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Monday, February 24, 2014

सीबीआई में नियुक्ति पर बवाल

पिछले दिनों प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में नियुक्ति समिति ने सीबीआई के अतिरिक्त निदेशक के पद पर श्रीमती अर्चना रामासुन्दरम् की नियुक्ति करके एक और विवाद खड़ा कर दिया है। उल्लेखनीय है कि यह नियुक्ति केन्द्रीय सर्तकता आयोग अधिनियम व दिल्ली पुलिस स्थापना कानून की अवज्ञा करके की गई है। इस कानून के अनुसार सी.बी.आई. में पुलिस अधीक्षक से लेकर विशेष निदेशक तक की नियुक्ति करने का अधिकार जिस समिति को दिया गया है, उसकी अध्यक्षता केन्द्रीय सर्तकता आयुक्त करते हैं। इस समिति में दो सर्तकता आयुक्त, भारत के गृहसचिव व भारत के डी.ओ.पी.टी. विभाग के सचिव भी सदस्य होते हैं। सी.बी.आई. के निदेशक को सलाह लेने के लिए आमन्त्रित अतिथि के रूप में बुलाया जाता है। सी.बी.आई. के निदेशक की सलाह मानना इस समिति की बाध्यता नहीं है। पर इस समिति द्वारा जो नाम प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली नियुक्ति समिति को भेजा जाता है, उससे मानना प्रधानमंत्री की समिति के लिए अनिवार्य है। अभी तक ऐसा ही होता आया है। उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने विनीत नारायण फैसले के तहत सी.बी.आई. की स्वायत्ता सुनिश्चित करने के लिए यह निर्देश जारी किए थे।
पर अर्चना रामासुन्दरम् की नियुक्ति करके प्रधानमंत्री ने एक बार फिर इन नियमों की अवहेलना की है। उल्लेखनीय है कि दो वर्ष पहले केन्द्रीय सर्तकता आयुक्त की नियुक्ति के समय प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की सलाह की उपेक्षा करके पी.जे. थामस को नियुक्त कर दिया था, जिस पर भारी बवाल मचा। उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के कड़े रूख को देखते हुए श्री थामस को इस्तीफा देना पड़ा। ठीक वैसी स्थिति अब पैदा हो गई है। केन्द्रीय सर्तकता आयुक्त की अध्यक्षता वाली चयन समिति ने सी.बी.आई. के सह निदेशक पद के लिए बंगाल काडर के पुलिस अधिकारी आर.के. पचनन्दा का नाम प्रस्तावित किया था। जिसे डी.ओ.पी.टी. ने लौटाकर पुर्नविचार करने को कहा। जिसके बाद 26 दिसम्बर, 2013 को दूसरी बैठक में भी चयन समिति ने फिर से आरके पचनन्दा का नाम ही प्रस्तावित किया, अब यह सरकार की बाध्यता बन गया। पर सरकार ने इसकी परवाह नहीं की और किन्हीं दबावों में आकर अपनी मर्जी से सहनिदेशक की नियुक्ति कर दी। यहां प्रश्न की इस बात का नहीं है कि अर्चना रामासुन्दरम् योग्य हैं या नहीं। सवाल इस बात का है कि क्या प्रधानमंत्री का यह निर्णय कानून सम्मत है या नहीं, उत्तर है नहीं, तो फिर यह नियुक्ति अदालत की परीक्षा में कैसे खरी उतर पाएगी। अगर प्रधानमंत्री को आरके पचनन्दा के नाम पर आपत्ति थी, तो उन्हें इसके लिखितकारण बताकर समिति को पुर्नविचार करने के लिए कहना चाहिए था। पर ऐसा कोई आरोप सरकार ने पचनन्दा के विरूद्ध नहीं लगाया, इसलिए उनकी उम्मीदवारी की उपेक्षा का कोई कारण समझ में नहीं आता।
उल्लेखनीय है कि जब मुझे इस गैरकानून प्रक्रिया की भनक मिली, तो मैंने 7 फरवरी, 2014 को प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र लिखकर ऐसा न करने की सलाह और चेतावनी दी। पर उसके बावजूद जब यह निर्णय हो गया, तो मुझे सार्वजनिक रूप से टेलीविजन चैनलों पर इसकी भत्र्सना करनी पड़ी और अब मैं इस मामले को सर्वोच्च अदालत में ले जाने की तैयारी कर रहा हूं।
मेरा प्रश्न इतना सा है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार गठित चयन समिति की कोई हैसियत सरकार के दिमाग में है या नहीं। अगर सरकार कानून का उल्लंघन करके सी.बी.आई. में अपनी पसंद के अधिकारी नियुक्त करना चाहती हैं, तो वह अदालत से कहकर उसके निर्देशों के विरूद्ध फैसला ले ले, क्योंकि फिर उसे केंद्रीय सर्तकता आयोग की जरूरत नहीं बचेगी। फिर तो वह सी.बी.आई. में मनमानी नियुक्ति कर सकती है। पर जब तक यह कानून प्रभावी है, इसका उल्लंघन गैर कानूनी माना जाएगा। इसलिए एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाकर ‘विनीत नारायण फैसले’ की पुर्नव्याख्या करवानी होगी।
 समझ में नहीं आता कि चुनावी वर्ष में, अपने कार्यकाल के अन्तिम कुछ हफ्तों में प्रधानमंत्री क्यों बार-बार ऐसी गलती दोहरा रहे हैं, जिस पर पहले भी उनकी फजीहत हो चुकी है। अब देखना यह है कि अदालत इस मामले में क्या निर्णय देती है।

