Monday, August 20, 2018

करनी ऐसी कर चलो, तुम हंसो जग रोए ..... अलविदा अटल जी

अटल जी को जो पूरे देश और दुनिया का प्यार मिला, वो उनके पद के कारण नहीं है। मेरा मानना है कि कोई व्यक्ति अपने पद, यश, ज्ञान या वैभव से बड़ा नहीं होता बल्कि उसके संस्कार उसे बड़ा और सम्माननीय बनाते हैं। अटल जी में ऐसे संस्कार थे। पत्रकारिता, साहित्य और राजनीति से जुड़े हर उस व्यक्ति के साथ अटल जी का आत्मीय संबंध होता था, जो उन्हें जानता था।
मेरे परिवार का एक नाता और भी था। अटल जी की बेटी नमिता, जिसने उन्हें मुखाग्नि दी, वो हमेशा बड़े स्नेह से मुझे विनीत भैया कहती है। उसकी बेटी निहारिका, हमारे छोटे बेटे ईशित नारायण के साथ सरदार पटेल विद्यालय, दिल्ली में सहपाठी थी और अभिभावकों की बैठकों में हम अक्सर मिलते थे। अटल जी के दामाद रंजन भट्टाचार्य भी हमारे प्रिय रहे हैं। क्योंकि इन तीनो से हमारा तीन दशकों का संबंध रहा है।
अटल जी से जुड़े इतने संस्मरण हैं कि सबको याद करूं, तो एक पुस्तक लिख जाऐगी। 1989 में जब मैंने भारत की पहली हिंदी टीवी पत्रिका ‘कालचक्र’ जारी की, तो पूरे मीडिया जगत में हलचल मच गई। सरकारी नियंत्रण वाले दूरदर्शन के मुकाबले स्वतंत्र टीवी समाचार के मेरे प्रयास से विपक्ष के नेता बहुत उत्साहित थे। जिनमें से रामविलास पासवान, अजीत सिंह, जार्ज फर्नाडीज और अटल बिहारी बाजपेयी ने हृदय से प्रयास किया कि मुझे आर्थिक मदद दिलवाई जाए। पर अपनी सम्पादकीय स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए मैंने उनके प्रस्ताव स्वीकार नहीं किये। हलांकि उनका ये भाव बहुत अच्छा लगा।
1999 में प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार’ में अटल जी के साथ हवाला कांड के दौर में 1993 से 2000 के बीच हुई वार्ताओं और घटनाओं का खट्टा मीठा विस्तृत ब्यौरा है। जो vineetnarain.net   पर ऑनलाइन किताब में पढा जा सकता है।
1995 में जिन दिनों हवाला कांड में राजनेताओं के घर सीबीआई के छापे पड़ने शुरू हुए, उन्हीं दिनों एक दिन अखबार में खबर छपी कि अटल बिहारी बाजपेयी का नाम भी जैन डायरी में है। उस दिन बाजपेयी जी के कई फोन मुझे आए। मैं जब मिलने पहुंचा, तो कुछ चिंतित थे, बोले, ‘‘ क्या तुम मेरे घर भी छापा डलवाओगे?’’ मैंने हंसकर पूछा- क्या आपने जैन बंधुओ से पैसे लिए थे, चिंता मत कीजिए, आपका नाम जैन डायरी में नहीं है। तब वे मुस्कुराए और गरम-गरम जलेबी और पकौड़ी के साथ नाश्ता करवाया।
अटल जी अपने विरोधी विचारधारा के राजनेताओं और लोगों का पूरा सम्मान करते थे और उनके सुझावों को गंभीरता से लेते थे। विनम्रता इतनी कि हम जैसे युवा पत्रकारों को भी वे हमारी कार तक छोड़ने के लिए चलकर आते थे। जो राजनैतिक कार्यकर्ता आज अटल जी के गुणगान में एक दूसरे को पीछे छोड़ने में जुटे हैं,क्या वे अटल जी के व्यक्तित्व से अपने विरोधियों का भी सम्मान करना और सबके प्रति सदभाव रखने का गुण सीखेंगे या आत्मश्लाघा और अहंकार में डूबे रहकर लोकतंत्र को रसातल में ले जाएंगे ?
अटल जी ने प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए, देश के लिए कई बड़े काम किये। उनका चलाया सर्व शिक्षा अभियान  एक ऐसी ही पहल थी, जिसे 2001 में लॉन्च किया गया था। इस योजना में 6 से 14 वर्ष उम्र के बच्चों को मुफ्त प्राथमिक शिक्षा देने का प्रावधान किया गया था। इस योजना की बदौलत 4 साल में ही स्कूल नही जाने वाले बच्चों की संख्या में 60 फीसदी की कमी आई। आज भी सर्व शिक्षा अभियान के तहत देश के करोड़ों बच्चों को मुफ्त में बेसिक शिक्षा दी जा रही है।
प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना उनकी ऐसी ही दूसरी पहल थी। इस योजना में देश के दूर-दराज के गावों को सड़कों से जोड़ने का काम किया गया। पूर्व प्रधानमत्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना ने गावों तक सड़क पहुंचाने का काम किया। इसके अलावा अटल जी द्वारा शुरू की गई स्वर्णिम चतुर्भुज योजना ने चेन्नई, कोलकाता, दिल्ली और मुंबई को हाइवेज के नेटवर्क से जोड़ने में मदद की।
संचार क्रांति के क्षेत्र में भी उन्होंने क्रांति की। उन्होने ही टेलिकॉम फर्म्स के लिए फिक्स्ड लाइसेंस फीस को हटा कर रेवेन्यू-शेयरिंग की व्यवस्था लाए थे। जिसके बाद भारत संचार निगम लिमिटेड (BSNL) का गठन किया गया था।
अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार का दखल कम करने के लिए निजीकरण को अहमियत दी। जिसके बाद सरकार ने एक अलग विनिवेश मंत्रालय का गठन किया था। इसी के तहत भारत एल्युमीनियम कंपनी (Balco), हिंदुस्तान जिंक, इंडिया पेट्रोकेमिकल्स कॉरपोरेशन लिमिटेड और वीएसएनएल का विनिवेश किया गया था।
वायपेजी सरकार वित्तिय उत्तरदायित्व अधिनियम भी लेकर आई थी। इस अधिनियम में देश का राजकोषीय घाटा कम करने का लक्ष्य रखा गया था। इस कदम के जरिए ही पब्लिक सेक्टर में सेविंग्स को बढ़ावा दिया गया।
कविता और साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। कहते हैं कि' वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान'। कवि भावुक हृदय होता है। ऐसे अच्छे इंसान को भी डॉ सुब्रमनियन स्वामी ने धोखा दिया, जब भाजपा सरकार को उन्होंने गिरवा दिया। जिससे वाजपेयी जी को बहुत धक्का लगा। अपनी लिखी पुस्तक में डा. स्वामी ने बाजपेयी जी को खूब गरियाया है। दुश्मन की भी मौत पर संवेदना प्रकट करने वाली हिंदू संस्कृति के रक्षक होने का दावा करने वाले डा. स्वामी के मुंह से अटल जी के निधन पर श्रद्धाजंलि का एक भी शब्द नहीं निकला।
ऐसे धोखेबाज व्यक्ति को भाजपा क्यों ढो रही है? अगले चुनावों में जब वाजपेयी जी भाजपा का ब्रांड बनकर मतदाता को दिखाये जाऐंगे, तब मतदाता और विपक्षी दल ये सवाल करेंगे कि अगर वाजपेयी जी को भाजपा और संघ इतना मान देता है, तो उन्हें धोखा देने वाले और उनसे घृणा करने वाले डा. स्वामी को अपने साथ कैसे खड़ा रख सकता है?

