Monday, July 28, 2025

भारतीय पासपोर्ट की बढ़ती लोकप्रियता!

हाल ही में जारी हेनले पासपोर्ट इंडेक्स 2025 में भारतीय पासपोर्ट की रैंकिंग में उल्लेखनीय सुधार देखने को मिला है। पिछले वर्ष के 85वें स्थान से 8 पायदान ऊपर चढ़कर भारत अब 77वें स्थान पर पहुंच गया है। इसका सीधा लाभ पासपोर्ट धारकों को मिल रहा है और यह हमारी अर्थव्यवस्था तथा वैश्विक संबंधों के लिए भी शुभ संकेत है।


हेनले पासपोर्ट इंडेक्स एक वैश्विक बेंचमार्क है जो दुनिया के पासपोर्टों को उनकी यात्रा स्वतंत्रता के आधार पर रैंक करता है। यानी कोई पासपोर्ट धारक बिना पूर्व वीज़ा के कितने देशों की यात्रा कर सकता है। भारतीय पासपोर्ट की रैंकिंग में यह सुधार सीधे तौर पर भारतीय नागरिकों के लिए अधिक वीज़ा-मुक्त या वीज़ा-ऑन-अराइवल देशों तक पहुंच का मार्ग प्रशस्त करता है। वर्तमान में, भारतीय पासपोर्ट धारक 59 देशों में बिना पूर्व वीज़ा के यात्रा कर सकते हैं, जबकि पिछले साल यह संख्या 57 थी। इसमें फिलीपींस और श्रीलंका जैसे नए देश भी शामिल हुए हैं।



यह बढ़ी हुई पहुंच भारतीय यात्रियों के लिए कई मायनों में फायदेमंद है। वीज़ा प्रक्रिया अक्सर लंबी, जटिल और खर्चीली होती है। वीज़ा-मुक्त या वीज़ा-ऑन-अराइवल की सुविधा यात्रा योजना को सरल बनाती है, समय बचाती है और अचानक यात्राओं को संभव बनाती है। यह व्यापार, पर्यटन और व्यक्तिगत यात्राओं को बढ़ावा देता है।  व्यापारिक पेशेवरों के लिए आसान अंतरराष्ट्रीय यात्रा व्यावसायिक अवसरों को बढ़ाने में मदद करती है। इससे विदेशी निवेश आकर्षित होता है और भारतीय व्यवसायों को वैश्विक बाजारों तक पहुंचने में आसानी होती है। भारतीय पर्यटकों के लिए अधिक गंतव्यों तक आसान पहुंच अंतरराष्ट्रीय पर्यटन को प्रोत्साहित करती है, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि होती है और सेवा क्षेत्र को बढ़ावा मिलता है। छात्रों और शोधकर्ताओं के लिए आसान यात्रा विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन या शोध के लिए नए अवसर खोलती है, जिससे ज्ञान और सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़ता है। एक मजबूत पासपोर्ट किसी देश की वैश्विक प्रतिष्ठा और उसके नागरिकों की स्वीकार्यता को दर्शाता है। यह भारत की बढ़ती ‘सॉफ्ट पावर’ का एक महत्वपूर्ण संकेतक है।



भारतीय पासपोर्ट की रैंकिंग में इस उछाल के पीछे कई कारक जिम्मेदार हैं। भारत सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न देशों के साथ द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने और वीज़ा समझौतों को उदार बनाने पर विशेष जोर दिया है। विदेश मंत्रालय की सक्रिय कूटनीति ने कई देशों को भारतीय नागरिकों के लिए वीज़ा नीतियों में ढील देने के लिए प्रेरित किया है। भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और वैश्विक भू-राजनीति में इसकी भूमिका लगातार बढ़ रही है। भारत का आर्थिक उदय और रणनीतिक महत्व अन्य देशों को भारत के साथ संबंधों को मजबूत करने और भारतीय नागरिकों को अधिक सुगम यात्रा सुविधाएं प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित करता है। किसी भी देश की पासपोर्ट रैंकिंग में उसकी आंतरिक सुरक्षा स्थिति और राजनीतिक स्थिरता महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत ने हाल के वर्षों में आंतरिक सुरक्षा को मजबूत करने और एक स्थिर वातावरण बनाए रखने में महत्वपूर्ण प्रगति की है, जिससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय में विश्वास बढ़ा है। भारत में पासपोर्ट आवेदन प्रक्रिया को डिजिटल बनाने और सरल बनाने के लिए किए गए प्रयासों ने भी अप्रत्यक्ष रूप से इस सुधार में योगदान दिया है। सुगम और पारदर्शी पासपोर्ट सेवाएं नागरिकों के लिए अंतरराष्ट्रीय यात्रा को और अधिक व्यवहार्य बनाती हैं। इसके साथ ही कोविड-19 महामारी के दौरान यात्रा प्रतिबंधों के कारण दुनिया भर के पासपोर्टों की रैंकिंग प्रभावित हुई थी। अब जब वैश्विक यात्रा धीरे-धीरे सामान्य हो रही है, तो देशों के बीच समझौते और यात्रा की बहाली रैंकिंग में सुधार का एक कारण है।