जो भी हो, अगर फैसला सरकार के विरूद्ध आता है तो आरके पचनन्दा सी.बी.आई. के अतिरिक्त निदेशक नियुक्त किए जा सकते हैं और अगर फैसला सरकार के पक्ष में आता है, तो अर्चना रामासुन्दरम् इस स्थान को भर सकती हैं। फिलहाल वे तमिलनाडु काडर की पुलिस अधिकारी हैं। मैं समझता हूं कि इस जनहित याचिका पर अदालत का रूख सुने बिना अगर अर्चना रामासुन्दरम् सी.बी.आई. में पदभार ग्रहण कर लेती हैं और फिर फैसला उनके विरूद्ध आता है, तो उन्हें वापिस अपने राज्य लौटना होगा। शायद वे इतनी हड़बड़ी न दिखाएं और अदालत के फैसले का इंतजार करें।
जो भी हो सी.बी.आई. वैसे ही कम विवादों में नहीं रहती और फिर अगर उसकी नियुक्तियों को लेकर सरकार कठघरे में खड़ी हो जाए तो सरकार की क्या छवि बचेगी। इसलिए यह गम्भीर प्रश्न है। अब हमें जनहित याचिका दायर होने और उस पर सर्वोच्च न्यायालय क्या रूख लेता है, इसका इंतजार करना होगा।

Monday, November 11, 2013

सीबीआई फिर विवादों में

सर्वोच्च न्यायालय ने गौहाटी उच्च न्यायालय के सीबीआई संबंधी फैसले पर रोक लगा कर केन्द्र सरकार को तात्कालिक राहत तो दे दी। पर सीबीआई के अस्तित्व व कार्यप्रणाली को लेकर जो सवाल लगातार उठते रहे हैं वे पहले की तरह ही अनुत्तरित रह गए। गौहाटी के फैसले के बाद टीवी चैनलों, अखबारों और सर्वोच्च न्यायालय में एक बार फिर ‘विनीत नारायण फैसले’ का सहारा लेकर सीबीआई की स्थिति को पुनस्र्थापित करने का प्रयास किया गया। जब-जब सीबीआई की वैधता, पारदर्शिता या कार्यप्रणाली को लेकर सवाल उठते हैं तब-तब यही फैसला बहस का विषय बन जाता है। पर समाधान फिर भी नहीं निकलता। कारण स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को मानना या न मानना संसद की इच्छा पर निर्भर है। लोकतंत्र में संसद सर्वोच्च है। इसलिए ऐसे दर्जनों फैसले हैं जो सरकार के कानून मंत्रालय में धूल खाते हैं। जिन्हें लागू करने की या तो सरकार की ही मंशा नहीं होती या सरकार के संसदीय मंत्री जानते हैं कि उन्हें अन्य दलों से सहयोग नहीं मिलेगा।

