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Monday, September 24, 2018

हिमाचल सरकार क्या सो रही है ?

सारे भारत और विदेशों से लगभग पूरे वर्ष पर्यटक कुल्लु-मनाली (हिप्र) जाते हैं। इत्तेफाक मेरा जाना पिछले हफ्ते 45 वर्ष बाद हुआ। 1974 में कुल्लू-मनाली गया था। हसरत थी हिमाचल की गोद में बसे इन दो सुंदर पहाड़ी नगरों को देखने की पर जाकर बहुत धक्का लगा। 

कुल्लू और मनाली दोनों ही शहर बेतरतीब, अनियोजित, भौड़े और अवैध शहरीकरण का भद्दा नमूना प्रस्तुत कर रहे थे। इस कदर निर्माण हुआ है कि इन शहरों का प्राकृतिक सौंदर्य खत्म हो गया। कल-कल करती व्यास नदी के दो किनारे जो कभी सुंदर वृक्षों से आच्छादित थे, आज होटलों और इमारतों भरे हैं। जिनके पिछवाड़े की सब गंदगी व्यास नदी में जा रही है। पूरे इलाके में 'स्वच्छ भारत अभियान' का कोई प्रमाण नहीं दिखाई दिया। जगह-जगह कूड़े के पहाड़, पहाड़ के ढलानों पर कूड़े के झरनेनुमा एक बदनुमा दाग की तरह दिखाई देते हैं। 

माना कि पूरे हिंदुस्तान में शहरीकरण  पिछले चार दशकों में काफी तेजी से हुआ है और कमोबेश इसी तरीके से हुआ है। पर कम से कम पर्यटक स्थलों को तो एक दूरदृष्टि के साथ विकसित किया जा सकता था। हर शहर के लिए राज्य सरकारों ने विकास प्राधिकरण बनाएं, जिनका काम शहरी विकास को नियोजित करना था। बजाय इसके यह भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं। पैसे देकर कोई भी अवैध निर्माण स्वीकृत कराया जा सकता है, फिर चाहे वह प्राकृतिक पर्यटक स्थल हों, ऐतिहासिक या फिर धार्मिक। सबकी दुर्गति एक जैसी हो रही है। जिसका जहां मन कर रहा है, जैसा मन कर रहा है, वैसा निर्माण अंधाधुंध कर रहा है। उसमें न तो कलात्मकता है और न ही स्थानीय वास्तुकला की छाप। रेशम के कपड़ों पर टाट के पैबंद लगाए जा रहे हैं। 

हिमाचल के तो सभी शहरों का यही हाल है, चाहे वो शिमला, विलासपुर ह, मंडी या कांगड़ा हो सबका बेतरतीब विकास हो रहा है। वैसे तो हिमाचल सरकार 'ग्रीन टैक्स' भी लेती है, जिसका उद्देश्य हिमाचल के पर्यावरण की सुरक्षा करना है, पर ऐसा कोई प्रयास सरकार की तरफ से किया गया हो, नहीं दिखाई देता। 

नदियों और पहाड़ों के किनारे आधुनिक इंजीनियरिंग तकनीकि से कंक्रीट के बनाए गए बहुमंजिलीय भवन पर्यावरण के लिए तो खतरा हैं ही, नागरिकों के जीवन के लिए भी खतरा हैं। केदारनाथ की महाप्रलय हमारी आंखों से अभी ओझल नहीं हुई है। हिमाचल के शहरों को देखकर यही आशंका प्रबल हुई कि कहीं किसी दिन केदारनाथ जैसी प्रलय का सामना  हिमाचलवासियों को न करना पड़े। हिमाचल में घर बनाने की पारंपरिक तकनीकि सदियों पुरानी है। लकड़ी के लट्ठों के बीच पत्थर फंसाकर, उसमें मिट्टी का प्लास्टर लगा कर जो घर बनाए जाते थे, वो वहां के मौसम के अनुकुल थे। जाड़े में गरम और गरमी में ठंडे। इन मकानों की खास बात यह है कि सैकड़ों सालों में आए बार बार  भूचालों में भी इनकी चूलें तक नहीं हिलीं। जबकि आधुनिक भवन भूकंप के हल्के से झटके से भरभराकर गिर सकते हैं और गिरते हैं। इसके अलावा हिमाचल के लोग प्रायः मकान को एक-दूसरे से सटाकर नहीं बनाते थे। हर मकान के चारों तरफ खुला इलाका होता था, जिससे उसका सौंदर्य और भी बढ़ जाता था। पर आज जो निर्माण हो रहा है, वो एक-दूसरे से सटाकर हो रहा है। इससे धरती पर दबाव तो बढ़ ही रहा है, पर नागरिकों को भी प्रकृति प्रदत्त प्राकृतिक आनंद से वंचित रहना पड़ता है।  क्योंकि अब ये मकान दिल्ली के ओखला इलाके में बने ऐसे ही अवैध निर्माणों का प्रतिबिंब हैं।

सवाल है कि मोटा वेतन लेने वाले सरकारी अधिकारी क्यों आंख बंद किए बैठे हैं? नेता भी कम दोषी नहीं, जो अपने कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए हर तरह का अवैध निर्माण प्रोत्साहित करते हैं। 

ये सही है कि पर्यटन बढ़ने से हिमाचल के लोगों की आमदनी बहुत बढ़ी है। पर ऐसी आमदनी का क्या लाभ, जो जीवन के नैसर्गिक सुख और सौंदर्य को छीन ले। कुल्लू और मनाली को देखकर मुझे वही शेर याद आया कि ‘जिसे सदियों से संजों रखा था, उसे अब भुलाने को दिल चाहता है...’। 

ये तर्क ठीक नहीं आबादी या पर्यटन बढ़ने से यह नुकसान हुआ है। गत 34 वर्षों से कई बार यूरोप के पर्वतीय पर्यटन क्षेत्र स्विट्जरलैंड जाने का मौका मिला है। पर इन 34 वर्षों में इस तरह की गिरावट का एक भी चिह्न देखने को वहां नहीं मिला। स्विट्जरलैंड की सरकार हो या यूरोप के अन्य पर्यटन केंद्रों की सरकारें, अपने प्राकृतिक और सांस्कृतिक वैभव को बिगड़ने नहीं देती। पर्यटन वहां भी खूब बढ़ रहा है, पर नियोजित तरीके से उसको संभाला जाता है और धरोहरों और प्रकृति से छेड़छाड़ की अनुमति किसी को नहीं है। हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते ?

यह प्रश्न मैंने ब्रज के विकास के संदर्भ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों और भारत के प्रधानमंत्रियों के समक्ष पिछले 15 वर्षों में अलग-अलग स्तर पर, अलग-अलग माध्यम से कई बार उठाया है कि ब्रज की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत की अवहेलना करके उसे विकास के नाम पर विद्रूप किया जा रहा है। नवगठित 'ब्रज तीर्थ विकास परिषद् ' भी नई बोतल में पुरानी शराब है। जो योजनाएं ये बना रहे हैं, उससे ब्रज ब्रज नहीं रहेगा। 

जरूरत इस बात की है कि भारत के तीर्थांटन और पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्णस्थलों के विकास की अवधारणा को एक राष्टव्यापी बहस के बाद ठोस मूर्त रूप दिया जाए और उससे हटने की आजादी किसी को न हो। कम से कम भविष्य का विकास (?) विनाशकारी तो न हो। क्या कोई हमारी बात सुनेगा या फिर भारत की महान धरोहरों का डंका पीट-पीटकर उन्हें गंदी बस्तियों में परिवर्तित करता रहेगा ?

Monday, September 17, 2018

छात्रों की किसे चिन्ता है ?

पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रा संघ के चुनाव भारी विवादों के बीच संम्पन्न हुए है। छात्र समुदाय दो खेमों में बटा हुआ था। एक तरफ भाजपा समर्थित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और दूसरी तरफ वामपंथी, कांग्रेस और बाकी के दल थे। टक्कर कांटे की थी। वातावरण उत्तेजना से भरा हुआ था और मतगणना को लेकर दोनो जगह काफी विवाद हुआ। विश्वविद्यालय के चुनाव आयोग पर आरोप-प्रत्यारोपों का दौर चला।
छात्र राजनीति में उत्तेजना,हिंसा और हुडदंग कोई नई बात नहीं है। पर चिन्ता की बात यह है कि राष्ट्रीय राजनैतिक दलों ने जबसे विश्वविद्यालयों की राजनीति में खुलकर दखल देना शुरू किया है तब से धनबल और सत्ताबल का खुलकर प्रयोग छात्र संघ के चुनावों में होने लगा है, जिससे छात्रों के बीच अनावश्यक उत्तेजना और विद्वेष फैलता है।
अगर समर्थन देने वाले राष्ट्रीय राजनैतिक दल इन छात्रों के भविष्य और रोजगार के प्रति भी इतने भी गंभीर और तत्पर होते तो भी इन्हें माफ किया जा सकता था । पर ऐसा कुछ भी नहीं है। दल कोई भी हो छात्रों को केवल मोहरा बना कर अपना खेल खेला जाता है। जवानी की गर्मी और उत्साह में हमारे युवा भावना में बह जाते हैं और एक दिशाहीन राजनीति में फंसकर अपना काफी समय और ऊर्जा बर्बाद कर देते हैं, यह चिन्ता की बात है।
इसका मतलब यह नहीं कि विश्वविद्यालय के परिसरों में छात्र राजनीति को प्रतिबंधित कर दिया जाए। वह तो युवाओं के व्यक्तित्व के विकास में अवरोधक होगा । क्योंकि छात्र राजनीति से युवाओं में अपनी बात कहने, तर्क करने, संगठित होने और नेतृत्व देने की क्षमता विकसित होती है। जिस तरह शिक्षा के साथ खेलकूद जरूरी है, वैसे ही युवाओं के संगठनों का बनना और उनमें आपस में प्रतिस्पर्धा होना स्वस्थ्य परंपरा है। मेरे पिता जो उत्तर प्रदेश के एक सम्मानीत शिक्षाविद् और कुलपति रहे, कहा करते थे, "छात्रों में बजरंगबली की सी ऊर्जा होती है, यह उनके शिक्षकों पर है कि वे उस ऊर्जा को किस दिशा में मोड़ते हैं।"
जरूरत इस बात की है कि भारत के चुनाव आयोग के अधीनस्थ हर राज्य में एक स्थायी चुनाव आयोगों का गठन किया जाए।  जिनका दायित्व ग्राम सभा के चुनाव से लेकर , नगर-निकायों के चुनाव और छात्रों और हो सके तो किसानों और मजदूर संगठनों के चुनाव यह आयोग करवाए। ये चुनाव आयोग ऐसी नियमावली बनाए कि इन चुनावों में धांधली और गुडागर्दी की संभावना ना रहे। प्रत्याशियों के चयन से लेकर प्रचार और मतदान तक का काम व्यवस्थित और पारदर्शित प्रक्रिया के तहत हो और उसका संचालन इन चुनाव आयोगों द्वारा किया जाए। लोकतंत्र के शुद्धिकरण के लिए यह एक ठोस और स्थायी कदम होगा। इस पर अच्छी तरह देशव्यापी बहस होनी चाहिए।
इस छात्र संघ के चुनावों में दिल्ली विश्वविद्यालय के ईवीएम मशीनों के संबंध में छात्रों द्वारा जो आरोप लगाए गए हैं, वह चिन्ता की बात है। प्रश्न यह उठ रहा है कि जब इतने छोटे चुनाव में ईवीएम मशीनें संतोषजनक परिणाम की बजाए शंकाएं उत्पन्न कर रही हैं, तो 2019 के आम चुनावों में ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता पर जिस प्रकार राजनैतिक पार्टियां अभी से आरोप-प्रत्यारोप लगा रही हैं, इससे क्या उनकी आशंकाओं को बल मिलता नहीं दिख रहा है? मजे कि बात यह है कि ईवीएम की बात आते ही चुनाव आयोग द्वारा मीडिया के सामने आकर सफाई दी गई कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनाव के लिए ईवीएम मशीनें मुहैया नहीं करवाई गईं  थी। छात्र संघ के चुनाव के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय ने स्वयं ईवीएम मशीनों का इत्जाम किया था।
बात यह नहीं है कि ईवीएम मशीनें कहां से आई, कौन लाया, पर आनन-फानन में जिस प्रकार जब चुनाव आयोग पर दिल्ली छात्र संघ के चुनावों में ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप लगने लगे तो उसे सामने आकर सफाई देनी पड़ी। यह कौनसी बात हुई, कोई चुनाव आयोग पर तो आरोप लगा नहीं रहा था पर चुनाव आयोग प्रकट होता है और दिल्ली चुनाव में ईवीएम पर सफाई दे देता है। यानी चुनावा आयोग अभी से बचाव की मुद्रा में दिखने लगा है।
चुनाव कोई हो पर लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूती में पारदर्शिता प्रथम बिन्दु हैं और जब चुनावों में धांधली के आरोप जोर-शोर से लगने लगे तो यह लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक है। समय रहते छोटे चुनाव हों या बड़े स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव के लिए आशंकाओं का समाधान कर लेना सबसे विश्व के बड़े लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण कदम होगा। देश की राजधानी दिल्ली में हुए इन छात्र संघ के चुनावों के परिणाम देश की राजनीति में अभी से दूरगामी परिणाम परिलक्षित कर रहे हैं इसलिए हर किसी को अपनी जिम्मेदारियों को निष्पक्षता के साथ वहन कर इस महान् लोकतंक को और मजबूत बनाना चाहिए।

Monday, September 10, 2018

पेट्रोल के दाम घटते क्यों नहीं ?