भारतीय पासपोर्ट की इस क्रमशः बढ़ती ताकत को बनाए रखना और उसे और मजबूत करना एक सतत प्रक्रिया है। इसके लिए कई उपायों पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है। विदेश मंत्रालय को दुनिया के उन देशों के साथ बातचीत जारी रखनी चाहिए जो अभी भी भारतीय नागरिकों के लिए सख्त वीज़ा आवश्यकताएं रखते हैं। विशेष रूप से उन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जहां भारतीय व्यापार, पर्यटन या छात्र समुदाय की महत्वपूर्ण उपस्थिति है।एक मजबूत और स्थिर अर्थव्यवस्था एक मजबूत पासपोर्ट की नींव होती है। भारत को अपनी आर्थिक वृद्धि दर को बनाए रखना चाहिए और वैश्विक व्यापार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ानी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय संधियों और समझौतों का सम्मान करना और उनका प्रभावी ढंग से पालन करना भारत की विश्वसनीयता को बढ़ाता है, जिससे अन्य देश उसके नागरिकों को अधिक वीज़ा स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं। आंतरिक सुरक्षा और कानून व्यवस्था का मजबूत ढांचा किसी भी देश की अंतरराष्ट्रीय छवि के लिए महत्वपूर्ण है। यह पर्यटकों और व्यापारिक आगंतुकों के लिए एक सुरक्षित वातावरण का आश्वासन देता है। 


भारत को उन देशों के साथ सक्रिय रूप से जुड़ना चाहिए जो ई-वीज़ा या वीज़ा-ऑन-अराइवल की पेशकश नहीं करते हैं। इन सुविधाओं का विस्तार यात्रा को और अधिक सुविधाजनक बना सकता है। सरकार को भारतीय पासपोर्ट धारकों के लिए उपलब्ध वीज़ा-मुक्त/वीज़ा-ऑन-अराइवल देशों के बारे में जागरूकता बढ़ानी चाहिए। विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर नियमित अपडेट और सार्वजनिक जागरूकता अभियान इसमें मदद कर सकते हैं।भारत को ‘अतिथि देवो भव’ की अपनी परंपरा के अनुरूप विदेशी पर्यटकों का स्वागत करना जारी रखना चाहिए। सांस्कृतिक कार्यक्रमों और आदान-प्रदान से भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ बढ़ती है, जिससे बदले में अन्य देशों से वीज़ा उदारता प्राप्त होती है।


भारतीय पासपोर्ट की रैंकिंग में यह सुधार देश के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, पर अभी बहुत आगे जाना है। भारत की विदेश नीति को लेकर विशेषज्ञ एकमत नहीं हैं। इस नीति के आलोचकों का कहना है कि हाल में हुए ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के मामले में दुनिया का कोई भी देश भारत के साथ खड़ा नहीं हुआ। जबकि चीन और टर्की आदि ने पाकिस्तान को खुला समर्थन देने की घोषणा की थी। उधर अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दर्जनों बार यह दोहराया कि भारत पाकिस्तान के बीच उन्होंने ही सीज़-फ़ायर करवाई है। जबकि भारत के विदेश मंत्रालय ने ट्रम्प के इस दावे का बार-बार खंडन किया। दरअसल किसी भी देश की विदेश नीति का आधार उसकी आर्थिक प्राथमिकताएँ व भू-राजनैतिक (जियो पोलिटिकल) बाध्यताओं से निर्धारित होती है। अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य में जहाँ एक तरफ़ अमरीका और रूस की नज़र हमेशा भारत के बड़े बाज़ार पर रहती है वहीं चीन से संतुलन बनाए रखने के लिए इन्हें पाकिस्तान को भी साधना पड़ता है। क्योंकि उसकी भौगोलिक स्थिति ही ऐसी है। इन सब दबावों के बीच भारत अपनी विदेश नीति तय करता है।   