फिर भी जब कभी अदालतें सीबीआई को लेकर कोई टिप्पणी करती हैं या आदेश देती हैं तो देश में उत्तेजना और उत्सुकता दोनो फैल जाती है। पर इस सबसे भी कोई स्थिति बदलती नहीं। इसलिए इस विषय पर गंभीर सोच की जरूरत है।
दिल्ली पुलिस एक्ट के तहत सीबीआई का गठन भ्रष्टाचार के मामले जांचने के लिए किया गया था। तब से आज तक इसे पूर्ण संवैधानिक दर्जा नहीं मिला। क्यांेकि अनेक राज्य सीबीआई का दखल नहीं चाहते। उधर केन्द्र में सत्तारूढ होने वाली सरकारें भी सीबीआई के घोषित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कभी गंभीर नहीं रहीं। इसीलिए कभी इसे ‘भ्रष्टाचार का कब्रगाह‘ कभी ‘पिजरे में बंद तोता’ या कभी ‘बिना दांत का सरकारी श्वान’ बताकर सीबीआई का मखौल उड़ाया जाता है।
दूसरे छोर पर वे लोग हैं जो सीबीआई को पूरी स्वायतता देने और निरंकुश बनाने की वकालत करते हैं। उन्हें भ्रम है कि ऐसा करने पर सीबीआई भ्रष्टाचार का खात्मा कर देगी। यह बहुत बचकानी सोच है। पहली बात तो यह कि अगर सामाजिक और आर्थिक अपराध केवल कानूनों से रूक जाते तो देश में अपराध होते ही नहीं। क्योंकि आज देश में जितनी तरह के अपराध होते हैं उससे कहीं ज्यादा कानून उन्हें रोकने के लिए बने हुए हैं। निरंकुश बन कर सीबीआई भ्रष्टाचार भले ही दूर न कर पाए लेकिन स्वयं ब्लैकमेल करने और धमका कर पैसा ऐंठने की एक संस्था जरूर बन जाएगी, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं। इसलिए हमारे संविधान में विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं के पारस्परिक नियंत्रण रखने के प्रावधान किए गए हैं।
सोचने वाली बात यह है कि भ्रष्टाचार की जड़ में जो सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक कारण हैं उन्हें जाने बिना भ्रष्टाचार को खत्म करने की हर मुहिम बेमानी है। इन कारणों की तरफ ना तो कानून के विशेषज्ञों का ध्यान है, न सरकार का, न संसद का और न ही मीडिया का। किसी भी बीमारी के कारणों को जाने बिना उसका इलाज कैसे किया जा सकता है ? पर भारत में आज यही हो रहा है। सीबीआई का नाम ही इतना आकर्षक हो चुका है कि उसकी चर्चा आते ही आत्मघोषित विशेषज्ञ लंबी-चैड़ी टिप्पणियां और सलाह देने लगते हैं। जबकि इनके विचारों का जमीनी हकीकत से कोई नाता नहीं होता।
अगर देश की चिंता करने वाले देश को वाकई भ्रष्टाचार से मुक्त करवाना चाहते हैं तो उन्हें सारे भारत के लोगों की दृष्टि बदलने का काम करना होगा, जो कोई आसान काम नहीं। भ्रष्टाचार ही क्यों, हर समस्या को लेकर आज देशभर में शोर मचाने और बयानबाजी करने का जो फैशन बढ़ता जा रहा है उससे देश मंे हताशा फैल रही है। आम जनता, जो मामूली रोजगार और दो-जून की रोटी की फिराक में जुटी रहती है, ऐसी बातें सुनकर विचलित हो जाती है। अगर यह रवैया ऐसे ही चलता रहा तो हम देश में बहुत जल्दी अराजकता पैदा कर देंगे, जिसे संभालना फिर सरकार ही नहीं, खुद को आम जनता का नेता बताने वालों, को भी मुश्किल होगा।
आज जरूरत इस बात की है कि देश की प्रमुख दस-बारह समस्याओं की सूची बना कर उनके समाधान खोजने की राष्ट्रव्यापी बहस चलाई जाएं। अगर सार्थक समाधान मिलते हैं तो उन्हें बिना किसी राजनैतिक राग-द्वेश के, व्यापक जनहित में लागू करने की पहल हर राजनैतिक दल या सामाजिक समूह द्वारा की जाए। इससे जनता में एक अच्छा संदेश जाएगा और चैराहों पर निरर्थक आलोचनाओं में लफ्फाजी करने वालों को कुछ ठोस करने का मौका मिलेगा। वो करने का जिससे समाज बदले और सुधरे।
सीबीआई को स्वायतता मिले या न मिले, उसकी संवैधानिक स्थिति स्पष्ट हो या न हो पर यह जरूर है कि अगर देश की संवैधानिक संस्थाओं को लेकर जनता का विश्वास इसी तरह लगातार कम होता गया तो सामान्य जनजीवन चलाना भी मुश्किल हो जाएगा। चैबे जी चले थे छब्बे बनने, पर दूबे बनकर लौटे।

