बाबा रामदेव का धरना मीडिया की निगाह में सफल भले ही ना हो पर इस बार बाबा टीम अन्ना पर भारी पडे़। जिस दौर में टीम अन्ना विफल होकर जंतर मंतर से उठी उस दौर में बाबा रामदेव ने अपनी शैली बदलकर राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया। न तो उन्होंने टीम अन्ना की तरह राजनैतिक दलों को गाली दी और न ही अपनी मांगों पर अड़ने का बचपना दिखाया। इस तरह बाबा रामदेव ने राजनैतिक सागर की गहराई को सतह पर से मापने की कौशिश की। साधन सम्पन्न बाबा लम्बी पारी खेलने के लिए तैयार हैं इसलिए उन्होंने धीरता का यह नया रूप दिखाया। प्रश्न है कि बाबा की शैली में अचानक यह बदलाव कैसे आया ? क्या बाबा ने मजे हुए राजनैतिक सलाहकारों की मदद ली या फिर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के थिंक टैंक ने उनकी यह नई रणनीति तैयार की ? जो भी हो अगर वे इसी परिपक्वता का परिचय भविष्य में भी देते हैं तो निश्चित रूप से राजनीति के एक छोटे से हिस्से को ही सही, प्रभावित कर पायेंगे। अगर वे फिर पहले जैसा व्यवहार करते हैं तो हाशिये पर खड़े कर दिये जायेंगे।
वैसे बाबा रामदेव के धरने की शुरूआत एक विवादास्पद पोस्टर के कारण अच्छी नहीं रही। अपने सहयोगी आचार्य बालकृष्ण को राष्ट्र के सम्मानित नेताओं और शहीदों के साथ खड़ा करके बाबा ने नाहक मीडिया और देशवासियों की आलोचना झेली। इसके लिए उनकी टीम ने जो भी जिम्मेदार है उसे कान पकड़कर बाहर कर देना चाहिए। आचार्य बालकृष्ण के योगदान को महिमामण्डित करने के अनेक अवसर आये हैं और आयेंगे पर इस तरह का विचार बाबा के सलाहकारों के मानसिक दिवालियेपन का परिचय देता है।
टीम अन्ना ने बाबा की पूर्व घोषित तारीख से पहले अपना धरना शुरू कर बाबा को विफल करने की पूरी साजिश रची । यह बात दूसरी है कि टीम अन्ना अपनी उम्मीद के विपरीत बुरी तरह विफल होकर गई पर साथ ही वह बाबा के धरने की धार भी कुन्द कर गई। धरना शुरू करने से पहले बाबा का मुख्य मुद्दा था काला धन। पर टीम अन्ना की छाया में उन्हें लोकपाल, किसान, मजदूर व अन्य विषयों से जुडे मुद्दे भी उठाने पड़े। इससे उनका मूल मुद्दा पीछे छूट गया। इतने सारे मुद्दे एक साथ उठाने से बाबा के धरने की अहमियत कम हो गई।
मीडिया तो पहले की तरह ही बाबा के धरना स्थल पर मौजूद था। पर बाबा के भाषण में और मंच से जो कुछ बोला जा रहा था वह इस लायक नहीं था कि मीडिया उस पर ध्यान देता। बाबा के कार्यक्रम में खबर देने जैसा कुछ खास नहीं था।
बाबा के मंच पर न तो राष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति दिखाई दिये और न ही स्थानीय नेता। टीवी चैनलों पर टिप्पणीकार यही कहते रहे कि बाबा का आन्दोलन बौद्धिक क्षमता से शून्य है। बाबा के इर्द-गिर्द रहने वालों को यह बात शायद गले न उतरे पर सच है कि इन लोगों ने बाबा की छवि सुधारने का कोई काम नहीं किया, छवि गिरने का काम जरूर हुआ है। इसलिए बाबा को अगर भविष्य में ऐसा कोई राजनैतिक अभियान चलाना है तो उन्हें इस कमी को गम्भीरता से दूर करना होगा।
जहां तक स्थानीय नेतृत्व को मंच प्रदान करने का प्रश्न है तो यह कोई आसान काम नहीं। प्रचार के महत्वाकांक्षी बहुत से लोग इस तरह के आन्दोलनों में इसलिए सक्रिय हो जाते हैं क्योंकि उन्हें प्रचार मिलने की सम्भावना दिखाई देती है। ऐसे लोग मंच को मछली बाजार बना देते हैं पर इनके बिना राजनैतिक ताकत का पूरा प्रदर्शन भी नहीं होता। इस दिशा में बाबा की एक सीमा यह भी है कि उनके आन्दोलनों में शामिल होने वाले लोग उनके अनुयायी या वेतनभोक्ता कर्मचारी हैं, स्वयंसेवी आन्दोलित जनता जनार्दन नहीं। इसलिए इनसे कोई बड़ी राजनैतिक शक्ति बनने की उम्मीद नहीं की जा सकती।
जन आन्दोलनों से जुड़े अनुभवी लोगों का मानना है कि जब बाबा ने अपने तेवर इतने ठण्डे और लोचशील कर ही लिये तो उन्हें इस धरने की जगह तीन दिन का राष्ट्रीय चिन्तन शिविर रखना चाहिए था। जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों के अनुभवी लोगों को बुलाकर, लोकतांत्रिक तरीके से देश के सवालों पर मुक्त चिन्तन किया जाता। इससे लोग भी जुटते और बाबा की साख और शक्ति दोनों बढती। ऐसा बाबा निकट भविष्य में भी कर सकते हैं। कुल मिलाकर बाबा का धरना जहां सनसनीखेज खबरों का मसाला नहीं बन पाया वहीं इसने बाबा के व्यक्तित्व में अचानक आये बदलाव का प्रदर्शन किया। यह बदलाव बाबा के लिए उपयोगी है या नहीं यह तो भविष्य बतायेगा। हां इस धरने का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। उस दृष्टि से धरने को सफल नहीं कहा जा सकता।
