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Monday, July 7, 2025

महाराष्ट्र में भाषा विवाद

मला ही भाषा येत नाही। भाषा संवाद के लिए होती है, झगड़े उपद्रव के लिए नहीं। झगड़े उपद्रव के लिए लट्ठबाजी, गोलीबारी होती है। गले लगा लो तो बिना भाषा के भी संवाद हो जाता है।


राष्ट्र में महाराष्ट्र का होना गौरव और गरिमा की बात है। महाराष्ट्र की उत्कृष्ट सभ्यता संस्कृति है। इसे क्षुद्र स्तर पर न ले आने के लिए हम सजग सावधान रहें तो इसकी सभ्यता-संस्कृति पूरे विश्व में जगमगाती रहेगी। मराठी-गुजराती-हिंदी-अंग्रेज़ी की यहाँ सब नदियां एक ही महासागर से जुडी हैं। इसलिए यहाँ संकीर्णता नहीं, उदारता ही प्रवाहमान होती है। सभ्यता-संस्कृति का दीप-स्तम्भ बनती है। यह कहना है स्वामी चैतन्य कीर्ति का। 


इस विषय में ओशो क्या कहते हैं: एक मित्र ने पूछा है कि क्या भारत में कोई राष्ट्रभाषा होनी चाहिए? यदि हां, तो कौन सी?



राष्ट्रभाषा का सवाल ही भारत में बुनियादी रूप से गलत है। भारत में इतनी भाषाएं हैं कि राष्ट्रभाषा सिर्फ लादी जा सकती है और जिन भाषाओं पर लादी जाएगी उनके साथ अन्याय होगा। भारत में राष्ट्रभाषा की कोई भी जरूरत नहीं है। भारत में बहुत सी राष्ट्रभाषाएं ही होंगी और आज कोई कठिनाई भी नहीं है कि राष्ट्रभाषा जरूरी हो। रूस बिना राष्ट्रभाषा के काम चलाता है तो हम क्यों नहीं चला सकते? आज तो यांत्रिक व्यवस्था हो सकती है संसद में, बहुत थोड़े खर्च से, जिसके द्वारा एक भाषा सभी भाषाओं में अनुवादित हो जाए।


लेकिन राष्ट्रभाषा का मोह बहुत महंगा पड़ रहा है। भारत की प्रत्येक भाषा राष्ट्रभाषा होने में समर्थ है इसलिए कोई भी भाषा अपना अधिकार छोड़ने को राजी नहीं होगी, होना भी नहीं चाहिए। लेकिन यदि हमने जबरदस्ती किसी भाषा को राष्ट्रभाषा बना कर थोपने की कोशिश की तो देश खंड-खंड हो जाएगा। आज देश के बीच विभाजन के जो बुनियादी कारण हैं उनमें भाषा एक है। राष्ट्रभाषा बनाने का खयाल ही राष्ट्र को खंड-खंड में तोड़ने का कारण बनेगा। अगर राष्ट्र को बचाना हो तो राष्ट्रभाषा से बचना पड़ेगा और अगर राष्ट्र को मिटाना हो तो राष्ट्रभाषा की बात आगे भी जारी रखी जा सकती है।



मेरी दृष्टि में भारत में जितनी भाषाएं बोली जाती हैं, सब राष्ट्रभाषाएं हैं। उनको समान आदर उपलब्ध होना चाहिए। किसी एक भाषा का साम्राज्य दूसरी भाषाओं पर बरदाश्त नहीं किया जाएगा, वह भाषा चाहे हिंदी हो और चाहे कोई और हो। कोई कारण नहीं है कि तमिल, तेलगू, बंगाली या गुजराती को हिंदी दबाए। लेकिन गांधी जी के कारण कुछ बीमारियां इस देश में छूटीं, उनमें एक बीमारी हिंदी को राष्ट्रभाषा का वहम देने की भी है। हिंदी को यह अहंकार गांधी जी दे गए कि वह राष्ट्रभाषा है। तो हिंदी प्रांत उस अहंकार से परेशान हैं और वह अपनी भाषा को पूरे देश पर थोपने की कोशिश में लगे हुए हैं। हिंदी का साम्राज्य भी बरदाश्त नहीं किया जा सकता है, तो किसी भाषा का नहीं किया जा सकता हैं। सिर्फ संसद में हमें यांत्रिक व्यवस्था करनी चाहिए कि सारी भाषाएं अनुवादित हो सकें। और वैसे भी संसद कोई काम तो कोई करती नहीं है कि कोई अड़चन हो जाएगी। सालों तक एक-एक बात पर चर्चा चलती है, थोड़ी देर और चल लेगी तो कोई फर्क नहीं होने वाला है। संसद कुछ करती हो तो भी विचार होता कि कहीं कार्य में बाधा न पड़ जाए। कार्य में कोई बाधा पड़ने वाली नहीं मालूम होती हैं।



