Monday, September 9, 2013

धर्म का धंधा सबसे चंगा

आसाराम की गिरफ्तारी के बाद से हर टीवी चैनल पर धर्म के धंधे को लेकर गर्मागरम बहसें चलती रही हैं। पर इन बहसों में बुनियादी बात नहीं उठायी जा रही। धर्म का धंधा केवल भारत में चलता हो या केवल हिन्दू कथावाचक या महंत ही इसमें लिप्त हों यह सही नहीं है। तीन दिन तक मैं इटली के रोम नगर में ईसाईयों के सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र वेटिकन सिटी में पोप और आर्क बिशपों के आलीशान महल और वैभव के भंडार देखता रहा। एक क्षण को भी न तो आध्यात्मिक स्फूर्ति हुई और न ही कहीं भगवान के पुत्र माने जाने वाले यीशू मसीह के जीवन और आचरण से कोई संबध दिखाई दिया। कहां तो विरक्ति का जीवन जीने वाले यीशू मसीह और कहां उनके नाम पर असीम ऐश्वर्य में जीने वाले ईसाई धर्म गुरू ? पैगम्बर साहब हों या गुरू नानक देव, गौतम बुद्ध हो या महावीर स्वामी, गइया चराने वाले ब्रज के गोपाल कृष्ण हो या वनवास झेलने वाले भगवान राम, कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ भोले शंकर हो या कुशा के आसन पर भजन करने वाले हनुमान जी सबका जीवन अत्यन्त सादगी और वैराग्य पूर्ण रहा है। पर धर्म के नाम पर धंधा करने वालों ने उनके आदर्शों को ग्रन्थों तक सीमित कर साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। कोई धर्म इस रोग से अछूता नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हर धर्म क्रमशः भौतिकता की ओर पतनशील हो जाता है।
 
संत वो है जिसके पास बैठने से हम जैसे गृहस्थ विषयी भोगियों की वासनाएं शान्त हो जाए, भौतिकता से विरक्ति होने लगे और प्रभु के श्री चरणों में अनुराग बढ़ने लगे। पर आज स्वंय को ‘संत‘ कहलाने वाले क्या इस मापदंड पर खरे उतरते हैं ? जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता ? इनमें से किसी ने अपने नाम के पहले जगतगुरू, महामंडलेश्वर, परमपूज्य, अवतारी पुरूष, श्री श्री 1008 जैसी उपाधियां नहीं लगाईं। पर इनका स्मरण करते ही स्वतः भक्ति जागृत होने लगती है। ऐसे संतों की हर धर्म में आज भी कमी नहीं है। पर वे टीवी पर अपनी महानता का विज्ञापन चलवाकर या लाखों रूपया देकर अपने प्रवचनों का प्रसारण नहीं करवाते। क्योंकि वे तो वास्तव में प्रभु मिलन के प्रयास में जुटे हैं ? हम सब जानते हैं कि घी का मतलब होता है गाय या किसी अन्य पशु के दूध से निकली चिकनाई । अब अगर किसी कम्पनी को सौ फीसदी शुद्ध घी कहकर अपना माल बेचना पड़े तो साफ जाहिर है कि उसका दावा सच्चाई से कोसों दूर है। क्योंकि जो घी शुद्ध होगा उसकी सुगन्ध ही उसका परिचय दे देगी। सच्चे संत तो भौतिकता से दूर रहकर सच्चे जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग बताते हैं। उन्हें तो हम जानते तक नहीं क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि कोई उन्हें जाने। पर जो रोजाना टीवी, अखबारों और होर्डिगों पर पेप्सी कोला की तरह विज्ञापन करके अपने को संत या गुरू कहलवाते हैं उनकी सच्चाई उनके साथ रहने से एक दिन में सामने आ जाती है। बशर्ते देखने वाले के पास आंख हों।
 
जैसे- जैसे आत्मघोषित धर्माचार्यो पर भौतिकता हावी होती जाती है, वैसे-वैसे उन्हें स्वंय पर विश्वास नहीं रहता इसलिए वे भांति-भांति के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर अपने नाम का श्रंगार करते हैं। नाम का ही नहीं तन का भी श्रंगार करते हैं। पोप के जरीदार गाउन हो या रत्न जटित तामझाम, भागवताचार्यो के राजसी वस्त्र और अलंकरण हों या उनके व्यास आसन की साज सज्जा, क्या इसका यीशू मसीह के सादा लिबास या शुकदेव जी के विरक्त स्वरूप से कोई सम्बन्ध है ? अगर नहीं तो ये लोग न तो अपने इष्ट के प्रति सच्चे हैं और न ही उस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति जिसे बांटने का ये दावा करते हैं ? हमने सच्चे संतों के श्रीमुख से सुना है कि जितने लोग आज हर धर्म के नाम पर विश्वभर में अपना साम्राज्य चला रहे हैं, अगर उनमें दस फीसदी भी ईमानदारी होती तो आज विश्व इतने संकट में न होता।
 
आसाराम कोई अपवाद नहीं है। वे उसी भौतिक चमक दमक के पीछे भागने वाले शब्दों के जादूगर हैं जो शरणागत की भावनाओं का दोहन कर दिन दूनी और रात चैगुनी सम्पत्ति बढ़ाने की दौड़ में लगे हैं। जब-जब आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों का संबध ऐश्वर्य से जुड़ा है तब-तब उस धर्म का पतन हुआ है। इतिहास इसका साक्षी है। यह तो उस जनता को समझना है जो अपने जीवन के छोटे-छोटे कष्टों के निवारण की आशा में मृग-मरीचिका की तरह रेगिस्तान में दौड़ती है, कि कहीं जल मिल जाए और प्यास बुझ जाए। पर उसे निराशा ही हाथ लगती है। पुरानी कहावत है ‘पानी पीजे छान के, गुरू कीजे जान के‘ । 

