Monday, January 21, 2019

राष्ट्रीय सरकार क्यों न बने?

संसदीय चुनाव दस्तक दे रहा है। सत्ता पक्ष खम ठोक कर अपने वापिस आने का दावा कर रहा है और साथ ही विपक्षी दलों के गठबंधन को अवसरवादियों का जमावाड़ा बता रहा है। आने वाले दिनों में दोनों ओर से हमले तेज होंगे। कुछ अप्रत्याशित घटनाऐं भी हो सकती है। जिनसे मतों का ध्रुवीकरण किया जा सके। पर चुनाव के बाद की स्थिति अभी  स्पष्ट नहीं है। हर दल अपने दिल में जानता है कि इस बार किसी की भी बहुमत की सरकार बनने नहीं जा रही। जो दूसरे दलों को अवसरवादी बता रहे हैं, वे भी सत्ता पाने के लिए चुनाव के बाद किसी भी दल के साथ गठबंधन करने को तत्पर होंगे। इतिहास इस बात का गवाह है कि भजपा हो या कांग्रेस, तृणमूल हो या सपा, तेलगुदेशम् हो या डीएमके, शिवसेना हो या राष्ट्रवादी कांग्रेस, रालोद हो या जनता दल, कोई भी दल, अवसर पड़ने पर किसी भी अन्य दल के साथ समझौता कर लेता है। तब सारे मतभेद भुला दिये जाते है। चुनाव के पहले की कटुता भी याद नहीं रहती। इससे यह स्पष्ट है कि चुनाव के पहले मतदाताओं को भ्रमित करने के लिए जो भी राजनैतिक आतिशबाजी की जाती है, वो मात्र छलावा होता है। अंदर से सब एक ही हैं।

इसलिए मेरे कुछ प्रश्न सभी राजनैतिक दलों से हैं। क्या भ्रष्टाचार के मामले में कोई भी दल अछूता है? क्या चुनाव उतने ही पैसे में लड़े जाते हैं, जितने चुनाव आयोग द्वारा स्वीकृत हैं? या उससे कई गुना ज्यादा खर्च करके चुनाव लड़ा जाता है? क्या जातिवाद और साम्प्रदायिकता के मामले में कोई भी दल अपने को पाक-साफ सिद्ध कर सकता है? क्या ये सही नहीं है कि उम्मीदवारों को टिकटों का बटवारा जाति और सम्प्रदाय के मतों के अनुसार किया जाता है? क्या ये सही नहीं कि वोट पाने के लिए सार्वजनिक धन को लुटाने या कर्जे माफ करने  में कोई भी दल पीछे नहीं रहता? क्या ये सच नहीं है कि इस तरह की खैरात वाली राजनीति से देश की अर्थव्यस्था और बैंकिग व्यवस्था चरमरा गई है? क्या ये सही नहीं है कि विकास के मौडल में किसी भी राजनैतिक दल का दूसरे दल से कोई बुनियादी अंतर नहीं है? क्या ये सही नहीं है कि चुनाव जीतने के बाद मंत्री पदों का बटवारा योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि दल के नेता की इच्छा के अनुसार होता है? क्या ये सही नहीं कि केंद्र सरकार में भी तमाम योग्य सांसदों की उपेक्षा कर अयोग्य और चाटुकार उम्मीदवारों को प्रायः महत्वपूर्णं पद दे दिये जाते हैं?

जब ये सब सही है, तो फिर इस चुनावी दंगल से क्या हासिल होगा? क्या देश से भ्रष्टाचार, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, गरीबी, असमानता आदि दूर हो जाऐंगे? क्या जो सरकार बनेगी, वो मतदाताओं की आकांक्षाओं के अनुरूप काम करेगी? अगर उत्तर है नहीं, तो फिर ये सब हंगामा और नाटकबाजी क्यों? क्यों एकबार राष्ट्रीय सरकार के गठन का प्रयोग किया जाए। जो भी राजनैतिक दल आज चुनाव के मैदान में उतर रहे हैं, उन सबके जीते हुए सांसद मिलकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से एक साझी सरकार का गठन करे। साथ ही गत 72 वर्षों के अनुभव के आधार पर व्यवहारिक नीतिओं और कार्यक्रमों का, सामूहिक और सार्थक विचार-विमर्श के उपरांत, निर्णंय करे। 5 वर्ष तक ये राष्ट्रीय सरकार चलाने का ईमानदार प्रयास करें और अपने-अपने दायित्व का शब्दशः उसी भावना के साथ निर्वहन करें, जिस भावना के लिए राष्ट्रपति महोदय शपथग्रहण समारोह में इन्हें शपथ दिलाते हैं। इस शपथ का एक-एक शब्द जनहित के लिए होता है, अगर उस पर ध्यान दिया जाऐ तो। पर हकीकत ये है कि शपथ ग्रहण करने के बाद उसकी भावना को राष्ट्रपति भवन के भीतर छोड़ आया जाता है। फिर तो शासन ऐसे चलता है, जिससे जनता का कम और अपना लाभ ज्यादा हो।