फिर मेरी दृष्टि यह भी है कि यदि हम राष्ट्रभाषा को थोपने का उपाय न करें तो शायद बीस पच्चीस वर्षोंं में कोई एक भाषा विकसित हो और धीरे-धीरे राष्ट्र के प्राणों को घेर ले। वह भाषा हिंदी नहीं होगी, वह भाषा हिंदुस्तानी होगी। उसमें तमिल के शब्द भी होंगे, तेलगू के भी, अंग्रेजी के भी, गुजराती के भी, मराठी के भी। वह एक मिश्रित नई भाषा होगी जो धीरे-धीरे भारत के जीवन में से विकसित हो जाएगी। लेकिन, अगर कोई शुद्धतावादी चाहता हो कि शुद्ध हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना है तो यह सब पागलपन की बातें है। इससे कुछ हित नहीं हो सकता है। यह तो थी ओशो की सोच। 


महाराष्ट्र, एक ऐसा राज्य है जो अपनी सांस्कृतिक समृद्धि और मराठी भाषा के लिए जाना जाता है, आज भाषा विवाद के कारण चर्चा में है। मराठी, जो इस राज्य की आत्मा है, न केवल एक भाषा है, बल्कि महाराष्ट्र की पहचान, इतिहास और गौरव का प्रतीक भी है। हाल के वर्षों में, मराठी भाषा के उपयोग और सम्मान को लेकर कई विवाद सामने आए हैं, जो सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर तनाव का कारण बन रहे हैं।


महाराष्ट्र में मराठी को प्राथमिकता देने की मांग लंबे समय से चली आ रही है। विशेष रूप से मुंबई जैसे महानगरों में, जहां विविधता अपनी चरम सीमा पर है, मराठी भाषा को कई बार उपेक्षित महसूस किया जाता है। गैर-मराठी भाषी समुदायों की उपस्थिति और वैश्वीकरण के प्रभाव ने मराठी के उपयोग को कुछ हद तक सीमित किया है। यह स्थिति स्थानीय लोगों में असंतोष को जन्म देती है, जो अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं।


भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति, साहित्य और परंपराओं का वाहक भी है। मराठी साहित्य, जिसमें संत ज्ञानेश्वर से लेकर आधुनिक लेखकों तक का योगदान शामिल है, जो विश्व स्तर पर अपनी गहराई के लिए जाना जाता है। फिर भी, सरकारी कार्यालयों, शिक्षण संस्थानों और सार्वजनिक स्थानों पर मराठी के उपयोग में कमी देखी जा रही है। यह स्थिति मराठी भाषी समुदाय के लिए चिंता का विषय है।


राज्य सरकार ने मराठी को अनिवार्य करने के लिए कुछ कदम उठाए हैं, जैसे स्कूलों में मराठी पढ़ाई को बढ़ावा देना और सरकारी कार्यों में इसका उपयोग सुनिश्चित करना। लेकिन इन प्रयासों को और प्रभावी करने की आवश्यकता है। साथ ही, मराठी के प्रति सम्मान को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक जागरूकता भी जरूरी है। गैर-मराठी भाषी लोगों को भी मराठी सीखने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि सामाजिक एकता मजबूत हो।


मराठी भाषा या देश की अन्य भाषा का संरक्षण केवल एक राज्य की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि यह हमारी साझा सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है। विवादों को सुलझाने के लिए संवाद और सहयोग जरूरी है। मराठी व अन्य भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलाने के लिए हमें एकजुट होकर प्रयास करना होगा, ताकि सभी भाषाएँ अपनी गरिमा और गौरव के साथ फलती-फूलती रहें। 