Monday, September 2, 2013

आसाराम और उनका सच आमने सामने

आसाराम कांड ने एक से बड़े एक दिग्गजों को उनकी हैसियत बता दी है। यहाँ तक कि अपने चतुर सर्मथकों तक को बता दिया है कि उनकी क्या ताकत है। 10 दिन तक मीडिया भी गंभीरता के साथ आसाराम और उनके सच को उजागर करने में पूरी शिद्दत से लग रहा था। लेकिन कानून के हाथ आसाराम के पास तक नहीं पहुँच पाये। हाथ तो क्या कानून की परछाई तक आसाराम तक नही पहुँच पायी।
 
इस कांड का कोई ऐसा पारंम्परिक पक्ष नहीं है, जिस पर जोर-शोर से बहसें नहीं हुईं। लेकिन यह खुलकर समझाया नहीं जा सका कि आसाराम के पीछे ऐसी कौन सी ताकत है ? आसाराम के पास पैसे की ताकत, साम्प्रदायिक पक्ष की ताकत, राजनैतिक ताकत, अपने कर्मचारियों की फौज की ताकत या उनके पास जमा होने वाली भीड़ की ताकत, लगता है कि इन ताकतों की कोई काट पिछले 8-10 दिनों में ढूँढी नहीं जा सकी। इसलिए सवाल उठता है कि ऐसे झूठ के खिलाफ कौन सा तर्क या सच हो सकता है ? इसके शोध की जरुरत है।
 
यदि यही बात है कि आसाराम के आयोजनों में पहुँचने वाले भोले-भाले लोगों की संख्या ही उनकी ताकत है, तो हमें उनके श्रोताओं के अध्ययन की जरुरत पडे़गी जो सब कुछ देख कर भी जानना नहीं चाहते। यह बात महत्वपूर्ण इसलिए है कि देश में इस वक्त दोनों प्रमुख राजनैतिक दल भाजपा और कांग्रेस इस कांड को लेकर फौरी तौर पर मुश्किल में नजर आ रहे हैं। भाजपा पर आसाराम को चतुराई के साथ बचाने के आरोप है और वारदात राजस्थान में होने के कारण वहाँ सत्तारुढ कांग्रेस पर आरोप है कि कुछ भी मुश्किलें रही हों राजस्थान पुलिस ने आसाराम को फौरन ही और सख्ती के साथ क्यों नहीं पकड़ा ? 10 दिनों मे इतनी बहसें हो जाने के बाद यह कोई भी समझ सकता है कि दोनों ही दलों के ऐसे रवैये का क्या कारण हो सकता है ?
 
सब जानते है कि कानूनी उपायों की क्या सीमाएं होती है ? हम सोचकर देखें कि अगर आसाराम को 10 दिन पहले सख्ती से पकड़ लिया जाता तो क्या होता ? हालांकि हमारे यहाँ इस तरह का सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं है। लेकिन जब ये सवाल उठ रहे हों कि राजस्थान पुलिस ने 10 दिन पहले ही आसाराम को क्यों नहीं पकड़ लिया, तो यह सवाल वाजिब है कि तब क्या होता ? इसका जवाब भी विद्धानों ने टीवी पर जारी बहसों में दिया है कि आसाराम ऐसी बुराई थे जो एक नकाब में थे और उसे बेनकाब करना जरूरी था। इन 10 दिनों में आसाराम खुलकर बेनकाब हो पाये। 10 दिन पहले उन्हें पकड़ा जाता तो उन्हें अपनी नकाबपोश छवि के कारण और उनके सर्मथकों के प्रोपेगंडा के कारण आसाराम को सहानभूति मिल जाने का भी एक बड़ा अंदेशा था। बात कुछ दार्शनिक किस्म की जरुर है लेकिन फौरी तौर पर महत्वपूर्ण इसलिए है कि आसाराम कोई एकल मुक्त बुराई नहीं लगते, बल्कि लगता है कि अभी कई आसारामों को जानने और समझने की जरुरत पड़ेगी और जब हम मुद्दे को सम्रग रुप में देखेंगे, तभी कुछ अच्छा होने की उम्मीद की जा सकती है। वरना टुकड़ों-टुकड़ों में ऐसे कांड बगैर किसी निर्णायक उपायों के आते जाते रहेंगे।
 
सनसनीखेज आसाराम कांड की कुछ पाश्र्व कथाएं भी बनी है। राजनैतिक क्षेत्र में देखें तो उमा भारती से लेकर मध्य प्रदेश के नेता विजय वर्गीय तक कई नेताओं ने आसाराम को बेकसूर साबित करने में खूब जोर लगाया। हालांकि माहौल बिगड़ता देख भाजपा वरिष्ठ नेताओं और प्रवक्ताओं ने आखिर में हालात संभालने में पूरा जोर लगा दिया।
 
एक सबसे जटिल और बारीक कथा आसाराम को बीमार बताने की भी कोशिश हैं। आसाराम के पुत्र ने शनिवार को प्रेस कान्फ्रेंस में बताया कि आसाराम को एक न्यूरोलोजिकल बीमारी न्यूरेल्जिय है। अब उनके डाक्टरों और कानूनी विशेषज्ञों ने एक ऐसी बीमारी का जिक्र कर दिया है जिसकी व्याख्या और निर्धारण करने में पुलिस और फौरेन्सिक मनोवैज्ञानिकों को हफ्तों क्या महीनों लग जायेंगे।
 
