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Monday, September 18, 2023

सवालों के घेरे में टीवी चैनल


जब से इंडिया गठबंधन ने 14 मशहूर टीवी एंकरों के बॉयकॉट की घोषणा की है तब से पूरे मीडिया जगत में एक भूचाल सा आ गया है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और ऐसा देश में पहली बार हुआ है। इन टीवी चैनलों के समर्थक और केंद्र सरकार विपक्ष के इस कदम को अलोकतांत्रिक बता रही है। उनका आरोप है कि विपक्ष सवालों से बच कर भाग रहा है। जबकि विपक्ष का कहना है कि भाजपा ने लंबे अरसे से एनडीटीवी चैनल का बहिष्कार किया हुआ था। जब तक कि उसे अडानी समूह ने ख़रीद नहीं लिया। इसके अलावा तमिलनाडु के अनेक ऐसे टीवी चैनल जो वहाँ के किसी राजनीतिक दल से नियंत्रित नहीं हैं और उनकी छवि भी दर्शकों में अच्छी है, उन सबका भी भाजपा ने बहिष्कार किया हुआ है। 


सवाल उठता है कि इस तरह सार्वजनिक बहिष्कार करके विवाद खड़ा करने के बजाए अगर विपक्षी दल एक मूक सहमति बना कर इन एंकरों का बहिष्कार करते तो भी उनका उद्देश्य पूरा हो जाता और विवाद भी खड़ा नहीं होता। पर शायद विपक्ष ने यह विवाद खड़ा ही इसलिए किया है कि वो देश के ज़्यादातर टीवी चैनलों की पक्षपातपूर्ण नीति को एक राजनैतिक मुद्दा बना कर जनता के बीच ले जाएँ। जिसमें वो सफल हुए हैं। 



इस विवाद का परिणाम यह हुआ है कि ‘गोदी मीडिया’ कहे जाने वाले इन टीवी चैनलों के समर्पित दर्शकों के बीच इन एंकरों की लोकप्रियता और बढ़ी है। जिससे इन्हें टीआरपी खोने का कोई जोखिम नहीं है। जहां तक बात उन दर्शकों की है जो वर्तमान सत्ता को नापसंद करते हैं, तो वो पहले से ही इन एंकरों के शो नहीं देखते थे, इसलिए उन पर इस विवाद का कोई नया असर नहीं पड़ेगा। पर इन टीवी चैनलों के मालिकों के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। अगर वे अपने इन टीवी एंकरों के साथ खड़े नहीं रहते या इन्हें बर्खास्त कर देते हैं तो इसका ग़लत संदेश उनसे जुड़े सभी मीडिया कर्मियों के बीच जाएगा, क्योंकि ये टीवी एंकर इस तरह के इकतरफ़ा तेवर अपनी मर्ज़ी से तो नहीं अपना रहे। ज़ाहिरन इसमें उनके मालिकों की सहमति है। 


इस पूरे विवाद में मैंने एक लंबा ट्वीट (जिसे अब एक्स कहते हैं) लिखा, जिसे 24 घंटे में 35 हज़ार से ज़्यादा लोग देख चुके थे। इसमें मैंने लिखा, कि ये सब जो हो रहा है ये बहुत दुखद है। चूँकि मैं स्वयं एक पत्रकार हूँ इसलिए मुझे इस बात से बहुत कोफ़्त होती है कि आजकल सार्वजनिक विमर्श में प्रायः पत्रकारों की विश्वसनीयता पर बहुत अपमानजनक टिप्पणियाँ की जाती हैं। उसका कारण हमारे पेशे की विश्वसनीयता में आई भारी गिरावट है। सोचने वाली बात यह है कि आज से 30 वर्ष पहले जब मैंने भारत की राजनीति का सबसे ज़्यादा चर्चित और बड़ा ‘जैन हवाला कांड’ उजागर किया था, जिसमें कई प्रमुख राजनैतिक दलों के बड़े-बड़े राजनेता और बड़े अफ़सर प्रभावित हुए थे, तब भारी राजनीतिक क्षति पहुँचने के बावजूद उन राजनेताओं ने मुझ से अपने संबंध नहीं बिगाड़े। उनका कहना था कि तुमने किसी एक राजनैतिक दल का हित साधने के लिए या किसी राजनैतिक व आर्थिक लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से हम पर हमला नहीं बोला था। बल्कि तुमने तो निष्पक्षता और निडरता से पत्रकारिता के मानदंडों के अनुरूप अपना काम किया इसलिए हमें तुमसे कोई शिकायत नहीं है। उन सभी से आजतक मेरे सौहार्दपूर्ण संबंध हैं।