Monday, July 21, 2025

बढ़ती बेरोज़गारी एक विकट समस्या

पिछले दिनों खबर छपी कि उत्तर प्रदेश में 2 हज़ार पदों के लिए 29 लाख आवेदन प्राप्त हुए। इसी तरह एक बार ऐसी भी खबर आई थी कि आईआईटी से पास हुए 38 फ़ीसदी युवाओं को रोज़गार नहीं मिला। अक्सर यह देखा जाता है कि जब भी कभी कोई सरकारी पद पर भर्ती खुलती है तो कुछ हज़ार पदों के लिए लाखों आवेदन आ जाते हैं। फिर वो पद छोटा हो या बड़ा, उस पद की योग्यता से अधिक योग्य आवेदक अपना आवेदन देते हैं। बात बिहार की हो उत्तर प्रदेश की या देश में किसी अन्य राज्य की, जब भी एक पद पर उम्मीद से ज़्यादा आवेदन आते हैं तो स्थिति अनियंत्रित हो जाती है। 



आज के दौर में अगर ‘मेनस्ट्रीम मीडिया’ किन्ही कारणों से ऐसे सवालों को जनता तक नहीं पहुँचाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि जनता तक वह सवाल पहुँच नहीं पाएँगे। सोशल मीडिया पर ऐसे सैंकड़ों इंटरव्यू देखें जा सकते हैं जो बेरोज़गारी की भयावय समस्या से जूझते युवाओं की हताशा दर्शाते हैं। जब ये युवा रोज़गार की माँग लेकर सड़कों पर उतरते हैं तो इनके राज्यों की सरकारें पुलिस से इन पर डंडे बरसाती हैं। अगर युवाओं को सरकारी नौकरी मिलने की भी उम्मीद नहीं होगी तो हार कर उन्हें निजी क्षेत्र में जाना पड़ेगा और निजी क्षेत्र की मनमानी का सामना करना पड़ेगा। दिक्कत यह है कि निजी क्षेत्र में भी रोज़गार की संभावनाएँ बहुत तेज़ी से घटती जा रही हैं। इससे और हताशा फ़ैल रही है। नौकरी नहीं मिलती तो युवाओं की शादी नहीं होती और उनकी उम्र बढ़ती जाती है। समाज शास्त्रीय शोधकर्ताओं को इस विषय पर शोध करना चाहिए कि इन करोड़ों बेरोज़गार युवाओं की इस हताशा का समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? 



देश के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे को देखते हुए शहरों में अनौपचारिक रोज़गार की मात्रा को क्रमशः घटा कर औपचारिक रोज़गार के अवसर को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। देश की सिकुड़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण बेरोज़गारी ख़तरनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। एक शोध के अनुसार भवन निर्माण क्षेत्र में 50%, व्यापार, होटेल व अन्य सेवाओं में 47%, औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र में 39% और खनन क्षेत्र में 23% बेरोज़गारी फैल चुकी है। 



चिंता की बात यह है कि ये वो क्षेत्र हैं जो देश को सबसे ज़्यादा रोज़गार देते हैं। इसलिए उपरोक्त आँकड़ों का प्रभाव भयावह है। जिस तीव्र गति से ये क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं उससे तो और भी तेज़ी से बेरोज़गारी बढ़ने की स्थितियाँ पैदा हो रही हैं। दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न कर पाने की हालत में लाखों मज़दूर व अन्य लोग जिस तरह लॉकडाउन शुरू होते ही पैदल ही अपने गाँवों की ओर चल पड़े उससे इस स्थिति की भयावयता का पता चलता है।



उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए मोदी सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ हैं। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 7 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।


इसके लिए तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि पढ़े-लिखे युवाओं के लिए एक ऐसी योजना लानी पड़ेगी जिससे इनको भी रोज़गार मिल जाए। पर ऐसा करने से करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उन नौजवानों की है जो आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। उनका आक्रोश इतना बढ़ चुका है और सरकारी तंत्र द्वारा नौकरी के बजाए लाठियों ने आग में घी का काम किया है। कुछ वर्ष पहले सोशल मीडिया पर एक व्यापक अभियान चला कर देश के बेरोज़गार नौजवानों ने प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस को ही ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया था। उस समय इसी कॉलम में मैंने कहा था कि ये एक ख़तरनाक शुरुआत है जिसे केवल वायदों से नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में शिक्षित रोज़गार उपलब्ध कराकर ही रोका जा सकता है। मोदी जी ने 2014 के अपने चुनावी अभियान के दौरान प्रतिवर्ष 2 करोड़ नए रोज़गार सृजन का अपना वायदा अगर निभाया होता तो आज ये हालात पैदा न होते।

