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Monday, September 25, 2023

महिलाओं को पचास फ़ीसदी आरक्षण मिले


तैंतीस फ़ीसदी ही क्यों, पचास फ़ीसदी आरक्षण महिलाओं के लिए होना चाहिए। इस पचास फ़ीसदी में से दलित और वंचित समाज की महिलाओं का कोटा भी आरक्षित होना चाहिए। आज़ादी के 75 वर्ष बाद देश की आधी आबादी को विधायिका में एक तिहाई आरक्षण का क़ानून पास करके पक्ष और विपक्ष भले ही अपनी पीठ थपथपा लें पर ये कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं है। जब महिलाएँ देश की आधी आबादी हैं तो उन्हें उनके अनुपात से भी कम आरक्षण देने का औचित्य क्या है? 


क्या महिलाएँ परिवार, समाज और देश के हित में सोचने, समझने, निर्णय लेने और कार्य करने में पुरुषों से कम सक्षम हैं? देखा जाए तो वे पुरुषों से ज़्यादा सक्षम हैं और हर कार्य क्षेत्र में नित्य अपनी सफलता के झंडे गाढ़ रहीं हैं। यहाँ तक कि भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमान की पायलट तक महिलाएँ बन चुकी हैं। दुनिया की अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सीईओ तक भारतीय महिलाएँ हैं। अनेक देशों में राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री पदों पर महिलाएँ चुनी जा चुकी हैं और सफलता पूर्वक कार्य करती रहीं हैं। अगर ज़मीनी स्तर पर देखा जाए तो उस मजदूरिन का ध्यान कीजिए जो नौ महीने तक गर्भ में बालक को रखे हुए भवन निर्माण के काम में कठिन मज़दूरी करती हैं और उसके बाद सुबह-शाम अपने परिवार के भरण पोषण का ज़िम्मा भी उठाती हैं। अक्सर इतना ही काम करने वाले पुरुष मज़दूर मज़दूरी करने के बाद या तो पलंग तोड़ते हैं या दारू पी कर घर में तांडव करते हैं।



हमारे देश की राष्ट्रपति, जिस जनजातीय समाज से आती हैं वहाँ की महिलाएँ घर और खेती के दूसरे सब काम करने के अलावा ईंधन के लिए लकड़ी बीन कर भी लाती हैं। जब हर कार्य क्षेत्र में महिलाएँ पुरुषों से आगे हैं तो उन्हें आबादी में उनके अनुपात के मुताबिक़ प्रतिनिधित्व देने में हमारे पुरुष प्रधान समाज को इतना संकोच क्यों है ? जो अधिकार उन्हें दिये जाने की घोषणा संसद के विशेष अधिवेशन में दी गई वो भी अभी 5-6 वर्षों तक लागू नहीं होगी। तो उन्हें मिला ही क्या कोरे आश्वासन के सिवाय। 


इस संदर्भ में कुछ अन्य ख़ास बातों पर भी ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है। आज के दौर में ग्राम प्रधान व नगर पालिकाओं के अध्यक्ष पद के लिए व महानगरों के मेयर पद के लिये जो सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं उनका क्या हश्र हो रहा है, ये भी देखने व समझने की बात है। देश के हिन्दी भाषी प्रांतों में एक नया नाम प्रचलित हुआ है, ‘प्रधान पति’। मतलब यह कि महिलाओं के लिए आरक्षित इन सीटों पर चुनाव जितवाने के बाद उनके पति ही उनके दायित्वों का निर्वाह करते हैं। ऐसी सब महिलाएँ प्रायः अपने पति की ‘रबड़ स्टाम्प’ बन कर रह जाती हैं। अतः आवश्यक है कि हर शहर के एक स्कूल और एक कॉलेज में नेतृत्व प्रशिक्षण का कोर्स चलाया जाए। जिनमें दाख़िला लेने वाली महिलाओं को इन भूमिकाओं के लिए प्रशिक्षित किया जाए, जिससे भविष्य में उन्हें अपने पतियों पर निर्भर न रहना पड़े। 



इसके साथ ही मुख्यमंत्री कार्यालयों से ये निर्देश भी जारी हों कि ऐसी सभी चुनी गई महिलाओं के पति या परिवार का कोई अन्य पुरुष सदस्य अगर उनका प्रतिनिधत्व करते हुए पाए जाएँगे तो इसे दंडनीय अपराध माना जाएगा। उस क्षेत्र का कोई भी जागरूक नागरिक उसकी इस हरकत की शिकायत कर सकेगा। आज तो होता यह है कि ज़िला स्तर की बैठक हो या प्रदेश स्तर की या चुनी हुई इन प्रतिनिधियों के प्रशिक्षण का शिविर हो, हर जगह पत्नी के बॉडीगार्ड बन कर पति मौजूद रहते हैं। यहाँ तक की चुनाव के दौरान और जीतने के बाद भी इन महिला प्रतिनिधियों के होर्डिंगों पर इनके चित्र के साथ इनके पति का चित्र भी प्रमुखता से प्रचारित किया जाता है। इस पर भी चुनाव आयोग को प्रतिबंध लगाना चाहिए। कोई भी होर्डिंग ऐसा न लगे जिसमें ‘प्रधान पति’ का नाम या चित्र हो। 


हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे समाज में चली आ रही इन रूढ़िवादी बातों पर हमेशा से ज़ोर दिया गया है कि घर की महिला जब भी घर की चौखट से पाँव बाहर रखेगी तो उसके साथ घर का कोई न कोई पुरुष अवश्य होगा। इन्हीं रूढ़िवादी सोचों के चलते महिलाओं को घर की चार दिवारी में ही सिमट कर रहना पड़ा। परंतु जैसे सोच बदलने लगी तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिये जाने में किसी को कोई गुरेज़ नहीं। आज महिलाएँ पुरुषों के साथ हर क्षेत्र में कंधे से कंधा मिला कर चल रहीं हैं। इसलिए महिलाओं को पुरुषों से कम नहीं समझना चाहिए। इस विधेयक को लाकर सरकार ने अच्छी  पहल की है किंतु इसके बावजूद महिलाओं को आरक्षण का लाभ मिलने में वर्षों की देरी के कारण ही विपक्ष आज सरकार को घेर रहा है। 



वैसे हम इस भ्रम में भी न रहें कि सभी महिलाएँ पाक-साफ़ या दूध की धुली होती हैं और बुराई केवल पुरुषों में होती है। पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग प्रांतों में निचले अधिकारियों से लेकर आईएएस और आईपीएस स्तर तक की भी महिला अधिकारी बड़े-बड़े घोटालों में लिप्त पाई गई हैं। इसलिए ये मान लेना कि महिला आरक्षण देने के बाद सब कुछ रातों रात सुधर जाएगा, हमारी नासमझी होगी। जैसी बुराई पुरुष समाज में है वैसी बुराइयों महिला समाज में भी हैं। क्योंकि समाज का कोई एक अंग दूसरे अंग से अछूता नहीं रह सकता। पर कुछ अपवादों के आधार पर ये फ़ैसला करना कि महिलाएँ अपने प्रशासनिक दायित्वों को निभाने में सक्षम नहीं हैं इसलिए फ़िलहाल उन्हें एक-तिहाई सीटों पर ही आरक्षण दिया जा रहा है ठीक नहीं है। ये सूचना कि भविष्य में उन्हें इनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण दे दिया जाएगा सपने दिखाने जैसा है। अगर हमारी सोच नहीं बदली और मौजूदा ढर्रे पर ही महिलाओं के नाम पर ये ख़ानापूर्ति होती रही तो कभी कुछ नहीं बदलेगा।
    