बाबा युवा हैं, बालकृष्ण जेल में बंद हैं, मीडिया मुद्दों को उठाने के लिए तैयार हैं और 2014 का संसदीय चुनाव सिर पर है। ऐसे में बाबा का एक सही कदम उन्हें फिर से उनकी खोई प्रतिष्ठा लौटा सकता है या मौजूदा बची प्रतिष्ठा को भी गंवा सकता है।
वैसे बाबा रामदेव के धरने की शुरूआत एक विवादास्पद पोस्टर के कारण अच्छी नहीं रही। अपने सहयोगी आचार्य बालकृष्ण को राष्ट्र के सम्मानित नेताओं और शहीदों के साथ खड़ा करके बाबा ने नाहक मीडिया और देशवासियों की आलोचना झेली। इसके लिए उनकी टीम ने जो भी जिम्मेदार है उसे कान पकड़कर बाहर कर देना चाहिए। आचार्य बालकृष्ण के योगदान को महिमामण्डित करने के अनेक अवसर आये हैं और आयेंगे पर इस तरह का विचार बाबा के सलाहकारों के मानसिक दिवालियेपन का परिचय देता है।
टीम अन्ना ने बाबा की पूर्व घोषित तारीख से पहले अपना धरना शुरू कर बाबा को विफल करने की पूरी साजिश रची । यह बात दूसरी है कि टीम अन्ना अपनी उम्मीद के विपरीत बुरी तरह विफल होकर गई पर साथ ही वह बाबा के धरने की धार भी कुन्द कर गई। धरना शुरू करने से पहले बाबा का मुख्य मुद्दा था काला धन। पर टीम अन्ना की छाया में उन्हें लोकपाल, किसान, मजदूर व अन्य विषयों से जुडे मुद्दे भी उठाने पड़े। इससे उनका मूल मुद्दा पीछे छूट गया। इतने सारे मुद्दे एक साथ उठाने से बाबा के धरने की अहमियत कम हो गई।
मीडिया तो पहले की तरह ही बाबा के धरना स्थल पर मौजूद था। पर बाबा के भाषण में और मंच से जो कुछ बोला जा रहा था वह इस लायक नहीं था कि मीडिया उस पर ध्यान देता। बाबा के कार्यक्रम में खबर देने जैसा कुछ खास नहीं था।
बाबा के मंच पर न तो राष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति दिखाई दिये और न ही स्थानीय नेता। टीवी चैनलों पर टिप्पणीकार यही कहते रहे कि बाबा का आन्दोलन बौद्धिक क्षमता से शून्य है। बाबा के इर्द-गिर्द रहने वालों को यह बात शायद गले न उतरे पर सच है कि इन लोगों ने बाबा की छवि सुधारने का कोई काम नहीं किया, छवि गिरने का काम जरूर हुआ है। इसलिए बाबा को अगर भविष्य में ऐसा कोई राजनैतिक अभियान चलाना है तो उन्हें इस कमी को गम्भीरता से दूर करना होगा।
जहां तक स्थानीय नेतृत्व को मंच प्रदान करने का प्रश्न है तो यह कोई आसान काम नहीं। प्रचार के महत्वाकांक्षी बहुत से लोग इस तरह के आन्दोलनों में इसलिए सक्रिय हो जाते हैं क्योंकि उन्हें प्रचार मिलने की सम्भावना दिखाई देती है। ऐसे लोग मंच को मछली बाजार बना देते हैं पर इनके बिना राजनैतिक ताकत का पूरा प्रदर्शन भी नहीं होता। इस दिशा में बाबा की एक सीमा यह भी है कि उनके आन्दोलनों में शामिल होने वाले लोग उनके अनुयायी या वेतनभोक्ता कर्मचारी हैं, स्वयंसेवी आन्दोलित जनता जनार्दन नहीं। इसलिए इनसे कोई बड़ी राजनैतिक शक्ति बनने की उम्मीद नहीं की जा सकती।
जन आन्दोलनों से जुड़े अनुभवी लोगों का मानना है कि जब बाबा ने अपने तेवर इतने ठण्डे और लोचशील कर ही लिये तो उन्हें इस धरने की जगह तीन दिन का राष्ट्रीय चिन्तन शिविर रखना चाहिए था। जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों के अनुभवी लोगों को बुलाकर, लोकतांत्रिक तरीके से देश के सवालों पर मुक्त चिन्तन किया जाता। इससे लोग भी जुटते और बाबा की साख और शक्ति दोनों बढती। ऐसा बाबा निकट भविष्य में भी कर सकते हैं। कुल मिलाकर बाबा का धरना जहां सनसनीखेज खबरों का मसाला नहीं बन पाया वहीं इसने बाबा के व्यक्तित्व में अचानक आये बदलाव का प्रदर्शन किया। यह बदलाव बाबा के लिए उपयोगी है या नहीं यह तो भविष्य बतायेगा। हां इस धरने का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। उस दृष्टि से धरने को सफल नहीं कहा जा सकता।
बाबा युवा हैं, बालकृष्ण जेल में बंद हैं, मीडिया मुद्दों को उठाने के लिए तैयार हैं और 2014 का संसदीय चुनाव सिर पर है। ऐसे में बाबा का एक सही कदम उन्हें फिर से उनकी खोई प्रतिष्ठा लौटा सकता है या मौजूदा बची प्रतिष्ठा को भी गंवा सकता है।