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Sunday, May 1, 2011

लोकपाल विधेयक ही काफी नहीं

  भ्रष्टाचार से आम हिन्दुस्तानी दुखी है और इससे निज़ात चाहता है। इसलिए अन्ना का अनशन शहरी मध्यम वर्ग के आक्रोश की अभिव्यक्ति बन गया। पर इसके साथ ही इस आन्दोलन से जुड़े कुछ अहम सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यह कि भूषण पिता-पुत्र अनैतिक आचरण के अनेक विवादों में घिरे हैं। फिर भी उन्हें अन्ना समिति से हटा नहीं रहे हैं। उस समिति से, जो भ्रष्टाचार से निपटने का कानून बनाने जा रही है। उल्लेखनीय है कि मुख्य सतर्कता आयुक्तFkk¡el की नियुक्ति को चेतावनी देने वाली प्रशांत भूषण की ही जनहित याचिका में तर्क था कि ऐसे संवेदनशील पद पर बैठने वाले का आचरण संदेह से परेहोना चाहिए। प्रशांत ने अदालत में जिरह करते वक्त यह कहा था कि, ‘‘मैं जानता हूँ कि Fkk¡मस भ्रष्ट नहीं हैं।’’ पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री लिंग्दोह ने भी थामस को सच्चरित्र बताया था। फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि यदि जनता को संदेह है तो Fkk¡मस को जाना पड़ेगा।
वही प्रशांत भूषण, Fkk¡मस से जो अपेक्षा रखते थे, उसे अपने ऊपर लागू नहीं करना चाहते। जब दोनों पिता-पुत्र के आचरण पर इतने सारे सवाल खड़े हो गये हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की भावना के अनुरूप इन दोनों को लोकपाल विधेयक बनाने वाली समिति से हट जाना चाहिए। पर विडम्बना देखिए कि न तो वे खुद हटना चाहते हैं और न ही उनके साथी उन्हें हटा रहे हैं। एक अंग्रेजी टी.वी. चैनल पर बहस के दौरान जस्टिस हेगडे़ और भारत के पूर्व महाअधिवक्ता सोली सोराबजी ने मुझसे कहा कि भूषण का आचरण नहीं, उनकी कार्यक्षमता देखनी चाहिए।मेरा जबाव था कि जिस व्यक्ति के चरित्र पर संदेह हो, उससे पारदर्शी कानून बनाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
फिलहाल इस बहस को अगर यहीं छोड़ दें तो सवाल उठता है कि इस वाली सिविल सोसाइटीने परदे के पीछे बैठकर जल्दबाजी में सारे फैसले कैसे ले लिए। देश को न्यायविदों के नाम सुझाने का 24 घण्टे का भी समय नहीं दिया। पिता-पुत्र को ले लिया और विवाद खड़ा कर दिया। सर्वेंट vk¡फ इण्डिया सोसाइटी व ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इस समिति के सदस्यों ने लोकपाल विधेयकपर उनका अर्से से चल रहा आन्दोलन यह कहकर बन्द करवा दिया कि इस मुद्दे पर सब मिलकर लड़ेंगे। फिर उनकों ठेंगा दिखा दिया। उधर बाबा रामदेव का भी आरोप है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध सारी हवा उन्होंने बनाई, इन लोगों को मंच, आस्था टी.वी. चैनल पर कवरेज और इनकी सभाओं में अपने समर्थक भेजकर भारी भीड़ जुटाई। पर अन्ना हजारे के धरने के शुरू होते ही, इन्होंने बाबा से भी पल्ला झाड़ लिया। बाबा इससे आहत हैं और आगे की लड़ाई वे इन्हें बिना साथ लिये लड़ना चाहते हैं।
 