Monday, August 13, 2018

योगी आदित्यानाथ जी ध्यान दें!

पिछले दिनों जब उ.प्र. में निर्माण संबंधी हुई अनेक दुर्घटनाओं के बाद उ.प्र. के सिविल इंजीनियरों ने एक खुला पत्र मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को संबोधित करते हुए लिखा। जिसका मसौदा निम्न प्रकार है-‘‘आज उत्तर प्रदेश में एक्सप्रेसवे धंस रहे हैं। बनारस में ब्रिज के बीम डिस्प्लेसड हो रहे हैं। सड़कों पर गढ्ढो के कारण दुर्घटनाएं हो रही हैं। नहरें टूट रही हैं। खेतों को समुचित पानी नहीं मिल पा रहा। बाँध पानी से लबालब भर नहीं पा रहे। किसी शहर का भी ड्रेनेज सही नहीं हैं। इन प्रोजेक्ट्स का पूरा फायदा लोगों को नहीं मिल पा रहा। शहरों के सीवर जाम हैं।  आखिर क्यों ? कभी किसी इंजीनयर से पूछा जाएगा या उन्हें केवल दण्डित किया जाएगा ? बच्चा भी 9 माह  पेट में पलता है तभी स्वस्थ पैदा होता है और आगे जीवन में स्वस्थ रहने की संभावना ज्यादा होती है। यहां तो इंजिनीयरों को बस डेट दी जाती है और फिर शुरू होता है समीक्षा - समीक्षा का टी 20 खेल। यह नही पूछा जाता की प्रोजेक्ट कब तक पूरा हो सकता है। दबाव होता है कि फलां तारीख तक प्रोजेक्ट पूरा हो जाए। ना तो मैनपावर मिलेगी ना आवश्यक सुविधाएं।

महाराज जी यह निर्माण का कार्य है। विध्वंस की तरह मत करवाइये। समय दीजिये। डी.पी.आर. बनाने में बहुत समय चाहिए होता है। एस्टीमेट बनाने में बहुत सारी जानकारियां चाहिए। दरों की एनालिसिस करना आसान काम नही है। कोई भी स्ट्रक्चर एक इंजीनयर के लिए उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति है। उसका निर्माण एक सुखद पर पीड़ादायक घटना है। समय पूर्व प्रसव की तरह का व्यवहार किसी भी संरचना के साथ मत कीजिये। इंजिनीयरों ने राष्ट्र के विकास में बहुत योगदान दिया है। उनको पार्टी कार्यकताओं की हठधर्मिता के सहारे मत छोड़िये। नहीं तो कोई भी निर्माण मात्र विध्वंस का कारण ही बनेगा। विकास की आड़ में ठेकेदारी और जेब भरने का उपक्रम नही चलना चाहिए न।  ना तो भारत रत्न विश्वशरैया जी ने ना ही श्रीधरन जी ने दबाव में काम किया था। तभी उन्होंने मेट्रो जैसी धरोहरों का निर्माण किया।

हर राजनैतिक दल सत्तारूढ दल को भ्रष्टाचारी बताकर अपना चुनाव अभियान चलाता है और जनता से भ्रष्टाचारमुक्त शासन देने का वायदा करता है। पर हकीकत यह है कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और। ऐसा कभी नहीं सुना जाता कि किसी निर्माण कंपनी को उसके अनुभव और गुणवत्ता के आधार पर योनजाओं के क्रियान्वयन के लिए चुना जाए। यों चुनने की प्रक्रिया अब काफी पारदर्शी बना दी गई है। जिसमें ऑनलाईन निविदाऐं भरी जाती है और टैक्निकल व फायनेंसियल बिडिंग का तुलनात्मक अध्ययन करके ठेके आवंटित किये जाते हैं। पर ये सब भी एक नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं है। सरकार किसी भी दल की क्यों न हो, उसके मंत्री सत्ता में आते ही मोटी कमाई के तरीके खोजने लगते हैं और नौकरशाही के भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से सभी परियोजनाऐं अपने चहेतों को दिलवाते हैं।’’

मंत्री के चहेते का मतलब होता है, जो मंत्री के घर जाकर निविदा दाखिल करने से पहले ही मंत्री को अग्रिम रूप से मोटी रकम देकर, इस बात को सुनिश्चित कर ले कि जो भी ठेका मिलेगा, वो उसे ही मिलेगा। इसके बाद निविदा की सारी प्रक्रिया एक ढकोसला मात्र होती है। और वही होता है जो, ‘जो मंजूरे मंत्री जी होता है’।

