Monday, April 29, 2019

सूचना क्रांति के फायदे

जहां एक तरफ भारत के समाचार टीवी चैनल सतही, ऊबाऊ, भड़काऊ, तथ्यहीन सनसनीखेज समाचारों और कार्यक्रमों से देश की जनता का समय बर्बाद कर रहे हैं, उनका ध्यान असली मुद्दों से हटाकर फालतू की बहसों में उलझा रहे हैं। वहीं सूचना क्रांति का एक लाभ भी हुआ है। भारत और विदेश के अनेक टीवी चैनलों ने अनेक तथ्यात्मक और ऐतिहासिक सीरियल बनाकर दुनियाभर के दर्शकों को प्रभावित किया है। इन सीरियलों से हर पीढ़ी के दर्शक का खूब ज्ञानबर्द्धन हो रहा है। मनोरंजन तो होता ही है। यहां मैं कुछ उन सीरियलों का जिक्र करना चाहूंगा, जिन्होंने मुझ जैसे गंभीर दर्शक को भी आकर्षित किया है। वह भी तब जबकि मैं सबसे कम टीवी देखने वालों में हूं।
इस श्रृंखला में एक महत्वपूर्णं सीरियल है, जिसने मेरे दिल और दिमाग पर गहरा असर डाला, वो हैबुद्ध भगवान गौतम बुद्ध की जीवनी पर आधारित इस सीरियल को हर आयु का व्यक्ति पसंद करेगा और उसे भारत की उस दिव्य शक्सियत के बारे में पता चलेगा, जिसने दुनिया के तमाम देशों में अपने संदेश को प्रसारित किया। आज भी चीन, जापान, कोरिया, वियतनाम, इंडोनेशिया भारत जैसे तमाम देश हैं, जहां के लोग भगवान बुद्ध में आस्था रखते हैं। इस सीरियल के अंतिम लगभग 1 दर्जन एपिसोड भगवान बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित हैं, जो किसी भी गंभीर दर्शक को प्रभावित किये बिना नहीं रहेंगे। बुद्ध के किरदार में जयपुर से निकले युवा कलाकार हिमांशु सोनी ने कमाल का अभिनय किया है। उन्हें देखकर ऐसा लगता है, मानों हम ईसा से 600 वर्ष पूर्व मगध साम्राज्य में पहुंच गऐ हैं, जहां हमें भगवान बुद्ध के साक्षात दर्शन हो रहे हैं। हिमांशु के अभिनय का ऐसा प्रभाव पड़ा कि बुद्ध धर्म को मानने वाले सभी देशों के लोग यहां तक कि बौद्ध धर्मगुरू तक हिमांशु के मुरीद हो गए और अपने-अपने देशों में बुलाकर उनका सम्मान किया।
दूसरा सीरियल जिसने मुझे बहुत ज्यादा जानकारी दी, वो हैवाइल्ड वाइल्ड कंट्रीये ओशो यानि आचार्य रजनीश के अमरीका स्थित ध्यान केंद्र आश्रम के अंदर हुई गतिविधियों का बड़े रोचक ढंग से दर्शन कराता है। इससे पता चलता है कि उन दिनों ओशो पूरे विश्व के  मीडिया में इतना क्यों छाए रहे थे। ये सीरियल है तो अंग्रेजी में, पर इसके मुख्य पात्र ज्यादातर भारतीय हैं, जो विवादों में रहकर पूरी दुनिया की सुर्खियों में छाए रहे।
इसी क्रम में एक और अंग्रेजी सीरियल जिसने पूरी दुनिया के दर्शकों को बेमोल खरीद लिया, वो हैक्राउन इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के राज्याभिषेक से लेकर अगले दो दशकों के बीच महारानी के जीवन पर इतनी बढिया प्रस्तुति की गई है कि अगर आप एक एपिसोड देख लो, तो अगले 6-8 एपिसोड देखे बिना उठोगे नहीं, ऐसा नशा चढता। इस सीरियल में दिखाया है कि कैसे नौकरशाह अपने राजा या मंत्री तक को अपनी ऊंगलियों पर नचाते हैं। शासक को कितने दबाव झेलने पड़ते हैं, इसका बहुत बेहतरीन प्रदर्शन इस सीरियल में है। चूंकि भारत पर अंग्रेजों ने 190 साल राज किया और हमारी प्रशासनिक कानूनी व्यवस्था इंग्लैण्ड के संविधान से प्रभावित है। इसलिए हम भारतीयों के लिए यह सीरियल और भी रूचि का है। इसे देखकर हम समझ सकते हैं कि आज भी हमारे देश की नौकरशाही राजनेताओं को कैसे ऊल्लू बनाती है।
एक और सीरियल जो आम भारतीयों को पसंद आया और मुझे भी बहुत अच्छा लगा, वो हैझांसी की रानीहालांकि यह सीरियल अंतराष्ट्रीय स्तर का नहीं है और ऐसा लगता है कि इसे नाहक लंबा खीचा गया है। फिर भी देशभक्ति का जज्बा पैदा करने के लिए और उस वीरांगना के जीवन को समझने के लिए ये एक अच्छा प्रयोग है। वो झांसी की रानी जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी अंगेजों से लोहा लिया और हमारे इतिहास की अमर गाथा बन गई।
इसके अलावा कई अन्य सीरियल आजकलनैटफ्लिक्सयाअमेजनचैनल पर दिखाए जा रहे हैं, जो हमारी जानकारी में तेजी से वृद्धि कर रहे हैं। जैसे भारत की पाक विद्या पर, भारत के मंदिरों पर, हिंदू धर्म के देवी-देवताओं पर डा. देवदत्त पटनायक का विश्लेषण, विश्व पर्यटन के सीरियल, हमारे ग्रह पृथ्वी पर जो जीवन है, उसके विभिन्न आयामों पर दुनिया के तमाम उन देशों के इतिहास पर जिन्हें हम बचपन में अपनी किताबों में संक्षेप में पढते आऐ थे। जैसे- चीन का इतिहास, रोमन साम्राज्य का इतिहास जापान का इतिहास आदि।
दुनिया की कई बड़ी शक्सियतें ऐसी हुई हैं, जिनके जीवन के विषय में हर सदीं में लोगों को उत्सुकता बनी रही है। इस श्रेणी में ईसा मसीह, दलाईलामा जैसे व्यक्तित्व उल्लेखनीय हैं। इन पर भी बहुत अच्छे सीरियल अंतर्राष्ट्रीय चैनलों पर दिखाऐ जा रहे हैं। यहां मैं उन सीरियलों का उल्लेख नहीं कर रहा, जिनमें अपराध की जांच, खेल, सामाजिक सारोकार वाली फिल्में या कार्टून आदि शामिल हैं। ऐसे बहुत सीरियल हैं, जिनकी गुणवत्ता अति उत्तम है। हमारे देश के सीरियल निर्माताओं को उनसे सीखना चाहिए कि कैसे सार्थक सीरियल बनाकर भी लोगों का मनोरंजन किया जा सकता है।
आज इस चुनाव के दौर में जब सब ओर अनिश्चितता है, सरकारी कामकाज भी कछुए की गति से चल रहा है, ऐसे में जीवन की नीरसता को दूर करने में, ये तमाम सीरियल, भादों की फुहार बनके आऐ हैं। मुझे लगा कि आप पाठकों से ये अनुभव साझा करूं, जिससे आप भी इसका लाभ उठा सकें।