हमेशा से पेट्रोल की कीमत को मुद्दा बनाने वाली भाजपा की सरकार पेट्रोल की कीमत पर ही फंस गई है। ऐसा नहीं है कि पेट्रोल की कीमत सरकार नियंत्रित नहीं कर सकती है। सच तो यह है कि पेट्रोल पर इस समय लगभग 85 प्रतिशत टैक्स वसूला जा रहा है और इसके लिए पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी से बाहर रखा गया है। सरकार अगर ऐसा कर रही है तो इसका कारण मजबूरी के अलावा कुछ और नहीं हो सकता है।
ऐसा नहीं है कि पेट्रोल की कीमत कम करने के लिए उस पर दबाव नहीं है । सरकार ने जब खुद इसे मुद्दा बनाया था तो कोई कारण नहीं है वह विपक्ष को भी इसे मुद्दा बनाने का मौका दे। इसलिए कोई भी संभावना होती तो सरकार पेट्रोल की कीमत इतना नहीं बढ़ने देती। इसका कारण यह समझ में आता है कि नोटबंदी के बाद जीएसटी ही नहीं, गैर सरकारी संगठनों पर नियंत्रण, छोटी-मोटी हजारों कंपनियों पर कार्रवाई आदि कई ऐसे कारण हैं जिससे देश में काम धंधा कम हुआ है और टैक्स के रूप में पैसे कम आ रहे हैं। इनमें कुछ कार्रवाई तो वाजिब है और सरकार इसका श्रेय भी ले सकती थी । पर पैसे कम आ रहे हैं – यह स्वीकार करना मुश्किल है। इसलिए सरकार अपने अच्छे काम का श्रेय भी नहीं ले पा रही है।
दूसरी ओर, बहुत सारी कार्रवाई एक साथ किए जाने से आर्थिक स्थिति खराब हुई है, इसमें कोई शक नहीं है। इसलिए सरकार को अपने खर्चे पूरे करने का सबसे आसान विकल्प यही मिला है। इसलिए पेट्रोल की कीमत कम नहीं हो रही है।
सरकार माने या न माने यह नीतिगत फैसला है । तभी पेट्रोलियम पदार्थों को जानबूझकर जीएसटी से अलग रखा गया है वरना जीएसटी में इसके लिए एक अलग और सबसे ऊंचा स्लैब रखना पड़ता और यह बात सार्वजनिक हो जाती कि सरकार पेट्रोल पर सबसे ज्यादा टैक्स ले रही है। पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी में लाने की मांग होती रही है पर सरकार इसे टाल जाती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मंदी के कारण भूसंपदा बाजार की हालत भी खराब है। यही नहीं, सरकार ने अभी तक पेट्रोल पर इतना ज्यादा टैक्स वसूलने का कोई संतोषजनक कारण नहीं बताया है। इससे भी लगता है कि सरकार नोटबंदी के भारी खर्च से उबर नहीं पाई है। 
दिल्ली में रहने वाले पुराने लोग जानते हैं कि कैसे मोहल्ले के मोहल्ले दो-चार साल में बस जाते थे। पर अभी हालत यह है कि नोएडा और गुड़गांव में हजारों बिल्डिंग और फ्लैट बनकर तैयार खड़े हैं। वर्षों से बसे नहीं हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स विलेज तकनीकी तौर पर भले बिक गया हो पर इलाका अभी ठीक से बसा नहीं है। वहां निवेशकों का पैसा लगा था और डीडीए के हिस्से का एक फ्लैट एक सरकारी बैंक ने नीलामी में सात करोड़ रुपए में खरीदा था जो अब लगभग तीन करोड़ में उपलब्ध है। खरीदार नहीं है। सैकड़ों फ्लैट अभी खाली हैं यानी निवेशकों का पैसा फंसा हुआ है। असली उपयोगकर्ता नहीं खरीद पाए हैं।
ऐसी हालत में जाहिर है, सरकार को टैक्स और राजस्व भी कम आएंगे और इन सबकी भऱपाई जीएसटी से तो हो नहीं सकती। क्योंकि जीएसटी को अच्छा बनाने के लिए हर मांग पर टैक्स कम करना पड़ता है। ऐसे में पेट्रोल सबसे आसान विकल्प है। बिक्री होगी ही और संयोग से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें कम होने से सरकारी राजस्व की अच्छी भरपाई हुई। अब जब कीमतें बढ़ रही हैं तो पुरानी नीतियों के कारण सरकार उसपर लगाम नहीं लगा सकती और विरोध बढ़ रहा है। समस्या तब आएगी जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें लगातार बढ़ती जाए। वैसी हालत में सरकार को टैक्स कम करके दाम कम करने ही पड़ेंगे। पर वो स्थिति क्या होगी, कब आएगी या आएगी भी कि नहीं अभी कुछ कहा नहीं जा सकता।
सरकार की मंशा ठीक हो सकती है। पर देश की सामाजिक और आर्थिक दशा की नब्ज पर उंगली रखने वाले विद्वान उससे सहमत नहीं है। उनका कहना है कि बुलेट ट्रेन और स्मार्ट सिटी जैसी महत्वाकांक्षी और मोटी रकम खर्च करने वाली योजनाओं से न तो गरीबी दूर होगी, न देशभर में रोजगार का सृजन होगा और न ही व्यापार में बढ़ोत्तरी होगी। चीन इसका जीता-जागता उदाहरण है। जिसने अपने पुराने नगरों को तोड़-तोड़कर अति आधुनिक नए नगर बसा दिए। उनमें हाईवे और मॉल जैसी सारी सुविधाएं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ दर्जे की बनाई गईं। पर जिस गति से चीन का आधुनिकरण हुआ, उस गति से वहां की आमजनता की आमदनी नहीं बढ़ी। नतीजा यह है कि चीन की तरक्की कागजी बनकर रह गई।
पिछले 6 महीने में जिस तेजी से चीन की अर्थव्यवस्था का पतन हुआ है, उससे पूरी दुनिया को झटका लगा है। फिर भी अगर भारत सबक न ले और अपने गांवों की बुनियादी समस्याओं को दूर किए बिना बड़ी छलांग लगाने की जुगत में रहे, तो मुंह की खानी पड़ सकती है। कुल मिलाकर जरूरत धरातल पर उतरने की है। यह सब देखकर लगता है कि भारत की आर्थिक स्थिति इतनी बुरी नहीं कि आमआदमी को अपना जीवनयापन करना कठिन लगे। पर जाहिर है कि पुरानी व्यवस्थाओं के कारण काफी कुछ अभी भी पटरी नहीं आया है। जिसका खामियाजा आमजनता भुगत रही है।

Monday, September 3, 2018

असली संन्यासिन सुधा भारद्वाज


पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने लोकतंत्र के हित मे एक बड़ा फैसला लिया जब सुधा भारद्वाज की पुणे पुलिस द्वारा गिरफ्तारी को नाजायज ठहरा दिया।

मैं सुधा को 1995 से जनता हूँ, जब वे जिद करके मुझे दिल्ली से छत्तीसगढ़ ले गई थीं। जहां उनके संगठन ने अनेक शहरों और गांवों में मेरी जन सभाएं करवाईं थीं। जिसका उल्लेख मेरी पुस्तक में भी है। उनका अत्यंत  सादगी भरा मजदूरों जैसा  झुग्गी झोपड़ी का रहन सहन देखकर मैं हिल गया था। हालांकि मेरी विचारधारा सनातन धर्म पर आधारित है और उनकी वामपंथी। पर मेरा मानना है कि  मनुष्य अपने सतकर्मों, सेवा व त्याग  के प्रभाव से ही संत कोटि को प्राप्त करता है। सुधा भारद्वाज को असली संत की उपाधि देना अनुचित नहीं होगा। उनके जैसा होना हमारे आपके बस में शायद ही संभव हो। आगे जो लिख रहा हूँ वो साथी महेंद्र दुबे ने भेजा है और मैं इससे शतप्रतिशत सहमत हूँ इसलिये ज्यों का त्यों जोड़ रहा हूँ।

सुधा भारद्वाज कोंकणी ब्राह्मण परिवार की इकलौती संतान हैं। जोकि पेशे से एक यूनियनिस्ट, एक्टिविस्ट और वकील हैं। मजदूर बस्ती में रहने वाली सुधा भारद्वराज 1978 की आईआईटी कानपुर की टॉपर हैं। जो जन्म से अमेरिकन सिटीजन थीं और इंगलैंड में उनकी प्राइमरी शिक्षा हुई है। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि इस ‘बैक ग्राउंड’ का कोई शख्स मजदूरों के साथ उनकी बस्ती में रहते हुए बिना दूध की चाय और भात सब्जी पर गुजारा करता होगा। जीवन के इस पड़ाव में भी अत्यंत साधारण लिबास में माथे पर एक बिंदी लगाये मजदूर, किसान और कमजोर वर्ग के लोगों के लिये छत्तीसगढ़ के शहर और गांव की दौड़ लगाती यह महिला अपनी असाधारण प्रतिभा, बेहतरीन अकादमिक योग्यता के विषय में बताना और अपने काम का प्रचार करना कभी पसन्द नहीं करती हैं।

सुधा की मां कृष्णा भारद्वाज जेएनयू में इकोनामिक्स डिपार्टमेंट की डीन हुआ करती थी। जो एक बेहतरीन शास्त्रीय गायिका थीं और नोबेल पुरुस्कार प्राप्त अमर्त्य सेन की समकालीन भी थी। आज भी सुधा की मां की याद में हर साल जेएनयू में ‘कृष्णा मेमोरियल लेक्चर’ होता है। जिसमे देश के नामचीन शिक्षाविद् और विद्वान शरीक होते है।

