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Monday, August 15, 2016

कश्मीर की घाटी में तूफान: मीडिया की विफलता

कश्मीर की घाटी में जो बवाल हो रहा है, उसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार केंद्र सरकार की नाकारा मीडिया पाॅलिसी है। आज हालत ये है कि कश्मीर की घाटी में उपद्रव का संचालन पूरे तरीके से पाकिस्तान की आईएसआई के हाथ में है। जो सीमापार से गत 20 वर्षों में कश्मीरी युवाओं की ब्रेन वाॅशिंग करने में सफल रही है। आज यहां 10 साल के बच्चे के सिर पर जाली वाली टाॅपी और हाथ में पत्थर है। निशाने पर भारत की फौज। वही फौज, जिसने श्रीनगर की बाढ़ में सबसे ज्यादा राहत पहुंचाने का काम किया। तब न तो आईएसआई काम आयी और न ही पाकिस्तान की फौज। आज कश्मीर में भारत विरोधी माहौल बनाने का काम वहां का बुद्धिजीवी वर्ग, मीडिया, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता कर रहे हैं। इन सबका एक ही नारा है - आज़ादी।

कोई इनसे यह नहीं पूछता कि किससे आज़ादी और कैसी आज़ादी ? जबकि हकीकत यह है कि कश्मीर के लोगों को भारतवासियों और पाकिस्तानियों से भी ज़्यादा आज़ादी मिली हुई है। भारत के किसी भी नागरिक को कश्मीर में संपत्ति खरीदने का अधिकार नहीं है। जबकि कश्मीर का कोई भी व्यक्ति हिंदुस्तान के किसी भी कोने में संपत्ति खरीद सकता है। नौकरी और व्यापार कर सकता है। यही कारण है कि चाहें गोवा के समुद्री तट हों या हिंदू और ईसाइयों के समुद्र तट पर बसे दर्जनों पारंपरिक नगर हों, हर ओर आपको कश्मीरी नौजवानों के एम्पोरियम नज़र आएंगे। देश की राजधानी दिल्ली से लेकर पूरे भारत में कश्मीरी खूब आर्थिक तरक्की कर रहे हैं। इज़्ज़त से जी रहे हैं। सरकारी नौकरियों एवं उच्च पदों पर तैनाती पा रहे हैं। इसके बावजूद खुलेआम भारत को गाली देते हैं।

जबकि दूसरी ओर पाकिस्तान में तबाही मची है। आपस में मारकाट हो रही है। सरकार विफल है। आर्थिक प्रगति का नाम नहीं है। पाकिस्तानी टीवी चैनलों पर वहां के अनेक बुद्धिजीवी यह कहते नहीं थकते कि पाकिस्तान किस मुंह से कश्मीर की बात करता है। जबकि वह खुद पूर्वी बंगाल को संभाल कर नहीं रख पाया। उसकी जगह बांग्लादेश बन गया। आज बलूचिस्तान बगावत का झंडा ऊंचा किए है और पाकिस्तान से आजादी चाहता है। हिंदुस्तान से गए हर मुसलमान को आज भी पाकिस्तान में मुजाहिर कह कर हिकारत से देखा जाता है। दुनिया का ऐसा कौन-सा मुल्क होगा, जो आपको तमाम रियायतें और सस्ती रसद दे और फिर भी आपसे गाली खाए।

पर ये बात कश्मीरियों को बताने वाला कोई नहीं। वहां का मीडिया बढ़ा-चढ़ाकर असंतोष की खबरें देता है। देश के टीवी चैनल भी कश्मीर की सड़कों पर बंद दुकानें और पसरा सन्नाटा दिखाते हैं। वहां खड़ी फौज के ट्रक और जवान दिखाते हैं। जबकि हकीकत यह है कि ये बंद का नाटक दोपहर तक ही चलता है। शाम होते ही घाटी के सारे लोग मस्ती करने डल झील, पार्कों और सैरगाहों पर निकल जाते हैं। खूब मौज-मस्ती करते हैं। सारे बाजार शाम को खुल जाते हैं। पर इसकी खबर कोई टीवी चैनल या अखबार नहीं दिखाता। न कोई ऐसी खबरें छापता और दिखाता है, जिससे कश्मीरियों को पाक अधिकृत कश्मीर या पाकिस्तान में हो रही बर्बादी की जानकारी मिले।