Monday, May 6, 2013

सीवीसी और सीबीआई को बाहरी दवाब से मुक्त करना होगा

हाल ही में कोल गेट मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने कानून मंत्री व सीबीआई के बीच हुई बैठक पर कड़ा एतराज जताते हुए कहा कि 15 वर्ष पहले इसी अदालत के ‘विनीत नारायण फैसले‘ में सीबीआई की स्वायत्ता के जो निर्देश दिए गए थे, उनका आज तक अनुपालन नहीं हुआ। ‘कोलगेट केस‘ में उपलब्ध साक्ष्यों से यह स्पष्टतः स्थापित हो रहा है कि सीबीआई के लिए पेश होने वाले कानूनी अफसर, जाँच ऐजेन्सी की तर्ज पर ही चलते हैं और यह भूल जाते हैं कि उनसे अदालत को सच तक पहुँचने में मदद करने की अपेक्षा की जाती है। जैसा कि पहले कई बार इस कॉलम में उल्लेख किया जा चुका है कि जैन हवाला केस में भी कानूनी अधिकारियों ने सर्वोच्च अदालत से तथ्य छिपाने में सीबीआई की मदद की थी। इसलिए सीबीआई द्वारा नियुक्त किए जाने वाले कानूनी अधिकारियों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विचार करने की आवश्यकता है।