Monday, September 18, 2023

सवालों के घेरे में टीवी चैनल


जब से इंडिया गठबंधन ने 14 मशहूर टीवी एंकरों के बॉयकॉट की घोषणा की है तब से पूरे मीडिया जगत में एक भूचाल सा आ गया है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और ऐसा देश में पहली बार हुआ है। इन टीवी चैनलों के समर्थक और केंद्र सरकार विपक्ष के इस कदम को अलोकतांत्रिक बता रही है। उनका आरोप है कि विपक्ष सवालों से बच कर भाग रहा है। जबकि विपक्ष का कहना है कि भाजपा ने लंबे अरसे से एनडीटीवी चैनल का बहिष्कार किया हुआ था। जब तक कि उसे अडानी समूह ने ख़रीद नहीं लिया। इसके अलावा तमिलनाडु के अनेक ऐसे टीवी चैनल जो वहाँ के किसी राजनीतिक दल से नियंत्रित नहीं हैं और उनकी छवि भी दर्शकों में अच्छी है, उन सबका भी भाजपा ने बहिष्कार किया हुआ है। 


सवाल उठता है कि इस तरह सार्वजनिक बहिष्कार करके विवाद खड़ा करने के बजाए अगर विपक्षी दल एक मूक सहमति बना कर इन एंकरों का बहिष्कार करते तो भी उनका उद्देश्य पूरा हो जाता और विवाद भी खड़ा नहीं होता। पर शायद विपक्ष ने यह विवाद खड़ा ही इसलिए किया है कि वो देश के ज़्यादातर टीवी चैनलों की पक्षपातपूर्ण नीति को एक राजनैतिक मुद्दा बना कर जनता के बीच ले जाएँ। जिसमें वो सफल हुए हैं। 



इस विवाद का परिणाम यह हुआ है कि ‘गोदी मीडिया’ कहे जाने वाले इन टीवी चैनलों के समर्पित दर्शकों के बीच इन एंकरों की लोकप्रियता और बढ़ी है। जिससे इन्हें टीआरपी खोने का कोई जोखिम नहीं है। जहां तक बात उन दर्शकों की है जो वर्तमान सत्ता को नापसंद करते हैं, तो वो पहले से ही इन एंकरों के शो नहीं देखते थे, इसलिए उन पर इस विवाद का कोई नया असर नहीं पड़ेगा। पर इन टीवी चैनलों के मालिकों के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। अगर वे अपने इन टीवी एंकरों के साथ खड़े नहीं रहते या इन्हें बर्खास्त कर देते हैं तो इसका ग़लत संदेश उनसे जुड़े सभी मीडिया कर्मियों के बीच जाएगा, क्योंकि ये टीवी एंकर इस तरह के इकतरफ़ा तेवर अपनी मर्ज़ी से तो नहीं अपना रहे। ज़ाहिरन इसमें उनके मालिकों की सहमति है। 


इस पूरे विवाद में मैंने एक लंबा ट्वीट (जिसे अब एक्स कहते हैं) लिखा, जिसे 24 घंटे में 35 हज़ार से ज़्यादा लोग देख चुके थे। इसमें मैंने लिखा, कि ये सब जो हो रहा है ये बहुत दुखद है। चूँकि मैं स्वयं एक पत्रकार हूँ इसलिए मुझे इस बात से बहुत कोफ़्त होती है कि आजकल सार्वजनिक विमर्श में प्रायः पत्रकारों की विश्वसनीयता पर बहुत अपमानजनक टिप्पणियाँ की जाती हैं। उसका कारण हमारे पेशे की विश्वसनीयता में आई भारी गिरावट है। सोचने वाली बात यह है कि आज से 30 वर्ष पहले जब मैंने भारत की राजनीति का सबसे ज़्यादा चर्चित और बड़ा ‘जैन हवाला कांड’ उजागर किया था, जिसमें कई प्रमुख राजनैतिक दलों के बड़े-बड़े राजनेता और बड़े अफ़सर प्रभावित हुए थे, तब भारी राजनीतिक क्षति पहुँचने के बावजूद उन राजनेताओं ने मुझ से अपने संबंध नहीं बिगाड़े। उनका कहना था कि तुमने किसी एक राजनैतिक दल का हित साधने के लिए या किसी राजनैतिक व आर्थिक लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से हम पर हमला नहीं बोला था। बल्कि तुमने तो निष्पक्षता और निडरता से पत्रकारिता के मानदंडों के अनुरूप अपना काम किया इसलिए हमें तुमसे कोई शिकायत नहीं है। उन सभी से आजतक मेरे सौहार्दपूर्ण संबंध हैं।



इस देश में खोजी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत मैंने 1986 में दूरदर्शन (तब निजी टीवी चैनल नहीं होते थे) पर ‘सच की परछाईं’ कार्यक्रम से की थी। ये अपने समय का सबसे दबंग कार्यक्रम माना जाता था। क्योंकि इस कार्यक्रम में मैं कैमरा टीम को लेकर देश कोने-कोने में जाता था और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार की नीतियों के क्रियांवन में ज़मीनी स्तर पर हो रही कमियों को उजागर करता था।         


इसके बाद 1989 में जब देश में पहली बार मैंने स्वतंत्र हिन्दी टीवी समाचारों की वीडियो पत्रिका ‘कालचक्र’ जारी की तो उसके भी हर अंक ने अपनी दबंग रिपोर्टों के कारण देश भर में खलबली मचाई। बावजूद इसके किसी भी राजनेता द्वारा मेरा कभी सोशल बॉयकॉट नहीं किया गया। क्योंकि यहाँ भी मैंने निष्पक्षता का पूरी तरह ध्यान रखा। चाहे कोई भी राजनैतिक दल हो और चाहे आरएसएस से लेकर नक्सलवादियों तक की विचारधारा से जुड़े प्रश्न हों, अगर वो मुझे जनहित में ठीक लगे तो उन्हें कालचक्र  की रिपोर्ट में प्रसारित करने से कभी कोई गुरेज़ नहीं किया। इसलिए लोग आजतक कालचक्र को याद करते हैं।