भारत सरकार ने फौज के स्तर पर तो कश्मीर में मोर्चा संभाला हुआ है, लेकिन मनोवैज्ञानिक युद्ध में सरकार बुरी तरह विफल हो रही है। भारत सरकार से अगर पूछो कि कश्मीर में आपकी प्रचार नीति क्या है, तो बोलेगी कि हमने दूरदर्शन को 500 करोड़ रूपए का स्पेशल कश्मीर पैकेज दे दिया है। ये कोई नहीं पूछता कि उस दूरदर्शन को देखता कौन है ?

मनोवैज्ञानिक लड़ाई जीतने के तमाम दूसरे तरीके हो सकते थे, जिन पर दिल्ली में कोई बात नहीं होती। सबसे तकलीफ की बात यह है कि कंेद्र सरकार का कोई भी कार्यालय कश्मीर में सक्रिय नहीं है। वेतन और भत्ते सब ले रहे हैं, पर अपनी ड्यूटी को अंजाम नहीं दे रहे। इससे उन लोगों को भारी क्षोभ है, जो इन विपरीत परिस्थितियों में वहां तैनात हैं और अपना मनोबल बनाए हुए हैं।

    आए दिन सत्तारूढ़ दल भाजपा और अन्य दलों के माध्यम से तमाम मुल्ला, मुसलमान नौजवान, बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता प्रेस विज्ञप्तियां जारी करते हैं और अपने फोटो छपवाते हैं, जिनमें भारत के साथ एकजुटता दिखाई जाती है। ये लोग पाकिस्तान की बदहाली का जिक्र करना भी नहीं भूलते। यहां तक कि आग उगलने वाला मुस्लिम नेता और सांसद डा.असुद्दीन औवेसी तक पाकिस्तान में जाकर खुलेआम यह कहते हैं कि पाकिस्तान भारत के मुसलमानों के मामले में दखलंदाजी करना बंद कर दे और अपने मुल्क के हालात संभाले। क्यों नहीं ऐसे सारे मुसलमानों को भारत सरकार बड़ी तादाद में कश्मीर की घाटी में भेजती है ? जिससे ये वहां जाकर आवाम को अपनी खुशहाली और पाकिस्तान के मुसलमानों की बदहाली पर खुलकर जानकारी दें। जिससे कश्मीरियों को यकीन आए कि ये प्रचार भारत सरकार या हिंदू नेता नहीं कर रहे, बल्कि खुद उनके ही धर्मावलंबी उन्हें हकीकत बताने आए हैं।

    हाल ही के दिनों में प्रधानमंत्री मोदी ने एक बढ़िया काम किया है। उन्होंने जोरदार बयान दिया है कि कश्मीर की घाटी की बात नहीं, भारत तो अब आजाद पाक अधिकृत कश्मीर की आजादी की बात करेगा। आज तक किसी प्रधानमंत्री ने इस बात को इतनी जोरदारी से नहीं उठाया था। जबकि कानूनी स्थिति यह है कि कश्मीर का क्या हो, वो तो भविष्य की बात है। पर कश्मीर के एक बड़े भाग पर पाकिस्तान नाजायज कब्जा किए बैठा है। वहां का आवाम रात-दिन पाकिस्तान से आजादी के नारे लगा रहा है। ऐसे में भारत को हर मंच पर एक ही मांग उठानी चाहिए कि पाकिस्तान को कश्मीर से बाहर खदेड़ा जाए। चुनौती मुश्किल है। पिछली सरकारों ने कश्मीर की नीति में देश को लुटवाया ज्यादा है, पर अब भी देर नहीं हुई। सही समझ और कड़े इरादे से इस समस्या से निपटा जा सकता है।