अभी तक तो यही हुआ है कि हवाला मामले में 1997 दिसम्बर का वह ‘प्रसिद्ध फैसला‘ एक दन्तविहीन सीवीसी का गठन कर दरकिनार कर दिया गया। इसलिए यह देश के हित में बहुत महत्वपूर्ण है कि माननीय न्यायधीशगणों द्धारा 1997 के फैसले के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए समुचित निर्देश जारी किये जाएं। आगामी 8 मई को कोल गेट मामले में सुनवाई के दौरान इसकी संभावना व्यक्त की जा रही है।
आवश्यकता इस बात की है कि सीवीसी अधिनियम मे सुधार कर इसे 8/10 सदस्यों वाला ‘केन्दªीय सतर्कता आयोग‘ बना देना चाहिए, जोकि लोकपाल के लिए सोची जा रही भूमिका का निर्वहन कर सके। सीवीसी के सदस्यों के चयन की प्रक्रिया को व्यापक बनाते हुए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इसमें चहेते और विवादास्पद व्यक्ति सदस्य न बनें। मौजूदा तीन सदस्यों मे से एक आइएएस, दूसरा आइपीएस व तीसरा बैंकिग सेवाओं से लिया जाता है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश को भी नियुक्त किया जाना चाहिए। जिनका चयन भारत के मुख्य न्यायाधीश अपने बाद वरिष्ठता क्रम में तीन न्यायधीशों की सहमति से करें। क्योंकि विधायिका का हमारे देश के लोकतंत्र और शासन में भारी महत्व है इसलिए संसद के दोनों सदनों के वरिष्ठतम सांसदों मे से एक का चयन भी इस आयोग के सदस्य के रुप मे किया जाना चाहिए। इसके अलावा काँमनवैल्थ खेलों के घोटाले जैसे मामलों की जाँच के लिए इंजीनियरिंग योग्यता वाले दो-तीन विशेषज्ञ व वित्तीय घोटालों को समझने के लिए एक चार्टर्ड एकाउटेन्ट को भी इस आयोग का सदस्य बनाना चाहिए। ये सभी चयन यथासम्भव पारदर्शी होने चाहिए।
सीवीसी की सलाहाकार समिति मे कम से कम 11 सदस्य अपराध शास्त्र विज्ञान और फोरेन्सिक विज्ञान के विशेषज्ञ होने चाहिए। जो इस आयोग की कार्य क्षमता में प्रोफेशनल योगदान करेगें। साथ ही कार्य बोझ कम करने के लिए सीवीसी को बाहर से विशेषज्ञों को बुलाने की छूट होनी चाहिए, जो शिकायतों के ढ़ेर को छाँटने मे मदद करें। सीवीसी के दायरे मे फिलहाल केन्द्रीय सरकार और केन्द्रीय सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के सभी कर्मचारी आते हैं, यह व्यवस्था ऐसे ही रहे। पर इस व्यवस्था को ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए मंत्रालयों व विभागों के सीवीओ के चयन और कार्य पर सीवीसी का पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए।
सीवीसी को जाँच करने के लिए तकनीकी रुप से अनुभवी और सक्षम लोगो की टीम दी जानी चाहिए जो शिकायत की गंभीरता को जाँच कर यह तय कर सके कि किस मामले की जाँच सीबीआई को सौंपी जानी है या सीवीसी की टीम ही करेगी। शिकायत को पूरी तरह परख लेने के बाद की कारवाई के लिए सीवीसी को सरकार से पूर्वानुमति लेने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। जिन मामलों को सीवीसी सीबीआई को सौंपती है उनकी जाँच के लिए सीबीआई को सरकार के मंत्रालय या विभाग के वित्तीय नियन्त्रण से मुक्त रहना चाहिए। सीबीआई की जाँच पर निगरानी का अधिकार केवल सीवीसी का होना चाहिए, इसकी मौजूदा व्यवस्था मे सुधार किया जाना चाहिए। इसी तरह सीवीसी के सदस्यों की भाँति सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति भी व्यापक पारदर्शिता के साथ होनी चाहिए और सीबीआई के बाकी अधिकारियों की नियुक्ति और निगरानी का अधिकार सीवीसी को दिया जाना चाहिए।
भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों और इससे सम्बन्धित शिकायतों के संदर्भ मे शिकायतकर्ताओं के मामलों को सीवीसी के अधीन कार्यक्षेत्र में दे देना चाहिए जिससे इन सबके बीच बेहतर तालमेल स्थापित हो सके। निचले स्तर पर भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों का प्रभावी तरीके से लागू होना भी सुशासन के लिए अनिवार्य है। इसलिए यह जरूरी होगा कि राज्यों की भ्रष्टाचार विरोधी ऐजेन्सियों को भी राज्य सरकारों के हस्तक्षेप से इसी तरह मुक्त किया जाए।
यह सभी प्रस्ताव हमने सर्वोच्च न्यायालय के  माननीय न्यायधीशों के विचारार्थ भेज दिए हैं। पर इसके साथ ही हम यह भी जानते हैं कि व्यवस्था कोई भी बना लो, जब तक उसको चलाने वाले ईमानदार नहीं हैं, वो नहीं चल सकती। रिश्वत लेने वालों से ज्यादा दोष देने वालों का होता है। अपने फायदे के लिए मोटी रिश्वत लेने वाले व्यवस्था को भ्रष्ट बनाने के लिए ज्यादा जिम्मेदार है। जब तक रिश्वत देने वाले रिश्वत देना बंद नहीं करेंगे, तब तक लेने वाले मौजूद रहेंगे। सिंहासन तो चीज ही ऐसी है जहां बैठकर बड़े-बड़े फिसल जाते है।  ‘माया तू ठगनी, हम जानी।‘ 