पिछले 40 वर्षों की टीवी पत्रकारिता के अपने अनुभव और उम्र के 68वें वर्ष में शायद मेरा यह कर्तव्य है कि मैं टीवी चैनलों में काम कर रहे अपने सहकर्मियों को उनके हित में कुछ सलाह दे सकूँ। सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। हर केंद्र सरकार के पास अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने के लिए दूरदर्शन, ऑल इंडिया रेडियो और पीआईबी है। जबकि लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया का काम जनता की आवाज़ बनना होता है। उन्हें सरकार से तीखे सवाल पूछने होते हैं और सरकार की योजनाओं में ख़ामियों को उजागर करना होता है। अगर वे ऐसा नहीं करते तो वे पत्रकार नहीं माने जाएँगे। हाँ कोई भी रिपोर्ट या वार्ता में हर टीवी पत्रकार को कोशिश करनी चाहिए कि पूरी तरह निष्पक्षता बनी रहे। इसके साथ ही किसी भी टीवी एंकर को यह हक़ नहीं कि वो विपक्ष के नेताओं को अपमानित करे या उनसे अभद्र व्यवहार करे। टीवी की वार्ता में आने वाले सभी लोग उस एंकर के मेहमान होते हैं। इसलिए उनका पूरा सम्मान किया जाना चाहिए। तीखे सवाल भी शालीनता से पूछे जा सकते हैं। उसके लिए हमलावर होने की नौटंकी करने की कोई ज़रूरत नहीं है। आजकल चल रही ऐसी नौटंकियों के कारण ही टीवी चैनलों की विश्वसनीयता तेज़ी से घटी हैं। 


इसी क्रम में मैं उन नामी टीवी पत्रकारों को भी बिन माँगीं सलाह देना चाहूँगा जो रात-दिन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर हमलावर रहते हैं। तथ्यों को सामने लाना उनका कर्तव्य हैं। इसलिए वो ये ज़रूर करें। पर नरेंद्र मोदी सरकार के अच्छे कामों की उपेक्षा करके या उन कामों की प्रशंसा न करके वे ऐसे लगते हैं मानो वो विपक्ष का एजेंडा चला रहे हैं। उनका ये रवैया ग़लत है। इस तरह दोनों ख़ेमों के पत्रकारों को आत्म विश्लेषण करने ज़रूरत है। न तो हम ख़ेमों में बटें और न ही अपने दर्शकों को ख़ेमों में बाँटें। जो सही है उसे ज्यों की त्यों प्रस्तुत करें और फ़ैसला दर्शकों के विवेक पर छोड़ दें। 

Monday, September 11, 2023

बहस : भारत बनाम इंडिया


बचपन से सुनते थे कि हमारे देश का नाम भारत भी है और इंडिया भी। जैसे इंग्लैंड को दक्षिण एशिया में विलायत भी कहा जाता है। पर विलायत उसका अधिकृत नाम नहीं है, केवल बोलचाल में ये नाम कहा जाता है। पर भारत के ये दोनों नाम संविधान में क्यों लिखे गये? ये सवाल हर बच्चे के मन में उठता था। 


अब इंडिया हटाकर सिर्फ़ भारत नाम रखने के मोदी जी के फ़ैसले को एक क्रांतिकारी कदम माना जा रहा है। ऐसे ही जैसे जी 20 के सम्मेलन को भारतीय सांस्कृतिक रंग देकर प्रधान मंत्री मोदी जी ने अपने इस नये इरादे का संकेत दे दिया है। उन्होंने जी 20 सम्मेलन में भारत की संस्कृति को ही आगे बढ़ाया, इंडिया का तो नाम तक कहीं आने नहीं दिया, तो कई कानूनविदों की भौं टेढ़ी  हुईं। 


उनका कहना था कि बिना विधायिका की स्वीकृति के ये फ़ैसला संविधान के विरुद्ध है। बीजेपी के राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी इसे विपक्ष के ताज़ा गठबंधन ‘आई एन डी आई ए’ के ख़ौफ़ से लिया गया कदम बताते हैं। वे ऐसे तमाम वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल कर रहे हैं जिनमें मोदी जी पिछले चुनावों में जनता से बार बार अपील करते हैं वोट फ़ोर इंडिया। विपक्ष का दावा है उसकी एकजुटता से बीजेपी घबड़ा गयी है इसलिए उसकी एकजुटता से डर कर ये नया शगूफ़ा छोड़ा गया है। वैसे चुनाव अभी दूर है पर इस सबसे देश का माहौल चुनावी बन चुका है। 



इसलिए मोदी जी के इस मनोभाव के प्रगट  होते ही देश भर में बहस शुरू हो गयी कि आज तक ‘वोट फॉर इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’, ‘स्टार्ट अप इंडिया’ जैसी दर्जनों योजनाओं को शुरू करने वाले मोदी जी को अचानक ये ख़्याल कैसे आया कि अब हम ‘इंडिया’ की जगह ‘भारत’ के नाम से जाने जाएँगे। इसके साथ ही ये बहस शुरू हो गयी है कि रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया, स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया, यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया, स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया, आईआईटी, आईआईएम, आईएमए, आईएएस, आईपीएस, आईआरएस, आईएफ़एस, इण्डियन नेवी, इण्डियन एयरफ़ोर्स, एयर इंडिया जैसी संस्थाओं को क्या अब अपने नाम बदलने पड़ेंगे? क्या फिर से नोटबंदी होगी और नये नाम से नोट छापे जाएँगे? फिर इण्डियन ओशियन के नाम का क्या होगा? 


वैसे दुनियाँ भारत को इंडिया के नाम से ही जानती है। 9 वर्षों में 74 से ज्यादा देशों की यात्रा कर चुके प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी इंडिया का नाम ही आजतक प्रचारित किया है। इसलिए इंडिया अब सारी दुनियाँ में भारत का ब्रांड नेम बन चुका है। ऐसे में भारत नाम कैसे दुनिया के लोगों की ज़ुबान पर चढ़ेगा? 



इस संदर्भ में  सोशल मीडिया पर मनीष सिंह ने एक रोचक पोस्ट डाली है। वे पूछते हैं कि, क़ायदे आज़म मुहम्मद अली जिन्ना को, भारत को इंडिया कहे जाने से क्या आपत्ति थी? मनीष की पोस्ट के अनुसार ऐसा दरअसल दो कारण से हुआ; एक तो इंडिया का नाम, इतिहास में हमे ‘इंडस रिवर' का देश होने की वजह से मिला था। इंडस जब पाकिस्तान में रह गई थी, तो इधर बिना इंडस, काहे का इंडिया? क्या आपको याद है, एक बार सुनील दत्त में आंतकवाद के दौर में पंजाब का नाम, खलिस्तान रखने का सुझाव दिया था। उनका भी यही लॉजिक था, कि पंजाब का मतलब, 5 नदियों का प्रदेश था। अब 60% पंजाब तो पाकिस्तान हो गया। भारतीय पंजाब में 5 नदियां तो थी नही। उसको भी तोड़कर हरियाणा और हिमाचल बना दिया। तो बचे इलाके को पंजाब कहने का कोई तुक नही। अगर लोगो को "पवित्र स्थान" याने "खालिस्तान" कहना है, तो कहने दो। 