समिति के प्रवक्ताओं का यह कहना कि इस विधेयक को इन पिता-पुत्र के अलावा कोई नहीं तैयार कर सकता, बड़ा हास्यास्पद लगता है। 121 करोड़ के मुल्क में क्या दो न्यायविद् भी ऐसे नहीं हैं जो इस कानून को बनाने में मदद कर सकें? हजारों हैं जो इनसे कहीं बढि़या और प्रभावी लोकपाल विधेयक तैयार कर सकते हैं। पर समिति की नीयत साफ नज़र नहीं आती और वह दूसरों पर आरोप लगा रही है कि उसके खिलाफ षडयंत्र रचा जा रहा है। पाठक जानते हैं कि हम पिछले कितने वर्षों से उन षडयंत्रों के बारे में लिखते आ रहे हैं जो निहित स्वार्थ भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े जा रहे संघर्षों को पटरी पर से उतारने के लिए रचते हैं। इसमें हमने भूषण पिता-पुत्रों और रामजेठमलानी की भूमिका का भी उल्लेख कई बार किया है। हमारा सी.डी. विवाद से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि हम अन्ना हज़ारे की माँग का पूरा समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़े कानून बनें। पर इस तरह नासमझी से और रहस्यमयी तरीके से नहीं, जैसा आज हो रहा है।
 
पिछले हफ्ते अरविन्द केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश व किरण बेदी ने देश के कुछ खास लोगों को दिल्ली बुलाकर प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर खुली चर्चा की। इस चर्चा से यह स्पष्ट हुआ कि विधेयक के मौजूदा प्रारूप को लेकर सिविल सोसाइटी में भारी मतभेद हैं।
 
प्रस्तावित विधेयक में नेताओं और अफसरों के विरूद्ध तो कड़े प्रावधान हैं, लेकिन समिति यह भूल रही है कि भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से नहीं बजती। भ्रष्टाचार बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ, बड़े औद्योगिक घरानों का देखा गया है। जो चुनाव में 500 करोड़ रूपया देकर अगले 5 सालों में 5 हजार करोड़ रूपये का मुनाफा कमाते हैं। जब तक यह व्यवस्था नहीं बदलेगी, तब तक राजनैतिक भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता। ऐसे उद्योगपतियों को पकड़ने के लिए लोकपाल विधेयक में कोई प्रावधान फिलहाल नहीं हैं।
 
इस बैठक में मैंने याद दिलाया कि लोकपाल तो जब बनेगा, जाँच करेगा और सजा दिलवायेगा, तब तक दो साल और लग जायेंगे; पर जैन हवाला काण्ड में हमने 1996 में ही देश के दर्जनों मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों व बड़े अधिकारियों को भ्रष्टाचार के मामले में चार्जशीट करवाया था। बाद के वर्षों में दूसरे घोटालों में जयललिता, लालू यादव, सुखराम, मधु कोढ़ा, ए.राजा और सुरेश कलमाड़ी तक, बड़े से बड़े राजनेता बिना लोकपाल के ही मौजूदा कानूनों के तहत पकड़े जा चुके हैं। अगर इन्हें सजा नहीं मिली तो हमें सी.बी.आई. की जाँच प्रक्रिया में आने वाली रूकावटों को दूर करना चाहिए। केन्द्रीय सतर्कता आयोग की स्वायत्ता सुनिश्चित करनी चाहिए। एकदम से सारी पुरानी व्यवस्थाओं को खारिज करके नई काल्पनिक व्यवस्था खड़ी करना, जिसकी सफलता अभी परखी जानी है, बुद्धिमानी नहीं होगी।
 
अनेक वक्ताओं ने कहा कि यद्यपि न्यायपालिका में भारी भ्रष्टाचार है, फिर भी न्यायपालिका को लोकपाल के अधीन लाना सही नहीं होगा। न्यायपालिका की जबावदेही सुनिश्चित करने की अलग व्यवस्था बनानी चाहिए। क्योंकि उसकी कार्यप्रणाली और कार्यपालिका की कार्यप्रणाली में मूलभूत अन्तर होता है। जिसके लिए न्यायपालजैसी कोई व्यवस्था रची जा सकती है।
 