Tuesday, April 30, 2013

Once again it has been proved that CBI is an instrument in the hands of govt. to settle its political scores


“Once again it has been proved that CBI is an instrument in the hands of govt. to settle its political scores. I have been boldly saying so since 1993, when I exposed the Jain Hawala Case. It is unfortunate that the 1998 SC judgement (Vineet Narain Vs. Union of India) in this case, which gave clear directions for the autonomy of CBI under CVC and not under Govt control has not been implemented by the successive governments. It should now be accepted by the nation that CBI is not an independent agency to investigate high profile cases. Hence, it is an opportunity for the opposition parties and the vigilant section of media to come up with an alternate model of creating a new agency which can function without fear, prejudice, pressure or temptations. There should be a national debate on such alternative, if available, so to pressurize the govt. to act.”

Monday, July 9, 2012

मायावती का फैसला

मायावती के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। अदालत में सीबीआई को अपनी सीमा उल्लघन करने के लिए फटकारा है। पर सर्वोच्च अदालत जनहित के मामलों में अक्सर ’सूमोटो’ यानी अपनी पहल पर भी कोई मामला ले लेती है। इस मामले में अगर सीबीआई ने बसपा नेता के पास आय से ज्यादा सम्पत्ति के प्रमाण एकत्र कर लिये हैं तो सर्वोच्च न्यायालय उस पर मुकदमा कायम कर सकता था। पर उसने ऐसा नहीं किया। विरोधी दलों को यह कहने का मौका मिल गया कि सरकार ने हमेशा की तरह मायावती से डील करके उन्हें सीबीआई की मार्फत बचा दिया। सारे टीवी चैनल इसी लाइन पर शोर मचा रहे हैं। पर अदालत के रवैये पर अभी तक किसी ने टिप्पणी नहीं की।

जहां तक बात सीबीआई के दुरूपयोग की है तो यह कोई नई बात नहीं है। हर दल जब सत्ता में होता है तो यही करता है। किसी ने भी आज तक सीबीआई को स्वायत्ता देने की बात नहीं की। पर आज मैं भ्रष्टाचार के सवाल पर एक दूसरा नजरिया पेश करना चाहता हूं। यह सही है कि भ्रष्टाचार ने हमारे देश की राजनैतिक व्यवस्था को जकड़ लिया है और विकास की जगह पैसा चन्द लोगों की जेबों मे जा रहा है। पर क्या यह सही नही है कि जिस राजनेता के भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया और सिविल सोसाइटी बढ़-चढ़ कर शोर मचाते हैं उसे आम जनता भारी बहुमत से सत्ता सौंप देती है। तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता को भ्रष्ट बताकर सत्ता से बाहर कर दिया गया था। अब दुबारा उसी जनता ने उनके सिर पर ताज रख दिया। क्या उनके ’पाप’ धुल गये मायावती पर ताज कोरिडोर का मामला जब कायम हुआ था उसके बाद जनता ने उन्हें उ.प्र. की गददी सौंप दी। वे कहती हैं कि उन्हें यह दौलत उनके कार्यकर्ताओं ने दी। जबकि सीबीआई के स्त्रोत बताते हैं कि उनको लाखों-करोड़ों रूपये की बड़ी-बड़ी रकम उपहार मे देने वाले खुद कंगाल हैं। इसलिए दाल में कुछ काला है।

