Punjab Kesari 25April2011 |
भ्रष्टाचार से आम हिन्दुस्तानी दुखी है और इससे निज़ात चाहता है। इसलिए अन्ना का अनशन शहरी मध्यम वर्ग के आक्रोश की अभिव्यक्ति बन गया। पर इसके साथ ही इस आन्दोलन से जुड़े कुछ अहम सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यह कि भूषण पिता-पुत्र अनेक विवादों में घिरे हैं। फिर भी उन्हें अन्ना समिति से हटा नहीं रहे हैं। उस समिति से, जो भ्रष्टाचार से निपटने का कानून बनाने जा रही है। उल्लेखनीय है कि ‘मुख्य सतर्कता आयुक्त’ पी.जे. थॉमस की नियुक्ति को चेतावनी देने वाली प्रशांत भूषण की ही जनहित याचिका में तर्क था कि ऐसे संवेदनशील पद पर बैठने वाले का आचरण ‘संदेह से परे’ होना चाहिए। अलबत्ता प्रशांत ने अदालत में जिरह करते वक्त यह कहा था कि, ‘‘मैं जानता हूँ कि थॉमस भ्रष्ट नहीं हैं।’’ उनकी याचिका के सहयाचिकाकर्ता भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री लिंग्दोह ने भी थॉमस के सच्चरित्र होने का वक्तव्य जारी किया था। यानि सच्चरित्र होने पर भी यदि जनता को संदेह है तो उस व्यक्ति को पद पर नहीं रहना चाहिए। ऐसा आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने इस केस में दिया। जिसके बाद थॉमस को जाना पड़ा।
वही प्रशांत भूषण थॉमस से जो अपेक्षा रखते थे, उसे अपने ऊपर लागू नहीं करना चाहते। जब दोनों पिता-पुत्र के आचरण पर इतने सारे सवाल खड़े हो गये हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की भावना के अनुरूप इन दोनों को लोकपाल विधेयक बनाने वाली समिति से हट जाना चाहिए। पर विडम्बना देखिए कि न तो वे खुद हटना चाहते हैं और न ही उनके साथी किरण बेदी, अरविन्द केजरीवाल और संतोष हेगडे़ इससे सहमत हैं। बेदी का तो एक टी.वी. चैनल पर कहना था कि भूषण बंधु अगर भ्रष्ट भी हैं तो हम केवल उनकी कानून में दक्षता का लाभ ले रहे हैं। इसी तरह की बात एक राष्ट्रीय अंग्रेजी टी.वी. चैनल पर बहस के दौरान जस्टिस हेगडे़ और भारत के पूर्व महाअधिवक्ता सोली सोराबजी ने मुझसे कही। मेरा जबाव था कि जिस व्यक्ति के चरित्र पर संदेह हो और जो अतीत में भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े गये युद्धों में निहित स्वार्थों के कारण रोड़े अटकाता रहा हो, ऐसे व्यक्ति से पारदर्शी कानून बनाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
फिलहाल इस बहस को अगर यहीं छोड़ दें तो सवाल उठता है कि इस वाली ‘सिविल सोसाइटी’ ने परदे के पीछे बैठकर जल्दबाजी में सारे फैसले कैसे ले लिए। देश को न्यायविदों के नाम सुझाने का 24 घण्टे का भी समय नहीं दिया। पिता-पुत्र को ले लिया और विवाद खड़ा कर दिया। ज़ाहिर है इस पूरी प्रक्रिया में किसी दूरगामी षडयंत्र की गन्ध आती है। जिसका खुलासा आने वाले दिनों में हो जायेगा। समिति के प्रवक्ताओं का यह कहना कि इस विधेयक को इन पिता-पुत्र के अलावा कोई नहीं तैयार कर सकता, बड़ा हास्यास्पद लगता है। 121 करोड़ के मुल्क में क्या दो न्यायविद् भी ऐसे नहीं हैं जो इस कानून को बनाने में मदद कर सकें? हजारों हैं जो इनसे कहीं बढ़िया और प्रभावी लोकपाल विधेयक तैयार कर सकते हैं। वैसे इस विधेयक को तैयार करने के लिए न्यायविदों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका अपराध विज्ञान के विशेषज्ञों की होगी। जो भ्रष्टाचार की मानसिकता को समझते हैं और उससे निपटने के लिए कानून बना सकते हैं। पर समिति की नीयत साफ नज़र नहीं आती और वह दूसरों पर आरोप लगा रही है कि उसके खिलाफ षडयंत्र रचा जा रहा है। पाठक जानते हैं कि हम पिछले कितने वर्षों से उन षडयंत्रों के बारे में लिखते आ रहे हैं जो निहित स्वार्थ भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े जा रहे संघर्षों को पटरी पर से उतारने के लिए रचते हैं। इसमें हमने भूषण पिता-पुत्रों और रामजेठमलानी व जे.एस.वर्मा की भूमिका का भी उल्लेख कई बार किया है। हमारा सी.डी. विवाद से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि हम अन्ना हज़ारे की माँग का पूरा समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़े कानून बनें। पर इस तरह नासमझी से और रहस्यमयी तरीके से नहीं, जैसा आज हो रहा है।