प्रस्तावित लोकपाल को केवल राजनेताओं के आचरण पर निगाह रखने का काम दिया जाना चाहिए। इस तरह अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जो चैक व बैलेंसकी व्यवस्था है, वह बनी रहेगी। सबसे बड़ा सवाल तो ईमानदार लोकपाल को ढूंढकर लाने का है। जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट आचरण करते रहे हों तो यह काम बहुत मुश्किल हो जाता है। ऐसे में अगर लोकपाल को न्यायपालिका, कार्यपालिका व विधायिका तीनों के ऊपर निगरानी रखने का अधिकार दे दिया तो भ्रष्ट लोकपाल पूरे देश का कबाड़ा कर देगा। फिर कहीं बचने का रास्ता नहीं मिलेगा।
 
इसके साथ ही यह भी देखने में आया है कि स्वंयसेवी संस्थाऐं (एन.जी.ओ.) जो विदेशी आर्थिक मदद लेती हैं, उसमें भी बड़े घोटाले होते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाऐं भी भारत में बड़े घोटाले कर रही हैं। तो ऐसे सभी मामलों को जाँच के दायरे में लेना चाहिए। इस पर विधेयक में अभी तक कोई प्रावधान नहीं है।

Tuesday, April 26, 2011

अन्ना बदनाम हो रहे हैं भूषण के लिए!

Punjab Kesari 25April2011
भ्रष्टाचार से आम हिन्दुस्तानी दुखी है और इससे निज़ात चाहता है। इसलिए अन्ना का अनशन शहरी मध्यम वर्ग के आक्रोश की अभिव्यक्ति बन गया। पर इसके साथ ही इस आन्दोलन से जुड़े कुछ अहम सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यह कि भूषण पिता-पुत्र अनेक विवादों में घिरे हैं। फिर भी उन्हें अन्ना समिति से हटा नहीं रहे हैं। उस समिति से, जो भ्रष्टाचार से निपटने का कानून बनाने जा रही है। उल्लेखनीय है कि ‘मुख्य सतर्कता आयुक्त’ पी.जे. थॉमस की नियुक्ति को चेतावनी देने वाली प्रशांत भूषण की ही जनहित याचिका में तर्क था कि ऐसे संवेदनशील पद पर बैठने वाले का आचरण ‘संदेह से परे’ होना चाहिए। अलबत्ता प्रशांत ने अदालत में जिरह करते वक्त यह कहा था कि, ‘‘मैं जानता हूँ कि थॉमस भ्रष्ट नहीं हैं।’’ उनकी याचिका के सहयाचिकाकर्ता भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री लिंग्दोह ने भी थॉमस के सच्चरित्र होने का वक्तव्य जारी किया था। यानि सच्चरित्र होने पर भी यदि जनता को संदेह है तो उस व्यक्ति को पद पर नहीं रहना चाहिए। ऐसा आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने इस केस में दिया। जिसके बाद थॉमस को जाना पड़ा।

वही प्रशांत भूषण थॉमस से जो अपेक्षा रखते थे, उसे अपने ऊपर लागू नहीं करना चाहते। जब दोनों पिता-पुत्र के आचरण पर इतने सारे सवाल खड़े हो गये हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की भावना के अनुरूप इन दोनों को लोकपाल विधेयक बनाने वाली समिति से हट जाना चाहिए। पर विडम्बना देखिए कि न तो वे खुद हटना चाहते हैं और न ही उनके साथी किरण बेदी, अरविन्द केजरीवाल और संतोष हेगडे़ इससे सहमत हैं। बेदी का तो एक टी.वी. चैनल पर कहना था कि भूषण बंधु अगर भ्रष्ट भी हैं तो हम केवल उनकी कानून में दक्षता का लाभ ले रहे हैं। इसी तरह की बात एक राष्ट्रीय अंग्रेजी टी.वी. चैनल पर बहस के दौरान जस्टिस हेगडे़ और भारत के पूर्व महाअधिवक्ता सोली सोराबजी ने मुझसे कही। मेरा जबाव था कि जिस व्यक्ति के चरित्र पर संदेह हो और जो अतीत में भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े गये युद्धों में निहित स्वार्थों के कारण रोड़े अटकाता रहा हो, ऐसे व्यक्ति से पारदर्शी कानून बनाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?