Monday, April 22, 2019

इस चुनाव से क्या बदलेगा?

यूं तो हर चुनाव नये अनुभव कराता है और सबक सिखाता है। पर इस बार का चुनाव कुछ अगल ढंग का है। एक तरफ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में हिंदू, मुलसमान व पकिस्तान के नाम पर चुनाव लड़ा जा रहा है और दूसरी तरफ किसान, मजदूर, बेरोजगार और विकास के नाम पर। रोचक बात यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव को मोदी जी ने गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचारमुक्त शासन और विकास के मुद्दे पर लड़ा था। पता नहीं इस बार क्यों वे इन किसी भी मुद्दों पर बात नहीं कर रहे हैं। इसलिए देश के किसान, मजदूर, करोड़ों बेरोजगार युवाओं, छोटे व्यापारियों यहां तक कि उद्योगपतियों को भी मोदी जी की इन सब कलाबाजियों से उनके भाषणों में रूचि खत्म हो गई है। उन्हें लगता है कि मोदी जी ने उन्हें वायदे के अनुसार कुछ भी नहीं दिया। बल्कि जो उनके पास था, वो भी छीन लिया। इसलिए यह विशाल मतदाता वर्ग भाजपा सरकार के विरोध में है। हालांकि वह अपना विरोध खुलकर प्रकट नहीं कर रहा।
पर दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो मोदी जी के अन्धभक्त हैं। जो हर हाल में मोदी सरकार फिर से लाना चाहते हैं। मोदी जी की इन सब नाकामियाबियों को वे कांग्रेस शासन के मत्थे मढ़कर पिंड छुड़ा लेते हैं। क्योंकि इन प्रश्नों का कोई उत्तर उनके पास नहीं है कि जो वायदे मोदी जी ने 2014 में किये थे, उनमें से एक भी वायदा पूरा नहीं हुआ। बीच चुनाव में यह बताना असंभव है कि इस कांटे की टक्कर में ऊंट किस करवट बैठेगा। क्या विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी या मोदी जी की? सरकार जिसकी भी बने, चुनौतियां दोनों के सामने बड़ी होंगी। मान लें कि भाजपा की सरकार बनती है, तो क्या हिंदुत्व के ऐजेंडे को इसी आक्रामकता से, बिना सनातन मूल्यों की परवाह किये, बिना सांस्कृतिक परंपराओं का निर्वहन किये, एक उद्दंड और अहंकारी तरीके से सब पर थोपा जाऐगा, जैसा पिछले 5 वर्षों में थोपा गया। इसका मोदी जी को सीमित मात्रा में राजनैतिक लाभ भले ही मिल जाऐ, हिंदू धर्म और संस्कृति को कोई लाभ नहीं मिला, बल्कि उसका पहले से ज्यादा नुकसान हो गया। इसके कई कारण हैं।
भाजपा व संघ दोनों ही हिंदू धर्म के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं, पर हिंदू धर्म की मूल सिद्धांतों से परहेज करते हैं। जिस तरह का हिंदूत्व मोदी और योगी राज में पिछले कुछ वर्षों में प्रचारित और प्रसारित किया गया, उससे हिंदू धर्म का मजाक ही उड़ा है। केवल नारों और जुमलों में ही हिंदू धर्म का हल्ला मचाया गया, जमीन पर ठोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिससे ये सनातन परंपरा पल्लवित-पुष्पित होती। इस बात का हम जैसे सनातनधर्मियों को अधिक दुख है। क्योंकि हम साम्यवादी विचारों में विश्वास नहीं रखते। हमें लगता है कि भारत की आत्मा सनातन धर्म में बसती है और वो सनातन धर्म विशाल हृदय वाला है। जिसमें नानक, कबीर, रैदास, महावीर, बुद्ध, तुकाराम, नामदेव सबके लिए गुंजाईश है। वो संघ और भाजपा की तरह संकुचित हृदय नहीं है, इसलिए हजारों साल से पृथ्वी पर जमा हुआ है। जबकि दूसरे धर्म और संस्कृतियां कुछ सदियों के बाद धरती के पर्दे पर से गायब हो गए।
संघ और भाजपा के अहंकारी हिंदू ऐजेंडा से उन सब लोगों का दिल टूटता है, जो हिंदू धर्म और संस्कृति के लिए समर्पित हैं, ज्ञानी हैं, साधन-संपन्न हैं पर उदारमना भी है। क्योंकि ऐसे लोग धर्म और संस्कृति की सेवा डंडे के डर से नहीं, बल्कि श्रद्धा और प्रेम से करते हैं। जिस तरह की मानसिक अराजकता पिछले 5 वर्षों में भारत में देखने में आई है, उसने भविष्य के लिए बड़ा संकट खड़ा दिया है। अगर ये ऐसे ही चला, तो भारत में दंगे, खून-खराबे और बढ़ेगे। जिसके परिणामस्वरूप भारत का विघटन भी हो सकता है। इसलिए संघ और भाजपा को इस विषय में अपना नजरिया क्रांतिकारी रूप में बदलना होगा। तभी आगे चलकर भारत अपने धर्म और संस्कृति की ठीक रक्षा कर पायेगा, अन्यथा नहीं।
जहां तक गठबंधन की बात है। देशभर में हुए चुनावों से ये तस्वीर साफ हुई है कि विपक्ष की सरकार भी बन सकती है। अगर ऐसा होता है, तो गठबंधन के साथी दलों को यह तय करना होगा कि उनकी एकजुटता अगले लोकसभा चुनाव तक कायम रहे और आम जनता की उम्मीद पूरी कर पाऐ। आम जनता की अपेक्षाऐं बहुत मामूली होती है, उसे तो केवल सड़क, बिजली, पानी, रोजगार, फसल का वाजिफ दाम और मंहगाई पर नियंत्रण से मतलब है। अगर ये सब गठबंधन की सरकार आम जनता को दे पाती हैं, तभी उसका चुनाव जीतना सार्थक माना जाऐगा। पर इससे ज्यादा महत्वपूर्णं होगा, उन लोकतांत्रिक संस्थाओं और मूल्यों का पुर्नस्थापन, जिन पर पिछले 5 वर्षों में कुठाराघात किया गया है।
लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि मतभेदों का सम्मान किया जाए, समाज के हर वर्ग को अपनी बात कहने की आजादी हो, चुनाव जीतने के बाद, जो दल सरकार बनाऐ, वो विपक्ष के दलों को लगातार कोसकर या चोर बताकर, अपमानित न करें, बल्कि उसके सहयोग सरकार चलाऐ। क्योंकि राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं। मोदी जी की सरकार भी इसकी अपवाद नहीं रही। इसलिए और भी सावधानी बरतनी चाहिए।

Monday, April 1, 2019

कैसे सुधरेगी राजनीति की दशा ?


लोकसभा के चुनावों का माहौल है। हर दल अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर रहा है। जो बड़े और धनी दल है, वे प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने के लिए धन भी देते हैं। कुछ ऐसे भी दल हैं, जो उम्मीदवारी की टिकट देने के बदले में करोड़ों रूपये लेकर टिकट बेचते हैं। पता चला है कि एक उम्मीदवार का लोकसभा चुनाव में 5 करोड़ से लेकर 25 करोड़ रूपया या फिर इससे भी ज्यादा खर्च हो जाता है। जबकि भारत के चुनाव आयोग द्वारा एक प्रत्याशी द्वारा खर्च की अधिकतम सीमा 70 लाख रूपये निर्धारित की गई है। प्रत्याशी इसी सीमा के भीतर रहकर चुनाव लड़े, इसे सुनिश्चित करने के लिए भारत का चुनाव आयोग हर संसदीय क्षेत्र में तीन पर्यवेक्षक भी तैनात करता है। जो मूलतः भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा व भारतीय राजस्व सेवा के वे अधिकारी होते हैं, जो दूसरे प्रांतों से भेजे जाते हैं। चुनाव के दौरान जिला प्रशासन और इन पर्यवेक्षकों की जवाबदेही किसी राज्य या केंद्र सरकार के प्रति न होकर केवल चुनाव आयोग के प्रति होती है। बावजूद इसके नियमों की धज्जियाँ धड़ल्ले से उड़ाई जाती हैं।