यहाँ ये उल्लेख करना भी ज़रूरी है कि कोई भी राजनैतिक दल जो अपने चुनावी अभियान में बेरोजगारी दूर करने का सपना दिखता है, वो सत्ता में आने के बाद अपना वायदा पूरा नहीं करता। इसलिए सभी राजनैतिक दलों को मिल बैठ कर इस भयावय समस्या के निदान के लिए एक नई आर्थिक नीति पर सहमत होना पड़ेगा। जिसके माध्यम से देश की सम्पदा, चंद हाथों तक सीमित होने के बजाय उसका विवेकपूर्ण बँटवारा हो। छोटे और मंझले उद्योगों के तेज़ी से बंद होने की मजबूरी को दूर करना होगा और इन उद्योगों को अविलंब पुनः स्थापित करने की दिशा में ठोस और प्रभावी कदम उठाने होंगे। 

Monday, July 14, 2025

ग्रेट निकोबार द्वीप परियोजना: पर्यावरण से खिलवाड़

ग्रेट निकोबार द्वीप, जो भारत के अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का हिस्सा है, अपनी अनूठी जैव विविधता और प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जाना जाता है। यह द्वीप भारत का सबसे दक्षिणी बिंदु, इंदिरा पॉइंट, होने के साथ-साथ यूनेस्को बायोस्फीयर रिजर्व भी है। कुछ समय पहले नीति आयोग द्वारा प्रस्तावित 72,000 करोड़ की ग्रेट निकोबार द्वीप परियोजना ने इस क्षेत्र को वैश्विक व्यापार, पर्यटन और सामरिक महत्व का केंद्र बनाने का लक्ष्य रखा है। इस परियोजना में एक अंतरराष्ट्रीय कंटेनर ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल, एक ग्रीनफील्ड हवाई अड्डा, एक टाउनशिप और एक गैस और सौर ऊर्जा आधारित पावर प्लांट का निर्माण शामिल है। इस परियोजना को लेकर पर्यावरणविदों, आदिवासी अधिकार कार्यकर्ताओं और विपक्षी दलों ने गंभीर चिंताएं व्यक्त की हैं।



ग्रेट निकोबार द्वीप परियोजना को नीति आयोग ने 2021 में शुरू किया था, जिसका उद्देश्य इस द्वीप को एक आर्थिक और सामरिक केंद्र के रूप में विकसित करना है। यह द्वीप मलक्का जलडमरूमध्य के पास स्थित है, जो विश्व के सबसे व्यस्त समुद्री मार्गों में से एक है। परियोजना के तहत 16,610 हेक्टेयर भूमि का उपयोग किया जाएगा, जिसमें से 130.75 वर्ग किलोमीटर प्राचीन वन क्षेत्र शामिल है। इस परियोजना को राष्ट्रीय सुरक्षा और भारत की ‘एक्ट ईस्ट’ नीति के तहत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। लेकिन इसके पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों ने इसे विवादों के केंद्र में ला खड़ा किया है।


ग्रेट निकोबार द्वीप 1989 में बायोस्फीयर रिजर्व घोषित किया गया था और 2013 में यूनेस्को के मैन एंड बायोस्फीयर प्रोग्राम में शामिल किया गया। यह द्वीप 1,767 प्रजातियों के साथ एक समृद्ध जैव विविधता का घर है, जिसमें 11 स्तनधारी, 32 पक्षी, 7 सरीसृप और 4 उभयचर प्रजातियां शामिल हैं, जो इस क्षेत्र में स्थानिक हैं। परियोजना के लिए लगभग 9.6 लाख से 10 लाख पेड़ों की कटाई की जाएगी, जो द्वीप के प्राचीन वर्षावनों को अपूरणीय क्षति पहुंचाएगी। यह न केवल स्थानीय वनस्पतियों और जीवों को प्रभावित करेगा, बल्कि प्रवाल भित्तियों (कोरल रीफ्स) और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को भी नुकसान पहुंचाएगा।