इस देश में खोजी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत मैंने 1986 में दूरदर्शन (तब निजी टीवी चैनल नहीं होते थे) पर ‘सच की परछाईं’ कार्यक्रम से की थी। ये अपने समय का सबसे दबंग कार्यक्रम माना जाता था। क्योंकि इस कार्यक्रम में मैं कैमरा टीम को लेकर देश कोने-कोने में जाता था और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार की नीतियों के क्रियांवन में ज़मीनी स्तर पर हो रही कमियों को उजागर करता था।         


इसके बाद 1989 में जब देश में पहली बार मैंने स्वतंत्र हिन्दी टीवी समाचारों की वीडियो पत्रिका ‘कालचक्र’ जारी की तो उसके भी हर अंक ने अपनी दबंग रिपोर्टों के कारण देश भर में खलबली मचाई। बावजूद इसके किसी भी राजनेता द्वारा मेरा कभी सोशल बॉयकॉट नहीं किया गया। क्योंकि यहाँ भी मैंने निष्पक्षता का पूरी तरह ध्यान रखा। चाहे कोई भी राजनैतिक दल हो और चाहे आरएसएस से लेकर नक्सलवादियों तक की विचारधारा से जुड़े प्रश्न हों, अगर वो मुझे जनहित में ठीक लगे तो उन्हें कालचक्र  की रिपोर्ट में प्रसारित करने से कभी कोई गुरेज़ नहीं किया। इसलिए लोग आजतक कालचक्र को याद करते हैं।


पिछले 40 वर्षों की टीवी पत्रकारिता के अपने अनुभव और उम्र के 68वें वर्ष में शायद मेरा यह कर्तव्य है कि मैं टीवी चैनलों में काम कर रहे अपने सहकर्मियों को उनके हित में कुछ सलाह दे सकूँ। सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। हर केंद्र सरकार के पास अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने के लिए दूरदर्शन, ऑल इंडिया रेडियो और पीआईबी है। जबकि लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया का काम जनता की आवाज़ बनना होता है। उन्हें सरकार से तीखे सवाल पूछने होते हैं और सरकार की योजनाओं में ख़ामियों को उजागर करना होता है। अगर वे ऐसा नहीं करते तो वे पत्रकार नहीं माने जाएँगे। हाँ कोई भी रिपोर्ट या वार्ता में हर टीवी पत्रकार को कोशिश करनी चाहिए कि पूरी तरह निष्पक्षता बनी रहे। इसके साथ ही किसी भी टीवी एंकर को यह हक़ नहीं कि वो विपक्ष के नेताओं को अपमानित करे या उनसे अभद्र व्यवहार करे। टीवी की वार्ता में आने वाले सभी लोग उस एंकर के मेहमान होते हैं। इसलिए उनका पूरा सम्मान किया जाना चाहिए। तीखे सवाल भी शालीनता से पूछे जा सकते हैं। उसके लिए हमलावर होने की नौटंकी करने की कोई ज़रूरत नहीं है। आजकल चल रही ऐसी नौटंकियों के कारण ही टीवी चैनलों की विश्वसनीयता तेज़ी से घटी हैं। 


इसी क्रम में मैं उन नामी टीवी पत्रकारों को भी बिन माँगीं सलाह देना चाहूँगा जो रात-दिन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर हमलावर रहते हैं। तथ्यों को सामने लाना उनका कर्तव्य हैं। इसलिए वो ये ज़रूर करें। पर नरेंद्र मोदी सरकार के अच्छे कामों की उपेक्षा करके या उन कामों की प्रशंसा न करके वे ऐसे लगते हैं मानो वो विपक्ष का एजेंडा चला रहे हैं। उनका ये रवैया ग़लत है। इस तरह दोनों ख़ेमों के पत्रकारों को आत्म विश्लेषण करने ज़रूरत है। न तो हम ख़ेमों में बटें और न ही अपने दर्शकों को ख़ेमों में बाँटें। जो सही है उसे ज्यों की त्यों प्रस्तुत करें और फ़ैसला दर्शकों के विवेक पर छोड़ दें। 