अपराध शास्त्र खास तौर पर अपराध मनोविज्ञान के एक विशेषज्ञ का कहना है कि यह एक ऐसा सामान्य रोग है जिसका न तो विश्वसनीयता के साथ यांत्रिक परीक्षण संभव है और न ही इसका कोई विश्वसनीय कारण ज्ञात हो पाया है। अनुमान के आधार पर माना जाता है कि तनाव या विशाक्ता या अदृश्य संक्रमण या किसी यांत्रिक चोट के कारण नाड़ियों में दर्द हो जाता है जिसका नाम न्यूरोलोजी के विशेषज्ञों के न्यूरेल्जिय रख लिया है। इस रोग में जब किस नाड़ी मे दर्द होता है तो उसके लक्षण थोड़ी देर के लिए चेहरे पर आ जाते हैं। अब आसाराम को ऐसी बीमारी का रोगी बताया जाना पुलिस को मुश्किल मे डालने के लिए है। इस बीमारी का न तो विश्वसनीमय परीक्षण है और न कोई आसानी से प्रमाणित कर सकता है कि रोगी को यह रोग नहीं है।
 
यानि ऊँचे स्तर के आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक आदि मामलों को जटिल बनाने के लिए देश में इतने नुक्ते विद्धमान हैं कि कोई सिद्ध या असिद्ध कर पाये या न कर पाये लेकिन उसे उलझाकर लटका जरुर जा सकता है। इस भूल भूलैया में भटकाव के इन रास्तों को सीधा सरल बनाने का काम भी हमारे सामने है। लेकिन इसके लिए व्यवस्थित सोच, विचार, शोध और दार्शनिक विर्मशों की जरुरत पडे़गी, जिसके लिए शायद हमारे पास वक्त नहीं।

Monday, August 26, 2013

आसाराम कांड से बाबा लोग बेचैन

आसाराम कांड ने देश के बाबा लोगों को बेचैन कर दिया है। हफ्ते भर से आसाराम के बहाने मीडिया में बहस जारी है। लेकिन यह बहस हमेशा की तरह फौरी तौर पर उस सनसनी तक ही सीमित है जिसकी उम्र आम तौर पर चार छह दिन से ज्यादा नहीं होती। फिर भी यह कांड इसलिए गंभीर विचार विषयों की मांग कर रहा है। क्योंकि यह धर्म, व्यापार, अपराध और राजनीति के दुश्चक्र का भी मामला है। वैसे धर्म का मामला तो यह बिल्कुल भी नहीं लगता। किसी पंच या धार्मिक संगठन से भी कोई बात नहीं बनती। जो थोड़ा बहुत समाज सुधारक का प्रचार था वह भी जाता रहा।
 
रही बात व्यापार की तो यह सबके सामने है कि ऐसे कथित धार्मिक साम्राज्य बिना व्यापार के खड़े ही नहीं हो सकते और एक बार यह व्यापार चल पड़ता है तो दूसरी ताकतें खुद व खुद आने लगती हैं। इन्हीं में एक ताकत कानून की फिक्र न करने की भी ताकत है। आसाराम इसी की वजह से पकड़ में आते जा रहे हैं। बेखौफ होना हमेशा ही फायदेमंद नहीं होता। पिछले सात दिनों में आसाराम के प्रतिष्ठान के कर्मचारियों ने आसाराम की छवि को जिस तरह से खौफनाक बनाया है उससे आसाराम का बचाव कम हुआ है और उन्हें मुश्किल में ड़ालने में काम ज्यादा हुआ है। आसाराम के प्रतिष्ठान के पास प्रशिक्षित प्रबंधकों की भी कमी है। वरना वे प्रबंधक जरुर सोच लेते कि एक व्यापारिक प्रतिष्ठान के लिए छवि का क्या महत्व होता है। यानि इस कांड में आसाराम की छवि को जिस तरह खौफनाक बनाया है। उससे उसके प्रतिष्ठान के व्यापार पर बहुत ही बुरा असर पड़ेगा ? इसलिए उनके अनुयायी श्रद्धालु कम और ग्राहक ज्यादा थे।
 
तीसरा तत्व अपराध का है। मौजूदा मामला सीधे सीधे अपराधों का ही है। जैसा मीडिया पर दिखता है उससे साफ है कि उन्होंने हद ही कर दी है। एक के बाद एक होते कांड उनके अनुयायी भी सहन नहीं कर पायेंगे और फिर भारतीय मानस आत को बिल्कुल पंसद नहीं करता। अपराधों के मामले में तो वह तुरन्त प्रक्रिया करने लगते हैं। देश के लोगों के इस स्वभाव को आसाराम समझ नहीं रहे हैं। उन्हें अपने अनुयायियों की संख्या पर भ्रमपूर्ण घमंड है। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है कि अन्ना कहां से कहां आ गए हैं और उनके अनुयायी कहां चले गये हैं।

रही बात राजनीति की तो आसाराम राजनीति से भी बाज नहीं आते। हो सकता है कि अनुयायियों की संख्या की बात का जिक्र करके वे राजनीतिक व्यवस्था भी इसलिए धमकाते रहते हो ताकि उनके काम में अड़चन डालने से कोई जरूरत न करे। लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए राजनीतिक व्यवस्था लोकतंत्र के अनुयायियों की संख्या के बल पर ही बनी होती है। हालांकि आसाराम ने राजनीतिकों पर मखौल जैसी टिप्पणीयां करके एक कवच बनाने की कोशिश की थी। यानि उन्होंने आम तौर पर की जाने वाली प्रेपबद्धी की थी। अभी कुछ महीनों पहले उन्होंने सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं की खिल्ली उड़ाई थी। ऐसी खिल्लियां इसलिए उड़ायी जाती हैं कि अगर कानूनी तौर पर आसाराम जैसे लोगो पर कोई कार्यवाही हो तो कहा जा सके ये तो बदले की कार्यवाही है। खैर यह कोई नयी या बड़ी बात नहीं है।
 