बहरहाल बात जिन्ना की हो रही थी। वे इस बात से वाकिफ थे, कि इंडिया को इंडिया कहे जाने पर पाकिस्तान को स्थायी राजनीतिक शर्मिंदगी भी उठानी पड़ती।इसका लॉजिक यह था कि डूरंड से तमिलनाडु तक सारा इलाका इंडिया कहलाता था। अब उसके दो टुकड़े हो रहे थे। अगर भारत अपने को इंडिया कहता है, याने पुराने देश का दर्जा, तो असली सक्सेसर स्टेट की पहचान, तो इंडिया को ही मिलेगी। पाकिस्तान, इतिहास में मूल देश से टूटने और अलग होने वाला हिस्सा माना जायेगा। तो उनकी चाहत यह थी-कि इंडिया टूटा, और दो देश बने। अगर एक खुद को पाकिस्तान कहता है, तो दूसरा खुद को भारत कहे। 



मगर जिन्ना चल बसे। उनकी ख़्वाहिश नेहरू भला काहे पूरी करते। 18 सितंबर 1949 को भारत के सम्विधान ने खुद का नामकरण किया, तो कहा ‘इंडिया, दैट इज भारत’। इस तरह हमने दोनों नाम क्लेम कर लिए। इस पर पाकिस्तान ने नेहरू को कभी दिल से माफ नहीं किया। आज भी, अगर आप पाकिस्तानी समाचार देखते हों तो याद करेंगे कि वे अपनी बोलचाल में इंडियन फ़ौज या इंडियन पीएम या इंडिया की नही कहते। वे हमेशा भारतीय फौज, भारतीय पीएम या भारत ही कहते हैं। क्योंकि वे दिल से, आपको इंडिया स्वीकारते ही नहीं। भारत ये नाम ख़ुशी से मानने को तैयार हैं। 


और यही कारण है कि खबर आई, कि अगर भारत यूएन में अपना नाम इंडिया छोड़ने की सूचना देता है, तो पाकिस्तान का फटाफट बयान आया कि इस नाम को वे क्लेम करेंगे। फिर वो लिखेंगे- पाकिस्तान, दैट इज इंडिया। और सच भी यही है कि इंडस रिवर की वजह से इण्डिया का नाम, हमसे ज्यादा, उन्हें ही सूट करेगा। पर पंडित नेहरू ने उनसे यह मौका छीन लिया था। जो अब पाकिस्तानी को मिल सकता है।


आगे आगे देखें होता है क्या? वैसे भारत नाम पर देश की भावना भी दो हिस्सों में बटीं है। उत्तर भारत अपने को भारत से जुड़ा महसूस करता है जबकि दक्षिण भारत इंडिया नाम से। ऐसे में इस फ़ैसले के क्या राजनीतिक, आर्थिक और भावनात्मक परिणाम होंगे वो तो समय ही बतायेगा। पर फ़िलहाल मोदी जी ने मीडिया और राजनीतिक लोगों को विवाद और बहस का एक नया विषय थमा दिया है। 

Monday, August 28, 2023

चंद्रयान-3 के श्रेय पर विवाद क्यों ?

चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर विक्रम लैंडर उतारकर भारत ने पूरी दुनिया में अपनी कामयाबी के झंडे गाढ़  दिए हैं। हमारी इस सफलता पर पूरी दुनिया हर्षित है। यहाँ तक कि हमेशा खफ़ा रहने वाला पाकिस्तान भी हमें इस कामयाबी के लिए बधाई दे रहा है। अब भारत दुनिया के उन चार देशों में से एक है जिन्होंने चाँद पर अपना उपग्रह उतारा है। इनमें भी चाँद के दक्षिणी ध्रुव पर ये करामात दिखने वाला भारत अकेला देश है। इस अभूतपूर्व सफलता के लिए वो सैकड़ों वैज्ञानिक जिम्मेदार हैं जिन्होंने पिछले साठ सालों में रात-दिन मेहनत करके यह संभव कर दिखाया है। इस उपलब्धि पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विश्व को दक्षिण अफ़्रीका से संबोधित करते हुए कहा कि, अब चंदा मामा दूर के नहीं बल्कि चंदा मामा टूर के हो गये हैं



जब से ये उपलब्धि हुई है तब से इसका श्रेय लेने वालों में होड़ लग गई है। जहाँ भाजपा और संघ परिवार इसे मोदी जी के नेतृत्व में मिली सफलता बताकर जश्न मना रहा हैं, वहीं कांग्रेस के नेता ये याद दिला रहे हैं कि इस सफलता के पीछे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की दूरदृष्टि और वैज्ञानिक सोच है। जिन्होंने डॉ विक्रम साराभाई की योग्यता को पहचाना और 1962 में ‘इंडियन नेशनल कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च’ की स्थापना की। यही समिति 15 अगस्त 1969 को ‘इसरो’ (इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाईजेशन) बनी। तब से होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई, सतीश धवन, मेघानन्द साहा, शांति स्वरुप भटनागर, ए पी जे अब्दुल कलाम और वर्तमान में श्रीधर सोमनाथ व के सिवान जैसे वैज्ञानिकों ने भारत के अन्तरिक्ष अभियान को दिशा प्रदान की। हालाँकि भारत के सुविख्यात परमाणु वैज्ञानिक डॉ भाभा की इस अभियान में कोई सीधी भागीदारी नहीं थी पर उन्हें इस बात के लिए याद किया जाता है कि उन्होंने डॉ विक्रम साराभाई को प्रोत्साहित किया। 


23 अगस्त 2023 को मिली सफलता एक ही दिन के प्रयास से संभव नहीं हुई है। इसके पीछे 48 वर्षों की कठिन तपस्या का इतिहास है। भारत ने सबसे पहला उपग्रह 1975 में भेजा था जिसे ‘आर्यभट्ट’ के नाम से जाना जाता है। तब से अब तक भारत द्वारा 120 उपग्रह अन्तरिक्ष में भेजे जा चुके हैं। इस तरह क्रमश हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं। हर बार भारत के वैज्ञानिकों ने कुछ नया सीखा और उसके अनुसार अगले उपग्रह को तैयार किया। 2019 में चंद्रयान-2 की विफलता से सीखकर चंद्रयान-3 भेजा गया और ये अभियान सफल रहा।



किसी भी देश की नीतियों पर उसके प्रधानमंत्री की सोच और नेतृत्व का असर पड़ता है। भारत के अन्तरिक्ष अभियान को आगे बढ़ाने में पंडित नेहरु के बाद श्रीमति इंदिरा गाँधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ मनमोहन सिंह व श्री नरेन्द्र मोदी सबकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसलिए किसी एक को इस उपलब्धि का श्रेय नहीं दिया जा सकता। पर मोदी जी की आलोचना करने वालों का यह तर्क गलत है कि वे इसका श्रेय क्यों ले रहे हैं। सामान्य सी बात है कि किसी भी मोर्चे पर देश को अगर सफलता मिलती है या असफलता तो यश और अपयश दोनों प्रधानमंत्री के खाते में जाता है। उदाहरण के तौर पर बांग्लादेश को आजाद कराने की लड़ाई मोर्चे पर तो भारतीय फौज ने लड़ी थी और पाकिस्तान को न सिर्फ करारी शिकस्त दी थी बल्कि उसके दो टुकड़े कर दिए। पर दुनिया में यशगान तो श्रीमति इंदिरा गाँधी का हुआ, जिन्होंने सही समय पर कड़े निर्णय लिए। ऐसे ही चंद्रयान-3 की इस उपलब्धि का श्रेय ‘इसरो’ के वैज्ञानिकों के साथ प्रधानमंत्री मोदी को भी मिलना स्वाभाविक है। 



