चुनाव के पहले दौर के मतदान में सिर्फ दस दिन बचे हैं |
विभिन्न दलों के शीर्ष नेता दिन में दो-दो तीन-तीन रैलियां कर रहे हैं | इनमे होने
वाले भाषणों में, इन सब ने, किसी बड़ी बात पर बहस खड़ी करने की हरचंद कोशीश की लेकिन
कोई सार्थक बहस अब तक शुरू नहीं हो पाई | चुनाव पर नज़र रखने वाले विश्लेषक और
मीडिया रोज़ ही शीर्ष नेताओं की कही बातों का विश्लेषण करते हैं और यह कोशिश भी करते
हैं कि कोई मुद्दा तो बने | लेकिन ज्यादातर नेता एक दूसरे की आलोचना के आगे नहीं
जा पाए | जबकि मतदाता बड़ी उत्सुकता से उनके मुह से यह सुनना चाहता है कि सोलहवीं
लोकसभा में बैठ कर वे भारतीय लोकतंत्र की जनता के लिए क्या करेंगे ?
यह बात मानने से शायद ही कोई मना करे कि पिछले चुनावों
की तरह यह चुनाव भी उन्ही जाति-धर्म-पंथ-बिरादरी के इर्दगिर्द घूमता नज़र आ रहा है
| हाँ कहने को विकास की बात सब करते हैं | लेकिन हद कि बात यह है कि मतदाता को साफ़-साफ़
यह कोई नहीं समझा पाया कि विकास के उसके मायने क्या हैं ? जबकि बड़ी आसानी से कोई
विद्यार्थी भी बता सकता है कि सुख सुविधाओं में बढ़ोतरी को ही हम विकास कहते हैं |
और जब पूरे देश के सन्दर्भ में इसे नापने की बात आती है तो हमें यह ज़रूर जोड़ना
पड़ता है कि कुछ लोगों की सुख-सुविधाओं की बढ़ोतरी ही पैमाना नहीं बन सकता | बल्कि
देश की समग्र जनता की सुख-समृधी का योग ही पैमाना बनता है | यानी देश की आर्थिक
वृधी और विकास एक दुसरे के पर्याय नहीं बन सकते | अगर किसी देश ने आर्थिक वृद्धि की
है तो ज़रूरी नहीं कि वहां हम कह सकें कि विकास हो गया या किसी देश ने आर्थिक वृद्धि
नहीं की तो ज़रूरी नहीं कि कहा जा सके कि विकास नहीं हुआ |
मुश्किल यह है कि हमारे पास इस तरह के विश्लेषक नहीं है
कि पैमाने ले कर बैठें और विकास की नापतौल करते हुए आकलन करें | हो यह रहा है कि
विश्लेषक और मीडिया उन्ही लोक-लुभावन अंदाज़ में लगे हैं जिनसे अपने दर्शकों और
पाठकों को भौचक कर सकें | जबकि देश का मतदाता इस समय भौचक नहीं होना चाहता | वह इस
समय संतुष्ट या असंतुष्ट नहीं होना चाहता | बल्कि वह कुछ जानना चाहता है कि उसके
हित में क्या हो सकता है ? यानि वह किसे वोट देकर उम्मीद लगा सकता है ? अब सवाल
उठता है कि क्या कोई ऐसी बात हो सकती है कि जिसे हम सरलता से कह कर एक मुद्दे के
तौर पर तय कर लें | और इसे तय करने के लिए हमें लोकतान्त्रिक व्यवस्था के मूल
उद्देश्य पर नज़र दौड़ानी पड़ेगी |
लोकतंत्र के लक्ष्य का अगर बहुत ही सरलीकरण करें तो उसे
एक शब्द में कह सकते हैं – वह है ‘संवितरण’ | यानी ऐसी व्यवस्था जो उत्पादित
सुख-सुविधाओं को सभी लोगों में सामान रूप से वितरित करने की व्यवस्था सुनिश्चित
करती हो | वैसे गाहे-बगाहे कुछ विद्वान और विश्लेषक समावेशी विकास की बात करते हैं
लेकिन वह भी किसी आदर्श स्तिथि को मानते हुए ही करते हैं | यह नहीं बताते कि
समावेशी विकास के लिए क्या क्या नहीं हुआ है या क्या क्या हुआ है या क्या क्या
होना चाहिए |
इस लेख को सार्थक बनाने की ज़िम्मेदारी भी मुझ पर है |
ज़ाहिर है कि लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या या पूर्व सप्ताह में यह सुझाव देना होगा
कि विभिन्न राजनितिक दल मतदाताओं से क्या वायदा करें ? इसके लिए मानवीय आवश्यकताओं
की बात करनी होगी | यह बताना होगा कि मानवीय आवश्यकताओं की एक निर्विवाद सूची
उपलब्ध है जिसमें सबसे ऊपर शारीरिक आवश्यकता यानी भोजन-पानी, उसके बाद सुरक्षा और
उसके बाद प्रेम आता है | अगर इसी को ही आधार मान लें तो क्या यह नहीं सुझाया जा
सकता कि जो सभी को सुरक्षित पेयजल, पर्याप्त भोजन, बाहरी और आंतरिक सुरक्षा और
समाज में सौहार्द के लिए काम करने का वायदा करे उसे भारतीय लोकतंत्र का लक्ष्य
हासिल करने का वायदा माना जाना चैहिये | अब हम देख लें साफ़ तौर पर और जोर देते हुए
ऐसा वायदा कौन कर रहा है | और अगर कोई नहीं कर रहा है तो फिर ऐसे वायदे के लिए हम
व्यवस्था के नियंताओं पर दबाव कैसे बना सकते हैं ? यहाँ यह कहना भी ज़रूरी होगा कि
जनता प्रत्यक्ष रूप से यह दबाव बनाने में उतनी समर्थ नहीं दिखती | यह काम उन
विश्लेषकों और मिडिया का ज्यादा बनता है जो जनता की आवाज़ उठाने का दावा करते हैं |
चुनाव में समय बहुत कम बचा है | दूसरी बात कि इस बार
चुनाव प्रचार की शुरुआत महीने दो-महीने नहीं बल्कि दो साल पहले हो गयी हो वहां
काफी कुछ तय किया जा चुका है | अब हम उन्ही मुद्दों पर सोचने मानने के लिए अभिशप्त
हैं जो नेताओं ने इस चुनावी वैतरणी को पार करने के लिए हमारे सामने रखे |
स्तिथियाँ जैसी हैं वहां मतदाताओं के पास ताकालिक तौर पर कोई विकल्प तो नज़र नहीं
आता फिर भी भविष्य के लिए सतर्क होने का विकल्प उसके पास ज़रूर है |