समिति के सदस्य विरोध कर रहे हैं कि जो हो रहा है उसे रोकने की कोशिश की जा रही है। पर लोग जानना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के कारणों पर आघात करने की इस समिति की क्या योजना है? तथाकथित ‘सिविल सोसाइटी’ नेताओं और अफसरों के विरूद्ध तो कड़े प्रावधान लागू करना चाहती है, लेकिन यह भूल रही है कि भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से नहीं बजती। भ्रष्टाचार बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ, बड़े औद्योगिक घरानों का देखा गया है। जो थोड़ी रिश्वत देकर बड़ा मुनाफा कमाते हैं। ऐसे उद्योगपतियों को पकड़ने का लोकपाल विधेयक में क्या प्रावधान है? इसके साथ ही यह भी देखने में आया है कि स्वंयसेवी संस्थाऐं (एन.जी.ओ.) जो विदेशी आर्थिक मदद लेती हैं, उसमें भी बड़े घोटाले होते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाऐं भी भारत में बड़े घोटाले कर रही हैं। तो ऐसे सभी मामलों को जाँच के दायरे में लेना चाहिए। क्या समिति इस पर विचार करेगी? सबसे बड़ा सवाल तो ईमानदार लोकपाल को ढूंढकर लाने का है। जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट आचरण करते रहे हों तो यह काम बहुत मुश्किल हो जाता है।
अन्ना हज़ारे के आन्दोलन की सबसे अच्छी बात यह है कि इससे शहरी युवा जुड़ गया है। जिसके लिए अरविन्द केजरीवाल की मेहनत को बधाई देनी चाहिए। पर साथ ही यह बात समझ में नहीं आती कि केजरीवाल और उनके बाकी साथी भूषण पिता-पुत्र के अनैतिक आचरण को क्यों अनदेखा कर रहे हैं? लोकपाल विधेयक तो अभी बनेगा। फिर लोकपाल चुना जायेगा। फिर वो जाँच करेगा। फिर कुछ नेता और अफसर पकड़े जायेंगे। यानि इस प्रक्रिया को पूरा होने में कम से कम दो साल तो लगेंगे ही। 2013 में जाकर कहीं परिणाम आयेगा, अगर आया तो? पर यह काम तो 20 साल पहले 1993 में ही मैंने कर दिया था। देश के 115 बड़े राजनेताओं, केन्द्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, विपक्ष के नेताओं व बड़े अफसरों को, बिना लोकपाल के ही, ‘जैन हवाला काण्ड’ में भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़वा दिया था। सबको जमानतें लेनी पड़ी थीं। भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ था। फिर इस सफलता को विफलता में बदलने का काम प्रशांत भूषण-शांति भूषण, उनके गुरू रामजेठमलानी और उनकी मण्डली के साथी जस्टिस जे.एस.वर्मा ने क्यों किया? मुझे डर है कि जिस तरह उन्होंने ‘हवाला केस’ में घुसपैठ कर उसे पटरी से उतार दिया, उसी तरह ये लोकपाल बिल के आन्दोलन को भी अपने निहित स्वार्थों के लिए कभी भी पटरी से उतार सकते हैं और तब अन्ना हजारे जैसे लोग ठगे से खड़े रह जायेंगे। पर कान के कच्चे अन्ना हजारे को भी यह बात समझ में नहीं आ रही। वे बिना तथ्य जाने ही बयान देते जा रहे हैं या उनसे दिलवाये जा रहे हैं। ऐसे में लोकपाल विधेयक समिति कितनी ईमानदारी से काम कर पायेगी, कहा नहीं जा सकता? फिर इस विधेयक से देश का भ्रष्टाचार दूर हो जायेगा, ऐसी गारण्टी तो इस समिति के सदस्य भी नहीं ले रहे। फिर भी धरने के दौरान टी.वी. चैनलों पर इन्होंने जोर-जोर से यह घोषणा की कि, ‘यह आजादी की दूसरी लड़ाई है और यह विधेयक पारित होते ही भारत से भ्रष्टाचार का खात्मा हो जायेगा।’ ऐसा हो, तो हम सबके लिए बहुत शुभ होगा। पर ऐसा होगा इसके प्रति देश के गम्भीर लोगों में बहुत संशय है। उनका कहना है कि जब इस विधेयक को बनाने वाले कुछ सदस्य ही दागदार हैं तो वे देश के दाग कैसे मिटायेंगे?