योगी जी जब सत्ता में आए थे, तो उन्होंने भी बहुत कोशिश की कि भ्रष्टाचारविहीन शासन दें। पर आज तक कुछ भी नहीं बदला। जो कुछ पहले चल रहा था। उससे और ज्यादा भ्रष्टाचार आज सार्वजनिक निर्माण के क्षेत्र में अनुभव किया जा रहा है। मैंने कई बार इस मुद्दे उठाया है कि भ्रष्टाचार का असली कारण ‘करप्शन इन डिजाईन’ होता है। यानि योजना बनाते समय ही मोटा पैसा खाने की व्यवस्था बना ली जाती है। जैसा उ.प्र. के पर्यटन विभाग में हमें अनुभव हुआ। जब उसने पिछले वर्ष ब्रज के 9 कुंडों के जीर्णोंद्धार का ठेका 77 करोड़ रूपये में उठा दिया। हमने इसका पुरजोर विरोध किया और परियोजना में तकनीकी खामिया उजागर की, तो अब यही काम मात्र 27 करोड़ रूपये में होने जा रहा है। यानि 50 करोड़ रूपया सीधे किसी की जेब में जाने वाले थे। इतना ही नहीं योगी जी ने बड़े प्रचार के साथ जिस ‘ब्रज तीर्थ विकास परिषद्’ की स्थापना की है, उसके मूल संविधान में छेड़छाड़ करके वर्तमान उपाध्यक्ष शैलजाकांत मिश्र ने उसे भारी भ्रष्टाचार करने के लिए सुगम बना दिया है। मूल संविधान में परिषद् में पर्यटन से संबंधित अनेक विशेषज्ञों को लेने का प्राविधान था, जिसे श्री मिश्रा ने बड़े गोपनीय तरीके से हटवाकर, ऐसी व्यवस्था बना ली कि अब किसी भी साधारण सामाजिक कार्यकर्ता या दलालनुमा व्यक्ति को बोर्ड में लाया जा सकता है। इसी तरह ‘सी.ई.ओ’ की ताकत भी इतनी बढ़ा दी कि अब कोई उन्हें ब्रज को बर्बाद करने से नहीं रोक सकता। केवल दो लोगों के अहमकपन से भगवान श्रीकृष्ण के ब्रज का विकास नियंत्रित हो गया है। जिसके निश्चित रूप से घातक परिणाम सामने आऐंगे और तब ये योगी सरकार के लिए ‘ताज कोरिडोर’ जैसा घोटाला खुलेगा।

अभी पिछले दिनों बनारस में निर्माणाधीन पुल की बीम गिरी और 18 लोग मर गऐ। आगरा में ‘रिंग रोड’ धंस गई। मथुरा के गोवर्धन रेलवे स्टेशन का नवनिर्मित चबूतरा बैठ गया। बस्ती जिले में पुल गिर गया। ऐसी दुर्घटनाऐं आए दिन हो रही है, पर सरकार कोई सबक नहीं ले रहीं। इससे उ.प्र. के मतदाताओं की जान जोखिम में पड़ गई है। पता नहीं कब, कहां, क्या हादसा हो जाऐ?

Monday, August 6, 2018

डॉ. सुब्रमनियन स्वामी से झगड़ा क्यों?

अपने राजनैतिक जीवन में अनेक बार दल बदल चुके, राज्यसभा के विवादास्पद सांसद, जो मोदी सरकार में वित्त मंत्री न बनाये जाने से बेहद खफा हैं, ने मेरे ऊपर हमला करते हुए आरोप लगाये कि मैं 21वीं सदी का सबसे बड़ा ‘नटवरलाल’ हूँ और मेरे विरूद्ध उन्होंने 8 पेज की शिकायत उ0प्र0 के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भेजकर, सीबीआई से जांच करवाने की मांग की।

उनका आरोप पत्र लेकर उनके दो सहयोगी वकील हवाई जहाज से पिछले हफ्ते लखनऊ गये और मुख्यमंत्री योगी जी को शिकायत का हर बिंदु समझाया। इसके साथ ही डॉ. स्वामी ने अपने शिकायत पत्र को सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया।

इस शिकायत पत्र में लगाये गए आरोपों को पढ़कर हर उस व्यक्ति को डॉ. स्वामी की बुद्धि पर तरस आया, जो मुझे पत्रकार के नाते या भगवान श्रीकृष्ण की धरोहरों के संरक्षणकर्ता के रूप में जानते हैं। किसी को डॉ. स्वामी के लगाये आरोपों पर यकीन नहीं हुआ। हमने भी बिना देरी करे सभी आरोपों का जवाब, मय प्रमाणों के साथ प्रस्तुत कर दिये।

जबकि डॉ. स्वामी से हमने दो महीने पहले पूछा था कि आज तक उन्होंने भ्रष्टाचार के कितने मुद्दे उठाये और उनमें से कितनों में सजा दिलवाई। क्योंकि उनकी ख्याति ये है कि वू धूमधाम से ऐसे मुद्दे उठाते हैं और फिर परदे के पीछे आरोपी से डील करके अपने ही मुकदमों को ढीला करवा देते हैं। जैसे जैट एयरवेज-एतिहाद डील के खिलाफ उन्होंने खूब शोर मचाया और सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की और फिर आरोपियों से डील करके धीरे धीरे अपनी याचिका को कई बार बदलकर ठंडा कर दिया। हमने पूछा था कि अय्याश और बैंकों के हजारो करोड़ों रूपया लूटकर विदेश भागने वाले, शराब निर्माता विजय माल्या से बेहतर चरित्र का क्या कोई व्यक्ति डॉ. स्वामी को जीवन में अपने दल के लिए नहीं मिला? उल्लेखनीय है कि डॉ. स्वामी ने 2003 से 2010 के बीच विजय माल्या को अपनी जनता पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था। हैं न दोनों मौसेरे भाई।

हमने पूछा कि क्या डॉ. स्वामी भाजपा के प्राथमिक सदस्य हैं? अगर नही तो उन्हें भाजपा का वरिष्ठ नेता क्यों कहा जाता है? हमने पूछा कि अगर वे इतने ही पाक-साफ हैं, तो अंतर्राष्ट्रीय दलाल, हथियारों के सौदागरों के ऐजेंट, कुख्यात तांत्रिक चंद्रा स्वामी और अदनान खशोगी  से डॉ. सुब्रमनियम स्वामी के इतने घनिष्ठ संबंध क्यों थे? गूगल पर इनके काले कारनामे भरे पड़े हैं।

डॉ. स्वामी लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निकटस्थ लोगों पर हमले करते रहते हैं। हमने पूछा कि क्या उन्हें मोदी जी की योग्यता पर शक है और वे स्वयं को मोदी से बेहतर प्रशासक मानते हैं? पिछले दिनों डॉ. स्वामी ने खुलेआम कहा था कि भारत की अर्थव्यवस्था को सुधारने की क्षमता केवल उनमें है। इसलिए उन्हें भारत का वित मंत्री बनाना चाहिए। हमने पूछा कि कहीं ये विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरह इतिहास तो नहीं दोहरायेंगे? पहले वित मंत्री बनाओं, फिर प्रधानमंत्री और अमित शाह के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे और फिर खुद प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश करेंगे। हमारी जानकारी के अनुसार डॉ. स्वामी का दावा है कि इन्हें संघ और भाजपा के एक बड़े वर्ग का समर्थन प्राप्त है। ये बात दूसरी है कि वे सार्वजनिक जीवन में ज्यादातर समय ऐसे ही  झूठ बोलते हैं।