Monday, July 18, 2016

कश्मीर नीति बदलनी होगी

कश्मीर के हालात जिस तरह बिगड़ रहे हैं, उससे ये नहीं लगता कि केन्द्र सरकार की कश्मीर नीति अपने ठीक रास्ते पर है। इसमें शक नहीं है कि कश्मीर की आम जनता तरक्की और रोजगार चाहती है और अमन चैन से जीना चाहती है। पर आतंकवादियों, पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. और अलगाववाद का समर्थन करने वाले घाटी के नेता हर वक्त माहौल बिगाड़ने में जुटे रहते है। यही लोग है जो आतंकवादियों के मारे जाने पर उन्हें शहादत का दर्जा दे देते हैं और फिर अवाम को भड़काकर सड़कों पर उतार देते है। घाटी का अमन चैन और कारोबार सब गड्ढे में चले जाते है। आवाम की जिन्दगी मंे मुश्किलें बढ़ जाती है। पर इन सबका ऐसे हालातों में कारोबार खूब जोर से चलता है। इन्हें विदेशों से हर तरह की आर्थिक मदद मिलती है। इनकी जेबें गहरी होती जाती है और इसलिए यह कभी नहीं चाहते है कि कश्मीर की घाटी में अमन चैन कायम हो। और आवाम तरक्की रहे। 

मुश्किल यह है कि इन मुट्ठी भर लोगों ने ऐसा हऊआ खड़ा कर रखा है कि आम जनता इन्हें रोक नहीं पाती। सब डरते है कि अगर हमने मुंह खोला तो अगला निशाना हम पर ही होगा। इसलिए सब चुपचाप इनकी हैवानियत और जुल्मों को बर्दाश्त करते रहते है। जरूरत इस बात की है कि केन्द्र सरकार कश्मीर के मामले में अब ढिलाई छोड़ दें और अपनी नीति में बदलाव करें। सीधे और कड़े कदम उठायें। मसलन घाटी के आवाम को 3 हिस्सों में बांट दिया जाय। जो आतंकवादी हैं उनको उनकी ही भाषा में जवाब दिया जाय। घाटी के जो नेता  आतंकवाद और अलगाववाद का समर्थन करते हैं जैसे हुर्रियत के नेता उनके साथ कोई हमदर्दी न दिखाई जायें। क्योंकि भारत सरकार इनका इलाज करवाती है, इन्हें इज्जत देती हैं और ये दिल्ली आकर दिल्ली आकर पाकिस्तान के राजदूत से मिलते है और आई.एस.आई. से मोटी रकम हासिल करके हिन्दुस्तान के खिलाफ जहर उगलते है, घाटी में जाकर आग लगाते है। सरकार क्यों ऐसे नेताओं की मिजाजकुर्सी करती है। क्यूं इन्हें सरकारी दामाद की तरह रखा जाता है ? ऐसे लोगों से केन्द्रीय सरकार को वही बर्ताव करना पड़ेगा जो किसी जमाने में पं. जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के साथ किया था। इन्हें पकड़कर नजरबंद कर देना चाहिए और इनकी बात आवाम तक किसी सूरत में नहीं पहुंचनी चाहिए। तीसरी श्रेणी आम जनता यानि आवाम की है। जिसके लिए रोजी-रोटी कमाना भी मुश्किल होता है। ऐसे लोगों के साथ सरकार को मुरव्वत करनी चाहिए। उनकी आर्थिक मदद करनी चाहिए। अगर ऐसे लोग किसी देश विरोधी आंदोलन में उतरते हैं, तो उसके पीछे आर्थिक कारण ज्यादा होता है वैचारिक कम। उन्हें पैसा देकर आतंकवाद बढ़ाने के लिए उकसाया जाता है। अगर सरकार इस पर काबू पा ले और आई.एस.आई. का पैसा आम जनता तक न पहुंचने पाये तो काफी हद तक कश्मीर के हालात सुधर सकते है। 

अब तक केन्द्र सरकार की नीति कश्मीर घाटी को लेकर काफी ढुलमुल रही है। लेकिन नरेन्द्र मोदी से लोगों को उम्मीद थी कि वे आकर पुरानी नीति बदलेंगे और सख्त नीति अपनाकर कश्मीर के हालात सुधार देंगे। पर मोदी सरकार की कश्मीर नीति कांग्रेस सरकार की नीति से कुछ ज्यादा फर्क नहीं रही है। इसीलिए अब मोदी को अपनी कश्मीर नीति में बदलाव लाने की जरूरत है। 