नयी बात यह है आसाराम कांड ने उन जैसे तमाम बाबाओं को बेचैन कर दिया है। और शायद इसलिए दूसरे ऐसे बाबाओं का धु्रवीकरण नहीं हो पा रहा है। वरना साम्प्रदायिकता, धर्म या आस्था जैसे मामलों में प्रभावित पक्ष एक दम इकट्ठे हो जाते हैं लेकिन आसाराम कांड के मामले में वे आसाराम से बचते नजर आ रहे हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है कि आसाराम कांड को लेकर विज्ञाननिष्ठ और अंधविश्वास विरोधी शक्तियां काफी मजबूती से अपना पक्ष रखती नजर आ रही हैं। इसे सामाजिक व्यवस्था के लिए शुभ लक्षण माना जाना चाहिए। लेकिन वहां भी दिक्कत यह है कि तर्कशास्त्री अभी कोई अकादमिक पाक्य नही बना पाये है जो अंधविश्वास पर सीधे चोट कर सके और आम आदमी को आसानी से बता सके कि चमत्कार या इन्द्रीअतीत शक्तियों की बातों से वै कैसे ठगे जाते है या आम जन के जीवन पर कैसा बुरा प्रभाव पडता है। ये सारी बाते भले ही हमे साफ साफ न दिखती हो लेकिन इतना तो हो ही गया है कि अब समाज प्रतिवाद के लिए तैयार हो गया है बस अब जरूरत है ऐसे मामलों मे एक सार्थक संवाद की है।

Monday, August 19, 2013

संसद में अराजकता का जिम्मेदार कौन

 
देश के प्रतिष्ठित मीडिया हाउस हिन्दू ने पिछले दिनों टी.वी. पर जनहित में एक विज्ञापन प्रसारित किया। जिसमें एक शिक्षिका कक्षा में आकर विद्यर्थियों से कहती है कि आज हम संसद की कार्यवाही का अभिनय करेंगे। कक्षा में बायीं ओर बैठे छात्र सत्ता पक्ष के हंै और दायीं ओर बैठे छात्र विपक्ष के। सत्ता पक्ष में से एक उन्होंने प्रधानमंत्री बनाकर चर्चा शुरू करने का आदेश दिया। आदेश मिलते ही कक्षा में ज्योमेट्री बाक्स, पानी की बोतलें, कागज की गेंदें, चप्पल, जूते और कुर्सी एक दूसरे पर फेंके जाने लगे। विज्ञापन यहीं समाप्त हो गया, इस संदेश के साथ कि ‘सावधान देश आपको देख रहा है’। दरअसल देश की संसद और विधान सभाओं में यह दृश्य आम हो गया है जब हमारे कानून निर्माता ऐसा ही व्यवहार करते हैं, तो फिर बच्चों ने अभिनय में क्या गलती की?
पिछले दिनों राज्य सभा के सभापति ने उच्च सदन में सांसदों के ऐसे ही व्यवहार से क्षुब्ध होकर कहा कि क्या आप इसे ‘आराजकता का संघ’ बनाना चाहते हैं। इस पर सांसद काफी नाराज हो गये और अध्यक्ष के विरोध में स्वर गूंजने लगे। यहाँ तक कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के सांसद एक सुर में बोल रहे थे। अगले दिन डा. हामिद अंसारी ने सांसदों को इस मुद्दे पर बातचीत करने की इजाजत दी और उनसे प्रश्न किया कि वे बतायें कि बार-बार संसद की कार्यवाही स्थगित क्यों करनी पड़ती है। जिसके बाद बडे शान्त वातावरण में सभी सांसदों में गम्भीर चर्चा की। सांसदों का कहना था कि ऐसी शब्दावली का प्रयोग करके अध्यक्ष ने सांसदों का अपमान किया है। उनके अनुसार अराजकता असमाजिक व्यवहार का परिचायक है। सबकी ओर से संसदीय राज्यमंत्री राजीव शुक्ला ने इस वार्तालाप को संसद की कार्यवाही से अलग करने की प्रार्थना अध्यक्ष महोदय से की।
दूसरी तरफ अध्यक्ष महोदय ने सांसदों को बताया कि कई देशों में ‘फेडरेशन आफ अनार्किस्ट’ बाकायदा औपचारिक संगठन हैं। लेकिन यह सही है कि भारत में इस शब्द का अर्थ असामाजिक व्यवहार ही माना जाता है। इस पूरे घटना क्रम से एक लाभ हुआ। संसद में और विधान सभाओं में बार-बार आने वाले व्यवधानों पर गम्भीर चर्चा शुरू हो गयी। इस चर्चा को परिणाम तक ले जाने की जरूरत है। वैसे तो संसदीय मर्यादा के व्यापक नियम हैं। पर जब हालात इतने बेकाबू हो जाये तो शायद बारीक कानूनों की जरूरत पड़ती है। मसलन संसद की कार्यवाही के दौरान कोई बिना अनुमति के खड़ा नहीं होगा। बोलेगा नहीं। दो सांसद आपस में खुसुर - पुसुर भी नहीं करेंगे। अगर बात करनी होगी तो सदन के बाहर जाकर करेंगे। देखने में यह कानून बड़े बचकाने लगेंगे मानो स्कूल के बच्चों के लिये बनाये जा रहे हों। पर जब हमारे सांसदों का व्यवहार ऐसा हो कि स्कूल के बच्चे उसका उपहास उड़ाये तो फिर वाकई बारीक कानूनों की शरण लेनी पड़ेगी।
जब ऐसी आचार संहिता को बनाने की बात आयेगी तो जाहिरन बहस लम्बी चलेंगी। कानून के बारे में कहा जाता है कि वकील ही उसकी व्याख्या करते हैं। हम जानते हैं कि वकील उसकी व्याख्या से कुछ भी अर्थ निकाल लेते हैं यानी एक ही कानून की व्याख्या कई तरह से हो सकती है। इसलिये संसद की आचार संहिता के प्रावधानों को अगर इतनी बारीकी तक ले जाना होगा तो भाषा के चयन पर भी काफी वक्त लगेगा। क्योंकि फिर जो उपनियम बनेंगे उन पर भी विमर्श का सिलसिला चालू हो जायेगा। इसलिये यह काम बड़ी सावधानी और धीरज के साथ करना होगा।
सोचने वाली बात यह है कि जब हमारे सांसद पढ़े-लिखे और समझदार हैं और व्यक्तिगत जीवन में बड़ी शालीनता से दूसरे दलों के सांसदों से व्यवहार करते हैं तो सत्र के दौरान यह अराजकता क्यों? क्या इसके लिये हमारी जनता भी जिम्मेदार है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जनता ही अपने सांसदों से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा रखती हो और उनके उत्तेजक भाषणों पर वैसे ही ताली बजाती हो जैसे सलीम जावेद के लिखे डायलाग सुनकर बजाती है। फिर तो इस आचरण के लिये जनता को ही जिम्मेदार ठहराना होगा। अगर वो ऐसा आचरण करने वाले सांसद के व्यवहार से खुश नहीं है तो उसे बार-बार चुनकर संसद में क्यों भेजती है? उसका परित्याग क्यों नहीं करती? फिर तो यह माना जायेगा कि सांसद वही करते हैं जो उनके मतदाता उनके अपेक्षा करते हैं। इसलिये यह गम्भीर प्रश्न है, जिस पर लम्बी और गहरी चर्चा होनी चाहिये। हम अपने कानून के मन्दिरों को इस तरह निरर्थक बयान बाजी की भेंट चढ़ाकर देश की जनता के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते।