आईआईटी से टॉपर होकर निकलने के बाद भी सुधा को कैरियर का आकर्षण खूंटे से बांधे नहीं रख सका और अपने वामपंथी रुझान के कारण वह 80 के दशक में छत्तीसगढ़ के ‘करिश्माई यूनियन लीडर’ शंकर गुहा नियोगी के संपर्क में आयी और फिर उन्होंने छत्तीसगढ़ को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया।

पिछले 35 साल से अधिक समय से छत्तीसगढ़ में मजदूर, किसान और गरीबों की लड़ाई सड़क और कोर्ट में लड़ते लड़ते इन्होंने अपनी मां के ‘प्रोविडेंट फंड’ का सारा पैसा तक उड़ा दिया। उनकी मां ने दिल्ली में एक मकान खरीद रखा था, जो आजकल उनके नाम पर है मगर बस नाम पर ही है। मकान किराए पर चढ़ाया हुआ है जिसका किराया मजदुर यूनियन के खाते में जमा करने का फरमान उन्होंने किरायेदार को दिया हुआ है। जिस अमेरिकन सिटीजनशीप को पाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार रहते है ‘बाई बर्थ’ हासिल उस अमेरिकन नागरिकता को वो बहुत पहले अमेरिकन एम्बेसी में फेंक कर आ चुकी है।

हिंदुस्तान में सामाजिक आंदोलन और सामाजिक न्याय के बड़े से बड़े नाम सुविधा सम्पन्न हैं और अपने काम से ज्यादा अपनी पहुंच और अपने विस्तार के लिए जाने जाते हैं। मगर जिनके लिए वो काम कर रहे होते हैं, उनकी हालत में सुधार की कीमत पर अपनी विलासिता छोड़ने को कभी तैयार नहीं दिखते हैं। इधर सुधा हैं जो ‘अमेरिकन सिटिजनशीप’ और ‘आईआईटी टॉपर’ होने के गुमान को त्याग कर, गुमनामी में गुमनामों की लड़ाई लड़ते हुए अपना जीवन होम कर चुकी है। बिना फीस के गरीब, गुरबों की वकालत करने वाली और हाई कोर्ट जज बनाये जाने का ऑफर विनम्रतापूर्वक ठुकरा चुकी सुधा का शरीर अब जवाब देना चाहता है। 35-40 साल से दौड़ते-दौड़ते उनके घुटने घिस चुके है। उनके मित्र डॉक्टर उन्हें बिस्तर से बांध देना चाहते है। मगर गरीब, किसान और मजदूर की एक हलकी सी चीख सुनते ही उनके पैरों में चक्के लग जाते हैं और फिर वो अपने शरीर की सुनती नहीं।
मगर यह कहा जा सकता है कि यदि उन्होंने अपने काम का 10 प्रतिशत भी प्रचार किया होता तो दुनिया का कोई ऐसा पुरुस्कार न होगा जो उन्हें पाकर खुद को सम्मानित महसूस न कर रहा होता। सुधा होना मेरे आपके बस की बात नहीं है। सुधा सिर्फ सुधा ही हो सकती थीं और कोई नही।

Monday, August 13, 2018

योगी आदित्यानाथ जी ध्यान दें!

पिछले दिनों जब उ.प्र. में निर्माण संबंधी हुई अनेक दुर्घटनाओं के बाद उ.प्र. के सिविल इंजीनियरों ने एक खुला पत्र मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को संबोधित करते हुए लिखा। जिसका मसौदा निम्न प्रकार है-‘‘आज उत्तर प्रदेश में एक्सप्रेसवे धंस रहे हैं। बनारस में ब्रिज के बीम डिस्प्लेसड हो रहे हैं। सड़कों पर गढ्ढो के कारण दुर्घटनाएं हो रही हैं। नहरें टूट रही हैं। खेतों को समुचित पानी नहीं मिल पा रहा। बाँध पानी से लबालब भर नहीं पा रहे। किसी शहर का भी ड्रेनेज सही नहीं हैं। इन प्रोजेक्ट्स का पूरा फायदा लोगों को नहीं मिल पा रहा। शहरों के सीवर जाम हैं।  आखिर क्यों ? कभी किसी इंजीनयर से पूछा जाएगा या उन्हें केवल दण्डित किया जाएगा ? बच्चा भी 9 माह  पेट में पलता है तभी स्वस्थ पैदा होता है और आगे जीवन में स्वस्थ रहने की संभावना ज्यादा होती है। यहां तो इंजिनीयरों को बस डेट दी जाती है और फिर शुरू होता है समीक्षा - समीक्षा का टी 20 खेल। यह नही पूछा जाता की प्रोजेक्ट कब तक पूरा हो सकता है। दबाव होता है कि फलां तारीख तक प्रोजेक्ट पूरा हो जाए। ना तो मैनपावर मिलेगी ना आवश्यक सुविधाएं।

महाराज जी यह निर्माण का कार्य है। विध्वंस की तरह मत करवाइये। समय दीजिये। डी.पी.आर. बनाने में बहुत समय चाहिए होता है। एस्टीमेट बनाने में बहुत सारी जानकारियां चाहिए। दरों की एनालिसिस करना आसान काम नही है। कोई भी स्ट्रक्चर एक इंजीनयर के लिए उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति है। उसका निर्माण एक सुखद पर पीड़ादायक घटना है। समय पूर्व प्रसव की तरह का व्यवहार किसी भी संरचना के साथ मत कीजिये। इंजिनीयरों ने राष्ट्र के विकास में बहुत योगदान दिया है। उनको पार्टी कार्यकताओं की हठधर्मिता के सहारे मत छोड़िये। नहीं तो कोई भी निर्माण मात्र विध्वंस का कारण ही बनेगा। विकास की आड़ में ठेकेदारी और जेब भरने का उपक्रम नही चलना चाहिए न।  ना तो भारत रत्न विश्वशरैया जी ने ना ही श्रीधरन जी ने दबाव में काम किया था। तभी उन्होंने मेट्रो जैसी धरोहरों का निर्माण किया।

हर राजनैतिक दल सत्तारूढ दल को भ्रष्टाचारी बताकर अपना चुनाव अभियान चलाता है और जनता से भ्रष्टाचारमुक्त शासन देने का वायदा करता है। पर हकीकत यह है कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और। ऐसा कभी नहीं सुना जाता कि किसी निर्माण कंपनी को उसके अनुभव और गुणवत्ता के आधार पर योनजाओं के क्रियान्वयन के लिए चुना जाए। यों चुनने की प्रक्रिया अब काफी पारदर्शी बना दी गई है। जिसमें ऑनलाईन निविदाऐं भरी जाती है और टैक्निकल व फायनेंसियल बिडिंग का तुलनात्मक अध्ययन करके ठेके आवंटित किये जाते हैं। पर ये सब भी एक नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं है। सरकार किसी भी दल की क्यों न हो, उसके मंत्री सत्ता में आते ही मोटी कमाई के तरीके खोजने लगते हैं और नौकरशाही के भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से सभी परियोजनाऐं अपने चहेतों को दिलवाते हैं।’’

मंत्री के चहेते का मतलब होता है, जो मंत्री के घर जाकर निविदा दाखिल करने से पहले ही मंत्री को अग्रिम रूप से मोटी रकम देकर, इस बात को सुनिश्चित कर ले कि जो भी ठेका मिलेगा, वो उसे ही मिलेगा। इसके बाद निविदा की सारी प्रक्रिया एक ढकोसला मात्र होती है। और वही होता है जो, ‘जो मंजूरे मंत्री जी होता है’।