राष्ट्रीय सरकार का ढांचा लगभग उसी तरह होगा, जैसा .पू. की सदियों में भारत के गणराज्यों में होता था। वो प्रथा कई शताब्दियों तक सुचारू रूप से चली। रोमन साम्राज्य में भी इसी को बहुत दिनों तक सफलतापूर्वक चलाया गया। बाद में गणराज्य व्यवस्था में जो दोष उभर आऐ थे और जिनके कारण वह व्यवस्था क्रमशः लुप्त हो गई, उन दोषों पर भी मंथन कर लिया जाऐ किसी एक व्यक्ति के हाथ में सत्ता का ऐसा संकेन्द्रण हो कि वो तानाशाह बन जाऐ और बिना किसी की सलाह माने अपने अहमकपन से सरकार चलाऐ।

यह विषय राजनैतिक दलों के लिए ही नहीं देश के बुद्धिजीवी वर्ग, राजनैतिक चिंतक आम आदमी के लिए भी विचार करने योग्य है। हो सकता है कि हम सबके सामूहिक चिंतन, सद्भभावना और भगवतकृपा से कुछ ऐसा स्वरूप निकलकर सामने आऐ कि हम राजनीति की वर्तमान दलदल से बाहर निकलकर सुनहरे भारत का निर्माण कर सकें। जिसमें हर नागरिक को सम्मान से जीने का अवसर हो। भारतवासी सुखी, संपन्न संतुष्ट हो सके।

Monday, January 14, 2019

मकड़जाल में सीबीआई

सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा को बड़ी राहत देते हुए 77 दिन बाद पुनः अपने पद पर बिठा दिया। यह भी स्पष्ट कर दिया कि ‘विनीत नारायण फैसले’ के तहत सीबीआई निदेशक का 2 वर्ष का निधार्रित कार्यकाल ‘हाई पावर्ड कमेटी’ जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश होते हैं, की अनुमति के बिना न तो कम किया जा सकता है, न उसके अधिकार छीने जा सकते हैं और न ही उसका तबादला किया जा सकता है। इस तरह मोदी सरकार के विरूद्ध आलोक वर्मा की यह नैतिक विजय थी। पर अपनी आदत से मजबूर आलोक वर्मा ने इस विजय को अपने ही संदेहास्पद आचरण से पराजय में बदल दिया।

सीबीआई मुख्यालय में पदभार ग्रहण करते ही उन्हें अपने अधिकारियों से मिलना-जुलना, चल रही जांचों की प्रगति पूछना और नववर्ष की शुभकामनाऐं देने जैसा काम करना चाहिए। पर उन्होंने किया क्या? सबसे विवादास्पद व्यक्ति डा. सुब्रमनियन स्वामी से अपने कार्यालय में दो घंटे तक कमरा बंद करके गोपनीय वार्ता की और कमरे के बाहर लालबत्ती जलती रही। जिसके तुरंत बाद उन्होंने उन सभी अधिकारियों के तबादले रद्द कर दिये, जिन्हें 23 अक्टूबर और उसके बाद सरकार ने सीबीआई से हटाया था। जबकि श्री वर्मा को अदालत का स्पष्ट आदेश था कि वे कोई भी नीतिगत फैसला नहीं लेंगे, जब तक कि ‘हाई पावर्ड कमेटी’ उनके खिलाफ लगे भ्रष्टाचार आरोपों की जांच नहीं कर लेती। इस तरह श्री वर्मा ने सर्वोच्च अदालत की अवमानना की।

इससे भी महत्वपूर्णं बात ये है कि देश के 750 से ज्यादा सांसदों में से अकेले केवल डा. सुब्रमनियन स्वामी ही क्यों आलोक वर्मा को चार्ज मिलते ही उनसे मिलने पहुंचे। इससे दिल्ली के सत्ता और मीडिया के गलियारों में पिछले कई महीनों से चल रही इस चर्चा को बल मिलता है कि आलोक वर्मा डा. स्वामी के नेतृत्व में सरकार के विरूद्ध चलाये जा रहे षड्यंत्र का हिस्सा हैं। इतना ही नहीं इससे यह भी संदेह होता है कि श्री वर्मा ने उन दो घंटों में डा. स्वामी को सीबीआई की गोपनीय फाईलें अवैध रूप से दिखाई होंगी। उनके इस आचरण का ही परिणाम था कि सलैक्ट कमेटी ने उन्हें अगले दिन ही फिर से कार्यमुक्त कर दिया।