अगर नरेन्द्र मोदी यह नहीं कर पायें तो यह उनकी बहुत बड़ी विफलता होगी। क्योंकि चुनाव से पहले कश्मीर नीति को लेकर उनके जो तेवर थे उनसे जनता को लगता था कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद वे मजबूत और क्रान्तिकारी कदम उठायेंगे। मगर ऐसा नहीं हुआ है। इससे कश्मीर में शान्ति की उम्मीद रखने वालों को भारी निराशा हो रही है। उधर पाकिस्तान भी गिरगिट की तरह रंग बदलता है। वही नवाज शरीफ जो मोदी से भाई-भाई का रिश्ता बढ़ाने उनके शपथ-ग्रहण समारोह में आये थे। वे आज मोदी को गोधरा कांड के लिए फिर से दोष दे रहे है। मतलब हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और। ऐसे में बिना लाग-लपेट के, पुरानी नीति को त्यागकर, कश्मीर के प्रति सही और सख्त नीति अपनानी चाहिए। इसके साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को यह बताने से चूंकना नहीं चाहिए कि पाकिस्तान कश्मीर में आतंकवाद फैला रहा है। जिससे उसे अलग-थलग किया जा सकें। अमरीका और यूरोप को भी यह बताना होगा कि अगर तुम वाकई आतंकवाद से त्रस्त हो और इससे निजात पाना चाहते हो, तो तुम्हें पाकिस्तान का साथ छोड़कर भारत का साथ देना चाहिए। जिससे सब मिलकर आतंकवाद का सफाया कर सकें।

Monday, September 15, 2014

बाढ़ ने खोली कश्मीर सरकार के प्रबंधों की पोल

जम्मू श्रीनगर में आयी प्राकृतिक आपदा ने राज्य सरकार की कलई खोलकर रख दी है। विकास के नाम खरबों रूपया डकारने वाली कश्मीर सरकार आज तक क्या करती रही ? अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इतनी तत्परता न दिखाते और राहत को इतने बड़े पैमाने पर न पहुंचाते, तो तबाही का मंजर कुछ और ही होता। अब तो कश्मीर के लोगों को यह समझ में आ जाना चाहिए कि न तो पाकिस्तान की फौज, न आईएसआई के सूरमा और न ही आए दिन भड़काने वाले उनके नेता उनकी राहत को सामने आए और न ही आतंकवादी। इतना ही नहीं उन्हें अब यह भी समझ लेना चाहिए कि आजादी के बाद से लेकर आज तक जिस तरह उनके नेताओं ने उनका उल्लू बनाया है, उसी कारण कश्मीर की आर्थिक प्रगति नहीं हो पायी।

गत 2 दौरों में प्रधानमंत्री श्री मोदी ने जम्मू कश्मीर के निवासियों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए हरसंभव प्रयास का आश्वासन दिया है। बाढ़ में डूबे लोग टी.वी. और कैमरों के सामने बार-बार यही कर रहे थे कि मोदीजी गुजरात की तरह कश्मीर का भी विकास करके दिखाएं। इसके लिए जरूरी होगा कि आगामी विधानसभा चुनाव में कश्मीरी स्थानीय मुद्दों को भूलकर एक व्यापक राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाएं। जिससे देश के सक्षम निवेशकर्ता घाटी में जाकर आर्थिक विकास की नई मंजिलें तय कर सकें। इससे भटक रहे नौजवानों को रोजगार मिलेगा और पूरे राज्य में तरक्की दिखाई देगी।