इससे यह तो स्पष्ट है कि समाज के प्रति सरोकार रखने वाला कोई ईमानदार व्यक्ति कभी चुनाव लड़ने का सपना भी नहीं देख सकता। क्योंकि चुनाव में खर्च करने को 10-15 करोड़ रूपये उसके पास कभी होंगे ही नहीं। अगर वह व्र्यिक्त यह रूपया शुभचिंतकों से मांगता है, तो वे शुभचिंतक कोई आम आदमी तो होंगे नहीं। वे या तो बड़े उद्योगपति होंगे या बड़े भवन निर्माता या बड़े माफिया। क्योंकि इतनी बड़ी रकम जुऐ में लगाने की हिम्मत किसी मध्यम वर्गीय व्यापारी या कारोबारी की तो हो नहीं सकती। ये बड़े पैसे वाले लोग कोई धार्मिक भावना से चुनाव के प्रत्याशी को दान तो देते नहीं हैं। किसी राजनैतिक विचारधारा के प्रति भी इनका कोई समर्पण नहीं होता। जो सत्ता में होता है, उसकी विचारधारा को ये रातों-रात ओढ़ लेते हैं, जिससे इनके कारोबार में कोई रूकावट न आए। जाहिर है कि इन बड़े पैसे वालों को किसी उम्मीदवार की सेवा भावना के प्रति भी कोई लगाव या श्रद्धा नहीं होती है। तो फिर क्यों ये इतना बड़ा जोखिम उठाते हैं? साफ जाहिर है कि इस तरह का पैसा दान में नहीं बल्कि विनियोग (इनवेस्ट) किया जाता है। पाठक प्रश्न कर सकते हैं कि चुनाव कोई व्यापार तो नहीं है कि जिसमें लाभ कमाया जाए। तो फिर ये रकम इनवेस्ट हुई है, ऐसा कैसे माना जाए?

उत्तर सरल है। जिस उम्मीदवार पर इतनी बड़ी रकम का दाव लगाया जाता है, उससे निश्चित ही यह अपेक्षा रहती है, कि वह पैसा लगाने वालों की लागत से 10 गुना कमाई करवा दे। इसके लिए उस जीते हुए व्यक्ति को अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके इन धनाढ्यों के जा-बेजा सभी काम करवाने पड़ते हैं। जिनमें से अधिकतर काम नाजायज होते हैं और दूसरों का हक मारकर करवाए जाते हैं। इस तरह चुनाव जीतने के बाद एक व्यक्ति पैसे वालों के जाल में इतना उलझ जाता है कि उसे आम जनता के दुख-दर्द दूर करने का समय ही नहीं मिलता। चुनावों के दौरान यह आमतौर पर सुनने को मिलता है कि वोट मांगने वाले पांच साल में एक बार मुंह दिखाते हैं। इतना ही नहीं जब जीता हुआ प्रत्याशी पैसे वालों के इस मकड़जाल में फंस जाता है, तो स्वाभाविक है कि उसकी भी फितरत इसी तरह पैसा बनाने की हो जाती है। जिससे वह अपने भविष्य को सुरक्षित कर सके। इस तरह अवैध धन लगाने और कमाने का धंधा अनवरत् चलता रहता है। इस चक्की में पिसता है बेचारा आम मतदाता। जिसे आश्वासनों के अलावा शायद ही कभी कुछ मिलता हो। इसीलिए जहां दुनिया के तमाम देश पिछले दशकों में विकास की ऊचाईयों पर पहुंच गऐ, वहीं हमारा आम मतदाता आज आजादी के 72 साल बाद भी बुनियादी सुविधाओं के लिए बेज़ार है।

1994-96 के बीच भारत के तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन. शेषन ने तमाम क्रांतिकारी परिवर्तनों से देश के नेताओं को चुनाव आयोग की हैसियत और ताकत का अंदाजा लगवा दिया था। चूंकि इस पूरी चिंतन प्रक्रिया में मैं भी उनका हर दिन साथी रहा, इसलिए एक-एक कदम जो उन्होंने उठाया, उसमें मेरी भी भूमिका रही। उन्होंने चुनाव सुधारों के लिए एक समानान्तर संस्था देशभक्त ट्रस्टभी पंजीकृत करवाया था, जिसके ट्रस्टी वे स्वयं, उनकी पत्नी श्रीमती जया शेषन, मैं व रोज़ा फिल्म की निर्माता वांसती जी थीं। इस ट्रस्ट का संचालन मेरे दिल्ली कार्यालय से ही होता था। उस दौरान श्री शेषन व मैं साथ-साथ चुनाव सुधारों पर विशाल जनसभाए संबोधित करने देश के हर कोने में हफ्ते में कई बार जाते थे और लोगों को राजनैतिक व्यवस्था सुधारने के इस महायज्ञ में सहयोग करने की अपील करते थे।
दुर्भाग्य की बात यह है कि जिन सुधारों को उस समय चुनाव आयोग ने भारत की सर्वोच्च विधायी संस्था संसद को भेजा था उनको संसद की बहसों में उनको काफी कमजोर कर दिया। फिर भी इतना जरूर हुआ कि चुनाव करवाने में जो हिंसा, बूथ कैप्चरिंग और गुंडागर्दी होती थी, वो लगभग समाप्त हो गई। इसलिए देश आज भी श्री शेषन के योगदान को याद रखता है। पर चुनावों में कालेधन के व्यापक प्रयोग पर रोक नहीं लग पाई। शायद हमारे माननीय सांसद इस रोक के पक्ष में नहीं हैं। यही कारण है कि हर चुनाव पहले से ज्यादा खर्चीला होता जा रहा है। मतदाता बेचारा निरीह होकर खुद को लुटता देखता है और थाने, कचहरी के विवादों में अपने नेता की मदद से ही संतुष्ट हो जाता है, विकास की बात तो शायद ही कहीं होती हो।

Monday, March 25, 2019

सांसद की भूमिका क्या होती है?