फिलहाल इस बहस को अगर यहीं छोड़ दें तो सवाल उठता है कि इस वाली ‘सिविल सोसाइटी’ ने परदे के पीछे बैठकर जल्दबाजी में सारे फैसले कैसे ले लिए। देश को न्यायविदों के नाम सुझाने का 24 घण्टे का भी समय नहीं दिया। पिता-पुत्र को ले लिया और विवाद खड़ा कर दिया। ज़ाहिर है इस पूरी प्रक्रिया में किसी दूरगामी षडयंत्र की गन्ध आती है। जिसका खुलासा आने वाले दिनों में हो जायेगा। समिति के प्रवक्ताओं का यह कहना कि इस विधेयक को इन पिता-पुत्र के अलावा कोई नहीं तैयार कर सकता, बड़ा हास्यास्पद लगता है। 121 करोड़ के मुल्क में क्या दो न्यायविद् भी ऐसे नहीं हैं जो इस कानून को बनाने में मदद कर सकें? हजारों हैं जो इनसे कहीं बढ़िया और प्रभावी लोकपाल विधेयक तैयार कर सकते हैं। वैसे इस विधेयक को तैयार करने के लिए न्यायविदों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका अपराध विज्ञान के विशेषज्ञों की होगी। जो भ्रष्टाचार की मानसिकता को समझते हैं और उससे निपटने के लिए कानून बना सकते हैं। पर समिति की नीयत साफ नज़र नहीं आती और वह दूसरों पर आरोप लगा रही है कि उसके खिलाफ षडयंत्र रचा जा रहा है। पाठक जानते हैं कि हम पिछले कितने वर्षों से उन षडयंत्रों के बारे में लिखते आ रहे हैं जो निहित स्वार्थ भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े जा रहे संघर्षों को पटरी पर से उतारने के लिए रचते हैं। इसमें हमने भूषण पिता-पुत्रों और रामजेठमलानी व जे.एस.वर्मा की भूमिका का भी उल्लेख कई बार किया है। हमारा सी.डी. विवाद से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि हम अन्ना हज़ारे की माँग का पूरा समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़े कानून बनें। पर इस तरह नासमझी से और रहस्यमयी तरीके से नहीं, जैसा आज हो रहा है।

समिति के सदस्य विरोध कर रहे हैं कि जो हो रहा है उसे रोकने की कोशिश की जा रही है। पर लोग जानना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के कारणों पर आघात करने की इस समिति की क्या योजना है? तथाकथित ‘सिविल सोसाइटी’ नेताओं और अफसरों के विरूद्ध तो कड़े प्रावधान लागू करना चाहती है, लेकिन यह भूल रही है कि भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से नहीं बजती। भ्रष्टाचार बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ, बड़े औद्योगिक घरानों का देखा गया है। जो थोड़ी रिश्वत देकर बड़ा मुनाफा कमाते हैं। ऐसे उद्योगपतियों को पकड़ने का लोकपाल विधेयक में क्या प्रावधान है? इसके साथ ही यह भी देखने में आया है कि स्वंयसेवी संस्थाऐं (एन.जी.ओ.) जो विदेशी आर्थिक मदद लेती हैं, उसमें भी बड़े घोटाले होते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाऐं भी भारत में बड़े घोटाले कर रही हैं। तो ऐसे सभी मामलों को जाँच के दायरे में लेना चाहिए। क्या समिति इस पर विचार करेगी? सबसे बड़ा सवाल तो ईमानदार लोकपाल को ढूंढकर लाने का है। जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट आचरण करते रहे हों तो यह काम बहुत मुश्किल हो जाता है।