इसी तरह जब आज़ादी मिलने के कुछ वर्ष बाद ही 1962 में चीन के हमले में भारत को पराजय का मुंह देखना पड़ा था तो पंडित नेहरु को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया गया और कहा गया कि उनका पंचशील का सिद्धान्त असफल रहा। जिसके लिए संघ परिवार आज तक पंडित नेहरु की आलोचना करता है कि उन्होंने भारत की भूमि का एक हिस्सा चीन के हाथ जाने दिया। ठीक वैसे ही जैसे आज का विपक्ष गलवान की शहादत और चीन के भारत पर हाल के वर्षों में किये गये हस्तक्षेप और घुसपैठ को न रोक पाने के लिए मोदी जी को जिम्मेदार ठहराता है। 


चंद्रयान-3 की सफलता के बाद से पिछले दिनों मीडिया में भारत के अन्तरिक्ष अभियान को लेकर तमाम जानकारियां दी जा रही हैं। सबसे महत्वपूर्ण है ये जानना कि पृथ्वी के 14 दिन चाँद के एक दिन के बराबर होते हैं। इन 14 दिनों में विक्रम लैंडर चाँद की सतह पर से तमाम वैज्ञानिक सूचनाएँ पृथ्वी पर भेजेगा। उसके बाद ये काम करना बंद कर देगा क्योंकि वहाँ अँधेरा छा जायेगा और इसकी सौर उर्जा बैटरियां निष्क्रिय हो जाएँगी। उल्लेखनीय है कि 50 वर्ष पूर्व हुए अमरीका के ‘अपोलो मिशन’ की तरह चंद्रयान-3 चाँद पर से मिट्टी या पत्थर का नमूना लेकर नहीं लौटेगा। ऐसा हो सके इसके लिए भारत के वैज्ञानिकों को अभी और मेहनत करनी होगी। पर इस विषय में मेरे पास एक ऐसी अनूठी वस्तु है जो 2019 में चन्द्रयान-2 की विफलता के बाद मैंने मीडिया से साझा की थी। ये एक माइक्रो फिल्म है जो अपोलो-14 के कमांडर एलान बी शेपर्ड, 1971 में अपने साथ चाँद पर लेकर गये थे। इस फिल्म में अमरीका के दैनिक की 25 नवम्बर 1908 की वो ख़बर थी जिसमें लिखा था कि एक दिन मानव चन्द्रमा पर उतरेगा। उनके साथ ऐसी 100 माइक्रो फिल्म चाँद पर भेजी गईं थीं। पृथ्वी पर लौटने के बाद इन 100 फिल्मों को प्लास्टिक के ग्लोब में सील करके दुनिया के 100 प्रमुख लोगों को भेंट किया गया था। उन्हीं 100 लोगों में से एक की पत्रकार बेटी जूली ज्विट जब 2010 में मेरे पास वृन्दावन आईं थीं तो उन्होंने ये बहुमूल्य भेंट मुझे दी यह कहकर कि अब मैं वृद्ध हो गई हूँ। मेरे बाद इस धरोहर का मूल्य कोई नहीं समझेगा। तुम पत्रकार होने के नाते इसका महत्व समझते हो इसलिए तुम्हें दे रही हूँ। चन्द्रयान-2 की विफलता के बाद मीडिया के उदास मित्रों को खुश करने के लिए मैंने वो उपहार उन्हें दिखाया तो उन्होंने उसकी फोटो अख़बारों में प्रकाशित की। जब तक भारत अन्तरिक्ष अभियान चाँद की सतह को छूकर वापस लौटेगा तब तक ये उपहार अपना महत्व कायम रखेगा। आशा और यकीन है कि भारत के अन्तरिक्ष मिशन में वह पल जल्दी ही आयेगा। 

Monday, July 31, 2023

महिलाऐं वीभत्स हिंसा की शिकार क्यों?


मणिपुर की घटना ने देश विदेश के सभ्य समाज को झँकझोड़ दिया है। दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके उनसे छेड़छाड़ करते हुए वहशी मर्दों की भीड़ ने जिस तरह उनकी परेड करवायी, उससे इस वीडियो को देखने वाले दहल गये। सामंती व्यवस्थाओं में और मध्य युग में ग़ुलामों महिलाओं के साथ जो व्यवहार होता था ये उसका एक ट्रेलर था। मणिपुर के मुख्यमंत्री ने भी स्वीकारा कि ऐसी सौ से ज़्यादा घटनाएँ वहाँ पिछले दो महीनों में हुई हैं। राज्य और केंद्र की सरकार मूक दर्शक बनी तमाशा देखती रही।
 



एक तरफ़ देश के मर्दों की ये हरकतें हैं तो दूसरी तरफ़ इस देश के राजनैतिक दल महिलाओं को राजनीति में उनके प्रतिशत के अनुपात में आरक्षण देने को तैयार नहीं हैं। जबकि देश के हर हिस्से में महिलाओं के उपर पाश्विकता की हद तक कामुक तत्वों के हिंसक हमले बढ़ते जा रहे हैं। जब देश की राजदधानी दिल्ली में ही सड़क चलती लड़कियों को दिन-दहाड़े शोहदे उठाकर ले जाते हैं और बलात्कार व हत्या करके फैंक देते हैं, तो देश के दूरस्थ इलाकों में महिलाओं पर क्या बीत रही होगी, इसका अन्दाजा शायद राष्ट्रीय महिला आयोग को भी नहीं है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिन राज्यों की मुख्यमंत्री महिलाऐं हैं, उन राज्यों की महिलाऐं भी सुरक्षित नहीं। इसकी क्या वजह है?



महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली गुड़गाँव की अमीना शेरवानी का कहना है कि पूरे वैश्विक समाज में शुरू से महिलाओं को सम्पत्ति के रूप में देखा गया। उनका कन्यादान किया गया या मेहर की रकम बांधकर निकाहनामा कर लिया गया। कुछ जनजातिय समाज हैं जहाँ महिलाओं को बराबर या पुरूषों से ज्यादा अधिकार प्राप्त हैं। माना जाता रहा है कि बचपन में महिला पिता के संरक्षण में रहेगी। विवाह के बाद पति के और वैधव्य के बाद पुत्र के। यानि उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होगा। यह बात दूसरी है कि आधुनिक महिलाऐं इन सभी मान्यताओं को तोड़ चुकी हैं या तोड़ती जा रही हैं। लेकिन उनकी तादाद पूरी आबादी की तुलना में नगण्य है।