Monday, July 24, 2023

बज गयी 2024 की रणभेरी


पक्ष और विपक्ष अपने-अपने हाथी, घोड़े, रथ और पैदल तैयार करने में जुट गये हैं। दिल्ली और बैंगलुरु में दोनों पक्षों ने अपना अपना कुनबा जोड़ा है। जहां नए बने संगठन ‘इंडिया’ में 25 दल शामिल हुए हैं वहीं एनडीए 39 दलों के साथ आने का दावा कर रहा है। अगर इन दावों की गहराई में पड़ताल करें तो बड़ी रोचक तस्वीर सामने आती है। 


पिछले चुनाव में एनडीए में अब शामिल हुए इन 39 दलों को मिले वोट जोड़ें तो इस गठबंधन को देश भर में 23 से 24 करोड़ के बीच वोट मिले थे। जबकि ‘इंडिया’ के मौजूदा गठबंधन को 26 करोड़ वोट मिले थे। पर ये वोट इतने सारे दलों में आपसी मुक़ाबले के कारण बंट गये। जिससे इनकी हार हुई। अगर ये गठबंधन ईडी, सीबीआई व आईटी की धमकियों के बावजूद एकजुट बना रहता है और मुक़ाबला आमने-सामने का होता है तो जो परिणाम आयेंगे वो स्पष्ट हैं। 


दूसरा पक्ष ये है कि जहां एनडीए आज 60 करोड़ भारतीयों पर राज कर रही है वहीं ‘इंडिया’ संगठन 80 करोड़ भारतीयों पर आज राज कर रहा है और इसके शासित राज्य भी एनडीए से कहीं ज्यादा हैं। 



जहां तक परिवारवाद का आरोप है तो दोनों संगठनों में परिवारवाद प्रबल और समान है। अंतर ये है कि जहां एनडीए में शामिल 39 दलों में परिवारवादी नेताओं का कोई जनाधार नहीं है। उनमें से ज़्यादातर दल ऐसे हैं जिनमें एक भी विधायक तक नहीं है। जबकि ‘इंडिया’ संगठन में जो परिवारवाद है उसके सदस्य दशकों तक राज्यों का शासन चलाने के अनुभवी और बड़े जनाधार वाले नेता हैं। जहां बीजेपी के नेताओं ने शुरू में दावा किया था कि वो कांग्रेस मुक्त भारत बनायेंगे वहाँ आज एनडीए स्वयं ही कांग्रेसयुक्त संगठन बन चुका है। जिसमें कई केंद्रीय मंत्री व मुख्यमंत्री वो हैं जो कांग्रेस के स्थापित नेता थे पर ईडी, सीबीआई की धमकियों से डरकर बीजेपी में शामिल हुए हैं।


आने वाले चुनाव में जहां ‘इंडिया’ संगठन को टिकट बाँटने में कम दिक़्क़त आएगी क्योंकि उनके सब दावेदार जनाधार वाले हैं और कई चुनाव जीत चुके हैं। वे वहीं से लें टिकट। अलबत्ता उन्हें अपने अहम और महत्वाकांक्षा पर अंकुश लगाना होगा। जबकि एनडीए में शामिल ज़्यादातर दल ऐसे हैं जो आजतक एक विधायक का चुनाव भी नहीं जीते पर अब लोकसभा के लिये ये सभी अपनी औक़ात से ज्यादा टिकट माँगेंगे। तब बीजेपी के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो जाएगी। 



बीजेपी का जो इतिहास रहा है कि शिव सेना जैसे जितने भी दलों ने उसका साथ दिया उन सबको बीजेपी ने या तो अपमानित किया या उनको हड़प ही गयी। ऐसे में अबकी बार फिर से एनडीए में शामिल हुए दल हमेशा अपना अस्तित्व खोने के डर से ग्रस्त रहेंगे। उन्हें इस बात का भी सामना करना पड़ेगा कि आरएसएस उन्हें अपने रंग में रंगने का भरपूर प्रयास करेगा। कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो ‘इंडिया’ संगठन के बनने से बीजेपी और एनडीए संगठन के सामने बहुत बड़ी चुनौती खड़ी हो गयी है। जिसको देखकर अब 2024 का चुनाव बहुत रोचक होने जा रहा है।