अन्ना हज़ारे के आन्दोलन की सबसे अच्छी बात यह है कि इससे शहरी युवा जुड़ गया है। जिसके लिए अरविन्द केजरीवाल की मेहनत को बधाई देनी चाहिए। पर साथ ही यह बात समझ में नहीं आती कि केजरीवाल और उनके बाकी साथी भूषण पिता-पुत्र के अनैतिक आचरण को क्यों अनदेखा कर रहे हैं? लोकपाल विधेयक तो अभी बनेगा। फिर लोकपाल चुना जायेगा। फिर वो जाँच करेगा। फिर कुछ नेता और अफसर पकड़े जायेंगे। यानि इस प्रक्रिया को पूरा होने में कम से कम दो साल तो लगेंगे ही। 2013 में जाकर कहीं परिणाम आयेगा, अगर आया तो? पर यह काम तो 20 साल पहले 1993 में ही मैंने कर दिया था। देश के 115 बड़े राजनेताओं, केन्द्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, विपक्ष के नेताओं व बड़े अफसरों को, बिना लोकपाल के ही, ‘जैन हवाला काण्ड’ में भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़वा दिया था। सबको जमानतें लेनी पड़ी थीं। भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ था। फिर इस सफलता को विफलता में बदलने का काम प्रशांत भूषण-शांति भूषण, उनके गुरू रामजेठमलानी और उनकी मण्डली के साथी जस्टिस जे.एस.वर्मा ने क्यों किया? मुझे डर है कि जिस तरह उन्होंने ‘हवाला केस’ में घुसपैठ कर उसे पटरी से उतार दिया, उसी तरह ये लोकपाल बिल के आन्दोलन को भी अपने निहित स्वार्थों के लिए कभी भी पटरी से उतार सकते हैं और तब अन्ना हजारे जैसे लोग ठगे से खड़े रह जायेंगे। पर कान के कच्चे अन्ना हजारे को भी यह बात समझ में नहीं आ रही। वे बिना तथ्य जाने ही बयान देते जा रहे हैं या उनसे दिलवाये जा रहे हैं। ऐसे में लोकपाल विधेयक समिति कितनी ईमानदारी से काम कर पायेगी, कहा नहीं जा सकता? फिर इस विधेयक से देश का भ्रष्टाचार दूर हो जायेगा, ऐसी गारण्टी तो इस समिति के सदस्य भी नहीं ले रहे। फिर भी धरने के दौरान टी.वी. चैनलों पर इन्होंने जोर-जोर से यह घोषणा की कि, ‘यह आजादी की दूसरी लड़ाई है और यह विधेयक पारित होते ही भारत से भ्रष्टाचार का खात्मा हो जायेगा।’ ऐसा हो, तो हम सबके लिए बहुत शुभ होगा। पर ऐसा होगा इसके प्रति देश के गम्भीर लोगों में बहुत संशय है। उनका कहना है कि जब इस विधेयक को बनाने वाले कुछ सदस्य ही दागदार हैं तो वे देश के दाग कैसे मिटायेंगे?