हमने पूछा कि वे भ्रष्टाचार के सब मुद्दे ट्वीटर और मीडिया पर ही क्यों उछालते है? जबकि उनके पास राज्यसभा में बोलने का सशक्त माध्यम है। कारण स्पष्ट है कि राज्यसभा में उठाये मुद्दों के प्रति उनकी जवाबदेही बन हो जाऐगी। तब उन्हें डील करके ठंडा करना आसानी से संभव नहीं होगा।

इधर मुझ पर डॉ. स्वामी का पहला आरोप है कि मैंने ब्रज वृंदावन में सैकड़ों करोड़ की सार्वजनिक भूमि पर कब्जा कर लिया। मेरा उन्हें जवाब है कि  वृंदावन में मेरे पैतृक निवास के अतिरिक्त मेरे नाम या मेरी संस्था ब्रज फाउंडेशन के नाम मथुरा के राजस्व रिकॉर्ड में वे एक इंच जमीन भी सिद्ध करके दिखा दें, तो मैं कड़ी से कड़ी सजा भुगतने को तैयार हूं। अगर न सिद्ध कर पाऐ, तो बतायें उनकी सजा क्या होगी?

उनका दूसरा आरोप यह है कि मेरे सहयोगी आईआईटी के मेधावी छात्र राघव मित्तल ने मथुरा की युवा सीडीओ से बदतमीजी की। हमारा उत्तर यह है कि हमने योगी सरकार को दो बड़े घोटालों में फंसने से बचाया। जिसके प्रमाण मौजूद हैं।  जिससे मथुरा के कुछ भ्रष्ट नेता बैचेन हो गऐ, जो इन घोटालों में मोटा कमीशन खाते। इसलिए पिछले वर्ष से ब्रज फाउंडेशन पर तरह-तरह के झूठे आरोप लगाये जा रहे हैं। जिसमें हम उनकी भविष्य की योजना पर पलीता न लगा सकें।

हमपर उनका तीसरा आरोप यह था कि ब्रज का पर्यटन मास्टर प्लान बनाने के लिए हमने उ0प्र0 शासन से 57 लाख रूपये फीस ली, काम बिगाड़ दिया और झगड़ा कर लिया।हमारा उत्तर है कि पैसा ब्रज फाउंडेशन को नहीं ‘आईएलएफएस’ को मिला। जो हमारा लीड पार्टनर थे। फीस 2 करोड़ 17 लाख मिलनी थी। पर पर्यटन विभाग और एमवीडीए एक दूसरे पर टालते रहे और 1.5 करोड़ रूपया फीस उन पर आज भी बकाया है। जबकि ब्रज फाउंडेशन के बनाये मास्टर प्लान की तत्कालीन पर्यटन सचिव सुशील कुमार और भारत के योजना आयोग के सचिव डॉ. सुभाष पाणि ने लिखकर भारी प्रशंसा की और इसे बेमिसाल बताया था। पाठकों आप खुद ही मूल्यांकन कर लें कि असली ‘नटवरलाल’ कौन है?

Monday, July 23, 2018

‘मॉब लिंचिंग’ पर बढ़ती चिंता


हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को ‘मॉब लिंचिंग’ रोकने के प्रभावी कानून बनाने और अपराधियों को कड़ी सजा देने के निर्देश दिये हैं। ‘मॉब लिंचिंग’ का सबसे पुराना उदाहरण समय-समय पर देश में होने वाले दंगे हैं। जिनमें एक धर्म के मानने वालों की भीड़ दूसरे धर्म के मानने वाले किसी व्यक्ति को घेरकर बुरी तरह हमला करती है, उसे बुरी घायल कर देती है और मार भी डालती है। भारत के इतिहास में पिछली सदी में इसके लाखों उदाहरण हैं।

दूसरा उदाहरण है, चुनावी हिंसा का। जिन दिनों भारत के कुछ राज्यों में चुनावों में ‘पूत कब्जा करना’ आम बात होती थी। उन दिनों भी आक्रामक भीड़ वुनाव अधिकारियों या राजनैतिक दल के कार्यकर्ताओं को घेरकर इसी तरह मारा करती थी। आजाद भारत के इतिहास में ‘मॉब लिंचिंग’ का सबसे वीभत्स उदाहरण 31 अक्टूबर 1984 के बाद देखने को मिला। जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद बेकाबू कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने पूरे उत्तर भारत में सिक्ख समुदाय के लोगों को बहुत निर्दयता से मारा, जलाया या लूटा।

आजकल जो ‘मॉब लिंचिंग’ का शोर मच रहा है, उसके पीछे हाल के वर्षों में हुई घटनाऐं प्रमुख हैं। जिनमें भाजपा से सहानुभूति रखने वाले हिंसक युवा कभी गौरक्षा के नाम पर, कभी मंदिर के नाम पर या कभी देशभक्ति के नाम पर, अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों की जमकर कुटाई करते हैं, लूटपाट करते हैं, उनके नाम के साईन बोर्ड मिटा देते हैं और हत्या तक कर डालते हैं। चूंकि ऐसी घटनाऐं देशभर में लगातार पिछले 4 वर्षों में बार-बार हो रही हैं। इसलिए आज यह सर्वोच्च न्यायालय और सिविल सोसाईटी की चिंता का विषय बन गया है। बावजूद इसके शिकयत यह है कि देश का टीवी और प्रिंट मीडिया इतने संवेदनशील मुद्दे पर खामोशी धारण किये हुए है। जबकि इस पर लगातार तार्किक बहस होनी चाहिए। क्योंकि इस तरह का आचरण मध्ययुगीन सामंतवादी बर्बर कबीलों का होता था। 19वीं सदी से लगभग सभी देशों में लोकतंत्र का पदार्पण होता चला गया। नतीजतन सामंतशाही की ताकत बिखरकर आम मतदाता के हाथ में चली गई। ऐसे में ‘मॉब लिंचिंग’ जैसे जंगली व्यवहार को अब कोई सामाजिक मान्यता नहीं है। पश्चिम ऐशिया के कुछ देश इसका अपवाद जरूर है, जहां शरियत के कानून का सहारा लेकर ‘मॉब लिंचिंग’ जैसी परिस्थितियों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। उदाहरण के तौर पर व्यभिचारिणी महिला को पत्थरों से मार-मारकर घायल कर देना। पर भारत जैसे सभ्य सुंस्कृत समाज में ‘मॉब लिंचिंग’ जैसी हिंसक गतिविधियों को कोई स्वीकृति प्राप्त नहीं है। हर अपराध के लिए स्पष्ट कानून है और कानून के मुताबिक अपराधी को सजा दी जाती है। इसमें अपवाद भी होते हैं, पर वे अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। आम जनता का विश्वास अभी भी न्यायपालिका में कायम है।

