी चालु योजना या परियोजना के आगे सोच ही नहीं पाते | जबकि जटिल समस्याओं के लिए हमें नवोन्मेषी मिज़ाज के लोगों की ज़रूरत पड़ती है | विज्ञान और प्रोद्योगिकी संस्थानों, प्रबंधन प्रोद्योगिकी संस्थानों और चिंताशील स्वयंसेवी संस्थाओं के समन्वित प्रयासों से, अपने अपने प्रभुत्व के आग्रह को छोड़ कर, एक दुसरे से मदद लेकर ही स्वच्छता जैसी बड़ी समस्या का समाधान खोजा जा पायेगा |