इस देश की राजनीति की यह दुर्दशा हो गई है कि एक सांसद से ग्राम प्रधान की भूमिका की अपेक्षा की जाती है। आजकल चुनाव का माहौल है। हर प्रत्याशी गांव-गांव जाकर मतदाताओं को लुभाने में लगा है। उनकी हर मांग स्वीकार कर रहा है। चाहे उस पर वह अमल कर पाए या न कर पाए। 2014 के चुनाव में मथुरा में भाजपा उम्मीदवार हेमा मालिनी ने जब गांवों के दौरे किए, तो ग्रामवासियों ने उनसे मांग की कि वे हर गांव में आर.ओ. का प्लांट लगवा दें। चूंकि वे सिनेतारिका हैं और एक मशहूर आर.ओ. कंपनी के विज्ञापन में हर दिन टीवी पर दिखाई देती है। इसीलिए ग्रामीण जनता ने उनके सामने ये मांग रखी। इसका मूल कारण ये है कि मथुरा में 85 फीसदी भूजल खारा है और खारापन जल की ऊपरी सतह से ही प्रारंभ हो जाता है। ग्रामवासियों का कहना है कि हेमा जी ने ये आश्वासन उन्हें दिया था, जो आजतक पूरा नहीं हुआ। सही बात क्या है, ये तो हेमा जी ही जानती होंगी।

यह भ्रान्ति है कि सांसद का काम सड़क और नालियां बनवाना है। झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड में फंसने के बाद प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने सांसदों की निधि की घोषणा करने की जो पहल की, उसका हमने तब भी विरोध किया था। सांसदों का काम अपने क्षेत्र की समस्याओं के प्रति संसद और दुनिया का ध्यान आकर्षित करना हैं, कानून बनाने में मदद करना हैं, न कि गली-मौहल्ले में जाकर सड़क और नालियां बनवाना। कोई सांसद अपनी पूरी सांसद निधि भी अगर लगा दे तो एक गांव का विकास नहीं कर सकता। इसलिए सांसद निधि तो बन्द कर देनी चाहिए। यह हर सांसद के गले की हड्डी है और भ्रष्टाचार का कारण बन गई है।

हमारे लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों के कई स्तर हैं। सबसे नीची ईकाई पर ग्राम सभा और ग्राम प्रधान होता है। उसके ऊपर ब्लाक प्रमुख। फिर जिला परिषद्। उसके अलवा विधायक और सांसद। यूं तो जिले का विकास करना चुने हुए प्रतिनिधियों, अधिकारियों, विधायकों व सांसदों की ही नहीं, हर नागरिक की भी जिम्मेदारी होती है। परंतु विधायक और सांसद का मुख्य कार्य होता है,अपने क्षेत्र की समस्याओं और सवालों को सदन के समक्ष जोरदार तरीके से रखना और सत्ता और सरकार से उसके हल निकालने की नीतियां बनवाना। प्रदेश या देश के कानून बनाने का काम भी क्रमशः विधायक और सांसद करते हैं।

जातिवाद, सम्प्रदायवाद, साम्प्रदायिकता, राजनीति का अपराधिकरण व भ्रष्टाचार कुछ ऐसे रोग हैं, जिन्होंने हमारी चुनाव प्रक्रिया को बीमार कर दिया है। अब कोई भी प्रत्याशी अगर किसी भी स्तर का चुनाव लड़ना चाहे, तो उसे इन रोगों को सहना पड़ेगा। वरना कामियाबी नहीं मिलेगी। इस पतन के लिए न केवल राजनेता जिम्मेदार है, बल्कि मीडिया और जनता की भी जिम्मेदारी कम नहीं। जो निरर्थक विवाद खड़े कर, चुने हुए प्रतिनिधियों के प्रति हमलावर रहते हैं। बिना ये सोचे कि अगर कोई सांसद या विधायक थाना-कचहरी के काम में ही फंसा रहेगा, तो उसे अपनी कार्यावधि के दौरान एक मिनट की फुर्सत नहीं मिलेगी।, जिसमें वह क्षेत्र के विकास के विषय में सोच सके। जनता को चाहिए कि वह अपने विधायक और सांसद को इन पचड़ों में न फंसाकर उनसे खुली वार्ताऐं करें। दोनों पक्ष मिल-बैठकर क्षेत्र की समस्याओं की प्राथमिक सूची तैयार करे और निपटाने की रणनीति की पारस्परिक सहमति से बनाए। फिर मिलकर उस दिशा में काम करे। जिससे वांछित लक्ष्य की प्रप्ति हो सके।

एक सांसद या विधायक का कार्यकाल मात्र 5 वर्ष होता है। जिसका तीन चैथाई समय केवल सदनों के अधिवेशन में बैठने पर निकल जाता है। एक चैथाई समय में ही उन्हें समाज की अपेक्षाओं को भी पूरा करना है और अपने परिवार को भी देखना है। इसलिए वह किसी के भी साथ न्याय नहीं कर पाता। दुर्भाग्य से दलों के कार्यकर्ता भी प्रायः केवल चुनावी माहौल में ही सक्रिय होते हैं, अन्यथा वे अपने काम-धंधों में जुटे रहते हैं। इस तरह जनता और जनप्रतिनिधियों के बीच खाई बढ़ती जाती है। ऐसे जनप्रतिनिधि को अगला चुनाव जीतना भारी पड़ जाता है।