योगी जी जब सत्ता में आए थे, तो उन्होंने भी बहुत कोशिश की कि भ्रष्टाचारविहीन शासन दें। पर आज तक कुछ भी नहीं बदला। जो कुछ पहले चल रहा था। उससे और ज्यादा भ्रष्टाचार आज सार्वजनिक निर्माण के क्षेत्र में अनुभव किया जा रहा है। मैंने कई बार इस मुद्दे उठाया है कि भ्रष्टाचार का असली कारण ‘करप्शन इन डिजाईन’ होता है। यानि योजना बनाते समय ही मोटा पैसा खाने की व्यवस्था बना ली जाती है। जैसा उ.प्र. के पर्यटन विभाग में हमें अनुभव हुआ। जब उसने पिछले वर्ष ब्रज के 9 कुंडों के जीर्णोंद्धार का ठेका 77 करोड़ रूपये में उठा दिया। हमने इसका पुरजोर विरोध किया और परियोजना में तकनीकी खामिया उजागर की, तो अब यही काम मात्र 27 करोड़ रूपये में होने जा रहा है। यानि 50 करोड़ रूपया सीधे किसी की जेब में जाने वाले थे। इतना ही नहीं योगी जी ने बड़े प्रचार के साथ जिस ‘ब्रज तीर्थ विकास परिषद्’ की स्थापना की है, उसके मूल संविधान में छेड़छाड़ करके वर्तमान उपाध्यक्ष शैलजाकांत मिश्र ने उसे भारी भ्रष्टाचार करने के लिए सुगम बना दिया है। मूल संविधान में परिषद् में पर्यटन से संबंधित अनेक विशेषज्ञों को लेने का प्राविधान था, जिसे श्री मिश्रा ने बड़े गोपनीय तरीके से हटवाकर, ऐसी व्यवस्था बना ली कि अब किसी भी साधारण सामाजिक कार्यकर्ता या दलालनुमा व्यक्ति को बोर्ड में लाया जा सकता है। इसी तरह ‘सी.ई.ओ’ की ताकत भी इतनी बढ़ा दी कि अब कोई उन्हें ब्रज को बर्बाद करने से नहीं रोक सकता। केवल दो लोगों के अहमकपन से भगवान श्रीकृष्ण के ब्रज का विकास नियंत्रित हो गया है। जिसके निश्चित रूप से घातक परिणाम सामने आऐंगे और तब ये योगी सरकार के लिए ‘ताज कोरिडोर’ जैसा घोटाला खुलेगा।

अभी पिछले दिनों बनारस में निर्माणाधीन पुल की बीम गिरी और 18 लोग मर गऐ। आगरा में ‘रिंग रोड’ धंस गई। मथुरा के गोवर्धन रेलवे स्टेशन का नवनिर्मित चबूतरा बैठ गया। बस्ती जिले में पुल गिर गया। ऐसी दुर्घटनाऐं आए दिन हो रही है, पर सरकार कोई सबक नहीं ले रहीं। इससे उ.प्र. के मतदाताओं की जान जोखिम में पड़ गई है। पता नहीं कब, कहां, क्या हादसा हो जाऐ?

Monday, August 6, 2018

डॉ. सुब्रमनियन स्वामी से झगड़ा क्यों?

अपने राजनैतिक जीवन में अनेक बार दल बदल चुके, राज्यसभा के विवादास्पद सांसद, जो मोदी सरकार में वित्त मंत्री न बनाये जाने से बेहद खफा हैं, ने मेरे ऊपर हमला करते हुए आरोप लगाये कि मैं 21वीं सदी का सबसे बड़ा ‘नटवरलाल’ हूँ और मेरे विरूद्ध उन्होंने 8 पेज की शिकायत उ0प्र0 के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भेजकर, सीबीआई से जांच करवाने की मांग की।

उनका आरोप पत्र लेकर उनके दो सहयोगी वकील हवाई जहाज से पिछले हफ्ते लखनऊ गये और मुख्यमंत्री योगी जी को शिकायत का हर बिंदु समझाया। इसके साथ ही डॉ. स्वामी ने अपने शिकायत पत्र को सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया।

इस शिकायत पत्र में लगाये गए आरोपों को पढ़कर हर उस व्यक्ति को डॉ. स्वामी की बुद्धि पर तरस आया, जो मुझे पत्रकार के नाते या भगवान श्रीकृष्ण की धरोहरों के संरक्षणकर्ता के रूप में जानते हैं। किसी को डॉ. स्वामी के लगाये आरोपों पर यकीन नहीं हुआ। हमने भी बिना देरी करे सभी आरोपों का जवाब, मय प्रमाणों के साथ प्रस्तुत कर दिये।

जबकि डॉ. स्वामी से हमने दो महीने पहले पूछा था कि आज तक उन्होंने भ्रष्टाचार के कितने मुद्दे उठाये और उनमें से कितनों में सजा दिलवाई। क्योंकि उनकी ख्याति ये है कि वू धूमधाम से ऐसे मुद्दे उठाते हैं और फिर परदे के पीछे आरोपी से डील करके अपने ही मुकदमों को ढीला करवा देते हैं। जैसे जैट एयरवेज-एतिहाद डील के खिलाफ उन्होंने खूब शोर मचाया और सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की और फिर आरोपियों से डील करके धीरे धीरे अपनी याचिका को कई बार बदलकर ठंडा कर दिया। हमने पूछा था कि अय्याश और बैंकों के हजारो करोड़ों रूपया लूटकर विदेश भागने वाले, शराब निर्माता विजय माल्या से बेहतर चरित्र का क्या कोई व्यक्ति डॉ. स्वामी को जीवन में अपने दल के लिए नहीं मिला? उल्लेखनीय है कि डॉ. स्वामी ने 2003 से 2010 के बीच विजय माल्या को अपनी जनता पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था। हैं न दोनों मौसेरे भाई।

हमने पूछा कि क्या डॉ. स्वामी भाजपा के प्राथमिक सदस्य हैं? अगर नही तो उन्हें भाजपा का वरिष्ठ नेता क्यों कहा जाता है? हमने पूछा कि अगर वे इतने ही पाक-साफ हैं, तो अंतर्राष्ट्रीय दलाल, हथियारों के सौदागरों के ऐजेंट, कुख्यात तांत्रिक चंद्रा स्वामी और अदनान खशोगी  से डॉ. सुब्रमनियम स्वामी के इतने घनिष्ठ संबंध क्यों थे? गूगल पर इनके काले कारनामे भरे पड़े हैं।

डॉ. स्वामी लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निकटस्थ लोगों पर हमले करते रहते हैं। हमने पूछा कि क्या उन्हें मोदी जी की योग्यता पर शक है और वे स्वयं को मोदी से बेहतर प्रशासक मानते हैं? पिछले दिनों डॉ. स्वामी ने खुलेआम कहा था कि भारत की अर्थव्यवस्था को सुधारने की क्षमता केवल उनमें है। इसलिए उन्हें भारत का वित मंत्री बनाना चाहिए। हमने पूछा कि कहीं ये विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरह इतिहास तो नहीं दोहरायेंगे? पहले वित मंत्री बनाओं, फिर प्रधानमंत्री और अमित शाह के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे और फिर खुद प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश करेंगे। हमारी जानकारी के अनुसार डॉ. स्वामी का दावा है कि इन्हें संघ और भाजपा के एक बड़े वर्ग का समर्थन प्राप्त है। ये बात दूसरी है कि वे सार्वजनिक जीवन में ज्यादातर समय ऐसे ही  झूठ बोलते हैं।

हमने पूछा कि वे भ्रष्टाचार के सब मुद्दे ट्वीटर और मीडिया पर ही क्यों उछालते है? जबकि उनके पास राज्यसभा में बोलने का सशक्त माध्यम है। कारण स्पष्ट है कि राज्यसभा में उठाये मुद्दों के प्रति उनकी जवाबदेही बन हो जाऐगी। तब उन्हें डील करके ठंडा करना आसानी से संभव नहीं होगा।

इधर मुझ पर डॉ. स्वामी का पहला आरोप है कि मैंने ब्रज वृंदावन में सैकड़ों करोड़ की सार्वजनिक भूमि पर कब्जा कर लिया। मेरा उन्हें जवाब है कि  वृंदावन में मेरे पैतृक निवास के अतिरिक्त मेरे नाम या मेरी संस्था ब्रज फाउंडेशन के नाम मथुरा के राजस्व रिकॉर्ड में वे एक इंच जमीन भी सिद्ध करके दिखा दें, तो मैं कड़ी से कड़ी सजा भुगतने को तैयार हूं। अगर न सिद्ध कर पाऐ, तो बतायें उनकी सजा क्या होगी?