जिस तरह भाजपा को विपक्ष के ‘इंडिया’ नाम के संगठन से आपत्ति हो रही है उसका असल कारण विपक्ष की एकजुटता है। वरना जब दक्षिण भारत के राज्य तेलंगाना की एक क्षेत्रीय पार्टी ने अपना नाम बदल कर उसे ‘भारत राष्ट्र समिति’ कर दिया तो भाजपा या एनडीए के किसी भी सहयोगी दल ने इस पर आपत्ति नहीं जताई। इस विपक्षी एकजुटता को भाजपा आगामी लोकसभा चुनावों में एक गंभीर चुनौती मान रही है। 


जब 2014 में मोदी जी लोकसभा चुनावी मैदान में उतरे थे तब ऐसी कोई भी चुनौती उनके सामने नहीं थी। ‘इंडिया’ संगठन बनने के बाद इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि विपक्षी दल ना सिर्फ़ एकजुट होते दिखाई दे रहे हैं बल्कि एनडीए के ख़िलाफ़ युद्ध करने को चुनावी बिगुल बजा रहे  हैं। 



भाजपा के कुछ नेता ‘इंडिया’ संगठन के अंग्रेज़ी नाम को लेकर भी काफ़ी असहज दिखाई दिये हैं। इतना असहज कि इंडिया नाम को अंग्रेजों की देन बता कर उसका विरोध भी कर रहे हैं। उन्होंने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर से भी इंडिया को हटा कर भारत रख दिया है। विपक्ष ने इस पर चुटकी लेते हुए कहा कि यदि इंडिया नाम से इतनी आपत्ति है तो क्या सरकार द्वारा चलाई जाने वाली उन सभी योजनाओं के नाम भी बदले जाएँगे जहां ‘इंडिया’ का उपयोग किया गया है? मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्किल इंडिया व स्टैंड अप इंडिया आदि। क्या भाजपा अपने सोशल मीडिया हैंडल का नाम BJP4India को भी बदलेगी? यदि अन्य राजनैतिक पार्टियों के नाम को खंगाला जाए तो आपको ऐसी कई पार्टियाँ मिलेंगी जिनके नाम में भारत, भारतीय, इंडिया, इण्डियन शब्द अवश्य मिलेगा। तो फिर इस बेतुके विवाद को क्यों खड़ा किया जा रहा है? 


असल में भाजपा और एनडीए को जिस बात से अधिक परेशानी है, वो विपक्षी दलों का एक ऐसा ऐलान है जिसका सामना भाजपा को आने वाले लोकसभा चुनावों में करना पड़ेगा। ग़ौरतलब है कि विपक्षी नेताओं ने इस बात की घोषणा कर दी है कि वो आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा और एनडीए के हर एक चुनावी प्रत्याशी के ख़िलाफ़ ‘इंडिया’ संगठन अपने सभी दलों का समर्थित एक प्रत्याशी ही उतारेंगे जो उस संसदीय क्षेत्र में काफ़ी लोकप्रिय होगा। ज़ाहिर सी बात है कि इससे विपक्षी दलों में बंटने वाले वोट एकजुट हो जाएँगे और भाजपा को काफ़ी नुक़सान हो सकता है। 

      

आगामी महीनों में चार राज्यों में विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं। उनके परिणाम देश की दिशा तय करेंगे। उसके बाद भी लोक सभा चुनाव में जहां बीजेपी के नेता हिंदू मुसलमान के नाम पर ध्रुवीकरण करवाने की हर संभव कोशिश करेंगे वहीं ‘इंडिया’ संगठन बेरोज़गारी, महंगाई, दलितों पर अत्याचार और समाज में बँटवारा कराने के आरोप लगाकर बीजेपी को कठघरे में खड़ा करेगा। विपक्ष मोदी जी से 2014 में किए गए वायदों के पूरा न होने पर भी पर सवाल करेगा। जबकि बीजेपी भारत को विश्व गुरु बनाने जैसे नारों से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करेगी। अब देखना ये होगा कि मतदाता किसकी तरफ़ झुकता है।

Monday, February 27, 2023

राहुल गांधी की नई भूमिका क्या हो?