जबकि होना यह चाहिए कि दल के कार्यकर्ताओं को अपने कार्यक्षेत्र में अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के साथ स्थानीय लोगों की समस्याऐं सुलझाने में भी अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए। इसी तरह हर बस्ती, चाहे वो नगर में हो या गांव में उसे प्रबुद्ध नागरिकों की समितियां बनानी चाहिए, जो ऐसी समस्याओं से जुझने के लिए 24 घंटे उपलब्ध हो। मुंशी प्रेमचंद की कथा पंच परमेश्वरके अनुसार इस समिति में गांव की हर जाति का प्रतिनिधित्व हो और जो भी फैसले लिए जाऐ, वो सोच समझ कर, सामूहिक राय से लिए जाऐ। फिर उन्हें लागू करवाना भी गांव के सभी लोगों का दायित्व होना चाहिए।

हर चुनाव में सरकारें आती-जाती रहती हैं। सब कुछ बदल जाता है। पर जो नहीं बदलता, वह है इस देश के जागरूक नागरिकों की भूमिका और लोगों की समस्याऐं। इस तरह का एक गैर राजनैतिक व जाति और धर्म के भेद से ऊपर उठकर बनाया गया संगठन प्रभावी भी होगा और दीर्घकालिक भी। फिर आम जनता को छोटी-छोटी मदद के लिए विधायक या सांसद की देहरी पर दस्तक नहीं देनी पड़ेगी। इससे समाज में बहुत बड़ी क्रांति आऐगी। काश ऐसा हो सके।

Monday, March 18, 2019

नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को

पाठकों को याद होगा कि जब चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री थे, तो हमारे देश का सोना इंग्लैंड के पास गिरवी रखकर, तेल और गैस के बिल का भुगतान किया गया था। दूसरे शब्दों में यह कहा जाऐ कि विकासशील देशों की इकॉनोमी और महगाई दर पैट्रोल और गैस की इंटरनेशनल कीमतों से जुड़ी रहती है। उदाहरण के तौर पर हमारे देश का करीब आधा जीडीपी क्रूड आयल और गैस के आयात में चले जाता है। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए, तो आयल और गैस के आयात के बदले में हर साल ‘मिडिल ईस्ट’ के देशों को करीब दस लाख करोड़ रूपये की भारी भरकम रकम भारत अदा करता है। पिछले पांच साल में मोदी सरकार ने करीब 50 लाख करोड़ रूपये इस मद में खर्च किये हैं।
अब प्रश्न ये पैदा होता है कि क्या ये पैसा बचाया जा सकता था? क्या हमारे देश में तेल और गैस के भंडार पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं थे? तो इसका उत्तर है कि हमारे देश में तेल और गैस के भंडार पर्याप्त मात्रा से भी ज्यादा मौजूद हैं। 24 अक्तूबर 2016 को इसी कॉलम के माध्यम से हमने इसका उल्लेख भी किया था मगर सत्ता में बैठे चार-पांच व्यक्तियों की हवस ने 130 करोड़ भारतीयों की जेब के ऊपर 5 साल तक डाका डाला। आज की तारीख में हमारे देश में उपलब्ध तेल और गैस के भंडारों में से सिर्फ 15 प्रतिशत उत्खनन किया जा रहा है। बाकी 85 प्रतिशत को जानबूझकर छेड़ा नहीं जा रहा। अब जब लोकसभा के चुनाव घोषित हो गए हैं, तो मोदी जी ने तेल और गैस की पॉलिसी में जो संशोधन 2014 में करना था, वो 11 मार्च 2019 को एक अधिसूचना जारी करके कर दिया। इस अधिसूचना से पहले कैबिनेट में 28 फरवरी 2019 को अरूण जेटली के नेतृत्व ये संशोधन करने का फैसला लिया गया। ये संशोधन जानबूझकर 5 साल तक इस तथाकथित ईमानदार मोदी सरकार ने लंबित रखा। 4-5 ताकतवर लोगों ने अपनी धन की हवस को पूरा करने के लिए इस गरीब देश को मिडिल ईस्ट के शेखों के हाथों लुटवा दिया।