कश्मीर ही वह अकेला राज्य नहीं है, जहां केंद्रीय मदद का इतना भारी दुरूपयोग होता है। ज्यादातर राज्यों की हालत ऐसी ही है। विकास की जितनी योजनाएं केंद्र बनाकर क्रियान्वयन के लिए राज्यों को देता है, उन योजनाओं में इतना भ्रष्टाचार किया जाता है कि वे केवल कागजों तक सिमटकर रह जाती हैं। पिछले दिनों श्री मोदी ने प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यों के कार्यों से संबंधित फाइलों को तेजी से निपटाने के लिए एक नया विभाग खोलने की घोषणा की। जिस विभाग के तहत वेबसाइट पर फाइलों की स्थिति का पता हर समय लगाया जा सकेगा। यह एक अच्छी पहल है। पर इसके साथ ही राज्यों के सोशल आॅडिट की भी भारी जरूरत है। जिन राज्यों को आर्थिक मदद दी जा रही है, उनके क्रियान्वयन का स्तर कैसा है, इसे जांचने की जरूरत है। गत 5 वर्षों में जिन-जिन राज्यों को, जो अनुदान दिए गए हैं, उसकी समीक्षा के लिए प्रधानपमंत्री को एक नई पहल करनी चाहिए। उन्हें हर प्रदेश की जनता का आह्वान करना चाहिए कि वह योजनाओं के क्रियान्वयन से संबंधित जमीनी हकीकत की सूचना प्रधानमंत्री के कार्यालय को ई-मेल पर भेजें। इस काम में हर शहर और गांव के पढ़े-लिखे और जागरूक नागरिकों को सक्रिय किया जा सकता है। जिन राज्यों की रिपोर्ट ठीक नहीं हो, उन्हें विकास कार्यों के नाम पर आगे और ज्यादा लूट करने की सुविधा नहीं मिलनी चाहिए।

इसके साथ ही क्रियान्वयन को कैसे सुधारा जाए। इस पर देशव्यापी बहस चलाई जानी चाहिए। आजकल हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं के टीवी चैनल ऐसे मुद्दे कम उठा रहे हैं। उनका सारा ध्यान रोजमर्रा के राजनैतिक मुद्दों पर भड़काऊ बहसें करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। जबकि जमीनी स्तर पर योजनाओं का क्रियान्वन इतना फूहड़ है कि अगर टीवी कैमरे घुमाए जाएं तो पता चलेगा कि केवल उद्घाटन का पत्थर लगा होगा, प्रोजेक्ट का अता पता नहीं होगा। अगर प्राजेक्ट बना भी होगा तो उद्घाटन के 6 महीने में उस स्थल की ऐसी दुर्दशा होगी कि यह कहना पड़े कि यह जगह बिना प्रोजेक्ट के बेहतर थी। योजना कोई भी बने उसके क्रियान्वन के लिए मंत्रियों के चहेते ठेकेदार पहले से तैयार रहते हैं और वे मंत्री को एडवांस कमीशन देकर टेंडर अपने नाम करवा लेते हैं। अब तो ‘सैयां भए कोतवाल तो डर कहे का’ चाहे रेत लगाओ या गारा कोई पूछने वाला नहीं। मोदी जी ने अच्छे दिन लाने का वायदा हर भारतवासी से किया है और वो उसके लिए कोशिश भी कर रहे हैं। पर जब तक जमीनी स्तर पर क्रियान्वन के तौर तरीके में आमूलचूल बदलाव नहीं आता तब तक कुछ नहीं बदलेगा।

जमीनी स्तर पर सरकारी धन के सदुपयोग करने की इच्छा रखने वाले चाहे गिने चुने अधिकारी हों, समाज सेवी हों या जागरूक नागरिक, भ्रष्टाचार के आगे सब विफल हो जाते हैं। राजनीति और न्यायपालिका के सर्वोच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से लड़ने वालों में इस लेख के लेखक का नाम देश के गिने चुने लोगों में शामिल है, पर स्थानीय स्तर के भ्रष्टाचार से लड़ने में मुझे भी जो दिक्कत आ रही है, उसे देखकर मैं हैरान हूं कि आम आदमी की क्या हालत होगी ? यह बहुत गंभीर मसला है । जो मीडिया आज मोदीजी का गुणगान कर रहा है वही कल उन पर हमले करने में चूकेगा नहीं द्य जबकि योजनाओं के क्रियान्वन की खामियों को लगातार, रोज, शिद्दत से उठाना मीडिया का पहला कर्तव्य है । दिल्ली में भाजपा की सरकार कैसे बने या आपा के नाटकों की नयी पटकथा पर रोजाना की बहसों से कहीं ज्यादा सार्थक होगा जमीनी हालात को उजागर करना और लापरवाही और भ्रष्टाचार करने वाली नौकरशाही को रोज बेनकाब करना ।

Monday, August 20, 2012

अमरनाथ शिराइन बोर्ड कब जागेगा ?

