Monday, May 21, 2018

सर्वोच्च न्यायालय व संवैधानिक संस्थाऐं

पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय में जो कुछ हो रहा था उससे देश की न्यायपालिका ही नहीं बल्कि हर जागरूक नागरिक चिंतित था। जब सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक में चैबीस घंटे की समय सीमा बांधकर विश्वास मत हासिल करने का आदेश दे दिया, तो उसकी हर ओर सराहना हो रही है। कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई रादुभाई वाला ने भाजपा को शपथ दिलाकर, अपने विवेक का सही प्रयोग नहीं किया। ये बात भी आज देश में चर्चा का विषय बनी हुई है। उधर तीन दिन की भाजपा सरकार के अल्प मत में होने के कारण इस्तीफा देने पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का संवाददाता सम्मेलन में गुबार फूटना क्या जायज नहीं है? क्योंकि उन्हें लग रहा था कि वे एक बार फिर गोवा और मणिपुर की तरह सरकार बनाने में जीती हुई बाजी हार गये।


इन तीन-चार दिनों में जो बहस टीवी चैनलों पर हुई है और जो लेख अखबारों में आए हैं, उन्होंने याद दिलाया है कि पिछले साठ सालों में सत्ता हथियाने में कांग्रेस की केंद्र सरकार ने दर्जनों बार वही किया, जो आज भाजपा कर रही है। इसलिए राहुल गांधी के आक्रोश का कोई नैतिक आधार नहीं है। सोचने वाली बात यह है कि जब देश के दो प्रमुख राजनैतिक दल मौका मिलने पर एक सा अनैतिक आचरण करते है, तो फिर एक दूसरे पर दोषारोपण करने का क्या औचित्य है? यह स्वीकार लेना चाहिए कि राज्यपाल संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति का प्रतिनिधि और गैर राजनैतिक व्यक्ति होता है। पर व्यवहार में वह केंद्र में सत्तारूढ़ दल के हितों को ही साधता है। हालांकि खुलकर कोई इसे मानेगा नहीं। पर हम जैसे आम नागरिकों के लिए यह चिंता की बात होनी चाहिए कि एक-एक करके सभी संवैधानिक संस्थाओं का क्रमशः पतन होता जा रहा है। जिसके लिए मौजूदा सरकार से कम कांग्रेस जिम्मेदार नहीं है। 1975 में आपातकाल का लगना, मीडिया पर सैंसरशिप थोपना, न्यायपालिका को समर्पित बनाने की कोशिश करना, कुछ ऐसे गंभीर गैर लोकतांत्रिक कार्य थे, जिनकी वजह से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की छवि पूरी दुनिया में धूमिल हुई।

जो लोग इवीएम मशीनों के दुरूपयोग का आरोप लगाते हैं और चुनाव आयोग को इस विवाद में घसीटते हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर वास्तव में ऐसा होता, तो दिल्ली मेंआम आदमी पार्टीकी और पंजाब में कांग्रेस की सरकार नहीं बनती। हाल ही में 0प्र0 में दो प्रतिष्ठित संसदीय क्षेत्रों में भाजपा की जो हार हुई, वो होती। कर्नाटक में भाजपा को चंद विधायकों के लिए सत्ता नहीं छोड़नी पड़ती। साफ जाहिर है कि जनता अपने विवेक से मतदान करती है। कोई कितना ही आत्मविश्वास क्यों रखे, मत गणना के अंत तक यह दावा नही कर सकता कि मतदाता उसके साथ है। भारत का मतदाता जाति और धर्म में भले ही बंटा हो, पर उसकी राजनैतिक सूझ-बूझ को चुनौती नहीं दी जा सकती हर चुनाव में वह राजनेताओं के ऊपर मतदाताओं की श्रेष्ठता को स्थापित कर देता है।

इस सब से यह स्पष्ट है कि भारत की आम जनता लोकतंत्र में आस्था रखती है और उसका सम्मान करती है। इसी बात को रेखांकित करते हुए, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब जीवन में पहली बार एक सांसद के रूप में संसद भवन में प्रवेश किया, तो उसकी सीढ़ियों पर माथा टेका, ये कहते हुए कि संसद लोकतंत्र का मंदिर है, जिसका मैं सम्मान करता हूं।