चिन्ता की बात यह है कि भारत ही नहीं अब और भी देशों में सांसदों का ऐसा व्यवहार दिखाई देने लगा है। क्या यह माना जाये कि यह छूत की बीमारी उन्हें भारत से लगी है या यह माना जाये कि दुनिया के लोकतंत्रों में अब बातचीत नहीं शोर-शराबा और हंगामा ही लोगों का भविष्य निर्धारित करेगा। अगर ऐसा है तो यह सबके लिये चिन्ता का विषय होना चाहिये।

Monday, August 12, 2013

दुर्गा शक्ति नागपाल के मामले में अखिलेश यादव ने नया क्या किया?

देश का मीडिया, उ.प्र. के विपक्षी दल, आई.ए.एस. आफिसर्स एसोसिएशन के सदस्य और कुछ सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता दुर्गा शक्ति नागपाल के निलम्बन को लेकर काफी उत्तेजित हैं और उ.प्र. के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि स्वयं दुर्गा शक्ति नागपाल ने कोई बयान न देकर अपनी परिपक्वता का परिचय दिया। पर इस घटना ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं।

सबसे पहला प्रश्न तो यह है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस मामले में ऐसा कुछ नहीं किया जो आजाद भारत के इतिहास में अन्य प्रान्तों के मुख्यमंत्री आज तक न करते आये हों। दरअसल ऐसी दुर्घटनायें इस नौकरी में नये आये उन लोगों के साथ होती हैं जो इस नौकरी के मूल स्वभाव को नहीं समझ पाते। आई.ए.एस. का गठन न तो भारत के आम लोगों का विकास करने के लिये हुआ था और न ही शासन के शिंकजे से स्वतंत्र रहकर पूरी निष्पक्षता से प्रशासन करने के लिये। अंग्रेज शासन ने लोहे का ढ़ांचा मानी जाने वाली आई.ए.एस. का गठन आम जनता से राजस्व वसूलने और उसे दबाकर अपनी सत्ता कायम रखने के लिये किया था। आजादी के बाद इसके दायित्वों में तो भारी विस्तार हुआ पर अपनी इस औपनिवेशिक मानसिकता से यह नौकरी कभी बाहर नहीं निकल पाई। आज भी आई.ए.एस. के अधिकारी राजनैतिक आकाओं के एजेन्ट का काम करते हैं। जिले में तैनाती ही उनकी होती है जो प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं का हित साधने का अलिखित आश्वासन देते हैं। ऐसा न करने वालों को प्रायः गैर चमकदार पदों पर भेज दिया जाता है। इसलिये आई.ए.एस. में काम करने वाले अधिकारी न तो स्वतंत्र चिन्तन करते हैं और न ही स्वतंत्र फैसले लेते हैं। उन्हें पता है कि ऐसा करने पर वे महत्वपूर्ण पद खो सकते हैं। बिरले ही होते हैं जो समाज की सेवा और अपने राजनैतिक आकाओं की सेवा के अपने दायित्वों के बीच सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं। ज्यादातर अधिकारी अपनी नौकरी के कार्यकाल में किसी न किसी पक्ष की पूंछ पकड़ लेते हैं। इससे उन्हें कभी बहुत लाभ का और कभी सामान्य जीवन जीना पड़ता है।