उनका दूसरा आरोप यह है कि मेरे सहयोगी आईआईटी के मेधावी छात्र राघव मित्तल ने मथुरा की युवा सीडीओ से बदतमीजी की। हमारा उत्तर यह है कि हमने योगी सरकार को दो बड़े घोटालों में फंसने से बचाया। जिसके प्रमाण मौजूद हैं।  जिससे मथुरा के कुछ भ्रष्ट नेता बैचेन हो गऐ, जो इन घोटालों में मोटा कमीशन खाते। इसलिए पिछले वर्ष से ब्रज फाउंडेशन पर तरह-तरह के झूठे आरोप लगाये जा रहे हैं। जिसमें हम उनकी भविष्य की योजना पर पलीता न लगा सकें।

हमपर उनका तीसरा आरोप यह था कि ब्रज का पर्यटन मास्टर प्लान बनाने के लिए हमने उ0प्र0 शासन से 57 लाख रूपये फीस ली, काम बिगाड़ दिया और झगड़ा कर लिया।हमारा उत्तर है कि पैसा ब्रज फाउंडेशन को नहीं ‘आईएलएफएस’ को मिला। जो हमारा लीड पार्टनर थे। फीस 2 करोड़ 17 लाख मिलनी थी। पर पर्यटन विभाग और एमवीडीए एक दूसरे पर टालते रहे और 1.5 करोड़ रूपया फीस उन पर आज भी बकाया है। जबकि ब्रज फाउंडेशन के बनाये मास्टर प्लान की तत्कालीन पर्यटन सचिव सुशील कुमार और भारत के योजना आयोग के सचिव डॉ. सुभाष पाणि ने लिखकर भारी प्रशंसा की और इसे बेमिसाल बताया था। पाठकों आप खुद ही मूल्यांकन कर लें कि असली ‘नटवरलाल’ कौन है?

Monday, July 23, 2018

‘मॉब लिंचिंग’ पर बढ़ती चिंता


हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को ‘मॉब लिंचिंग’ रोकने के प्रभावी कानून बनाने और अपराधियों को कड़ी सजा देने के निर्देश दिये हैं। ‘मॉब लिंचिंग’ का सबसे पुराना उदाहरण समय-समय पर देश में होने वाले दंगे हैं। जिनमें एक धर्म के मानने वालों की भीड़ दूसरे धर्म के मानने वाले किसी व्यक्ति को घेरकर बुरी तरह हमला करती है, उसे बुरी घायल कर देती है और मार भी डालती है। भारत के इतिहास में पिछली सदी में इसके लाखों उदाहरण हैं।

दूसरा उदाहरण है, चुनावी हिंसा का। जिन दिनों भारत के कुछ राज्यों में चुनावों में ‘पूत कब्जा करना’ आम बात होती थी। उन दिनों भी आक्रामक भीड़ वुनाव अधिकारियों या राजनैतिक दल के कार्यकर्ताओं को घेरकर इसी तरह मारा करती थी। आजाद भारत के इतिहास में ‘मॉब लिंचिंग’ का सबसे वीभत्स उदाहरण 31 अक्टूबर 1984 के बाद देखने को मिला। जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद बेकाबू कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने पूरे उत्तर भारत में सिक्ख समुदाय के लोगों को बहुत निर्दयता से मारा, जलाया या लूटा।

आजकल जो ‘मॉब लिंचिंग’ का शोर मच रहा है, उसके पीछे हाल के वर्षों में हुई घटनाऐं प्रमुख हैं। जिनमें भाजपा से सहानुभूति रखने वाले हिंसक युवा कभी गौरक्षा के नाम पर, कभी मंदिर के नाम पर या कभी देशभक्ति के नाम पर, अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों की जमकर कुटाई करते हैं, लूटपाट करते हैं, उनके नाम के साईन बोर्ड मिटा देते हैं और हत्या तक कर डालते हैं। चूंकि ऐसी घटनाऐं देशभर में लगातार पिछले 4 वर्षों में बार-बार हो रही हैं। इसलिए आज यह सर्वोच्च न्यायालय और सिविल सोसाईटी की चिंता का विषय बन गया है। बावजूद इसके शिकयत यह है कि देश का टीवी और प्रिंट मीडिया इतने संवेदनशील मुद्दे पर खामोशी धारण किये हुए है। जबकि इस पर लगातार तार्किक बहस होनी चाहिए। क्योंकि इस तरह का आचरण मध्ययुगीन सामंतवादी बर्बर कबीलों का होता था। 19वीं सदी से लगभग सभी देशों में लोकतंत्र का पदार्पण होता चला गया। नतीजतन सामंतशाही की ताकत बिखरकर आम मतदाता के हाथ में चली गई। ऐसे में ‘मॉब लिंचिंग’ जैसे जंगली व्यवहार को अब कोई सामाजिक मान्यता नहीं है। पश्चिम ऐशिया के कुछ देश इसका अपवाद जरूर है, जहां शरियत के कानून का सहारा लेकर ‘मॉब लिंचिंग’ जैसी परिस्थितियों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। उदाहरण के तौर पर व्यभिचारिणी महिला को पत्थरों से मार-मारकर घायल कर देना। पर भारत जैसे सभ्य सुंस्कृत समाज में ‘मॉब लिंचिंग’ जैसी हिंसक गतिविधियों को कोई स्वीकृति प्राप्त नहीं है। हर अपराध के लिए स्पष्ट कानून है और कानून के मुताबिक अपराधी को सजा दी जाती है। इसमें अपवाद भी होते हैं, पर वे अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। आम जनता का विश्वास अभी भी न्यायपालिका में कायम है।

इन परिस्थितियों में न्यायपालिका, राजनैतिक दलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए और भी बड़ी चुनौती है, कि वे अपने पारदर्शी आचरण से ऐसा कुछ भी न होने दें, जिसे ‘मॉब लिंचिंग’ की संज्ञा दी जा सके। पर ये कहना सरल है, करना कठिन। फिर भी एक सामूहिक प्रयास तो किया ही जाना चाहिए। फिर वो चाहे राज्य स्तर पर हो या केंद्र स्तर पर। ‘मॉब लिंचिंग’ किसी  एक सम्प्रदाय के विरूद्ध सीमित रह जाए, यह संभव नहीं है। अगर इसे यूंही पनपने दिया, तो जिसके हाथ में लाठी होगी, उसकी भैंस। फिर तो छोटी-छोटी बातों पर बेकाबू हिंसक भीड़ अपने प्रतिद्धंदियों, विरोधियों या दुश्मनों पर इसी तरह हिंसक हमले करेगी और पुलिस व कानून व्यवस्था तमाशबीन बनकर देखते रहेंगे। इससे तो समाज का पूरा तानाबाना ही छिन्न-भिन्न हो जाऐगा और हम बर्बर जीवनशैली की ओर उलटे लौट पडेंगे। इसलिए हर उस व्यक्ति को जो किसी भी रूप में ‘मॉब लिंचिंग’ के खिलाफ आवाज उठा सकता है या माहौल बना सकता है, बनाना चाहिए। ‘मॉब लिंचिंग’ चाहे  सामंतवादियों की हो, ऊँची-नीची जात मानने वालों के बीच हो, विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच हो या फिर कांग्रेस, भाजपा, सपा, तृणमूल कांग्रेस के राजनैतिक कार्यकर्ताओं के प्रतिनिधियों और विरोधियों के बीच हो। हर हालत में आत्मघात ही होगी।