दरअसल तेल और गैस के उत्पादन के बारे में एक बहुत बड़ी गलतफहमी है, कि तेल और गैस लाखों सालों के अंतराल में बहुत थोड़ी मात्रा में बनता है। पर ‘केन उपनिषद्’ के एक आख्यान में अग्नि देवता के द्वारा इस गलत धारणा का खुलासा किया गया है। उसी ज्ञान को अमरिका के दो वैज्ञानिकों ने प्रयोग किया, 20 साल तक मिडिल ईस्ट के तेल व गैस के कुंओं में रिसर्च करते रहे, तो उनको पता चला कि तेल और गैस किसी सबडक्शन जोन में जहां मैग्मा 1200 डिग्री सैंटीग्रेड का उपलब्ध होता है, वहां पर एक सैकेंड में भारी भरकम मात्रा में बनते हैं। इसको हम विज्ञान की भाषा में ‘इनआर्गेनिक’ तेल और गैस के बनने की विधि कहते हैं।
सौभाग्य की बात है कि यही परिस्थिति हमारे देश में अंडमान निकोबार द्वीप समूह में भी उपलब्ध है। आज से 30 साल पहले अमरिका के दो वैज्ञानिकों ने मिडिल ईस्ट के तेल के कुंओं में एक अजीब बात देखी, कि तेल के कुंए को साल के शुरू में जितना मापा जाता था। सारा साल तेल के कुंए से तेल निकालने के बाद भी साल के अंत में तेल पहले से बढ़ा हुआ मिलता था। इस अजूबे को देखने के बाद अमरिका के वैज्ञानिकों ने दुनिया के सामने एक घोषणा की मिडिल ईस्ट के तेल के कुंए कभी भी खाली नहीं होंगे। इसी बात को जब वैदिक विज्ञान के परिपेक्ष में खंगाला गया, तो पता चला कि विश्व के पास सिर्फ 50 साल का तेल का स्टॉक नहीं है, बल्कि इसके विपरीत 200 करोड़ साल का तेल और गैस मौजूद है। अगर पूरे विश्व की 800 करोड़ की जनसंख्या प्रतिदिन बाल्टियां भर-भरके तेल से नहाना शुरू कर दे, तो भी 200 करोड़ वर्ष तक उनको धरती माता और अग्नि देवता तेल और गैस की आपूर्ति करते रहेंगे।
आप जानना चाहेंगे कि ये चमत्कारी ‘इनआर्गेनिक’ तेल बनने की विधि क्या है। दुनिया के सभी सबडक्शन जोन्स में जब चूने (कैल्शियम कार्बोनेट) की सतह 1200 डिग्री से.गे. के मैग्मा में प्रवेश करती है, तो कैल्शियम, कार्बन, आक्सीजन अलग-अलग हो जाते हैं। इसी प्रकार जब समुद्र का जल (एच2ओ) 1200 डिग्री मैग्मा के संपर्क में आता है, तो हाईड्रोजन और आक्सीजन अलग-अलग हो जाते हैं। तत्काल कार्बन और हाईड्रोजन मिलकर हाईड्रो कार्बन बन जाता है। जिसको साधारण भाषा में कू्रड आयल और गैस कहते हैं। गौर से देखा जाए तो ये विधि विश्व के सभी सबडक्शन जोन्स के आलवा सी-सप्रेडिंग सेंटर्स’, हॉट-स्पॉट्स, रिफ्ट्स में भी उपलब्ध है।
पाठकों को हम यह बता दें कि जो धीमी गति से तेल और गैस बनने की प्रक्रिया है, उसके अंदर भी इसी प्रक्रिया का जिसको हम विज्ञान की भाषा में मेटार्मोफिस्म (रूपांतरण) उसी का योगदान है।
भारतवासियों को हम बधाई देना चाहते हैं कि आने वाले कुछ ही वर्षों में भारत तेल और गैस का आयात बंद कर देगा और अपने ही देश में निकलने वाले तेल और गैस से हमारी जरूरत पूरी हो जाएगी और यहां तक कि अगर परिस्थितियां अनुकूल रही, तो भारत तेल और गैस का निर्यात करने वाला देश भी बन जाएगा और भारत के सुपरपावर बनने के सपने साकार हो जाऐंगे।