बहुत से लोग मानते हैं कि जिस तरह की अभद्रता, अश्लीलता, कामुकता व हिंसा टी.वी. और सिनेमा के परदे पर दिखायी जा रही है, उससे समाज का तेजी से पतन हो रहा है। आज का युवावर्ग इनसे प्रेरणा लेकर सड़कों पर फिल्मी रोमांस के नुस्खे आजमाता है। जिसमें महिलाओं के साथ कामुक अत्याचार शामिल है। यह बात कुछ हद तक सही है कि दृश्य, श्रृव्य माध्यम का व्यक्ति के मनोविज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पर ऐसा नहीं है कि जबसे मनोरंजन के यह माध्यम लोकप्रिय हुए हैं, तबसे ही महिलाऐं कामुक हमलों का शिकार होने लगी हों। पूरा मध्ययुगीन इतिहास इस बात का गवाह है कि अनवरत युद्धरत राजे-महाराजाओं और सामंतों ने महिला को लूट में मिले सामान की तरह देखा और भोगा। द्रौपदी के पाँच पति तो अपवाद हैं। जिसके पीछे आध्यात्मिक रहस्य भी छिपा है। पर ऐसे पुरूष तो लाखों हुए हैं, जिन्होंने एक से कहीं ज्यादा पत्नियों और स्त्रीयों को भोगा। युद्ध जीतने के बाद दूसरे राजा की पत्नियों और हरम की महिलाओं को अपने हरम में शामिल करना राजाओं या शहंशाहों के लिए गर्व की बात रही।



नारी मुक्ति के लिए अपने को प्रगतिशील मानने वाले पश्चिमी समाज की भी मानसिकता कुछ भिन्न नहीं। न्यू यॉर्क में रहने वाली मेरी एक महिला पत्रकार मित्र ने कुछ वर्ष पहले दुनिया भर के प्रमुख देशों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर एक शोधपूर्ण रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस शोध के दौरान उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि नारी मुक्ति की घोर वकालत करने वाली यूरोप की महिलाऐं भाषण चाहें जितना दें, पर पति या पुरूष वर्ग के आगे घुटने टेकने में उन्हें कोई संकोच नहीं है। वे शिकायत करती हैं कि उनके पति उन्हें रसोईये, घर साफ करने वाली, बच्चों की आया, कपड़े धोने वाली और बिस्तर पर मनोरंजन देने वाली वस्तु के रूप में समझते और व्यवहार करते हैं। ये कहते हुए वे आँखें भर लाती हैं। पर जब उनसे पूछा गया कि आप इस बंधन से मुक्त होकर स्वतंत्र जीवन क्यों नहीं जीना चाहतीं? तो वे तपाक से उत्तर देती हैं कि हम जैसी भी हैं, सन्तुष्ट हैं, आप हमारे सुखी जीवन में खलल क्यों डालना चाहते हैं? ऐसे विरोधाभासी वक्तव्य से यह लगता है कि पढ़ी-लिखी महिलाऐं भी गुलामी की सदियों पुरानी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पायी हैं। मतलब ये माना जा सकता है कि महिलाऐं खुद ही अपने स्वतंत्र और मजबूत अस्तित्व के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं। उन्हें हमेशा सहारे और सुरक्षा की जरूरत होती है। तभी तो किसी शराबी, कबाबी और जुआरी पति को भी वे छोड़ना नहीं चाहतीं। चाहें कितना भी दुख क्यों न झेलना पड़े। फिर पुरूष अगर उन्हें उपभोग की वस्तु माने तो क्या सारा दोष पुरूष समाज पर ही डालना उचित होगा?



इस सबसे इतर एक भारत का सनातन सिद्धांत भी है। जो यह याद दिलाता है कि पति की सेवा, बच्चों का भरण-पोषण और शिक्षण इतने महत्वपूर्ण कार्य हैं, जिन्हें एक महिला से बेहतर कोई नहीं कर सकता। जिस घर की महिला अपने पारिवारिक दायित्वों का कुशलता और खुले ह्रदय से वहन करती है, उसे न तो व्यवसाय करने की आवश्यकता है और न ही कहीं और भटकने की। ऐसी महिलाऐं घर पर रहकर तीन पीढ़ियों की परवरिश करती हैं। सब उनसे सन्तुष्ट और सुखी रहते हैं। फिर क्या आवश्यकता है कि कोई महिला देहरी के बाहर पाँव रखे? जब घर के भीतर रहेगी तो अपने बच्चों का भविष्य बेहतर बनायेगी। क्योंकि उन्हें वह सब ज्ञान और अनुभव देगी जो उसने वर्षों के तप के बाद हासिल किया है।


आज जब देश में हर मुद्दे पर बहस छिड़ जाना आम बात हो गयी है। दर्जनों टी.वी. चैनल एक से ही सवाल पर घण्टों बहस करते हैं। तो क्यों न इस सवाल पर भी देश में एक बहस छेड़ी जाए कि महिलाऐं कामुक अपराधिक हिंसा का शिकार हैं या उसका कारण? इस प्रश्न का उत्तर समाधान की दिशा में सहायता करेगा। यह बहस इसलिए भी जरूरी है कि हम एक तरफ दुनिया के तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था का दावा करते हैं और दूसरी ओर हमारी महिलाऐं मुध्ययुग से भी ज्यादा वीभत्स अपराधों और हवस का शिकार बन रही हैं।

Monday, July 24, 2023

बज गयी 2024 की रणभेरी


पक्ष और विपक्ष अपने-अपने हाथी, घोड़े, रथ और पैदल तैयार करने में जुट गये हैं। दिल्ली और बैंगलुरु में दोनों पक्षों ने अपना अपना कुनबा जोड़ा है। जहां नए बने संगठन ‘इंडिया’ में 25 दल शामिल हुए हैं वहीं एनडीए 39 दलों के साथ आने का दावा कर रहा है। अगर इन दावों की गहराई में पड़ताल करें तो बड़ी रोचक तस्वीर सामने आती है। 


पिछले चुनाव में एनडीए में अब शामिल हुए इन 39 दलों को मिले वोट जोड़ें तो इस गठबंधन को देश भर में 23 से 24 करोड़ के बीच वोट मिले थे। जबकि ‘इंडिया’ के मौजूदा गठबंधन को 26 करोड़ वोट मिले थे। पर ये वोट इतने सारे दलों में आपसी मुक़ाबले के कारण बंट गये। जिससे इनकी हार हुई। अगर ये गठबंधन ईडी, सीबीआई व आईटी की धमकियों के बावजूद एकजुट बना रहता है और मुक़ाबला आमने-सामने का होता है तो जो परिणाम आयेंगे वो स्पष्ट हैं। 


दूसरा पक्ष ये है कि जहां एनडीए आज 60 करोड़ भारतीयों पर राज कर रही है वहीं ‘इंडिया’ संगठन 80 करोड़ भारतीयों पर आज राज कर रहा है और इसके शासित राज्य भी एनडीए से कहीं ज्यादा हैं। 



जहां तक परिवारवाद का आरोप है तो दोनों संगठनों में परिवारवाद प्रबल और समान है। अंतर ये है कि जहां एनडीए में शामिल 39 दलों में परिवारवादी नेताओं का कोई जनाधार नहीं है। उनमें से ज़्यादातर दल ऐसे हैं जिनमें एक भी विधायक तक नहीं है। जबकि ‘इंडिया’ संगठन में जो परिवारवाद है उसके सदस्य दशकों तक राज्यों का शासन चलाने के अनुभवी और बड़े जनाधार वाले नेता हैं। जहां बीजेपी के नेताओं ने शुरू में दावा किया था कि वो कांग्रेस मुक्त भारत बनायेंगे वहाँ आज एनडीए स्वयं ही कांग्रेसयुक्त संगठन बन चुका है। जिसमें कई केंद्रीय मंत्री व मुख्यमंत्री वो हैं जो कांग्रेस के स्थापित नेता थे पर ईडी, सीबीआई की धमकियों से डरकर बीजेपी में शामिल हुए हैं।