इन परिस्थितियों में न्यायपालिका, राजनैतिक दलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए और भी बड़ी चुनौती है, कि वे अपने पारदर्शी आचरण से ऐसा कुछ भी न होने दें, जिसे ‘मॉब लिंचिंग’ की संज्ञा दी जा सके। पर ये कहना सरल है, करना कठिन। फिर भी एक सामूहिक प्रयास तो किया ही जाना चाहिए। फिर वो चाहे राज्य स्तर पर हो या केंद्र स्तर पर। ‘मॉब लिंचिंग’ किसी  एक सम्प्रदाय के विरूद्ध सीमित रह जाए, यह संभव नहीं है। अगर इसे यूंही पनपने दिया, तो जिसके हाथ में लाठी होगी, उसकी भैंस। फिर तो छोटी-छोटी बातों पर बेकाबू हिंसक भीड़ अपने प्रतिद्धंदियों, विरोधियों या दुश्मनों पर इसी तरह हिंसक हमले करेगी और पुलिस व कानून व्यवस्था तमाशबीन बनकर देखते रहेंगे। इससे तो समाज का पूरा तानाबाना ही छिन्न-भिन्न हो जाऐगा और हम बर्बर जीवनशैली की ओर उलटे लौट पडेंगे। इसलिए हर उस व्यक्ति को जो किसी भी रूप में ‘मॉब लिंचिंग’ के खिलाफ आवाज उठा सकता है या माहौल बना सकता है, बनाना चाहिए। ‘मॉब लिंचिंग’ चाहे  सामंतवादियों की हो, ऊँची-नीची जात मानने वालों के बीच हो, विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच हो या फिर कांग्रेस, भाजपा, सपा, तृणमूल कांग्रेस के राजनैतिक कार्यकर्ताओं के प्रतिनिधियों और विरोधियों के बीच हो। हर हालत में आत्मघात ही होगी।

इसे राजनैतिक स्तर पर भी रोकना होगा। एक सामूहिक राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। अन्यथा हालात बलूचिस्तान जैसे हो जाऐंगे। जहां केवल बंदूक का राज चलेगा। फिर लोकतंत्र और सामान्य सामाजिक जीवन भी खतरे में पड़ जाऐंगे।

सर्वोच्च न्यायालय अगर अपना रूख कड़ा किये रहे और राजनैतिक दल इसे अहमतुष्टि का मुद्दा न बनाकर और राजनैतिक स्वार्थों की परवाह न करके व्यापक समाज के हित में ‘मॉब लिंचिंग’ को रोकते हैं, तो कोई बजह नहीं कि यह नासूर कैंसर बनने से पहले ही खत्म न हो जाऐ। अब तक मीडिया की जो खमोशी रही है, खासकर टीवी मीडिया की, वह बहुत चिंता का विषय है। टीवी मीडिया को वाह्यिात मुद्दे छोड, नाहक की बहस में न पड़कर, समाज को सही दिशा में ले जाने वाले मुद्दों पर बहस करनी चाहिए। जिससे समाज में इन कुरीतियों के विरूद्ध जागृति पैदा हो।

Monday, July 9, 2018

धर्मस्थलों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की अच्छी पहल

पिछले हफ्ते सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने जगन्नाथ जी मंदिर के प्रवेश के नियमों की समीक्षा के दौरान पूरे देश के जिला जजों को एक अनूठा निर्देश दिया। उनसे कहा गया है कि उनके जिले में जो भी धर्मस्थल, चाहें किसी धर्म के हों, अगर अपनी व्यवस्था भक्तों के हित में ठीक से नहीं कर रहे या अपनी आय-व्यय का ब्यौरा पारदर्शिता से नहीं रख रहे या इस आय को भक्तों की सुविधाओं पर नहीं खर्च कर रहे, तो उनकी सूची बनाकर अपने राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों के माध्यम से 31 अगस्त 2018 तक सर्वोच्च न्यायालय को भेजें।
इस पहल से यह स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान धर्मस्थलों में हो रही भारी अव्यवस्थाओं और चढावे के धन के गबन की तरफ गया है। अभी सुधार के लिए कोई आदेश जारी नहीं हुए हैं। लेकिन सुझाव मांगे गये हैं। ये एक अच्छी पहल है। समाज के हर अंग की तरह धार्मिक संस्थाओं का भी पतन बहुत तेजी हुआ है। अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए धर्मस्थलों पर आने वाले धर्मावलंबियों की भीड़ लगातार बढ़ रही है। हर श्रद्धालु अपनी हैसियत से ज्यादा दान भी देता है। इससे ज्यादातर धर्मस्थलों की आय में तेजी से इजाफा हुआ है। पर दूसरी तरफ देखने में ये आता है कि दान के इस पैसे को भक्तों की सुविधा विस्तार के लिए नहीं खर्च किया जाता बल्कि उस धर्मस्थल के संचालकों के निजी उपभोग के लिए रख लिया जाता है।