इसे राजनैतिक स्तर पर भी रोकना होगा। एक सामूहिक राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। अन्यथा हालात बलूचिस्तान जैसे हो जाऐंगे। जहां केवल बंदूक का राज चलेगा। फिर लोकतंत्र और सामान्य सामाजिक जीवन भी खतरे में पड़ जाऐंगे।

सर्वोच्च न्यायालय अगर अपना रूख कड़ा किये रहे और राजनैतिक दल इसे अहमतुष्टि का मुद्दा न बनाकर और राजनैतिक स्वार्थों की परवाह न करके व्यापक समाज के हित में ‘मॉब लिंचिंग’ को रोकते हैं, तो कोई बजह नहीं कि यह नासूर कैंसर बनने से पहले ही खत्म न हो जाऐ। अब तक मीडिया की जो खमोशी रही है, खासकर टीवी मीडिया की, वह बहुत चिंता का विषय है। टीवी मीडिया को वाह्यिात मुद्दे छोड, नाहक की बहस में न पड़कर, समाज को सही दिशा में ले जाने वाले मुद्दों पर बहस करनी चाहिए। जिससे समाज में इन कुरीतियों के विरूद्ध जागृति पैदा हो।

Monday, July 2, 2018

मगहर में प्रधानमंत्री मोदी का मजाक क्यों?

पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी, संत कबीर दास जी की समाधि दर्शन के लिए उ.प्र. के मगहर नामक स्थान पर गऐ थे। जहां उनके भाषण के कुछ अंशों के लेकर सोशल मीडिया में धर्मनिरपेक्ष लोग उनका मजाक उड़ा रहे हैं। इनका कहना है कि मोदी जी को इतिहास का ज्ञान नहीं है। इसीलिए उन्होंने अपने भाषण में कहा कि गुरुनानक देव  जी, बाबा गोरखनाथ जी और संत कबीरदास जी यहां साथ बैठकर धर्म पर चर्चा किया करते थे। मोदी आलोचक सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि ‘बाबा गोरखनाथ का जन्म 10 वी शताब्दी में हुआ था। संत कबीर दास का जन्म 1398 में हुआ था और गुरुनानक जी का जन्म 1469 में हुआ था। उनका प्रश्न है? फिर कैसे ये सब साथ बैठकर धर्म चर्चा करते थे? मजाक के तौर पर ये लोग लिख रहे हैं कि ‘माना कि अंधेरा घना है, पर बेवकूफ बनाना कहाँ मना है’।

बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद’? अध्यात्म जगत की बातें अध्यात्म में रूचि रखने वाले और संतों के कृपा पात्र ही समझ सकते हैं। धर्म को अफीम बताने वाले नहीं। इस संदर्भ में मैं श्री नाभा जी कृत व भक्त समाज में अति आदरणीय ग्रंथ ‘भक्तमाल’ के प्रथम खंड से एक उदाहरण देकर ये बताने जा रहा हूं कि कैसे जो मोदी जी ने जो कहा, वह उनकी अज्ञानता नहीं बल्कि गहरी धार्मिक आस्था और ज्ञान का परिचायक है।

झांसी के पास ओरछा राज्य के नरेश के राजगुरू, शास्त्रों के प्रकांड पंडित पंडित श्री हरिराम व्यास जी का जन्म 16वीं सदी में हुआ था। बाद में ये ओरछा छोड़कर वृंदावन चले आए और श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य श्रीहित हरिवंश जी महाराज से प्रभावित होकर उसी सम्प्रदाय में दीक्षित हुए। जिसमें भगवान श्रीराधाकृष्ण की निभृत निकुंज लीलाओं का गायन और साधना प्रमुख मानी गई है। इस सम्प्रदाय की मान्यतानुसार वृंदावन में भगवान श्रीराधाकृष्ण और गोपियों की रसमयी लीलाऐं आठोप्रहर निरंतर चलती रहती है। गहन साधना और तपश्चर्या के बाद रसिक संतजनों को इन रसमयी लीलाओं का दर्शन ऐसे ही होता है, जैसे भौतिक जगत का प्राणी टेलीवीजन के पर्दे पर फिल्म देखता है। इसे ‘अष्टायाम लीला दर्शन’ कहते हैं।

श्री हरिराम व्यास जी ने वृंदावन में रहकर घोर वैराग्य और तपश्चर्या से इस स्थिति को प्राप्त कर लिया था कि उन्हें समाधि में बैठकर आठों प्रहर की लीलाओं के दर्शन सहज ही हो जाया करते थे। इसलिए श्री हरिराम व्यास जी का स्थान राधावल्लभ सम्प्रदाय के महान रसिक संतों में अग्रणी माना जाता है।

भक्तमाल’ में वर्णन आया है कि एकबार श्री हरिराम व्यास जी यमुना तट पर समाधिस्थ होकर ‘अष्टायाम लीलाओं’ का दर्शन कर रहेे थे। तभी उनके मन में अचानक यह भाव आया कि जिस लीला रस का आस्वादन मैं सहजता से कर रहा हूं, वह रस संत कबीर दास जी को प्राप्त नहीं हुआ। ये विचार मन में आते ही उन्हें लीला दर्शन होना बंद हो गया। एक रसिक संत के लिए यह मरणासन्न जैसी स्थिति होती है। उनकी समाधि टूट गई, नेत्र खुल गये, अश्रु धारा प्रवाहित होने लगी और उनकी स्थिति जल बिन मछली जैसी हो गई। इस व्याकुलता में अधीर होकर, वे हित हरिवंश जी महाराज के पास गऐ और उनसे लीला दर्शन न होने का कारण पूछा। हित हरिवंश जी महाराज ने कहा कि अवश्य ही तुमसे कोई वैष्णव अपराध हुआ है। जाओ जाकर उसका चिंतन करो और जिसके प्रति अपराध हुआ है, उससे क्षमा याचना करो।

हरिराम व्यास जी पुनः यमुना तट पर आऐ और समाधिस्थ होकर अपराध बोध से चिंतन करने लगे कि उनसे किस संत के प्रति अपराध हुआ है। तब उन्हें ध्यान आया कि चूंकि कबीर दास जी ज्ञानमार्गीय संत थे, इसलिए व्यास जी के मन में ये भाव आ गया था कि कबीरदास जी को भगवान श्री राधाकृष्ण की अष्टायाम लीला के दर्शन का रस प्राप्त नहीं हुआ होगा। जो कि भक्ति मार्ग के रसिक संतों सहज ही हो जाता है। जैसे ही ये विचार आया, हरिराम व्यास जी ने अश्रुपूरित कातर नेत्रों से, दीनहीन भाव से संत कबीरदास जी के श्री चरणों में अपने अपराध की क्षमा याचना की।

व्यास जी यह देखकर आश्चर्यचकित हो गऐ कि संत कबीरदास जी उनके सामने ही यमुना जी से स्नान करके बाहर निकले और हरिराम व्यास जी से ‘राधे-राधे’ कहकर सत्संग करने बैठ गऐ। जबकि कबीरदास जी को पूर्णं समाधि लिए लगभग 150 वर्ष हो चुके थे। फिर ये कैसे संभव हुआ? हरिराम व्यास जी ने पुनः अपने अपराध की क्षमा मांगी और तब शायद उन्होंने ही यह पद रचा, ‘मैं तो जानी हरिपद रति नाहिं’। आज मैंने जाना कि मेरे हृदय में आज तक भगवान के श्रीचरणों के प्रति अनुराग ही उत्पन्न नहीं हुआ है। आज तक तो मैं यही मानता था कि हमारा ही सम्प्रदाय सर्वश्रेष्ठ है और हमारे जैसे ही रसिक संतों को निकुंज लीला के दर्शनों का सौभाग्य मिल पाता है। आज मेरा वह भ्रम टूट गया। आज पता चला कि प्रभु की सत्ता का विस्तार सम्प्रदायों में सीमाबद्ध नहीं है।