Monday, March 4, 2019

मीडिया अपने गिरेबान में झांके


40 बरस पहले जब हमने टीवी पत्रकारिता शुरू की, तो हमने कुछ मूल सिद्धांतों को पकड़ा था। पहला: बिना प्रमाण के कुछ भी लिखना या बोलना नहीं है। दूसरा: किसी के दिए हुए तथ्यों को बिना खुद परखे उन पर विश्वास नहीं करना। तीसरा: अगर किसी के विरूद्ध कोई विषय उठाना है, तो उस व्यक्ति का उन बिंदुओं पर जबाब या वक्तव्य अवश्य लेना। चैथा:  सभी राजनैतिक दलों से बराबर दूरी बनाकर केवल जनता के हित में बात कहना। जिससे लोकतंत्र के चैथा खंभा होने का दायित्व हम ईमानदारी से निभा सकें। आज 63 बरस की उम्र में भी विनम्रता से कह सकता हूँ कि जहां तक संभव हुआ, अपनी पत्रकारिता को इन चार सिद्धांतों के इर्द-गिर्द ही रखा। ये जरूर है कि इसकी कीमत जीवन में चुकानी पड़ी। पर इसके कारण जीवनभर जो दर्शकों और पाठकों का सम्मान मिलता आया है, वह मेरे लिए किसी पद्मभूषण से कम नहीं है।

ऐसा इसलिए उल्लेख करना पड़ रहा है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से देश के मीडिया का अधिकतर हिस्सा इस सिद्धांतों के विपरीत काम रहा है। ऐसा लगता है कि पत्रकारिता की सारी सीमाओं को लांघकर हमारे कुछ टीवी एंकर और संवाददाता एक राजनैतिक दल के जन संपर्क अधिकारी बन गए हैं। वे न तो तथ्यों की पड़ताल करते हैं, न व्यवस्था से सवाल करते हैं और न ही किसी पर आरोप लगाने से पहले उसको अपनी बात कहने का मौका देते हैं। इतना ही नहीं, अब तो अमरीका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की तरह वे ये कहने में भी संकोच नहीं करते कि जो मीडियाकर्मी या नेता या समाज के जागरूक लोग उनके पोषक राजनैतिक दल के साथ नहीं खड़े हैं, वे सब देशद्रोही हैं और जो साथ खड़े हैं, केवल वे ही देशभक्त हैं। मीडिया के पतन की यह पराकाष्ठा है। ऐेसे मीडियाकर्मी स्वयं अपने हाथों से अपनी कब्र खोद रहे हैं।