पंडित नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक हर प्रधान मंत्री वैश्विक मंच पर गर्व से घोषणा करते आए हैं कि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। किसी भी सफल लोकतंत्र का प्रमाण यह होता है कि उसमें पक्ष और विपक्षी दल सबल भूमिका में सक्रिय रहें। कमज़ोर विपक्ष या विपक्षहीन पक्ष लोकतंत्र के पतन का रास्ता तैयार करता है। इसके साथ ही न्यायपालिका, मीडिया, चुनाव आयोग, महालेखाकार व जाँच एजेंसियों की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो और वे निडर होकर काम कर सकें। अनुभव ये बताता है कि हमारा देश में सत्ता पक्ष विपक्ष को कमज़ोर करने का हर संभव प्रयास करता है। पर स्विट्ज़रलैंड, इंग्लैंड या अमरीका जैसे देशों में सत्तापक्ष की ओर से ऐसे अलोकतांत्रिक प्रयास प्रायः नहीं किए जाते। इसलिए उनका लोकतंत्र आदर्श माना जाता है।
 


किसी देश की अर्थव्यवस्था के स्थायित्व के लिए ज़रूरी होता है कि देश की गृह नीति ऐसी हो जिससे समाज में शांति व्यवस्था बनी रहे। सामुदायिक भेद-भाव या सांप्रदायिकता को बढ़ने का मौक़ा न दिया जाए। तभी आर्थिक प्रगति भी संभव होती है। विदेश नीति, रक्षा नीति, आर्थिक नीति और सामाजिक कल्याण की नीतियों में निरंतरता बनी रहे इसके लिए विपक्ष को भी सरकार के साथ मिलकर रचनात्मक भूमिका निभानी होती है। 

भारत में मौजूदा राजनैतिक माहौल ऐसा बन गया है, मानो पक्ष और विपक्ष एक दूसरे के पूरक न हो कर शत्रु हों। इस पतन की शुरुआत इंदिरा गांधी के ज़माने से हुई जब उन्होंने चुनी हुई प्रांतीय सरकारों को गिरा कर अपनी सरकारें बैठाना शुरू कर दिया। इससे पारस्परिक वैमनस्य भी बढ़ा और राजनीति का नैतिक पतन भी हुआ। पर यूपीए-1 और यूपीए-2 के दौर में ये काम नागालैंड, गोवा व मेघालय जैसे छोटे राज्य छोड़ कर और कहीं नहीं हुआ। इसी कारण उस दौर में देश की आर्थिक प्रगति भी तेज़ी से हुई। 


मौजूदा दौर में भाजपा के नेतृत्व ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहुत अस्थिर कर दिया है। ये हर हथकंडा अपना कर चुनी हुई सरकारों को गिराने का काम कर रहा है। इससे न तो समाज में स्थायित्व आ रहा है और ना ही उमंग। हर ओर हताशा और असुरक्षा फैलती जा रही है। जिसका विपरीत प्रभाव उद्यमियों, सरकारी कर्मचारियों, युवाओं और महिलाओं पर पड़ रहा है। सरकार पर एक आरोप जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का भी लग रहा है, जो वह हर चुनाव के पहले कर रही है। ऐसे में जहां भाजपा 2024 के चुनावों में 360 संसदीय सीटें जीतने का लक्ष्य रख कर अपनी रणनीति बना रही है वहीं, विपक्ष में भी भारी हलचल है। भाजपा की तरफ़ से एक आरोप यह लगाया जाता है कि विपक्ष के पास प्रधान मंत्री के पद के लिए कोई एक सर्वमान्य व्यक्ति नहीं है। 2004 में कांग्रेस ने चुनाव बिना प्रधान मंत्री के चेहरे के लड़ा था। पर बाद में डॉ मनमोहन सिंह के रूप में, 10 बरस तक एक ज्ञानी, शालीन, बेदाग़ प्रधान मंत्री दिया जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को बिना प्रचार के चुपचाप काम करके नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। मुख्यतः ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, केसीआर व अरविंद केजरीवाल जैसे दावेदारों की चर्चा अक्सर होती रहती है। उधर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने यह कह कर कि विपक्षी एकता का प्रधान मंत्री चेहरा राहुल गांधी ही होंगे, विपक्षी दलों के सामने एक चुनौती खड़ी कर दी है। जबकि राहुल गांधी ने आजतक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वे भी प्रधान मंत्री पद के दावेदार हैं। 