जहां एक तरफ केंद्र और राज्य सरकारें अल्प संख्यकों के लिए हज राहत जैसी अनेक सुविधाए वर्षो से देती आई है, वहीं हिन्दुओं के तीर्थस्थलों की दुर्दशा की तरफ किसी का ध्यान नहीं है। आए दिन इन तीर्थस्थलों पर दुर्घटनाऐं और हृदय विदारक हादसे होते रहते हैं। पर कोई सुधार नहीं किया जाता। ताजा मामला अमरनाथ यात्रा में इस साल मरे लगभग 100 लोगों के कारण चर्चा में आया। तीर्थस्थलों के प्रबन्धन को लेकर सरकारों की कोताही एक गम्भीर विषय है जिस पर हम आगे इस लेख में चर्चा करेंगे। पहले अमरनाथ शिराइन बोर्ड की नाकामियों की एक झलक देख लें।

इस हफ्ते सर्वोच्च न्यायालय ने जम्मू-कश्मीर के अमरनाथ शिराइन बोर्ड को कड़ी फटकार लगाई। अदालत बोर्ड की नाफरमानी और निक्म्मेपन से नाराज है। उल्लेखनीय है कि इस बोर्ड का गठन अमरनाथ की पवि़त्र गुफा मे दर्शनार्थ जाने वाले तीर्थ यात्रियो की सुविधा और सुरक्षा का ध्यान रखना है। बोर्ड के अध्यक्ष जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल है और सदस्य देश की जानी मानी हस्तियां हैं। बताया जाता है कि बोर्ड के पास लगभग 500 करोड़ रूपया जमा है। बावजूद इसके व्यवस्थाओं का यह आलम है कि इस वर्ष तीर्थयात्रा पर गये लगभग 100 लोग मारे गये और सैंकड़ो घायल हुए। शर्म की बात तो यह है कि इतनी बड़ी तादाद में लोगों ने जान गंवाई पर बोर्ड ने न तो देशवासियों के प्रति कोई संवेदना संदेश प्रसारित किया और न ही अपनी लापरवाही के लिए माफी मांगी। मजबूरन सर्वोच्च न्यायालय को ’सूओ-मोटो’ नोटिस भेजकर अमरनाथ शिराइन बोर्ड को तलब करना पड़ा। अदालत ने उसे उच्च स्तरीय समिति से मौके पर मुआयना करके अपनी कार्य योजना प्रस्तुत करने का आदेश दिया। इतना सब होने के बावजूद अमरनाथ शिराइन बोर्ड अदालत में यह रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं कर पाया। उसने छः महीने का समय और मांगा। उसे फिर अदालत की फटकार लगी। माननीय न्यायधीशों ने तीन हफ्ते का समय दिया और साफ कह दिया कि रिपोर्ट नहीं कार्य योजना चाहिए, तीन हफ्ते में कार्य शुरू हो जाना चाहिए। ऐसा न हो कि बर्फबारी शुरू हो जाये और कोई काम हो ही न पाये।

जब सर्वोच्च अदालत में यह सब कार्यवाही चल रही थी तो मुम्बई के पीरामल उधोग समूह की ओर से एक शपथ-पत्र दाखिल किया गया। जिसमें कम्पनी ने अमरनाथ के यात्रियों के लिए सड़क मार्ग व पैदल रास्ते पर सुरक्षित आने-जाने की व्यवस्था व अदालत के निर्देशानुसार अन्य सुविधाए मुहैया कराने की अनुमति मांगी। कम्पनी ने अपने शपथ-पत्र में यह साफ कर दिया कि वह यह सब कार्य धमार्थ रूप से अपने आर्थिक संसाधनों और कारसेवकों की मदद से करेगी। इसके लिए कम्पनी जम्मू कश्मीर सरकार व अमरनाथ शिराइन बोर्ड से किसी तरह की आर्थिक मदद की अपेक्षा नहीं रखेगी। उल्लेखनीय है कि उक्त उधोग समूह आन्ध्रप्रदेश में स्वास्थ सेवा का, गुजरात व राजस्थान में प्राथमिक शिक्षा व पेयजल का व ब्रज में सास्ंकृतिक धरोहरों के संरक्षण का कार्य देश की जानी-मानी स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से कर रहा है। इसी क्रम में अमरनाथ के यात्रियों की सेवा का भी प्रस्ताव किया गया। सर्वोच्च अदालत नें अमरनाथ शिराइन बोर्ड की हास्यादपद स्थिति पर टिप्पणी की कि जब एक निजी संस्था यह सेवा देने को तैयार है तो बोर्ड को क्या तकलीफ है ?

उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद शिराइन बोर्ड की मदद के लिए जम्मू कश्मीर सरकार ने अपने मुख्य सचिव माधव लाल की अध्यक्षता में एक समिति गठित की। जिसने मौका मुआयना करके अपनी रिपोर्ट अमरनाथ शिराइन बोर्ड को सौंप दी है। अब देखना है कि बोर्ड अदालत के सामने क्या योजना लेकर आता है ?

यह बड़े दुख और चिन्ता की बात है कि हिन्दू धर्म स्थलों के प्रबन्धन के लिए बने शिराइन बोर्ड  भक्तों से दान में अपार धन प्राप्त होने के बावजूद तीर्थ स्थलों की सुविधाओं के विस्तार की तरफ ध्यान नहीं देते। इन बोर्डो में अपनी पहुंच के कारण ऐसे लोग सदस्य नामित कर दिये जाते है जिनकी इन तीर्थ स्थलों के प्रति न तो श्रद्वा होती है, न ही समझ। केवल मलाई खाने और मौज उड़ाने के लिए इन्हें वहां बैठा दिया जाता है। नतीजतन न तो ऐसे लोग खुद कोई पहल कर पाते है और न ही किसी पहल को आगे बढ़ने देते हैं। पीरामल समूह के प्रतिनिधि व आस्था से सिक्ख हरिन्दर सिक्का जब अमरनाथ यात्रा पर गये तो उनसे इस विश्वप्रसिद्व तीर्थ की यह दुर्दशा नहीं देखी गई। वे आरोप लगाते हैं कि अमरनाथ शिराइन बोर्ड तीर्थयात्रियों को मिलने वाली हर सुविधा जैसे टैन्ट, टट्टू, व हैलीकॉप्टर आदि में से बाकायदा शुल्क लगाकर मोटा कमीशन खाता है। इस दौलत को अपने खाते में जमा कर चैन की नींद सोता है। जबकि इस पैसे का इस्तेमाल यात्रियों की सुविधाओं के विस्तार के लिए होना चाहिए था, जो नहीं किया जा रहा।

हमारा मानना है कि हर धर्म स्थल के प्रबन्धन की समिति का अध्यक्ष भले ही उस प्रान्त का राज्यपाल या मुख्य सचिव हो, पर इसके सदस्य उस तीर्थ में आस्था रखने वाले धनाड्य सम्मानित ऐसे लोग हों जो अपना समय और धन दोनों लगा सकें। इनके अलावा इस तरह के कार्यो में रूचि रखने वाले प्रतिष्ठित समाज सेवियों को भी इन बोर्डो में सदस्य बनाया जाना चाहिए। जिससे संवेदनशीलता के साथ कार्य हो सके। स्थानीय विवादों के चलते बहुत से धर्म स्थलों को कई अदालतों ने अपने नियंत्रण में ले रखा है। इनका भी हाल बहुत बुरा है। न तो न्यायधीशों और न ही प्रशासनिक अधिकारियों का यह काम है कि वे धर्म स्थलों का प्रबन्धन करें। सदियों से यह काम साधन सम्पन्न आस्थावान लोग करते आये हैं। चुनावी राजनीति ने यह संतुलन बिगाड़ दिया। अब राजनेताओं के चमचे प्रबन्धन में घुसकर भक्तों की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं। इस पर सर्वोच्च न्यायालय को व भारत सरकार को स्पष्ट नीति की घोषणा करनी चाहिए। जिससे हमारी विरासत सजे-संवरे और देश की जनता सुख की अनुभूति कर सके।