आने वाले चुनाव में जहां ‘इंडिया’ संगठन को टिकट बाँटने में कम दिक़्क़त आएगी क्योंकि उनके सब दावेदार जनाधार वाले हैं और कई चुनाव जीत चुके हैं। वे वहीं से लें टिकट। अलबत्ता उन्हें अपने अहम और महत्वाकांक्षा पर अंकुश लगाना होगा। जबकि एनडीए में शामिल ज़्यादातर दल ऐसे हैं जो आजतक एक विधायक का चुनाव भी नहीं जीते पर अब लोकसभा के लिये ये सभी अपनी औक़ात से ज्यादा टिकट माँगेंगे। तब बीजेपी के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो जाएगी। 



बीजेपी का जो इतिहास रहा है कि शिव सेना जैसे जितने भी दलों ने उसका साथ दिया उन सबको बीजेपी ने या तो अपमानित किया या उनको हड़प ही गयी। ऐसे में अबकी बार फिर से एनडीए में शामिल हुए दल हमेशा अपना अस्तित्व खोने के डर से ग्रस्त रहेंगे। उन्हें इस बात का भी सामना करना पड़ेगा कि आरएसएस उन्हें अपने रंग में रंगने का भरपूर प्रयास करेगा। कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो ‘इंडिया’ संगठन के बनने से बीजेपी और एनडीए संगठन के सामने बहुत बड़ी चुनौती खड़ी हो गयी है। जिसको देखकर अब 2024 का चुनाव बहुत रोचक होने जा रहा है।


जिस तरह भाजपा को विपक्ष के ‘इंडिया’ नाम के संगठन से आपत्ति हो रही है उसका असल कारण विपक्ष की एकजुटता है। वरना जब दक्षिण भारत के राज्य तेलंगाना की एक क्षेत्रीय पार्टी ने अपना नाम बदल कर उसे ‘भारत राष्ट्र समिति’ कर दिया तो भाजपा या एनडीए के किसी भी सहयोगी दल ने इस पर आपत्ति नहीं जताई। इस विपक्षी एकजुटता को भाजपा आगामी लोकसभा चुनावों में एक गंभीर चुनौती मान रही है। 


जब 2014 में मोदी जी लोकसभा चुनावी मैदान में उतरे थे तब ऐसी कोई भी चुनौती उनके सामने नहीं थी। ‘इंडिया’ संगठन बनने के बाद इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि विपक्षी दल ना सिर्फ़ एकजुट होते दिखाई दे रहे हैं बल्कि एनडीए के ख़िलाफ़ युद्ध करने को चुनावी बिगुल बजा रहे  हैं। 



भाजपा के कुछ नेता ‘इंडिया’ संगठन के अंग्रेज़ी नाम को लेकर भी काफ़ी असहज दिखाई दिये हैं। इतना असहज कि इंडिया नाम को अंग्रेजों की देन बता कर उसका विरोध भी कर रहे हैं। उन्होंने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर से भी इंडिया को हटा कर भारत रख दिया है। विपक्ष ने इस पर चुटकी लेते हुए कहा कि यदि इंडिया नाम से इतनी आपत्ति है तो क्या सरकार द्वारा चलाई जाने वाली उन सभी योजनाओं के नाम भी बदले जाएँगे जहां ‘इंडिया’ का उपयोग किया गया है? मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्किल इंडिया व स्टैंड अप इंडिया आदि। क्या भाजपा अपने सोशल मीडिया हैंडल का नाम BJP4India को भी बदलेगी? यदि अन्य राजनैतिक पार्टियों के नाम को खंगाला जाए तो आपको ऐसी कई पार्टियाँ मिलेंगी जिनके नाम में भारत, भारतीय, इंडिया, इण्डियन शब्द अवश्य मिलेगा। तो फिर इस बेतुके विवाद को क्यों खड़ा किया जा रहा है? 


असल में भाजपा और एनडीए को जिस बात से अधिक परेशानी है, वो विपक्षी दलों का एक ऐसा ऐलान है जिसका सामना भाजपा को आने वाले लोकसभा चुनावों में करना पड़ेगा। ग़ौरतलब है कि विपक्षी नेताओं ने इस बात की घोषणा कर दी है कि वो आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा और एनडीए के हर एक चुनावी प्रत्याशी के ख़िलाफ़ ‘इंडिया’ संगठन अपने सभी दलों का समर्थित एक प्रत्याशी ही उतारेंगे जो उस संसदीय क्षेत्र में काफ़ी लोकप्रिय होगा। ज़ाहिर सी बात है कि इससे विपक्षी दलों में बंटने वाले वोट एकजुट हो जाएँगे और भाजपा को काफ़ी नुक़सान हो सकता है। 

      

आगामी महीनों में चार राज्यों में विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं। उनके परिणाम देश की दिशा तय करेंगे। उसके बाद भी लोक सभा चुनाव में जहां बीजेपी के नेता हिंदू मुसलमान के नाम पर ध्रुवीकरण करवाने की हर संभव कोशिश करेंगे वहीं ‘इंडिया’ संगठन बेरोज़गारी, महंगाई, दलितों पर अत्याचार और समाज में बँटवारा कराने के आरोप लगाकर बीजेपी को कठघरे में खड़ा करेगा। विपक्ष मोदी जी से 2014 में किए गए वायदों के पूरा न होने पर भी पर सवाल करेगा। जबकि बीजेपी भारत को विश्व गुरु बनाने जैसे नारों से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करेगी। अब देखना ये होगा कि मतदाता किसकी तरफ़ झुकता है।

Monday, July 17, 2023

ईडी: कार्यपालिका पर न्यायपालिका की नज़र


प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के मौजूदा निदेशक संजय कुमार मिश्रा के कार्यकाल विस्तार को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध ठहराया है। क्योंकि उनको तीन बार जो सेवा विस्तार दिया गया वो सर्वोच्च न्यायालय के 1997 के आदेश, ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार, सीवीसी एक्ट, दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट व कॉमन कॉज़’ के फ़ैसले के विरुद्ध था। इन सब फ़ैसलों के अनुसार ईडी निदेशक का कार्यकाल केवल दो वर्ष का ही होना चाहिए। इस तरह लगातार सेवा विस्तार देने का उद्देश्य क्या था? इस सवाल के जवाब में भारत सरकार का पक्ष यह था कि श्री मिश्रा ‘वित्तीय कार्रवाई कार्य बल’ (एफ़एटीएफ़) में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं इसलिए इनको सेवा विस्तार दिया जा रहा है। जबकि एफ़एटीएफ़ की वेबसाइट पर ईडी निदेशक का कोई कोई उल्लेख नहीं है। इस पर न्यायाधीशों की टिप्पणी थी कि क्या भारत में कोई दूसरा व्यक्ति इतना योग्य नहीं है जो ये काम कर सके? 