Monday, July 4, 2022

महाराष्ट्र: भाजपा की पाँचों ऊँगली घी में



एकनाथ शिंदे को मुख्य मंत्री बना कर भाजपा ने एक तीर से कई निशाने साधे। जिसका उसे बहुत लाभ मिलने वाला है। एकनाथ शिंदे के गले में देवेंद्र फडणवीस की घंटी टांग दी गई है। शिंदे तो हाथी के दांत की तरह सजावटी मुख्य मंत्री रहेंगे। असली सत्ता तो उप-मुख्य मंत्री देवेंद्र फडणवीस की मार्फ़त भाजपा के हाथ में रहेगी। महाराष्ट्र देश की अर्थव्यवस्था का केंद्र है और आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत है। इसलिए महाराष्ट्र की सरकार पर क़ाबिज़ हो कर पिछले आठ वर्षों में दुनिया की सबसे धनी पार्टी बन चुकी भाजपा अपनी आर्थिक स्थित को और भी मज़बूत कर लेगी। 


पूर्व मुख्य मंत्री देवेंद्र फडणवीस के लिए उप-मुख्य मंत्री का पद स्वीकारना आसान नहीं था। महाराष्ट्र के सर्वमान्य भाजपा नेता के लिए यह परिस्थिति बहुत विचित्र बन गई। उन्हें आलाकमान के आदेश से अपमान का घूँट पीना पड़ा। हालांकि उन्हें समझाया यही गया होगा कि इस व्यवस्था में भी सत्ता के केंद्र वही रहेंगे। पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिसे मुख्य मंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया जाता है उसके पर निकालने में देर नहीं लगती। अनेक प्रांतों के उदाहरण हैं जहां कठपुतली मान कर मुख्य मंत्री की कुर्सी पर जिसे बिठाया गया, वही कुछ दिनों में अपने कड़े तेवर दिखाना शुरू कर देता  हैं। कभी-कभी तो वो नेता गद्दी पर बिठाने वाले पार्टी के बड़े नेताओं को ही आँख दिखाने लगते हैं। 



भाजपा के हाथ में एक ही चाबुक है जिससे वो एकनाथ शिंदे और उनके साथी विधायकों को अपनी मुट्ठी में रख सकती है। वो है भाजपा के तरकश में ईडी और सीबीआई जैसी एजेंसियाँ। चूँकि पाला पलटने वाले शिव सेना के बाग़ी विधायकों में ज़्यादातर विधायक पहले से ही ईडी के शिकंजे में हैं। इसलिए ज़रा सी चूँ-चपड़ करने पर उनकी कलाई मरोड़ी जा सकती है। महाराष्ट्र की राजनीति को नज़दीक से जानने वालों का कहना है कि इन विधायकों की छवि पहले से ही विवादास्पद है। इसलिए इन्हें नियंत्रित करना भाजपा आलाकमान के लिए बहुत आसान होगा। 


इस पूरी डील में भाजपा का लक्ष्य शिव सेना का आधार ख़त्म करना है। इसीलिए उसने एकनाथ शिंदे को मुख्य मंत्री बनाया है। अब भाजपा शिव सेना की पकड़ वाले मतदाताओं के बीच अपनी पैंठ बढ़ाने का हर सम्भव प्रयास करेगी। ये बात दूसरी है कि बाला साहेब ठाकरे की विरासत के प्रति समर्पित मराठी जनमानस अब भी उद्धव ठाकरे के साथ खड़ा हो और अगले चुनावों में उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे को सहानुभूति लहर का लाभ मिल जाए और भाजपा व शिव सेना के बाग़ी विधायकों को मराठी जनता के कोप का भाजन बनना पड़े। 


ये तभी सम्भव होगा जब उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे आराम त्याग कर जनता के बीच अभी से निकल पड़ें और आंध्र प्रदेश के जगन रेड्डी या तेलंगाना के केसी राव की तरह गाँव-गाँव नगर-नगर जा कर महाराष्ट्र की जनता को अपने समर्थन में खड़ा कर दें। इस प्रक्रिया में अगर उद्धव ठाकरे को शरद पवार की सलाह और सहयोग मिलता है तो उनकी स्थित और भी मज़बूत हो सकती है। हालाँकि भाजपा अपने धन बल, बाहु बल व सत्ता के बल का उपयोग करके उद्धव को आसानी से सफल नहीं होने देगी। पर ये भी सच है कि पश्चिम बंगाल की जनता की तरह महाराष्ट्र की जनता भी अपनी संस्कृति, जाति और भाषा के प्रति भरपूर आग्रह रखती है। इसलिए उद्धव ठाकरे को हाशिए पर धकेलना आसान नहीं होगा। 