विपक्ष के हर दल के नेता और उसके कार्यकर्ता अपने दिल में ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि यदि वे एकजुट हो कर भाजपा के विरुद्ध खड़े नहीं होते तो 2024 में सरकार बनाने का उनका मंसूबा अधूरा रह जाएगा और तब उन्हें 2029 तक इंतज़ार करना होगा। इस बीच में प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई व आयकर विभाग इन नेताओं और उनके परिवारों के साथ क्या सलूक करेंगे इसका ट्रेलर वो गत आठ वर्षों से देख ही रहे हैं। फिर भी अगर वे नहीं चेते तो अपनी तुच्छ महत्वाकांक्षाओं के कारण भारत के लोकतंत्र को समाप्ति की ओर बढ़ता हुआ देखेंगे। इसलिए अब उनके पास सोचने विचारने का समय नहीं है। विपक्ष के लिये तो यह ‘करो या मरो’ की स्थिति है। जैसे भाजपा और संघ परिवार बारह महीने चुनावी मोड में रहता है और साम, दाम, दंड या भेद से सरकार बनाते हैं। आज भले ही प्रांतीय चुनावों के संदर्भ में कांग्रेस, समाजवादी दल, भारत राष्ट्र समिति के नेता एक दूसरे पर बयानों के हमले कर रहे हों पर 2024 के चुनावों के लिए उनके ये बयान आत्मघाती हो सकते हैं। इसलिए इस दौर में राहुल गांधी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई है।

भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ रहे कुछ लोगों ने बताया कि इस यात्रा से राहुल गांधी के व्यक्तित्व में भारी बदलाव आया है। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में आजतक एक भी नेता ऐसा नहीं हुआ जिसने राहुल गांधी के बराबर इतनी लंबी पदयात्रा की हो और उसमें भी वह पूरी आत्मीयता के साथ समाज के हर वर्ग से दिल खोल कर मिला हो। इस ज़मीनी सच्चाई को देखने और समझने के बाद सुना है, राहुल गांधी निर्णय कर चुके हैं उन्हें प्रधान मंत्री नहीं बनना बल्कि समाज के आम आदमी को हक़ दिलाने के लिए एक संवेदनशील भूमिका में रहना है। जहां वे जनता का दुख-दर्द सरकार तक पहुँचा सकें। अगर यह सच है तो ये राहुल गांधी की बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसलिए अब लोकतंत्र मज़बूत करने में उनकी नयी भूमिका बन सकती है।  

जहां कांग्रेस ये मानती है कि वो देश की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टी है इसलिए उसे वरीयता दी जानी चाहिये वहीं ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि देश के बड़े हिस्से में कांग्रेस का नाम है ही नहीं। अनेक राज्यों में प्रांतीय सरकारें बहुत मज़बूत हैं और वहाँ कांग्रेस का वजूद लुप्तप्रायः है। जिन राज्यों में कांग्रेस का जनाधार है उन राज्यों में भी उसकी स्थिति अकेले अपने बूते पर सरकार बनाने की नहीं है। इसके अपवाद भी हैं पर कमोवेश यही स्थिति है। इस हक़ीक़त को समझ और स्वीकार करके अगर राहुल गांधी एक बड़ा दिल दिखाते हैं और देश के हर बड़े विपक्षी नेता से आमने-सामने बैठ कर देश की राजनैतिक स्थिति पर खुली चर्चा करते हैं, इस वायदे के साथ, कि वे प्रधान मंत्री पद के दावेदार नहीं हैं, तो सभी विपक्षी दलों को जोड़ने में वे बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा  सकते हैं। यही भाव ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, केसीआर, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल और स्टैलिन को भी रखना होगा। तब ही विपक्ष उन गंभीर मुद्दों पर भाजपा को चुनौती दे पायेगा जिन पर वो विफल रही है। मसलन रोज़गार, महंगाई, किसानों व मज़दूरों की दशा, लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता का पतन आदि। जहां तक बात भ्रष्टाचार की है, भाजपा सहित कोई भी दल बेदाग़ नहीं है। इसलिए उस मुद्दे को छोड़ कर अगर बाक़ी सवालों पर भाजपा को घेरा जाएगा तो उसके लिये चुनौती तगड़ी होगी। पर इसी प्रक्रिया से लोकतंत्र मज़बूत होगा और आम जनता को कुछ राहत मिलेगी। 

Monday, August 8, 2022

अपनी नागरिकता छोड़ क्यों रहे हैं भारतीय?