संजय कुमार मिश्रा की कार्य प्रणाली पर लगातार उँगलियाँ उठती रहीं हैं। उन्होंने जितने नोटिस भेजे, छापे डाले, गिरफ़्तारियाँ की या संपत्तियाँ ज़ब्त कीं वो सब विपक्ष के नेताओं के ख़िलाफ़ थीं। जबकि सत्तापक्ष के किसी नेता, विधायक, सांसद व मंत्री के ख़िलाफ़ कोई करवाई नहीं की। इससे भी ज़्यादा विवाद का विषय यह था कि विपक्ष के जिन नेताओं ने ईडी की ऐसी करवाई से डर कर भाजपा का दामन थाम लिया, उनके विरुद्ध आगे की करवाई फ़ौरन रोक दी गई। ये निहायत अनैतिक कृत्य था। जिसका विपक्षी नेताओं ने तो विरोध किया ही, देश-विदेश में भी ग़लत संदेश गया। सोशल मीडिया पर भाजपा को ‘वाशिंग पाउडर’ कह कर मज़ाक़ बनाया गया। अगर श्री मिश्रा निष्पक्ष व्यवहार करते तो भी उनके कार्यकाल का विस्तार अवैध ही था, पर फिर इतनी उँगलियाँ नहीं उठतीं। इन्हीं सब कारणों से सुप्रीम कोर्ट ने उनके सेवा विस्तार को अवैध करार दिया और भारत सरकार को निर्देश दिया कि वो 31 जुलाई 2023 तक ईडी के नये निदेशक को नियुक्त कर दें। इसे देश-विदेश में एक बड़ा फ़ैसला माना गया है। हालाँकि सेवा विस्तार के सरकारी अध्यादेश को निर्धारित प्रक्रिया के तहत पालन करने की छूट भी भारत सरकार को दी गई। मनमाने ढंग से अब सरकार ये सेवा विस्तार नहीं दे सकती। 



सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले का देश की नौकरशाही ने बहुत स्वागत किया है। उनकी इस भावना का वैध कारण भी है। कोई भी व्यक्ति जब आईएएस, आईपीएस या आईआरएस की नौकरी शुरू करता है तो उसे इस बात उम्मीद होती है कि अपने सेवा काल के अंत में, वरिष्ठता के क्रम से, अगर संभव हुआ तो वो सर्वोच्च पद तक पहुँचेगा। परंतु जब एक ही व्यक्ति को इस तरह बार-बार सेवा विस्तार दिया जाता है तो उसके बाद के बैच के अधिकारी ऐसे पदों पर पहुँचने से वंचित रह जाते हैं। जिससे पूरी नौकरशाही में हताशा फैलती है। यह सही है कि ऐसे महत्वपूर्ण पदों पर किस व्यक्ति को तैनात करना है, ये फ़ैसला प्रधान मंत्री की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय नियुक्ति समिति करती है। पर इसके लिए भी कुछ नियम और प्रक्रिया निर्धारित हैं। जैसे इस समिति को विचारार्थ संभावित उम्मीदवारों की जो सूची भेजी जाती है उसे केंद्रीय सतर्कता आयोग छान-बीन करके तैयार करता है। लेकिन हर सरकार अपने प्रति वफादार अफ़सरों को तैनात करने की लालसा में कभी-कभी इन नियमों की अवहेलना करने का प्रयास करती है। इसी तरह के संभावित हस्तक्षेप को रोकने के लिए दिसंबर 1997 में जैन हवाला कांड के मशहूर फ़ैसले में विस्तृत निर्देश दिये गये थे। 



इन निर्देशों की अवहेलना, जैसे अब मोदी सरकार ने की है वैसे ही 2014 में मनमोहन सिंह सरकार ने भी की थी। जब उसने तमिलनाडु की पुलिस महानिदेशक अर्चना रामासुंदरम को पिछले दरवाज़े से ला कर सीबीआई का विशेष निदेशक नियुक्त कर दिया था। इस बार की ही तरह 2014 में भी मैंने इस अवैध नियुक्ति को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। मेरी उस याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने अर्चना रामासुंदरम की नियुक्ति को ख़ारिज कर दिया था। 


उधर गृह मंत्री अमित शाह ने ईडी वाले मामले में फ़ैसला आते ही ट्विटर पर बयान दिया कि विपक्षी दल ख़ुशी न मनाएँ क्योंकि भ्रष्टाचार के विरुद्ध ईडी की मुहिम जारी रहेगी। उनका ये बयान स्वागत योग्य है यदि ईडी की ये मुहिम बिना भेद-भाव के सत्तापक्ष और विपक्ष के संदेहास्पद लोगों के ख़िलाफ़ जारी रहती है। जहां तक मेरा प्रश्न है मेरा कभी कोई राजनैतिक उद्देश्य नहीं रहता। चूँकि सीबीआई, सीवीसी, ईडी आदि को अधिकतम स्वायत्तता दिलवाने में मेरी भी अहम भूमिका रही थी। इसलिए जब भी कोई सरकार ऐसे मामलों में क़ानून के विरुद्ध कुछ करती है तो मैं उसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देना अपना कर्तव्य समझता हूँ।



सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले से उत्साहित हो कर देश के मीडिया में एक बहस चल पड़ी है कि अगर सर्वोच्च न्यायालय ने संजय कुमार मिश्रा के कार्यकाल के विस्तार को अवैध माना है तो श्री मिश्रा द्वारा इस दौरान लिये गये सभी निर्णय भी अवैध क्यों न माने जाएँ? इस तरह के सुझाव मुझे भी देश भर से मिल रहे हैं कि मैं इस मामले में फिर से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाऊँ। फ़िलहाल मुझे इसकी ज़रूरत महसूस नहीं हो रही। कारण, सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ फ़ैसले में पहले से ही इस बात का सुझाव है कि ईडी व सीबीआई के कार्यकलापों की एक नोडल एजेंसी द्वारा हर महीने समीक्षा की जाएगी। इस समिति की अध्यक्षता, भारत के गृह सचिव करेंगे। जिनके अलावा इसमें सीबीडीटी के सदस्य (इन्वेस्टीगेशन), महानिदेशक राजस्व इंटेलिजेंस, ईडी व सीबीआई के निदेशक रहेंगे, विशेषकर जिन मामलों में नेताओं और अफ़सरों के आपराधिक गठजोड़ के आरोप हों। ये नोडल एजेंसी हर महीने ऐसे मामलों का मूल्यांकन करेगी। अगर सर्वोच्च न्यायालय के इस सुझाव को सरकार अहमियत देती है तो ऐसे विवाद खड़े ही नहीं होंगे। ईडी और सीबीआई दो सबसे महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ हैं जिनकी साख धूमिल नहीं होनी चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हर सरकार इन एजेंसियों का दुरुपयोग करने की कोशिश करती हैं। पर इससे सरकार और ये एजेंसियाँ नाहक विवादों में घिरते रहते हैं और हर अगली सरकार फिर पिछली सरकार के विरुद्ध बदले की भावना से काम करती है, जो नहीं होना चाहिए।