ताजा उदाहरण पुलवामा और पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत के हवाई हमले का है। कितने मीडियाकर्मी सरकार से ये सवाल पूछ रहे हैं कि भारत की इंटेलीजेंस ब्यूरो, रॉ, गृह मंत्रालय, जम्मू कश्मीर पुलिस, मिल्ट्रिी इंटेलीजेंस व सीआरपीएफ के आला अफसरों की निगरानी के बावजूद ये कैसे संभव हुआ कि साढ़े तीन सौ किलो आरडीएक्स से लदे एक नागरिक वाहन ने सीआरपीएफ के कारवां पर हमला करके हमारे 44 जाँबाज सिपाहियों के परखच्चे उड़ा दिए। बेचारों को लड़कर अपनी बहादुरी दिखाने का भी मौका नहीं मिला। कितनी मांओं की गोद सूनी हो गई? कितनी युवतियां भरी जवानी में विधवा हो गई? कितने नौनिहाल अनाथ हो गए? मगर इन जवानों को शहीद का दर्जा भी नहीं मिला। इस भीषण दुर्घटना के लिए कौन जिम्मेदार है? हमारे देश की एनआईए ने अब तक क्या जांच की? कितने लोगों को इसके लिए पकड़ा? ये सब तथ्य जनता के सामने लाना मीडिया की जिम्मेदारी है। पर क्या ये टीवी चैनल अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं? या रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर नौटंकीबाजों की तरह चिल्ला-चिल्लाकर युद्ध का उन्माद पैदा कर रहे हैं? आखिर किस लालच में ये अपना पत्रकारिता भूल बैठे हैं?

यही बात पाक अधिकृत कश्मीर पर हुए हवाई हमले के संदर्भ में भी लागू है। पहले दिन से मीडिया वालों ने शोर मचाया कि साढ़े तीन सौ आतंकवादी मारे गए। इन्होंने ये भी बताया कि महमूद अजहर के कौन-कौन से रिश्तेदार मारे गए। इन्होंने टीवी पर हवाई जहाजों से गिरते बम की वीडियो भी दिखाई। पर अगले ही दिन इनको बताना पड़ा कि ये वीडियो काल्पनिक थी। आज उस घटना को एक हफ्ता हो गया। साढ़े तीन सौ की बात छोड़िए, क्या साढ़े तीन लाशों की फोटो भी ये मीडिया वाले दिखा पाऐ ? जिनको मारने का दावा बढ़-चढ़कर किया जा रहा था। जब अंतर्राष्ट्रीय मीडिया मौके पर पहुंचा, तो उसने पाया कि हमारे हवाई हमले में कुछ पेड़ टूटे हैं, कुछ मकान दरके हैं और एक आदमी की सोते हुए मौत हुई है। अब किस पर यकीन करें? सारे देश को इंतजार है कि भारत का मीडिया साढ़े तीन सौ लाशों के प्रमाण प्रस्तुत करेगा। पर अभी तक उसके कोई आसार नजर नहीं आ रहे। प्रमाण तो दूर की बात रही, इन घटनाओ से जुड़े सार्थक प्रश्न तक पूछने की हिम्मत इन मीडियाकर्मियों को नहीं है। ऐसा लगता है कि अब हम खबर नहीं देख रहे बल्कि झूठ उगलने वाला प्रोपोगंडा देख रहे हैं। जिससे पूरे मीडिया जगत की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लग गया है।

तीसरी घटना हमारे मथुरा जिले की है। हमारे गांव जरेलिया का नौजवान पंकज सिंह श्रीनगर में हैलीकॉप्टर दुर्घटना मे शहीद हो गया। हम सब हजारों की तादात में उसकी शाहदत को प्रणाम करने उसके गांव पहुंचे और पांच घंटे तक वहां रहे। सैकड़ों तिरंगे वहां लहरा रहे थे। हजारों वाहन कतार में खड़े थे। सारा प्रशासन फौज और पुलिस मौजूद थी। जिले के सब नेता मौजूद थे। सैकड़ों गांवों की सरदारी मौजूद थी। वहां शहीद के सम्मान में गगन भेदी नारों से आकाश गूंज रहा था। इतनी बड़ी घटना हुई, पर किसी मीडिया चैनल ने इस खबर को प्रसारित नहीं किया। इस सब से शहीद पंकज सिंह के परिवार को ही नहीं, बल्कि लाखों ब्रजवासियों में भी भारी आक्रोश है। वे मुझसे प्रश्न पूछ रहे हैं कि आप खुद मीडियाकर्मी हैं, ये बताईये कि व्यर्थ की बातों पर चीखने-चिल्लाने वाले मीडिया चैनल एक शहीद की अन्त्येष्टि के इतने विशाल कार्यक्रम की क्या एक झलक भी अपने समाचारों में नहीं दिखा सकते थे। जिस शहादत में मोदी जी खड़े दिखाई दें क्या वही खबर होती है? अब इसका मैं उन्हें क्या जबाब दूँ? शर्म से सिर झुक जाता है, इन टीवी वालों की हरकतें देखकर। भगवान इन्हें सद्बुद्धि दें।