यही कारण है कि आई.ए.एस. में काम करने वाले अधिकारी पूरी जिन्दगी लकीर पीटते रह जाते हैं। न तो कुछ उल्लेखनीय कर पाते हैं और न ही समाज को उसका हक दिला पाते हैं। इस नौकरी में आते ही यह बात प्रशिक्षण के दौरान दिमाग में बैठा दी जाती है कि तुम समाज की क्रीम हो। क्रीम तो दूध के ऊपर तैरती है, कभी भी नीचे के दूध के साथ घुलती-मिलती नहीं। इसके साथ ही इस नौकरी में यह बताया जाता है कि तुम्हारा काम अपने राजनैतिक आकाओं के इरादों के अनुसार व्यवहार करना है। जो युवा यह बात नौकरी के प्रारम्भ में समझ लेते हैं वे बिना किसी झंझट के अपना कार्यकाल पूरा कर लेते हैं। पर जो दुर्गा शक्ति नागपाल की तरह यह गलतफहमी पाल लेते हैं कि उनका एक स्वतंत्र अस्तित्व है और वे अपनी इच्छानुसार व्यवहार कर सकते हैं वे अपनी नौकरी को शुरू के वर्षों में तो कभी-कभी मीडिया की चर्चाओं में आ जाते हैं। मध्यमवर्गीय समाज के हीरों बन जाते हैं। पर बाद के वर्षों में उनमें से ज्यादातर परिस्थिति को समझकर या तो मौन हो जाते हैं या समझौते कर बैठते हैं।

उधर प्रोफेसर रामगोपाल यादव व अखिलेश यादव का यह कहना कि केन्द्र चाहे तो आई.ए.एस. के अधिकारियों को उ.प्र. से वापिस बुला सकता है। उनकी सरकार बिना इन अधिकारियों के भी चल जायेगी, लोगों को बहुत नागवार गुजरा है। इस पर मीडिया में तीखे बयान और टिप्पणियाँ आये हैं। पर सपा नेताओं के बयान इतने गैर जिम्मेदाराना नहीं कि इन्हें मजाक में दरकिनार कर दिया जाये। हमारा अनुभव बताता है और अनेक आकादमिक अध्ययनों में बार-बार यह सिद्ध किया है कि आई.ए.एस. ने देश को काहिल और निकम्मा बनाने का काम किया है। अनावश्यक अहंकार, फिजूलखर्र्ची, श्रेष्ठ विचारों और सुझावों की उपेक्षा कर अपने गैर व्यावहारिक विचारों को थोपना और बिना जनता के प्रति उत्तरदायी बनें उसके संसाधनों की बर्बादी करना इस नौकरी से जुड़े लोगों का ट्रैक रिकार्ड रहा है। अपवाद यहाँ भी है पर इस बारे में कोई मुगालता नहीं कि अगर इस नौकरी से जुड़े लोग ईमानदारी, निष्पक्षता, मितव्यता, संवेदनशीलता और व्यावहारिकता से आचरण करते तो देश फिर से सोने की चिड़िया बन जाता। जनता राजनेताओं को हर बीमारी की जड़ बताकर कठघरे में खड़ा कर देती है, जबकि विद्वान लोगों का मानना है कि राजनेताओं को भी बिगाड़ने का काम भी इसी जमात ने किया है। इसलिये इस पूरी नौकरी के औचित्य, चयन और प्रशिक्षण पर देश में गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है।

Monday, August 5, 2013

छोटे राज्यों की कवायद

दशकों से उठ रही तेलांगना की मांग आखिर सरकार ने मान ली। पर इसके साथ ही एक नया हंगामा देश भर में खड़ा हो गया है। गोरखालैण्ड, हरितप्रदेश, पूर्वांचल, बुन्देलखण्ड, विदर्भ जैसे तमाम छोटे राज्यों की मांग अब जोर पकड़ने लगी है। छोटे राज्यों के पक्ष और विपक्ष दोनों में काफी तर्क हैं। छोटा राज्य प्रशासनिक दृष्टि से संभालना आसान होता है। अब उत्तर-प्रदेश को लें तो गाजियाबाद में रहने वाले को आजमगढ़ के रहने वाले से क्या व्यवहार हो सकता है। राज्य की कल्पना, भाषा और संस्कृति की समरूपता के आधार पर होती है तो उसकी एक पहचान बनती है। गुजरात को महाराष्ट्र से और आंध्रप्रदेश को तमिलनाडु से अलग करने का ऐसा ही आधार था।
दरअसल छोटे राज्यों में योजनाओं को जनआधारित बनाना सरल होता है। जनता की शासन तक पहुँच और पकड़ भी ज्यादा प्रभावी होती है। क्षेत्रवाद और जातिवाद के चलते होने वाली विषमतायें कम होने की संभावना रहती है। पर सवाल है कि क्या केवल छोटे राज्य की इच्छा मात्र कर लेने से हर समस्या का हल निकाला जा सकता है? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य उतना बड़ा बने जितना उसकी आर्थिक सामथ्र्य हो। अगर कोई राज्य अपने आर्थिक संसाधनों पर निर्भर रहकर जी सकता है और आगे बढ़ सकता है तो उसे बनाने में कोई संकोच नहीं होना चाहिये। पर अगर राज्य का निर्माण तो हो जाये लेकिन उसके प्रशासनिक और विकासात्मक खर्चों की कोई व्यवस्था न हो। इन खर्चों के लिये उस राज्य को केन्द्र पर निर्भर रहना पड़े तो यह कोई बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य नहीं होगा। एक राज्य का निर्माण मतलब उस क्षेत्र पर अचानक भारी प्रशासनिक खर्चों का दबाव। राज्य बनेगा तो राजधानी बनेगी। जिसमें सचिवालय, विधान सभा, उच्चन्यायालय और तमाम प्रशासनिक भवन बनाये जायेंगे। जिसमें लाखों करोड़ रुपया खर्चा आयेगा। अगर वह क्षेत्र पहले से ही आर्थिक रूप से अविकसित है तो इस अनावश्यक बोझ से उसके भावी विकास की संभवना भी धूमिल पड़ जायेगी।