जबकि होना यह चाहिए कि एक निर्धारित सीमा तक ही इस चढ़ावे का हिस्सा सेवायतों या खिदमदगारों को मिले। शेष भवन के रखरखाव और श्रद्धालुओं की सुविधाओं पर खर्च हो। मौजूदा व्यवस्थाओं में चढ़ावे के पैसे को लेकर काफी विवाद समाने आते रहते हैं। मुकदमेबाजियां भी खूब होती हैं। जनसुविधाओं का प्रायः अभाव रहता है। आय-व्यय की कोई पारदर्शी व्यवस्था नहीं है। इन स्थानों की प्रशासनिक व्यवस्था भी बहुत ढुलमुल होती है, जिससे विवाद होते रहते हैं। अच्छा हो कि सर्वोच्च न्यायालय सभी धर्मस्थलों के लिए एक सी प्रशासनिक व्यवस्था की नियमावली बना दे और आय-व्यय पारदर्शिता के साथ संचालित करने के नियम बना दे। जिससे काफी हद तक व्यवस्थाओं में सुधार आ जायेगा।
यहां कुछ सावधनियां बरतने की जरूरत होगी। सरकारें या उनके द्वारा बनाये गए बोर्ड इन धर्मस्थलों के अधिग्रहण के हकदार न हों। क्योंकि फिर भ्रष्ट नौकरशाही अनावश्यक दखलअंदाजी करेगी। वीआईपी संस्कृति बढेगी और भक्तों की भावनाओं को ठेस लगेगी। बेहतर होगा कि हर धर्मस्थल की प्रशासनिक व्यवस्था में दो चुने हुए प्रतिनिधि सेवायतों या खिदमदगारों के हों, छह प्रतिनिधि पिछले वित्तिय वर्ष में उस धर्मस्थल को सबसे ज्यादा दान देने वाले हों। दो प्रतिनिधिः जिला अधिकारी व जिला अधीक्षक हों और दो प्रमुख व्यक्ति, जो उस धर्मस्थल के प्रति आस्थावान हो और जिसके सद्कार्यों की उस जिले में प्रतिष्ठा हो, उन्हें बाकी के सदस्य की सामूहिक राय से मनोनीत किया जाए। इस तरह एक संतुलित प्रशासिक व्यवस्था की स्थापना होगी। जो सबके कल्याण का कार्य करेगी।
यहां एक सावधानी और भी बरतनी होगी। यह प्रशासनिक समिति कोई भी कार्य ऐसा न करे, जिससे उस धर्मस्थल की परंपराओं, आस्थाओं और भक्तों की भावनाओं ठेस लगे। हर धर्मस्थल पर भीड़ नियंत्रण, सुरक्षा निगरानी, स्वयंसेवक सहायता, शुद्ध पेयजल व शौचालय, गरीबों के लिए सस्ता या निशुल्क भोजन उपलब्ध हो सके, यह प्रयास किया जाना चाहिए। इसके साथ ही अगर उस धर्मस्थल की आय आवश्यक्ता से बहुत अधिक है, तो इस आय से उस जिले के समानधर्मी स्थलों के रखरखाव की भी व्यवस्था की जा सकती है। जिन धर्मस्थलों की आय बहुत अधिक है, वे शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य जनसेवाओं में महत्वपूर्णं योगदान कर सकते हैं और कर भी रहे हैं।
जब सर्वोच्च न्यायालय ने यह पहल कर ही दी है। तो हर जिले के जागरूक नागरिकों का यह कर्तव्य बनता है कि वे अपने जिले के, अपने धर्म के स्थलों, का निष्पक्षता से सर्वेक्षण करे और उनकी कमियां और सुधार के सुझाव यथाशीघ्र बाकायदा लिखकर जिला जज के पास जमा करवा दें। जिससे हर जिले के जजों को इनको व्यवस्थित करके अपने प्रांत के मुख्य न्यायाधीश को समय रहते भेजने में सुविधा हो। जो नौजवान कम्प्यूटर साइंस के विशेषज्ञ हैं, उन्हें इस पूरे अभियान को समुचित टैंपलेट बनाकर व्यवस्थित करना चाहिए। जिससे न्यायपालिका बिना मकड़जाल में उलझे आसानी से सभी बिंदुओं पर विचार कर सके।अगर इस अभियान में हर धर्म के मानने वाले बिना राग द्वेष के उत्साह से सक्रिय हो जाऐ, तो इस क्षेत्र में आ रही कुरीतियों पर रोक लग सकेगी। जो भारत जैसे धर्मप्रधान देश के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने यह पहल की है। आशा है ये किसी ठोस अंजाम तक पहुचेगी।

Monday, July 2, 2018

मगहर में प्रधानमंत्री मोदी का मजाक क्यों?

पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी, संत कबीर दास जी की समाधि दर्शन के लिए उ.प्र. के मगहर नामक स्थान पर गऐ थे। जहां उनके भाषण के कुछ अंशों के लेकर सोशल मीडिया में धर्मनिरपेक्ष लोग उनका मजाक उड़ा रहे हैं। इनका कहना है कि मोदी जी को इतिहास का ज्ञान नहीं है। इसीलिए उन्होंने अपने भाषण में कहा कि गुरुनानक देव  जी, बाबा गोरखनाथ जी और संत कबीरदास जी यहां साथ बैठकर धर्म पर चर्चा किया करते थे। मोदी आलोचक सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि ‘बाबा गोरखनाथ का जन्म 10 वी शताब्दी में हुआ था। संत कबीर दास का जन्म 1398 में हुआ था और गुरुनानक जी का जन्म 1469 में हुआ था। उनका प्रश्न है? फिर कैसे ये सब साथ बैठकर धर्म चर्चा करते थे? मजाक के तौर पर ये लोग लिख रहे हैं कि ‘माना कि अंधेरा घना है, पर बेवकूफ बनाना कहाँ मना है’।

बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद’? अध्यात्म जगत की बातें अध्यात्म में रूचि रखने वाले और संतों के कृपा पात्र ही समझ सकते हैं। धर्म को अफीम बताने वाले नहीं। इस संदर्भ में मैं श्री नाभा जी कृत व भक्त समाज में अति आदरणीय ग्रंथ ‘भक्तमाल’ के प्रथम खंड से एक उदाहरण देकर ये बताने जा रहा हूं कि कैसे जो मोदी जी ने जो कहा, वह उनकी अज्ञानता नहीं बल्कि गहरी धार्मिक आस्था और ज्ञान का परिचायक है।

झांसी के पास ओरछा राज्य के नरेश के राजगुरू, शास्त्रों के प्रकांड पंडित पंडित श्री हरिराम व्यास जी का जन्म 16वीं सदी में हुआ था। बाद में ये ओरछा छोड़कर वृंदावन चले आए और श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य श्रीहित हरिवंश जी महाराज से प्रभावित होकर उसी सम्प्रदाय में दीक्षित हुए। जिसमें भगवान श्रीराधाकृष्ण की निभृत निकुंज लीलाओं का गायन और साधना प्रमुख मानी गई है। इस सम्प्रदाय की मान्यतानुसार वृंदावन में भगवान श्रीराधाकृष्ण और गोपियों की रसमयी लीलाऐं आठोप्रहर निरंतर चलती रहती है। गहन साधना और तपश्चर्या के बाद रसिक संतजनों को इन रसमयी लीलाओं का दर्शन ऐसे ही होता है, जैसे भौतिक जगत का प्राणी टेलीवीजन के पर्दे पर फिल्म देखता है। इसे ‘अष्टायाम लीला दर्शन’ कहते हैं।

श्री हरिराम व्यास जी ने वृंदावन में रहकर घोर वैराग्य और तपश्चर्या से इस स्थिति को प्राप्त कर लिया था कि उन्हें समाधि में बैठकर आठों प्रहर की लीलाओं के दर्शन सहज ही हो जाया करते थे। इसलिए श्री हरिराम व्यास जी का स्थान राधावल्लभ सम्प्रदाय के महान रसिक संतों में अग्रणी माना जाता है।