कुछ हफ़्तों पहले गृह मंत्रालय ने संसद में एक सवाल के उत्तर पे एक चौंका देने वाले आँकड़े बताए। आँकड़ों के अनुसार 2015 से 2021 के बीच 9 लाख 32 हजार 276 भारतीयों ने अपनी नागरिकता छोड़ी है। गृह मंत्रालय के अनुसार केवल साल 2021 में 163,370 लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ी। मंत्रालय के अनुसार इन भारतीयों नेनिजी वजहोंसे नागरिकता छोड़ने का फ़ैसला लिया। सवाल उठता है कि इतने बड़े पैमाने में भारतीय देश छोड़ कर क्यों जा रहे हैं?


गौरतलब है कि कोरोना काल में बहुत सारे बड़े उद्योगपति देश छोड़ कर कनाडा, अमेरिका, यूके, यूएई और  यूरोप आदि जैसे देशों में चले गए। इन धनकुबेरों के देश छोड़ने की एक बड़ी वजह कोरोना को बताया गया। हालांकि 2022 में भी इन उद्योगपतियों का देश छोड़ अन्य देश में बसने का सिलसिला जारी है। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए यह एक अच्छा संकेत नहीं। इसके साथ ही, अमीरों के देश से पलायन की मुख्य वजह टैक्स से जुड़े सख्त नियम बताये गये हैं। पिछले महीने एक ब्रिटिश कम्पनी की रिपोर्ट ने यह दावा किया था कि भारत से लगभग 8,000 करोड़पति 2022 में विदेशों में शिफ्ट हो सकते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि ये लोग उन देशों में जाना चाहते हैं जहां का पासपोर्ट ज्यादा ताकतवर माना जाता है।



जो भी लोग भारत छोड़ विदेशों में नौकरी के सिलसिले में जाते हैं उन्हें वहाँ पर मिलने वाली सुख-सुविधाएँ इतनी प्रभावित करती हैं कि वे लौट कर भारत नहीं आना चाहते। कुछ लोग तो वहाँ काम करते-करते अपना घर तक बसा लेते हैं। परिवार बढ़ने के बाद जब उन्हें वहाँ की नागरिकता मिल जाती है तो उसकी तुलना वे भारत में मिलने वाली सुविधाओं के साथ करते हैं। विदेशों में जा कर बसे भारतीय वहाँ पर काम करने के माहौल, बच्चों की पढ़ाई, रहने के ढंग आदि को काफ़ी सकारात्मक मान कर अपनी जन्मभूमि से नाता तोड़ने पर मजबूर होते हैं। यह पहली बार नहीं है जब भारतीय लोग देश छोड़ कर विदेशों में बसने लगे हैं। ऐसा चलन तो दशकों से चल रहा है। परंतु हाल ही के वर्षों में यह कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया है। भारतीयों को नागरिकता देने वाले देशों में अमेरिका ने सबसे ज्यादा नागरिकता दी है। आज़ादी के 75 वर्षों में अगर बड़े पैमाने पर भारतीय मूलभूत सुविधाओं की खोज में देश छोड़ कर जाने को मजबूर हो रहे हैं तो यह एक चिंता का विषय है। 