जहाँ तक बात है कि छोटे राज्यों से विकास ज्यादा अच्छा होता है। तो यह कोई शाश्वत सत्य नहीं। खनिज सम्पदा से भरपूर झारखण्ड राज्य भ्रष्टाचार के कारण तबाह हो रहा है। वहाँ जितनी भी सरकारें बनी सब पर खनिज सम्पदा की भारी लूट के आरोप लगे हैं। अब अगर राज्य के संसाधनों की ऐसी खुली लूट होनी है तो बिहार के साथ जब झारखण्ड था तब क्या बुरा था? इसलिये यह तर्क दिया जाता है कि अगर राज्य की सरकार और उसकी नौकरशाही ईमानदार है, जनोन्मुख नीतियाँ बनाती है और नागरिकों के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह निष्ठा से करती है तो बड़ा राज्य भी अपने सभी क्षेत्रों का ध्यान रख सकता है। किन्तु छोटा राज्य बने पर उसकी भ्रष्ट सरकार और भ्रष्ट नौकरशाही हो तो ऐसे छोटे राज्य का क्या लाभ?
दरअसल हमारे देश में जो भाषा, धर्म, जाति और क्षेत्र के नाम पर जगह-जगह असन्तोष और जनआन्दोलन खड़े हो रहे हैं, इनके मूल में है हमारे विकास का मॉडल। हम योजनायें तो बहुत बनाते हैं। लोगों को सपने भी बहुत दिखाते हैं। सफल लोकतंत्र होने का दावा भी करते हैं। हमारे चुनावों में केन्द्र और प्रान्त की सरकारें बिना खूनी क्रान्ति के बदल जाती हैं। पर लोगों की हालत नहीं बदलती। सरकार किसी भी बदल की आ जाये नौकरशाही उस पर हावी रहती है। योजनायें जनता को सुख पहुँचाने के लिये नहीं बल्कि कमीशन का प्रतिशत बढ़ाने के लिये बनायी जाती है। इसलिये कुछ नहीं बदलता! लोगों में असन्तोष बढ़ता है तो स्थानीय नेता उनका नेतृत्व पकड़ लेते हैं। फिर उन्हें राहत दिलाने के नाम पर सपनों के सब्जबाग दिखाते हैं। जनता बहकावे में आकर उनके पीछे चल पड़ती है। इस उम्मीद में कि कहीं से कुछ तो राहत मिले। पर जब इन नेताओं को परखने का समय आता है तो पता चलता है कि नई बोतल में पुरानी शराब ही थी। फिर निराशा हाथ लगती है। इसलिये जरूरत इस बात की है कि छोटे राज्यों की मांग पर अपनी ऊर्जा खर्च करने की बजाय देश के जागरूक नागरिक व्यवस्था पारदर्शी और जिम्मेदार बनाने की कोशिश करें। पिछले वर्ष टीम अन्ना ने एक कोशिश की थी पर वह अपने उद्देश्य से भटक गई। जबकि ऐसे आन्दोलन को देश भर में लगातार चलाकर दबाव बनाने की जरूरत है।
 
कोई कानून या कोई नई सरकार ऐसा जादू नहीं कर सकती जो मौजूदा व्यवस्था में सम्भव न हो। इसलिये मौजूद निजाम को ही ठीक ढ़र्रे पर लाने की जरूरत है। होता यह है कि हर आन्दोलन अच्छे मकसद से शुरू होता है। पर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षायें और अहम् के टकराव उसे दिशा विहीन कर देते हैं। हर बार आम जनता छली जाती है। इसलिये आसानी से वह किसी आन्दोलन के उद्देश्यों पर यकीन नहीं करती। इस विषम चक्र को भी तोड़ने की जरूरत है। कुछ लोग तो ऐसे हों जो अपने उसूलों पर चलते हुये लगातार जनता को आगाह और जागरूक करते रहें।

Monday, July 29, 2013

देश में क्यों हो रही हैं इधर-उधर की बातें ?