भक्तमाल’ में वर्णन आया है कि एकबार श्री हरिराम व्यास जी यमुना तट पर समाधिस्थ होकर ‘अष्टायाम लीलाओं’ का दर्शन कर रहेे थे। तभी उनके मन में अचानक यह भाव आया कि जिस लीला रस का आस्वादन मैं सहजता से कर रहा हूं, वह रस संत कबीर दास जी को प्राप्त नहीं हुआ। ये विचार मन में आते ही उन्हें लीला दर्शन होना बंद हो गया। एक रसिक संत के लिए यह मरणासन्न जैसी स्थिति होती है। उनकी समाधि टूट गई, नेत्र खुल गये, अश्रु धारा प्रवाहित होने लगी और उनकी स्थिति जल बिन मछली जैसी हो गई। इस व्याकुलता में अधीर होकर, वे हित हरिवंश जी महाराज के पास गऐ और उनसे लीला दर्शन न होने का कारण पूछा। हित हरिवंश जी महाराज ने कहा कि अवश्य ही तुमसे कोई वैष्णव अपराध हुआ है। जाओ जाकर उसका चिंतन करो और जिसके प्रति अपराध हुआ है, उससे क्षमा याचना करो।

हरिराम व्यास जी पुनः यमुना तट पर आऐ और समाधिस्थ होकर अपराध बोध से चिंतन करने लगे कि उनसे किस संत के प्रति अपराध हुआ है। तब उन्हें ध्यान आया कि चूंकि कबीर दास जी ज्ञानमार्गीय संत थे, इसलिए व्यास जी के मन में ये भाव आ गया था कि कबीरदास जी को भगवान श्री राधाकृष्ण की अष्टायाम लीला के दर्शन का रस प्राप्त नहीं हुआ होगा। जो कि भक्ति मार्ग के रसिक संतों सहज ही हो जाता है। जैसे ही ये विचार आया, हरिराम व्यास जी ने अश्रुपूरित कातर नेत्रों से, दीनहीन भाव से संत कबीरदास जी के श्री चरणों में अपने अपराध की क्षमा याचना की।

व्यास जी यह देखकर आश्चर्यचकित हो गऐ कि संत कबीरदास जी उनके सामने ही यमुना जी से स्नान करके बाहर निकले और हरिराम व्यास जी से ‘राधे-राधे’ कहकर सत्संग करने बैठ गऐ। जबकि कबीरदास जी को पूर्णं समाधि लिए लगभग 150 वर्ष हो चुके थे। फिर ये कैसे संभव हुआ? हरिराम व्यास जी ने पुनः अपने अपराध की क्षमा मांगी और तब शायद उन्होंने ही यह पद रचा, ‘मैं तो जानी हरिपद रति नाहिं’। आज मैंने जाना कि मेरे हृदय में आज तक भगवान के श्रीचरणों के प्रति अनुराग ही उत्पन्न नहीं हुआ है। आज तक तो मैं यही मानता था कि हमारा ही सम्प्रदाय सर्वश्रेष्ठ है और हमारे जैसे ही रसिक संतों को निकुंज लीला के दर्शनों का सौभाग्य मिल पाता है। आज मेरा वह भ्रम टूट गया। आज पता चला कि प्रभु की सत्ता का विस्तार सम्प्रदायों में सीमाबद्ध नहीं है।

इसी तरह महावतार बाबाजी के शिष्य पूरी दुनिया में हैं और उनका विश्वास है और दावा है कि वे जब भी पुकारते हैं, बाबा आकर उन्हें दर्शन और निर्देश देते हैं। ऐसा हजारों वर्षों से उनके शिष्यों के साथ हो रहा है।

अब अगर नरेन्द्र भाई मोदी ने अपने इसी आध्यात्मिक ज्ञान और अनुभव को दृष्टिगत रखते हुए, यह कह दिया कि बाबा गोरखनाथ, संत कबीरदास और श्री गुरूनानक देव जी मगहर में एक साथ बैठकर धर्म चर्चा किया करते थे, तो इसमें गलत क्या है? हमारे देश का यही दुर्भाग्य है कि यवन और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में हम अपनी सनातन संस्कृति को भूल गऐ हैं। उसमें हमारा विश्वास नहीं रह गया है और यही भारत के पतन का कारण है।

Monday, June 25, 2018

कश्मीर समस्या का समाधान?

2010 में  इसी कालम में कश्मीर के हालात और उनसे समाधान पर जो कुछ मैंने यहां लिखा था। उन परिस्थतियों में गत 8 वर्षों में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं आया। जबकि इस दौरान यूपीए और एनडीए दोनों सरकारों ने अपने-अपने प्रयोग किये हैं। लगातार पुलिस और सेना की मौजूदगी से घाटी के लोग आज़िज आ गये हैं। उन्हें लगता है कि भारत की लोकतांत्रिक, सम्प्रभुता सम्पन्न सरकार ने उनके साथ किया गया अपना वायदा नहीं निभाया। कश्मीर 15 अगस्त 1947 को भारत का अंग नहीं था। कई महीने बाद कबीलाई हमलों से घबराकर कश्मीर के राजा हरी सिंह ने भारत के साथ एक समझौता किया जिसके तहत कश्मीर को विशेष दर्जा देते हुए भारतीय गणराज्य में शामिल कर लिया गया। इस समझौते के तहत कश्मीर को गृह, विदेश, संचार और रक्षा जैसे मामले छोड़कर बाकी में स्वायता दे दी गयी थी। पर बाद के वर्षों में धीरे-धीरे उसकी यह स्वायता समाप्त कर दी गयी। जिससे घाटी की राजनीति में एक ऐसी अस्थिरता पैदा हुई जो आज तक थम नहीं पायी।
उल्लेखनीय है कि कश्मीर के संदर्भ में संविधान की धारा 370 समाप्त करने की जो मांग जनसंघ या बाद में भाजपा उठाती रही है, उसने हमेशा घाटी के लोगों को उत्तेजित किया है। यह उस समझौते के खिलाफ है जो विलय के समय किया गया था। कानून का सम्मान करने वाले राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी में ऐसे समझौतों को तोड़ा नहीं करते। वैसे भी धारा 370 समाप्त करने की बजाय अगर विलय के समझौते की शर्तों को पूरा सम्मान दिया जाये तो भी कश्मीर भारत का ही अंग रहता है। जिसका अर्थ यह हुआ कि पाकिस्तान का कश्मीर पर कोई भी कानूनी हक न कभी था, न आज है और न होगा। कश्मीर के जिस हिस्से को पाकिस्तान ने फिलहाल दबा रखा है, उसे पाकिस्तान का हिस्सा नहीं माना जाता, बल्कि ‘पाक अधिकृत कश्मीर’ माना जाता है। पाकिस्तान, कश्मीर, भारत और पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) ब्रिटिश संसद के जिस कानून से बने थे, उस कानून की अगर अवमानना करके पाकिस्तान कश्मीर पर किसी भी तरह का दावा कहीं भी पेश करता है तो इसका मतलब यह हुआ कि उस कानून में पाकिस्तान की आस्था नहीं है। इसका मतलब यह भी हुआ कि दक्षिणी एशिया के इन देशों की आजादी के लिए जो कानून बना था, वो पाकिस्तान को स्वीकार्य नहीं है। उल्लेखनीय है कि ऐसा करने पर पाकिस्तान का वजूद ही समाप्त हो जाता है। क्योंकि यह कानून ही है जिसने पाकिस्तान को एक स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा दिया, वरना तो वह भारत का अंग था।