एक सर्वे के मुताबिक़ व्यापारी वर्ग का मानना है कि भारत में उन्हें अपने व्यापार या कारोबार की सुरक्षा की चिंता है। यह सुरक्षा देश में विभिन्न करों और नियमों में आए दिन होने वाले बदलावों के कारण भी है। इसी असुरक्षा के कारण इन उद्योगपतियों को देश छोड़ने का निर्णय लेना पड़ रहा है। यदि भारत में उद्योगपतियों को उनके व्यापार के प्रति सुरक्षा की गारंटी मिल जाए तो शायद यह पलायन इतनी बड़ी संख्या में हो। एक ओर तो व्यापारिक सुरक्षा कारण है तो वहीं दूसरी ओर देश का क़ानून भी कुछ लोगों को नागरिकता छोड़ने पर मजबूर कर देता है। फिर आप चाहे उनको भगोड़े कहें या हाईप्रोफ़ाइल अपराधी, मेहुल चोकसि, विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे सैंकड़ों उदाहरण मिल जाएँगे। 



शिक्षा के क्षेत्र में देश में मूलभूत ढाँचे का कमजोर होना भी देश से हो रहेब्रेन-ड्रेनका एक कारण है। देश का होनहार युवा तमाम कोशिशों के बावजूद, देश में आरक्षण और अन्य वजहों के चलते अपने हुनर को निखार नहीं पाता। किसान का पुत्र अगर पढ़ाई-लिखाई में तेज है तो वह खुद को अच्छी शिक्षा देने की होड़ में लग जाता है। ऐसे में उसका किसान पिता भी उसे रोकता नहीं है। बल्कि वो ज़रूरत पड़ने पर अपनी ज़मीन को गिरवी रख कर उसे पढ़ाता है। परंतु आरक्षण क़ानून के चलते जब उसे अच्छी नौकरी नहीं मिल पाती तो वह हताश हो जाता है। ऐसे में अगर देश का युवा विदेश में पढ़ाई के लिए जाता है और उसके हुनर की क़द्र करते हुए वहीं पर अच्छी नौकरी भी मिल जाती है तो वो वहीं बस जाता है। इस तरह के पलायन में भी काफ़ी बढ़ोतरी हुई है। यदि हम देश के युवा को अपने ही देश में अच्छी शिक्षा और नौकरी देना सुनिश्चित कर लेते हैं तो विदेशों की बड़ी से बड़ी कम्पनी अच्छे हुनर की तलाश में भारत में ही अपना ऑफ़िस खोलेगी। विदेशी कम्पनियों द्वारा निवेश होने पर सिर्फ़ पढ़े-लिखे श्रेष्ठ युवाओं को, बल्कि हर वर्ग के लोगों को उस कम्पनी में नौकरी भी मिलेगी। 


भारत में अभी तक एकल नागरिकता का ही प्रावधान है। क़ानून के जानकारों के मुताबिक़ दोहरी नागरिकता का प्रावधान भी पलायन का एक कारण है। भारत छोड़ कर जाने वाले लोगों की प्राथमिकता उन देशों में जा कर बसने की भी है जिन देशों में ऐसा क़ानून है। यदि कोई भी भारतीय अपनी नागरिकता और पासपोर्ट छोड़ देता है तो उसे भारत दोहरी नागरिकता दे कर ओसीआई कार्ड जारी कर देती है। इस कार्ड से केवल उस व्यक्ति को भारत में आने के लिए वीज़ा नहीं लेना पड़ता। वो बेझिझक देश में सकता है। परंतु नागरिकता से जुड़े उसके कई अधिकार रद्द हो जाते हैं। दुनिया के कई देशों में अर्जेंटीना, इटली, पराग्वे आयरलैंड ऐसे देश हैं जहां पर दोहरी नागरिकता का प्रावधान है। भारत के नागरिकता छोड़ने के पीछे यह भी एक बड़ी वजह है।


कुल मिलाकर देखा जाए तो देश छोड़ने वालों ने निजी कारणों को ही देश छोड़ने की वजह बताई, लेकिन यदि इस पर गौर किया जाए तो मूलभूत सुविधाओं की कमी भी देश छोड़ने का एक महत्वपूर्ण कारण दिखाई देती है। आज़ादी के 75 वर्षों में कई सरकारें आईं और गईं लेकिन देश से पलायन करने की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही। इस बात को मौजूदा सरकार और आनेवाली सरकारों को गम्भीरता से लेना होगा नहीं तो देश से होनेवालेब्रेन-ड्रेनकी संख्या पर लगाम नहीं लग पाएगी। यदि ऐसा होता है तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश के लिए यह एक अच्छा संकेत नहीं है।