वही प्रशांत भूषण थॉमस से जो अपेक्षा रखते थे, उसे अपने ऊपर लागू नहीं करना चाहते। जब दोनों पिता-पुत्र के आचरण पर इतने सारे सवाल खड़े हो गये हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की भावना के अनुरूप इन दोनों को लोकपाल विधेयक बनाने वाली समिति से हट जाना चाहिए। पर विडम्बना देखिए कि न तो वे खुद हटना चाहते हैं और न ही उनके साथी किरण बेदी, अरविन्द केजरीवाल और संतोष हेगडे़ इससे सहमत हैं। बेदी का तो एक टी.वी. चैनल पर कहना था कि भूषण बंधु अगर भ्रष्ट भी हैं तो हम केवल उनकी कानून में दक्षता का लाभ ले रहे हैं। इसी तरह की बात एक राष्ट्रीय अंग्रेजी टी.वी. चैनल पर बहस के दौरान जस्टिस हेगडे़ और भारत के पूर्व महाअधिवक्ता सोली सोराबजी ने मुझसे कही। मेरा जबाव था कि जिस व्यक्ति के चरित्र पर संदेह हो और जो अतीत में भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े गये युद्धों में निहित स्वार्थों के कारण रोड़े अटकाता रहा हो, ऐसे व्यक्ति से पारदर्शी कानून बनाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
फिलहाल इस बहस को अगर यहीं छोड़ दें तो सवाल उठता है कि इस वाली ‘सिविल सोसाइटी’ ने परदे के पीछे बैठकर जल्दबाजी में सारे फैसले कैसे ले लिए। देश को न्यायविदों के नाम सुझाने का 24 घण्टे का भी समय नहीं दिया। पिता-पुत्र को ले लिया और विवाद खड़ा कर दिया। ज़ाहिर है इस पूरी प्रक्रिया में किसी दूरगामी षडयंत्र की गन्ध आती है। जिसका खुलासा आने वाले दिनों में हो जायेगा। समिति के प्रवक्ताओं का यह कहना कि इस विधेयक को इन पिता-पुत्र के अलावा कोई नहीं तैयार कर सकता, बड़ा हास्यास्पद लगता है। 121 करोड़ के मुल्क में क्या दो न्यायविद् भी ऐसे नहीं हैं जो इस कानून को बनाने में मदद कर सकें? हजारों हैं जो इनसे कहीं बढ़िया और प्रभावी लोकपाल विधेयक तैयार कर सकते हैं। वैसे इस विधेयक को तैयार करने के लिए न्यायविदों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका अपराध विज्ञान के विशेषज्ञों की होगी। जो भ्रष्टाचार की मानसिकता को समझते हैं और उससे निपटने के लिए कानून बना सकते हैं। पर समिति की नीयत साफ नज़र नहीं आती और वह दूसरों पर आरोप लगा रही है कि उसके खिलाफ षडयंत्र रचा जा रहा है। पाठक जानते हैं कि हम पिछले कितने वर्षों से उन षडयंत्रों के बारे में लिखते आ रहे हैं जो निहित स्वार्थ भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े जा रहे संघर्षों को पटरी पर से उतारने के लिए रचते हैं। इसमें हमने भूषण पिता-पुत्रों और रामजेठमलानी व जे.एस.वर्मा की भूमिका का भी उल्लेख कई बार किया है। हमारा सी.डी. विवाद से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि हम अन्ना हज़ारे की माँग का पूरा समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़े कानून बनें। पर इस तरह नासमझी से और रहस्यमयी तरीके से नहीं, जैसा आज हो रहा है।