इससे पहले प्रधानमंत्री कार्यालय को सूचित किया गया था कि डा. सुब्रमनियन स्वामी, आलोक वर्मा, ईडी के हटाऐ गए सह निदेशक राजेश्वर सिंह व ईडी के सेवामुक्त हो चुके तत्कालीन निदेशक करनेल सिंह मिलकर प्रधानमंत्री मोदी के विरूद्ध कोई बड़ी साजिश रच रहे हैं। डा. स्वामी दावा तो यह करते हैं कि वे भ्रष्टाचार से लड़ने वाले योद्धा हैं, पर उनके आचरण ने बार-बार यह सिद्ध किया है  कि वे घोर अवसरवादी व्यक्ति हैं, जो अपने लाभ के लिए कभी भी किसी को भी धोखा दे सकते हैं। इतना ही नहीं उन्हें यह अहंकार है कि वे किसी को भी ईमानदार या भ्रष्ट होने का सर्टिफिकेट दे सकते हैं। इन अधिकारियों के विषय में ऐसे तमाम प्रमाण हैं, जो उनकी नैतिकता पर प्रश्न चिह्न खड़े करते हैं। पर डा. स्वामी गत 6 महीनों से इन्हें भारत का सबसे ईमानदार अफसर बताकर देश को गुमराह करते रहे। इसका कारण इन सबकी आपसी सांठ-गांठ है। जिसका उद्देश्य न जनहित है और न राष्ट्रहित, केवल स्वार्थ है। इस आशय के तमाम प्रमाण पिछले 6 महीनों में मैं ट्विटर्स पर देता रहा हूं।

अब आता है मामला राफेल का । आलोक वर्मा के बारे में यह हल्ला मच रहा है  कि वे राफेल मामले में प्रधानमंत्री को चार्जशीट करने जा रहे थे। इसलिए उन्हें आनन-फानन में हटाया गया। जब तक इस मामले के तथ्य सामने न आऐ, तब तक इस पर कुछ भी कहना संभव नहीं है। पर एक बात तो साफ है कि अगर किसी व्यक्ति द्वारा इस तरह का भ्रष्ट आचरण किया जाता है, जो कानून की नजर में अपराध है, तो उसके प्रमाण कभी नष्ट नहीं होते और न ही वह केस हमेशा के लिए दफन किया जा सकता है। इसलिए अगर वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी के विरूद्ध राफेल मामले में सीबीआई के पास कोई प्रमाण है, तो वे आज नही तो कल सामने आ ही जाऐंगे।

सवाल है आलोक वर्मा को अगर ऐसी ही कर्तव्यनिष्ठा थी, तो उन्होंने राकेश अस्थाना के खिलाफ मोर्चा क्यों खोला? उन्हें चाहिए था कि वे प्रधानमंत्री को ही अपना निशाना बनाते। तब देश इस बात को मानता कि वे निष्पक्षता से राष्ट्रहित में अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। उधर सीबीआई के सह निदेशक राकेश अस्थाना ने एक वर्ष पहले ही भारत के कैबिनेट सचिव को आलोक वर्मा के कुछ भ्रष्ट और अनैतिक आचरणों की सूची दी थी। जिसकी जानकारी मिलने के बाद आलोक वर्मा ने राकेश अस्थाना की तरफ अपनी तोप दागनी शुरू कर दी। उधर वे डा. स्वामी के नेतृत्व में एक बड़ी साजिश को अंजाम देने में जुटे ही थे। कुल मिलाकर सारा मामला सुलझने के बजाए और ज्यादा उलझ गया। नतीजतन उन्हें समय से तीन महीने पहले घर बैठना पड़ गया। जहां तक राकेश अस्थाना के विरूद्ध आरोपों की बात है, तो उनकी जांच पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता से होनी चाहिए। तभी देश का विश्वास सीबीआई पर  टिका रह पाऐगा। आज तो सीबीआई की छबि अपने न्यूनतम स्तर पर है।

चलते-चलाते मैं अपनी बात फिर दोहराना चाहता हूं कि लगातार सीबीआई के तीन निदेशकों  का भ्रष्ट पाऐ जाना, यह सिद्ध करता है कि ‘ विनीत नारायण फैसले’ से जो चयन प्रक्रिया सर्वोच्च् अदालत ने तय की थी, वह सफल नहीं रही। इसलिए इस पर सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ को पुनर्विचार करना चाहिए। दूसरी बात सीबीआई को लगातार केंद्र सरकारे अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को ब्लैकमेल करने का हथियार बनाती रही हैं।। इसलिए अदालत को इस पर विचार करना चाहिए कि कोई भी केंद्र सरकार विपक्षी दलों के नेताओं के विरूद्ध भ्रष्टाचार के मामलों में जो भी जांच करना चाहे, वह अपने शासन के प्रथम चार वर्षों में पूरी कर ले। चुनावी वर्ष में तेजी से कार्यवाही करने के पीछे, जो राजनैतिक द्वेष की भावना होती है, उससे लोकतंत्र कुंठित होता है।  इसलिए सीबीआई में अभी  बहुत सुधार होना बाकी है।