Sunday, February 6, 2011

लोकपाल बिल क्या कर लेगा

 
Rajasthan Patrika 6 Feb 2011
महात्मा गाँधी की शहादत वाले दिन दिल्ली के रामलीला ग्राउण्ड सहित देश के साठ शहरों में भ्रष्टाचार के विरूद्ध जनसभाऐं की गयीं। जिसमें बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर के अनुयायियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इसके आयोजकों में प्रमुख पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी व सूचना के अधिकार के लिए मेगासे पुरूस्कार पाने वाले अरविन्द केजरीवाल शामिल थे। केजरीवाल ने
दिल्ली की जनसभा में बोलने का न्यौता मुझे भी दिया। आमतौर पर ऐसे प्रयासों का प्रभाव पिछले 36 वर्षों में बार-बार देख चुकने के बाद, मुझे कोई मुगालता नहीं रहता। फिर भी मित्रों का बुलावा था,  इसलिए चला गया। मंच पर एक से एक विभूतियाँ बैठी हुयी थीं। किरण बेदी तो बड़ी गर्मजोशी से मिलीं और बाकी सबने भी अभिवादन किया। पर मैं 5 मिनट में ही मंच से उतर गया और बिना भाषण दिये लौट आया। उसके बाद मुझे अंग्रेजी पत्रकारों के कारणपूछने के लिए फोन आये। कारण साफ है। प्रशांत भूषण और शान्ति भूषण के बनाये जन-लोकपाल विधेयक से अगर भ्रष्टाचार रूक सकता है, तो जरूर इसका समर्थन करना चाहिए। पर ऐसा होगा नहीं।
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जब हर्षद मेहता घोटाला हुआ था, तो शोर मचा कि सेबी का गठन कर देना चाहिए। सेबी बना, पर उसके बाद केतन पारिख जैसे कितने ही शेयर घोटाले हुए। शेयर मार्केट पर निगाह रखने वाले क्या नहीं जानते कि सेबी शेयर मार्केट के घोटालों को रोकने में नाकाम रही है ? भ्रष्टाचार के विरूद्ध सी.बी.आई. कबसे काम कर रही है, पर क्या भ्रष्टाचार को रोकने में या आरोपियों को सजा देने में सी.बी.आई. ने कोई झण्डे गाढे हैं? देश के 115 ताकतवर राजनेताओं, अफसरों, हवाला डीलरों, हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकवादियों के विरूद्ध जैन हवाला काण्डमें तमाम सबूत मौजूद थे। पर उन सब सबूतों की अनदेखी कर, बिना रीढ़ के केन्द्रीय सतर्कता आयोगके गठन का फैसला सुना दिया गया। आज सर्वोच्च अदालत में उसी विनीत नारायण केसका सुबह से शाम तक दर्जनों बार हवाला देकर सी.वी.सी. की नियुक्ति और भ्रष्टाचार पर बहसें की जा रही हैं। 1997 में जब इस केस की मुख्य प्रार्थनाओं और आरोपियों के विरूद्ध उपलब्ध सबूतों को अनदेखा कर सी.वी.सी.के गठन जैसे मुद्दों पर बहस शुरू हुई, तो मैंने जमकर इसका विरोध किया। अखबारी बयानों में ही नहीं, बल्कि अदालत में शपथपत्र दाखिल करके भी। मेरा कहना था कि जब भारत सरकार सी.बी.आई. को स्वायŸाता नहीं देती तो कैसे माना जाये कि वो सी.वी.सी. को एक स्वायŸा संस्था बना देगी? पर उस वक्त मेरे सहयाचिकाकर्ता प्रशांत भूषण, उनके पिता शांति भूषण, उनके मार्गनिर्देशक रामजेठमलानी, उनकी ही मित्रमण्डली के सदस्य अरूण जेटली, सबके-सब बड़े उत्साह से सी.वी.सी. के गठन के मामले में जोर लगाने लगे और हवाला काण्डकी याचिका की मुख्य प्रार्थनाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया। बल्कि अदालत का ध्यान उनसे हटाने का उपक्रम चलाया। इस तरह उच्च राजनैतिक स्तर पर भ्रष्टचार के विरूद्ध, आजादी के बाद लड़ी जा रही सबसे बड़ी लड़ाई को इन लोगों ने अपने निहित स्वार्थों के कारण पटरी पर से उतार दिया। मजे की बात यह है कि आज 13 साल बाद जब हवाला कारोबार, राजनैतिक भ्रष्टाचार और आतंकवाद सिर से ऊपर