जब प्रधानमंत्री लोकतंत्र का सम्मान करते हों और विपक्ष के सभी प्रमुखे नेता कर्नाटक की घटनाओं को लेकर विचलित हों, तो रास्ता आसान होने की संभावना है। क्योंकि दोनों ही पक्ष अपने-अपने समय पर लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था का नारा दोहराते हैं। तो क्यों नहीं संसद का एक विशेष सत्र बुलाकर कुछ बुनियादी बातों पर सहमति कर लेते हैं? उदाहरण के तौर पर राज्यपाल द्वारा विश्वास मत हासिल करने के लिए अधिकतम दो दिन से ज्यादा का समय नही देना चाहिए। ये तय हो जाना चाहिए कि हमेशा सरकार बनाने का पहला मौका उस दल को मिले, जिसके सबसे ज्यादा विधायक या सांसद जीतकर आऐ हों। अगर वह दल सरकार बनाने में अपनी असमर्थता व्यक्त करे, तब दूसरे दलों को मौका दिया जाना चाहिए। अगर कुछ दल चुनाव के पहले गठबंधन कर लड़े हों और उन्हें बहुमत मिल जाए, तो सरकार बनाने का पहला न्यौता उन्हें ही मिलना चाहिए। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि अगर कानून के दायरे में रहकर राज्यपाल या राष्ट्रपति कोई निर्णय लेते हैं, तो उसमें विवेक के इस्तेमाल के नाम पर फैसला लेनेकी छूट को सीमित कर दिया जाए। जिससे विवेक के इस्तेमाल के नाम पर राजनैतिक खेल खेलना संभव हो।

पर जैसा हम अक्सर कहते करते आऐ हैं कि व्यवस्था कुछ भी बना ली जाए, जब तक उसको चलाने वालों के अंदर नैतिकता नहीं है, तब तक कुछ ठीक नहीं हो सकता। राष्ट्रपति हों, राज्यपाल हों, राजनैतिक दल हों, सांसद हों, विधायक हों, न्यायाधीश हो या मीडियाकर्मी हों अगर अपने व्यवसाय की प्रतिष्ठा के स्वरूप् आचरण नहीं करते, तो लोकतांत्रिक संस्थाओ का पतन होना स्वाभाविक है और अगर नैतिकता से करते हैं, तो कोई समस्या ही नहीं आयेगी। पर ये सब भी तो उसी समाज का अंग है, जिसके हम। जब समाज में ही नैतिक पतन इतना तेजी से हो रहा है, तो नेतृत्व से नैतिकता की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? इसलिए हमारे प्रश्न का उत्तर हम स्वयं हैं। समाज वैसा बनेगा, जैसा हम बनाना चाहेंगे।

Monday, May 14, 2018

सड़कों पर नमाज क्यों नहीं?

धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, वैशाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्राति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों के मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभा यात्राऐं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगरकीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते की इन्हें मयार्दित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाऐ, आयोजित  किया जाए।
किंतु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला  बिछाकर नमाज पढ़ने की जो प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, उससे आम नागरिकों को बहुत तकलीफ होती है। यातायात अवरूद्ध हो जाता है। पुलिस, एम्बुलेंस और फायर बिग्रेड की गाडियां अटक जाती है। जिससे आपातकालीन सेवाओं में बाधा पहुंचती है। इस तरह बड़ी संख्या में एक साथ बैठकर मस्जिद के बाहर नमाज पढ़ने से रूहानियत नहीं फैलती, बल्कि एक नकारात्मक राजनैतिक संदेश जाता है। जो धर्म का कम और ताकत का प्रदर्शन ज्यादा करता है। जाहिर है कि इससे अन्य धर्मावलंबयों में उत्तेजना फैलती है। ऐसी घटना साल में एक आध  बार किसी पर्व हो, तो शायद किसी को बुरा न लगे। पर हर जुम्मे की नमाज इसी तरह पढ़ना, दूसरे धर्मावलंबियों  को स्वीकार नहीं है।
बहुत वर्ष पहले इस प्रवृत्ति का विरोध मुबंई में शिव सेना ने बड़े तार्किक रूप से किया था। मुबंई एक सीधी लाईन वाला शहर है। जिसे अंग्रेजी में ‘लीनियर सिटी’ कहते हैं। उत्तर से दक्षिण मुबंई तक एक सीधी सड़क के दोनों ओर तमाम उपनगर और नगर बसा है। ऐसे में मुबंई की धमनियों में रक्त बहता रहे, यह तभी संभव है, जब इस सीधी सड़क के यातायात में कोई रूकावट न हो। लगभग दो दशक पहले की बात है, मुबंई के मुसलमान भाईयों ने मस्जिदों के बाहर मुसल्ले बिछाकर हर जुम्मे को नमाज पढ़ना शुरू कर दिया। जाहिर है इससे यातायात अवरूद्ध हो गया। आम जनता में इसका विरोद्ध हुआ। शिव सैनिक इस मामले को लेकर बाला साहिब ठाकरे के पास गये। बाला साहिब ने हिंदुओं को आदेश दिया कि वे हर मंदिर के बाहर तक खड़े होकर प्रतिदिन सुबह और शाम की आरती करें। जुम्मे की नमाज तो हफ्ते में एक दिन होती थी। अब ये आरती तो दिन में दो बार होने लगी। व्यवस्था करने में मुबंई पुलिस के हाथ पांव फूल गये। नतीजतन मुबंई के पुलिस आयुक्त ने दोनों धर्मों के नेताओं की मीटिंग बुलाई। पूरे सद्भाव के साथ ये सामूहिक फैसला हुआ कि न तो मुसलमान सड़क पर नमाज पढेंगे और न हिंदू सड़क पर आरती करेंगे। दोनों धर्मावलंबी आज तक अपने फैसले पर कायम हैं।
अब देश की ताजा स्थिति पर गौर कर लें। गत दिनों भाजपा व सहयोगी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने  देश में कई जगह सड़कों पर नमाज का खुलकर विरोध किया। नतीजा ये हुआ कि हरियाणा सरकार ने मस्जिदों के बाहर नमाज पढ़ने पर पाबंदी लगा दी। इसका असर आसपास के राज्यों में भी हुआ। 11 मई को शुक्रवार था, आमतौर पर दिल्ली की कई मस्जिदों के बाहर दूर तक नमाजी फैल जाया करते थे। पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। लोगों ने राहत की सांस ली।
एक साथी पत्रकार ने मुझसे प्रश्न किया कि आप तो आस्थावान व्यक्ति हैं। क्या आप सड़कों पर नमाज पढ़ने को उचित मानते हैं? मेरा उत्तर था-बिल्कुल नहीं। इस पर वे उछल पड़े और बोले कि जिस हिंदू से भी यह प्रश्न पूछ रहा हूं, उसका उत्तर यही है। इसका मतलब मोदी व अमित शाह का चुनावी ऐजेंडा तय हो गया। मैने पूछा- कैसे? तो उनका उत्तर था- भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने सड़कों पर नमाज का विरोध शुरू ही इसलिए किया है कि इससे हिंदू और मुसलमानों का राजनैतिक धु्रवीकरण हो जाए और भाजपा को, विशेषकर उत्तर भारत में, हिंदू मत हासिल करना सुगम हो जाए। अब भाजपा वाले अगले लोक सभा चुनाव तक ऐसे ही मुद्दे उछालते रहेंगे। जैसे तिरंगा ले जाकर मुसलमान के मौहल्लों में पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाना, अलीगढ मुस्लिम विद्यालय से जिन्ना का चित्र हटवाना आदि। जिससे लगातार हिंदू मत एकजुट होते जाए। उन पत्रकार महोदय का यह मूल्यांकन सही हो सकता है। राजनीति में चुनाव जीतने के लिए नऐे-नऐ मुद्दे खोजने का काम हर दल करता है। इसमें कुछ गलत नहीं। अब ये तो मतदाता के विवेक पर है कि वह अपना मत प्रयोग करने से पहले किसी राजनैतिक दल का आंकलन किस आधार पर करता है। केवल भावना के आधार पर या उसके द्वारा विकास कर पाने की संभावनाओं के आधार पर।
चुनावी बहस को छोड़ दें, तो भी यह प्रश्न महत्वपूर्णं है कि धर्म का इस तरह राजनैतिक प्रयोग कहां तक उचित है। चाहे वो कोई भी धर्म को मानने वाला कहे। इसमें संदेह नहीं है कि अल्पसंख्यकों ने राजनैतिक दलों का मोहरा बनकर, अपने आचरण से लगातार, दूसरे धर्मावलंबियों को उत्तेजित किया है। चाहे फिर वो समान नागरिक कानून की बात हो, मदरसों में धार्मिक शिक्षा और राजनैतिक प्रवचनों की बात हो या फिर सड़क पर जुम्मे की नमाज पढ़ने की बात हो। कुछ लोग मानते हैं कि हिंदूवादियों का वर्तमान आक्रोश उनकी सदियों की संचित कुंठा का परिणाम है। दूसरे ऐसा मानते हैं कि अपनी राजनीति के लिए भाजपा इसे नाहक तूल दे रही है। पर हमारे जैसे निष्पक्ष नागरिक को फिर वो चाहे हिंदू हो, मुसलमान हो, सिक्ख हो, पारसी हो, जो भी हो, उसे सोचना चाहिए कि धर्म की उसके जीवन में क्या सार्थकता है? अगर धर्म के अनुसार आचरण करने से उसके परिवार में सुख, शांति और रूहानियत आती है, तो धर्म उसके लिए आभूषण है। पर अगर धर्म के ठेकेदारों, चाहे वे किसी धर्म के हो, के ईशारो पर नाचकर हम अविवेकपूर्णं व्यवहार करते हैं, तो वह तथाकथित धर्म हमारे लिए समाजिक वैमनस्य का कारण बन जाता है। जिससे हमें बचना है। भारत में सदियों से सभी धर्म पनपते रहे हैं। अगर हम पारस्परिक सम्मान और सहयोग की भावना नहीं रखेंगे, तो समाज खंड-खंड हो जायेगा, अशांति और वैमनस्य बढ़ेगा और विकास अवरूद्ध हो जाऐगा।