जो भी हो कुल मिलाकर ये सारा प्रकरण लोकतंत्र में आई भारी गिरावट का प्रमाण है। ये गिरावट भाजपा के कारण ही नहीं आई जैसा विपक्ष आरोप लगा रहा है। आयाराम-गयाराम की राजनीति और विपक्षी दलों की प्रांतीय सत्ताओं को पलटने की साज़िश कांग्रेस के ज़माने में ही शुरू हो गई थी। जो भाजपा के मौजूदा दौर में परवान चढ़ गयी है। अंतर यह है कि कांग्रेस ने ना तो कभी अपने दल को नैतिक और दूसरों से बेहतर बताने का दावा किया और न ही विपक्ष के प्रति इतना द्वेष, घृणा और विषवमन किया जैसा भाजपा का मौजूदा नेतृत्व हर समय करता आ रहा है। इससे लोकतंत्र में राजनैतिक कटुता व असहजता बढ़ी है। 


चूँकि भाजपा का हर नेता पिछली सरकारों और वर्तमान विपक्षी दलों को डंके की चोट पर भ्रष्ट और खुद को ईमानदार बताता है। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि एक सामान्य व्यक्ति भाजपा से नैतिक आचरण की अपेक्षा करे। पर अनुभव में ऐसा नहीं आ रहा। सत्ता में बैठे लोग बदल ज़रूर गए हैं पर ठेकों और तबादलों में भ्रष्टाचार की मात्रा एक अंश भी घटी नहीं है, बल्कि कई जगह तो पहले के मुक़ाबले बढ़ गई है। ऐसे में इस तरह के सत्ता परिवर्तनों को आम मतदाता बहुत अरुचि और शक से देखता है। दल के कार्यकर्ताओं की बात दूसरी है। उनका दल जब जा-बेज़ा हथकंडे अपना कर सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाता है तो स्वाभाविक है कि कार्यकर्ताओं में उत्साह की लहर दौड़ जाती है। पर महाराष्ट्र की ताज़ा घटनाओं ने भाजपा के कार्यकर्ताओं को भी निराश किया है। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि मुख्य मंत्री के पद पर उनके नेता देवेंद्र फडणवीस को ही बिठाया जाएगा, नितिन गड़करी तक को नहीं, जो लम्बे समय से इस पद के दावेदार हैं और जिन्हें नागपुर का वरदहस्त प्राप्त है। कार्यकर्ताओं को भी अब यही सोच कर संतोष करना पड़ेगा कि इस प्रयोग से शायद भविष्य में उनके दल की स्थिति महाराष्ट्र में वर्तमान स्थिति से बेहतर हो जाए।


इस पूरे प्रकरण में जो सबसे रोचक पक्ष है वो ये की देश के सबसे बड़े क़द्दावर नेता और महाराष्ट्र की राजनीति के कुशल खिलाड़ी शरद पवार भी फ़िलहाल भाजपा के चाणक्य अमित शाह से मात खा गए। जो कि शरद पवार की फ़ितरत और मराठा खून के विपरीत है। ऐसे में ये मान लेना कि आज अपनी हारी हुई बाज़ी से हताश हो कर शरद पवार चुप बैठ जाएँगे, नसमझी होगी। अपने कार्यकर्ताओं और सांसद बेटी सुप्रिया सुले के राजनैतिक भविष्य पर लगे इस ग्रहण से निजात पाने की पवार साहब भरसक कोशिश ज़रूर करेंगे। उधर कांग्रेस भी इस विषम परिस्थिति उद्धव ठाकरे का दामन छोड़ने को तैयार नहीं है। इसलिए महाराष्ट्र विकास आघाडी और भाजपा के बीच रस्साकशी जारी रहेगी जिससे महाराष्ट्र की जनता को कोई लाभ नहीं होगा।