पूर्व केन्द्रीय मंत्री कमल मोरारका का कहना है कि भाजपा जैसे भारत के कुछ राजनैतिक दल गलत मुद्दे उछाल कर कश्मीर के मामले में भारत का पक्ष कमजोर करते रहे हैं। दूसरी तरफ घाटी के कांग्रेसी नेता अपने स्वार्थों के लिए दिल्ली दरबार को बरगला कर अपनी रोटियाँ सेंकते रहे हैं। इनका मानना है कि अगर घाटी से कांग्रेस व भाजपा जैसे दल अपनी सियासती शतरंज के मोहरे उठा लें और घाटी के लोगों को अपने ही राजनैतिक दलों के बीच चुनाव करने के लिए छोड़ दें, तो वे ज्यादा आजाद महसूस करेंगे। क्योंकि तब उनकी राजनीति शेष भारत की राजनीति से प्रभावित नहीं होगी। इससे मनोवैज्ञानिक रूप से भी अपने राज्य के विशेष दर्जे की हैसियत का अहसास होता रहेगा। इसके साथ ही भारत के सभी राजनैतिक दल यह करें कि पूरी दुनिया के हर मंच पर एकजुट होकर एक ही आवाज उठाऐं कि कश्मीर व भारत के बीच हुए द्विपक्षीय समक्षौते का पूरी दुनिया सम्मान करे और पाकिस्तान को मजबूर करे कि वह कश्मीर का जबरन कब्जाया हिस्सा खाली करके वहाँ से निकल जाये। उल्लेखनीय है कि जहाँ भारत ने कश्मीर के साथ 1948 में हुए करार का सम्मान करते हुए आज तक कश्मीर में भारतीयों को अचल सम्पत्ति खरीदने की इजाजत नहीं दी, जबकि कश्मीरियों को भारत में कहीं भी सम्पत्ति खरीदने की इजाजत है, वहीं पाकिस्तान ने अधिकृत कश्मीर में जबरन सम्पत्तियाँ खरीदवाकर पंजाबियों को भारी मात्रा में बसा दिया है और स्थानीय जनता को डरा-धमकाकर कश्मीर के उस हिस्से का सामाजिक तानाबाना ही तार-तार कर दिया है। साफ जाहिर है कि कश्मीर के आवाम के साथ झूठी हमदर्दी दिखाने वाला पाकिस्तान ही उनका असली दुश्मन है। इसलिए कश्मीर से उसे निकाले जाने के लिए पूरी दुनिया में दबाव बनाना चाहिए। अगर वह न माने तो न सिर्फ पाकिस्तान की सार्वजनिक भत्र्सना की जाये बल्कि उसको संयुक्त राष्ट्र से निकालने की भी धमकी दी जाये और उसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर कड़े प्रतिबंध लगाये जायें। आर्थिक तंगी, आतंकवाद, भ्रष्ट सेना, नाकारा सिविल प्रशासन और क्षेत्रीय गुटवाद से ग्रस्त पाकिस्तान की औकात नहीं है कि वो ऐसे दबावों को झेल पाये। जो पाकिस्तान अपने देश की दो करोड़ बाढ़ग्रस्त जनता को रसद तक नहीं पहुँचा सकता, वो ऐसे प्रतिबंधों के आगे कितने दिन ठहर पायेगा ?

इस तरह कश्मीर से पाकिस्तान का हटना और भारत के मुख्य राजनैतिक दलों का घाटी की राजनीति से अपने को समेटना, घाटी के लोगों में एक नये उत्साह का संचार करेगा और तब वे अपने क्षेत्र के विकास और राजनैतिक व्यवस्था के बारे में खुद निर्णय लेने में सक्षम होंगे। यह सही है कि घाटी के कट्टरपंथियों के चलते वहाँ से हिन्दुओं का जो जबरन पलायन हुआ उसको लेकर यह आशंका उठ सकती है कि ऐसी स्थिति में जम्मू कश्मीर रियासत के अल्पसंख्यकों का क्या हाल होगा जिनमें हिन्दु, बौद्ध, सिक्ख और ईसाई शामिल हैं। तो उसके बारे में रियासत की सरकार पर मानवाधिकार के दायरे में काम करने के लिए दबाव बनाया जा सकता है। यह दबाव जम्मू और लद्दाख की जनता भी बनायेगी, मीडिया भी और शेष भारत के लोग भी।

यह ऐसी सोच है जिससे देश में बहुत से भावुक लोग सहमत नहीं होंगे। पर ये वो लोग हैं, जिन्हें शायद अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की बारीकियों की जानकारी नहीं है। असलियत ये है कि कश्मीर की घाटी में जो हालात हैं, उनसे निपटने के दूसरे सभी उपाय अल्पकालिक ही सिद्ध होंगे, दीर्घ कालिक नहीं। कश्मीर के नेता घाटी में कुछ भी करें, पर दिल में जानते हैं कि कश्मीर का भविष्य और नियति भारत के साथ सुरक्षित है। उन्हें ‘‘आजादी नहीं स्वायता’’ चाहिए। हाँ एक उपाय और है कि फौज और पुलिस को गोली चलाने की खुली छूट दे दी जाये और हर सिर उठाने वाले का सिर कुचल दिया जाये। पर ऐसा तानाशाह सरकारों के अधीन या कट्टरपंथी देशों में तो हो सकता है, लोकतंत्र में सम्भव नहीं।