टी.वी. चैनल हों या राजनैतिक बयानबाजी ऐसा लगता है कि देश में मुद्दों का अभाव हो गया है। जिधर देखो उधर इधर-उधर की बातें की जा रही हैं। दर्शक, श्रोता और पाठक हैरान हैं कि इन बातों से उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी का क्या ताल्लुक ? ये किसकी बातें हो रही हैं ? किसके लिये हो रही हैं ? इनसे किसे लाभ हो रहा है? अगर आम जनता को नही तो ये बातें क्यों हो रही हैं ? या तो इन मुद्दों का चयन असली मुद्दों से ध्यान हटाने के लिये किया जा रहा है या मुद्दों का चयन करने वालों को सूझ ही नहीं रहा कि किन मुद्दों का उठायें।

गरीब आदमी का खाना 5 रुपये में होता है, 12 रुपये में या 20 रुपये में। जब देश के अर्थशास्त्रियों ने अपने सर्वेक्षणों और अध्ययनों से बार-बार यह सिद्ध कर दिया है कि देश के 70 प्रतिशत आदमी की रोजाना आमनदनी औसतन 20 रु. प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से ज्यादा नहीं है। तो सोचने वाली बात यह है कि वो एक बार में कितना रुपया अपने भोजन पर खर्च करने की हालत में होगा। जो लोग दिल्ली, मुम्बई और कलकत्ता के बाजारों में जाकर खाने की थाली के दाम पूछकर इन बयानों का मजाक उड़ा रहे हैं, लगता है उन्होंने देश के देहाती इलाकों में जाकर असली आम आदमी की हालत का जायजा ही नहीं लिया। अगर लिया होता तो वे ये समझ पाते कि देश का 70 प्रतिशत गरीब आदमी एक वक्त में 5 रु. - 7 रु. से ज्यादा अपने भोजन पर खर्च नहीं कर पाता।

इसी तरह यह देखकर सिर धुनने को मन करता है कि चुनाव का अभी कोई अता-पता नहीं, पर चुनावी परिणामों पर बहसें चालू हो चुकी हैं। चुनाव छः महिने में होंगे या साल भर में इसकी कोई गारण्टी नहीं। राजनैतिक दलों ने न तो अपने घोषणा पत्र जारी किये हैं, न ही उम्मीदवारों की सूची। न देश में कोई हवा बनी है और न ही आम जनता को अभी से चुनाव के बारे में सोचने की फुरसत है। ऐसे में बहसें की जा रही हैं कि सरकार किसकी बनेगी। इससे ज्यादा बे-सिर पैर का मुद्दा बहस के लिये क्या हो सकता है ? ऐसे विषयों का चुनाव करने वालों को तो छोड़ें, पर इन विशेषज्ञों को क्या हो गया जो आकर इन मुद्दों पर अपनी टिप्पणियाँ दर्ज करा रहे हैं? ‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा’।

लगे हाथ अब बटला हाउस काण्ड को भी परख लें। जब सब कुछ तय हो चुका था। केवल अदालत का फैसला आना बाकी था। तो फिर इस काण्ड की शुरू से आखिर तक की कहानी दोहराने से क्या मकसद हासिल हो रहा था। पर ये कहानी दोहराई गई। एक-दो बार नहीं बल्कि बीसियों बार। जबकि अदालत का फैसला वही आया जो पुलिस के रिकॉर्ड में तथ्य दर्ज किये गये थे। फिर इस कहानी को बार-बार पेश करके क्या बताने की कोशिश की गई? अगर चर्चा ही करनी थी तो इस काण्ड के आरोपियों को मिलने वाली सजा और उसके कानूनी पेचों पर चर्चा की जा सकती थी। जैसी पिछले दिनों कसाब और अफजल गुरू की फांसी के दौरान चर्चायें की गईं। उससे इस तरह के अपराधों के कानूनी, सामाजिक और नैतिक पक्ष को समझने में दर्शकों और पाठकों को मदद मिलती।

पिछले दिनों बिहार में ‘मिड-डे मील’ में 23 बच्चों की मौत को लेकर एक बड़ा मुद्दा बना। बनना भी चाहिये था, आखिर गरीब के बच्चे जहरीला खाना खाने के लिये तो स्कूल भेजे नहीं जाते। अगर बिहार सरकार ने लापरवाही की तो उसे मीडिया में उछालना बिल्कुल वाज़िब बात थी। पर बात बिहार तक ही सीमित नहीं है। जब हमारा संवाददाता कैमरा या कलम लेकर देश के अलग-अलग प्रान्तों में मिड-डे मील कार्यक्रम की पड़ताल करने निकलता है, तो वह पाता है कि कमोबेश यही हाल पूरे देश के हर प्रान्त के मिड-डे मील का है। यानी बिहार को अकेला कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। जैसे ही इस बात का अंदाजा लगा, यह गम्भीर मुद्दा बहसों से गायब हो गया, क्यों? क्या इस मुद्दे पर बाकी प्रदेशों में गहरी पड़ताल कर शोर मचाने की जरूरत नहीं है?

बीच-बीच में कुछ मुद्दे बाढ़, भू-स्खलन व जमीन ध्ंसने जैसी प्रकृतिक आपदाओं के आते ही रहते हैं। उत्तराखण्ड की विपदा सामान्य आपदा से ज्यादा प्रलय जैसी घटना थी। इसलिये मीडिया को सक्रिय भी होना पड़ा और महीने भर तक उसका कवरेज भी करना पड़ा। क्योंकि इस प्रलय से देश के हर हिस्से का परिवार जुड़ा था और यह विजुअल्स की दृष्टि से दिल दहलाने वाला कवरेज था। जब यह मुद्दा उठा तो जाहिर है कि आपदा प्रबन्धन, प्रशासनिक अकुशलता व विनाशोन्मुख विकास के माॅडल पर चर्चा की जाती। की भी गई। पर इतनी बड़ी आपदा के बाद भी इस गम्भीर सवाल को हमारा मीडिया लम्बे समय तक टिकाये नहीं रख सका। इतना कि देश में इस पूरे प्रबंधन हीनता के खिलाफ एक माहौल बनता और देश भर से दबाव समूह सक्रिय होते, तो बदलाव की दिशा भी दिखने लगती। लगता है नये-नये मुद्दे तलाशने की हुलहुलाहट में हमने एक बड़ा मौका खो दिया।