पर यहां ऐसे नेताओं के कार्यकर्ताओं द्वारा यह सवाल उठाया जाता है कि जब दलितों और पिछड़ों के नेताओं का भ्रष्टाचार सामने आता है तब तो देश में खूब हाहाकार मचता है। पर जब सवर्णों के नेता पिछले दशकों में अपने खजाने भरते रहे, तब कोई कुछ नहीं बोला। यह बड़ी रोचक बात है। सिविल सोसाइटी वाले दावा करते हैं कि एक लोकपाल देश का भ्रष्टाचार मिटा देगा। पर वे भूल जाते हैं कि इस देश में नेताओं और अफसरों के अलावा उद्योगपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, खान मालिकों आदि की एक बहुत बड़ी जमात है जो भ्रष्टाचार का भरपूर फायदा उठाती है और इसका सरंक्षण करती है। यह जमात और सुविधा भोगी होते जा रहे है भारतीय अब पैसे की दौड़ में मूल्यों की बात नहीं करते। गांव का आम आदमी भी अब चारागाह, जंगल, पोखर, पहाड़ व ग्राम समाज की जमीन पर कब्जा करने में संकोच नहीं करता। ऐसे में कोई एक संस्था या एक व्यक्ति कैसे भ्रष्टाचार को खत्म कर सकता है। 120 करोड़ के मुल्क में 5000 लोगों की सीबीआई किस-किस के पीछे भागेगी।
अपने अध्ययन के आधार पर कुछ सामाजिक विश्लेषक यह कहने लगे हैं कि देश की जनता विकास और तरक्की चाहती है उसे भ्रष्टाचार से कोई तकलीफ नहीं। उनका तर्क है कि अगर जनता भ्रष्टाचार से उतनी ही त्रस्त होती जितनी सिविल सोसाइटी बताने की कोशिश करती है तो भ्रष्टाचार को दूर भगाने के लिए जनता एकजुट होकर कमर कस लेती। रेल के डिब्बे में आरक्षण न मिलने पर लाइन में खड़ी रहकर घर लौट जाती, पर टिकिट परीक्षक को हरा नोट दिखाकर, बिना बारी के, बर्थ लेने की जुगाड़ नहीं लगाती। हर जगह यही हाल है। लोग भ्रष्टाचार की आलोचना में तो खूब आगे रहते है पर सदाचार को स्थापित करने के लिए अपनी सुविधाओं का त्याग करने के लिए सामने नहीं आते। इसलिए सब चलता है की मानसिकता से भ्रष्टाचार पनपता रहता है।
देखने वाली बात यह भी है कि सिविल सोसाइटी के जो लोग भ्रष्टाचार को लेकर आय दिन टीवी चैनलों पर हंगामा करते है वे खुद के और अपने संगी साथियों के अनैतिक कृत्यों को यह कहकर ढकने की कोशिश करते हैं कि अगर हमने ज्यादा किराया वसूल लिया तो कोई बात नही हम अब लौटाये देते हैं। अगर हम पर सरकार का वैध 7-8 लाख रूपया बकाया है तो हम बड़ी मुश्किल से मजबूरन उसे लौटाते हैं यह कहकर कि सरकार हमें तंग कर रही है, पर अब हमारी आर्थिक मदद करने वाले दोस्तों को तंग न करें। फिर तो पकड़े जाने पर भ्रष्ट नेता भी कह सकते है कि हम जनता का पैसा लौटाने को तैयार हैं। ऐसा कहकर क्या कोई चोरी करने वाला कानून की प्रक्रिया से बच सकता है। नहीं बच सकता। अपराध अगर पकड़ा जाये तो कानून की नजर में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी लड़ाई का मकसद कितना पाक है।
ऐसे विरोधाभासों के बीच हमारा समाज चल रहा है। जो मानते हैं कि वे धरने और आन्दोलनों से देश की फिजा बदल देंगे। उनके भी किरदार सामने आ जायेंगे। जब वे अपनी बात मनवाकर भी भ्रष्टाचार को कम नहीं कर पायेंगे, रोकना तो दूर की बात है। फिर क्यों न भ्रष्टाचार के सवाल पर आरोप प्रत्यारोप की फुटबाल को छोड़कर प्रभावी समाधान की दिशा में सोचा जाये। जिससे धनवान धन का भोग तो करे पर सामाजिक सरोकार के साथ और जनता को अपने जीवन से भ्रष्टाचार दूर करने के लिए प्रेरित किया जाये। ताकि हुक्मुरान भी सुधरें और जनता का भी सुधार हो। फिलहाल तो इतना बहुत है।

Monday, February 14, 2011

सी बी आई की दुर्दशा के लिए कौन ज़िम्मेदार

Punjab Kesari 14 Feb 11
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