गुजर चुका है, तो वही लोग देश के सामने इसे रोकने का नाटक कर रहे हैं। अगर वास्तव में इनके दिल में ईमानदारी है और ये चाहते हैं कि देशवासी भ्रष्टाचार से मुक्त हों, तो पहले तो इन्हें अपने किये पर सार्वजनिक पछतावा व्यक्त करना चाहिए और फिर एकजुट होकर माँग करनी चाहिए कि जैन हवाला काण्डसे लेकर ‘2जी स्पैक्ट्रमतक, जो भी आठ-दस बड़े घोटाले अदालतों के बावजूद बेशर्मी से दबा दिए गये हैं, उनकी तेज गति से, खुली अदालत में जाँच और कार्यवाही चले। ताकि देश के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत हो सके। स्कूल के बच्चों से एक प्रश्न पूछा जाता था कि पेड़ पर 100 चिड़ियाँ बैठी हैं। एक को छर्रा मारो तो कितनी बचेंगी ? जब हाईप्रोफाइल केसों में बड़े लोगों को सजा मिलेगी, तभी समाज के आगे उदाहरण प्रस्तुत होगा। पर ये लोग ऐसा कभी नहीं करेंगे। चाणक्य पण्डित ने कहा है कि व्यवस्था कोई भी बना लो, अगर उसको चलाने वाले ईमानदार नही, तो परिणाम ठीक नहीं आयेगा। तब ये लोग सी.वी.सी.के गठन को लेकर कूद रहे थे। थामस रहें या जायें, क्या पिछले 10 वर्षों में सी.वी.सी. ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध कोई कमाल करके दिखाया है? जन-लोकपाल बिल बनाने से ये लड़ाई नहीं जीती जा सकेगी। कार्यक्रम के बाद मुझे अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी दोनों ने फोन पर मेरी नाराजगी का कारण पूछा तो मैंने बिना लाग-लपेट के कहा कि जिन लोगों के कारण हवाला संघर्ष की सबसे बड़ी लड़ाई बिगड़ गयी, उनको साथ लेकर तुम महात्मा गाँधी की समाधि पर श्रद्धाजंली अर्पित करोगे तो तुम्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं। गाँधी जी ने साध्य की प्राप्ति के लिए साधन की शुद्धता पर जोर दिया था।
यहाँ इंका के युवा नेता राहुल गाँधी के हालिया बयान का जिक्र करना भी सार्थक रहेगा। अपनी एक जनसभा में उन्होंने युवाओं से कहा कि मैं जानता हूँ कि देश में भ्रष्टाचार से आप सब त्रस्त हैं। हमें इसे दूर करना है। इसलिए मैं आपका आव्हान करता हूँ कि आप सब राजनीति में आयें और मैं वायदा करता हूँ कि मुझे 10 वर्ष का समय दीजिए, मैं हालात बदल दूंगा। राहुल गाँधी की भावना सही हो सकती है। पर सोच सही नहीं। कहावत है, ‘काल करै सो आज कर, आज करै सो अब, पल में परलै होयेगी, बहुरी करैगो कब। बिना प्रधानमंत्री बने ही राहुल गाँधी के पास काफी ताकत है। अपने चाचा संजय गाँधी की तरह उनकी छवि एक गरम जोश युवा की नहीं, बल्कि राजनीति के एक संजीदा विद्यार्थी की है। जो ज़मीन से राजनीति को समझने का प्रयास कर रहा है। राहुल गाँधी को मालूम होना चाहिए कि हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं, इस देश का नौजवान 10 वर्ष इंतजार नहीं करेगा। ऐसे वायदे तो देशवासी पिछले 60 सालों से सुनते आ रहे हैं। जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति के आव्हान के बाद 1977 में जो जनता दल की सरकार बनी, उसने भी यही कहा कि अभी तो हम नई दुल्हन हैं। मुल्क में 30 साल से जो गन्दगी जमा है, पहले उसे साफ करेंगे, फिर आपको घर चमकाकर देंगे। पर ढाई साल में ही सब ढेर हो गया। राहुल गाँधी के बयान को भी गम्भीरता से नहीं लिया जायेगा।
इसी तरह मेरा मानना है कि जन-लोकपाल बिल का शोर केवल सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए मचाया जा रहा है। इससे न तो भ्रष्टाचार रूकेगा और न ही इसका कोई प्रभाव देश की स्थिति पर पड़ेगा।