इसी तरह महावतार बाबाजी के शिष्य पूरी दुनिया में हैं और उनका विश्वास है और दावा है कि वे जब भी पुकारते हैं, बाबा आकर उन्हें दर्शन और निर्देश देते हैं। ऐसा हजारों वर्षों से उनके शिष्यों के साथ हो रहा है।

अब अगर नरेन्द्र भाई मोदी ने अपने इसी आध्यात्मिक ज्ञान और अनुभव को दृष्टिगत रखते हुए, यह कह दिया कि बाबा गोरखनाथ, संत कबीरदास और श्री गुरूनानक देव जी मगहर में एक साथ बैठकर धर्म चर्चा किया करते थे, तो इसमें गलत क्या है? हमारे देश का यही दुर्भाग्य है कि यवन और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में हम अपनी सनातन संस्कृति को भूल गऐ हैं। उसमें हमारा विश्वास नहीं रह गया है और यही भारत के पतन का कारण है।

Monday, June 18, 2018

केजरिवाल का नया ड्रामा


पिछले कुछ दिनों से अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगियों ने अपनी  मांगों को लेकर एक नया धरना चला रखा रहा है । इस बार का धरना, दिल्ली के उपराज्यपाल के निवास के वातानुकूलित प्रतीक्षा कक्ष में चल रहा है । केजरीवाल की मांग है कि दिल्ली के उपराज्यपाल दिल्ली सरकार के अफसरों को अपनी हड़ताल खत्म करने का निर्देश दें, जिससे सरकार का काम काज सुचारु रूप से चल सके । केजरीवाल का ऐसा करना कोई नई बात नहीं है। जब कभी भी उनसे किसी समस्या का समाधान नहीं निकलता तो वे या तो समस्या से भाग खड़े होते हैं या फिर ऐसे धरने का नाटक कर जनता और सरकार के पैसे और समय की बर्बादी करते हैं । फिर वो चाहे बीच सड़क बिस्तर लगा कर सोना हो, शपथ के लिए मैट्रो से जाना और मैट्रो के सारे कायदे कानून तोड़कर उसमें अव्यवस्था फैलाना हो या फिर जनता दरबार से भाग खड़े होना हो । दिल्ली की जनता अब इनकी नौटंकी से भली भाँती परिचित हो चुकी है । इसलिये अब केजरीवाल का ऐसे नाटक करने से जनता पर कोई असर नहीं पड़ता ।

केजरीवाल सरकार के ही पूर्व मंत्री कपिल मिश्रा का कहना है कि दिल्ली सरकार के अफसरों की कोई हड़ताल नहीं है, दिल्ली सरकार के मंत्री ही छुट्टी पर हैं । उधर अधिकारी संघ की मानें तो उनका दावा है कि कोई भी अधिकारी हड़ताल पर नहीं है और कोई काम प्रभावित नहीं हुआ । अब इसे ड्रामा नहीं कहेंगे तो और क्या ?

असल मुद्दा तो कुछ और है । दिल्ली के मुख्य सचिव के साथ हुई मारपीट पर पर्दा डालने के लिए केजरीवाल और उनके साथियों ने यह धरना किया है।  जोकि पब्लिसिटी लेने का एक और हथकंडा है । वो सोचते हैं कि ऐसा कर के वे सोशल मीडिया के सभी चैनलों का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकेंगे और जनता कि सहानुभूति भी ले लेंगे । लेकिन केजरीवाल और उनकी टीम को शायद यह नहीं पता कि जनता को बार बार मूर्ख बनाना आसान नहीं होता ।

प्रधान मंत्री मोदी और दिल्ली के उपराज्यपाल ने अभी तक इस मामले में कुछ भी नहीं कहा है । साफ है वो इस बचकानी हरकत से दूर ही रहना चाहते हैं । अब अगर किसी भी कारण से केजरीवाल और उनके साथियों को उपराज्यपाल के निवास से हटा दिया जायेगा तो वे इसे विपक्ष की राजनीति बता कर जनता के सामने फिर से एक नौटंकी करेंगे ।

केजरीवाल और उनके साथियों को यह याद करना होगा कि जस्टिस संतोष हेगड़े हों, अन्ना हजारे हों, प्रशांत भूषण हों, योगेंद्र यादव हों, किरण बेदी हों और ऐसे तमाम नामी लोग, जिन्होंने केजरीवाल के साथ कंधे से कंधा लगाकर लोकपाल की लड़ाई लड़ी, आज वे सब केजरीवाल के गलत आचरण के कारण उनके विरोध में खड़े हैं । वे सभी आज एक सुर में उनके नाटकों की असलियत जनता के सामने ला रहे हैं । मेरे ब्लॉग पर 2011 से 2014 तक के लेख देखिए या यू-ट्यूब पर जाकर वो दर्जनों टीवी शो देखिए, उस वख्त  जो-जो बात इस नाटक मंडली के बारे में मैंने तब कही थी, वो सब आज सामने आ रही हैं । लोग हैरान है अरविन्द केजरीवाल की राजनैतिक अवसरवादिता और छलनीति का करिश्मा देखकर । आज तो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के विरोधाभासों की एक लंबी फेहरिस्त तैयार हो गई है । पर इससे उन्हें क्या ? अब वो सब मुद्दे अरविन्द के लिए बेमानी है जिनके लिए वो और उनके साथी सड़कों पर लोटे और मंचों पर चिंघाड़े थे । क्योंकि केजरीवाल का पहले दिन से मकसद था सत्ता हासिल करना, सो उन्होंने कर ली । अब और आगे बढ़ना है तो संघर्ष के साथियों और उत्साही युवाओं को दरकिनार करने के बाद अति भ्रष्ट राजनेताओं की राह पर चलने में केजरीवाल को कोई संकोच नहीं है ।

आज दिल्ली की जनता दिल्ली सरकार की नाकामियों की वजह से शीला दीक्षित को याद कर रही है । पर केजरीवाल की बला से । उन्होंने तो झुग्गी-झोपड़ी पर अपना फोकस जमा रखा है और ऐसे ही नाटक करके  भोली भली जनता को मूर्ख बना रखा है ।साफ है जहां से ज्यादा वोट मिलने हैं उन पर ध्यान दो बाकी शासन व्यवस्था और विकास जाए गढ्ढे में ।

दुःख इस बात का होता है कि हमारे देश की जनता बार-बार नारे और मीडिया के प्रचार से उठने वाले आत्मघोषित मसीहाओं से ठगी जाती है । पर ऐसे ढोंगी मसीहाओं का कुछ नहीं बिगाड़ पाती ।

लोकतंत्र के इतिहास में ऐसे तमाम उदहारण है जब व्यवस्था पर हमला करने वाले ही अपनी इसी भूमिका का मज़ा लेते हैं और अपनी आक्रामक शैली के कारण चर्चा में बने रहते हैं । पर वे समाज को कभी कुछ ठोस दे नहीं पाते, सिवाए सपने दिखाने के । ऐसे लोग समाज का बड़ा अहित करते हैं । ऐसा ही कुछ हाल दिल्ली की जनता का है । अब दिल्ली की जनता केजरीवाल के नए ड्रामा से प्रभवित नहीं होगी और यही चाहेगी कि जो वायदे केजरीवाल ने चुनाव से  पहले किये थे, वे सपना बन कर न रह जाएँ, जनता के लिए कुछ ठोस होना भी चाहिए ।