समिति के सदस्य विरोध कर रहे हैं कि जो हो रहा है उसे रोकने की कोशिश की जा रही है। पर लोग जानना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के कारणों पर आघात करने की इस समिति की क्या योजना है? तथाकथित ‘सिविल सोसाइटी’ नेताओं और अफसरों के विरूद्ध तो कड़े प्रावधान लागू करना चाहती है, लेकिन यह भूल रही है कि भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से नहीं बजती। भ्रष्टाचार बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ, बड़े औद्योगिक घरानों का देखा गया है। जो थोड़ी रिश्वत देकर बड़ा मुनाफा कमाते हैं। ऐसे उद्योगपतियों को पकड़ने का लोकपाल विधेयक में क्या प्रावधान है? इसके साथ ही यह भी देखने में आया है कि स्वंयसेवी संस्थाऐं (एन.जी.ओ.) जो विदेशी आर्थिक मदद लेती हैं, उसमें भी बड़े घोटाले होते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाऐं भी भारत में बड़े घोटाले कर रही हैं। तो ऐसे सभी मामलों को जाँच के दायरे में लेना चाहिए। क्या समिति इस पर विचार करेगी? सबसे बड़ा सवाल तो ईमानदार लोकपाल को ढूंढकर लाने का है। जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट आचरण करते रहे हों तो यह काम बहुत मुश्किल हो जाता है।
अन्ना हज़ारे के आन्दोलन की सबसे अच्छी बात यह है कि इससे शहरी युवा जुड़ गया है। जिसके लिए अरविन्द केजरीवाल की मेहनत को बधाई देनी चाहिए। पर साथ ही यह बात समझ में नहीं आती कि केजरीवाल और उनके बाकी साथी भूषण पिता-पुत्र के अनैतिक आचरण को क्यों अनदेखा कर रहे हैं? लोकपाल विधेयक तो अभी बनेगा। फिर लोकपाल चुना जायेगा। फिर वो जाँच करेगा। फिर कुछ नेता और अफसर पकड़े जायेंगे। यानि इस प्रक्रिया को पूरा होने में कम से कम दो साल तो लगेंगे ही। 2013 में जाकर कहीं परिणाम आयेगा, अगर आया तो? पर यह काम तो 20 साल पहले 1993 में ही मैंने कर दिया था। देश के 115 बड़े राजनेताओं, केन्द्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, विपक्ष के नेताओं व बड़े अफसरों को, बिना लोकपाल के ही, ‘जैन हवाला काण्ड’ में भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़वा दिया था। सबको जमानतें लेनी पड़ी थीं। भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ था। फिर इस सफलता को विफलता में बदलने का काम प्रशांत भूषण-शांति भूषण, उनके गुरू रामजेठमलानी और उनकी मण्डली के साथी जस्टिस जे.एस.वर्मा ने क्यों किया? मुझे डर है कि जिस तरह उन्होंने ‘हवाला केस’ में घुसपैठ कर उसे पटरी से उतार दिया, उसी तरह ये लोकपाल बिल के आन्दोलन को भी अपने निहित स्वार्थों के लिए कभी भी पटरी से उतार सकते हैं और तब अन्ना हजारे जैसे लोग ठगे से खड़े रह जायेंगे। पर कान के कच्चे अन्ना हजारे को भी यह बात समझ में नहीं आ रही। वे बिना तथ्य जाने ही बयान देते जा रहे हैं या उनसे दिलवाये जा रहे हैं। ऐसे में लोकपाल विधेयक समिति कितनी ईमानदारी से काम कर पायेगी, कहा नहीं जा सकता? फिर इस विधेयक से देश का भ्रष्टाचार दूर हो जायेगा, ऐसी गारण्टी तो इस समिति के सदस्य भी नहीं ले रहे। फिर भी धरने के दौरान टी.वी. चैनलों पर इन्होंने जोर-जोर से यह घोषणा की कि, ‘यह आजादी की दूसरी लड़ाई है और यह विधेयक पारित होते ही भारत से भ्रष्टाचार का खात्मा हो जायेगा।’ ऐसा हो, तो हम सबके लिए बहुत शुभ होगा। पर ऐसा होगा इसके प्रति देश के गम्भीर लोगों में बहुत संशय है। उनका कहना है कि जब इस विधेयक को बनाने वाले कुछ सदस्य ही दागदार हैं तो वे देश के दाग कैसे मिटायेंगे?