गलाथिया खाड़ी, जहां ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल प्रस्तावित है, लेदरबैक कछुओं और निकोबार मेगापोड पक्षियों का प्रमुख प्रजनन स्थल है। 2021 में गलाथिया खाड़ी वन्यजीव अभयारण्य को डिनोटिफाई कर दिया गया, जो भारत के राष्ट्रीय समुद्री कछुआ संरक्षण योजना (2021) के विपरीत है। यह कछुओं और अन्य समुद्री प्रजातियों के लिए गंभीर खतरा पैदा करता है, क्योंकि बंदरगाह निर्माण से होने वाला प्रदूषण, ड्रेजिंग, और जहाजों की आवाजाही उनके प्रजनन और अस्तित्व को प्रभावित करेगी।



द्वीप पर शोम्पेन और निकोबारी आदिवासी समुदाय रहते हैं, जो विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (PVTG) के रूप में वर्गीकृत हैं। ये समुदाय अपनी आजीविका और संस्कृति के लिए जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं। परियोजना से इनके पारंपरिक क्षेत्रों का 10% हिस्सा प्रभावित होगा, जिससे उनकी सामाजिक संरचना और जीविका पर खतरा मंडराएगा। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि बाहरी लोगों के संपर्क से इन जनजातियों में रोगों का खतरा बढ़ सकता है, जिससे उनकी आबादी विलुप्त होने की कगार पर पहुंच सकती है।


ग्रेट निकोबार द्वीप अंडमान-सुमात्रा फॉल्ट लाइन पर स्थित है, जो भूकंप और सुनामी के लिए अत्यधिक संवेदनशील है। 2004 की सुनामी ने इस क्षेत्र को भारी नुकसान पहुंचाया था। पर्यावरण प्रभाव आकलन में भूकंपीय जोखिमों को कम करके आंका गया है और विशेषज्ञों का कहना है कि परि

योजना के लिए साइट-विशिष्ट भूकंपीय अध्ययन नहीं किए गए। यह एक बड़े पैमाने पर आपदा का कारण बन सकता है।


परियोजना के लिए काटे गए जंगलों की भरपाई के लिए हरियाणा और मध्य प्रदेश में प्रतिपूरक वनीकरण का प्रस्ताव है। लेकिन ये क्षेत्र निकोबार की जैव विविधता से कोई समानता नहीं रखते। यह पारिस्थितिक संतुलन को बहाल करने में असमर्थ है।


पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया और मूल्यांकन दस्तावेजों को राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर गोपनीय रखा गया है। विशेषज्ञों का तर्क है कि केवल हवाई अड्डे का सामरिक महत्व हो सकता है, न कि पूरी परियोजना का। पारदर्शिता की यह कमी परियोजना की वैधता पर सवाल उठाती है।


विपक्षी दलों, विशेष रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, ने परियोजना को "पारिस्थितिक और मानवीय आपदा" करार दिया है। पर्यावरणविदों और नागरिक समाज संगठनों ने इसे जैव विविधता और आदिवासी अधिकारों के लिए खतरा बताया है। राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) ने 2023 में परियोजना की पर्यावरण और वन मंजूरी की समीक्षा के लिए एक उच्चस्तरीय समिति गठित की थी, लेकिन इसके बावजूद परियोजना को आगे बढ़ाने में जल्दबाजी दिखाई दे रही है।


ग्रेट निकोबार द्वीप परियोजना राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है, लेकिन इसके पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पारदर्शी और व्यापक पर्यावरण प्रभाव आकलन, आदिवासी समुदायों के साथ उचित परामर्श और भूकंपीय जोखिमों का सटीक मूल्यांकन आवश्यक है। इसके साथ ही, परियोजना के आर्थिक व्यवहार्यता की पुन: समीक्षा होनी चाहिए, क्योंकि भारत में हाल ही में शुरू हुआ विशाखापत्तनम का ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल पहले से ही वैश्विक व्यापार में योगदान दे रहा है।


पर्यावरण और जैव विविधता के संरक्षण के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं। जैसे कि परियोजना क्षेत्र को CRZ 1A क्षेत्रों से बाहर रखा जाए। आदिवासी समुदायों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जाए। भूकंपीय जोखिमों के लिए साइट-विशिष्ट अध्ययन किए जाएं। निकोबार के भीतर ही प्रतिपूरक वनीकरण पर ध्यान दिया जाए।


ग्रेट निकोबार द्वीप भारत की प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है। इसे बचाने के लिए विकास और संरक्षण के बीच संतुलन बनाना होगा। भ्रामक तथ्यों के आधार पर जल्दबाजी में लिए गए निर्णय न केवल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएंगे, बल्कि भारत की वैश्विक पर्यावरण संरक्षण प्रतिबद्धताओं को भी कमजोर करेंगे। 

Monday, July 7, 2025

महाराष्ट्र में भाषा विवाद

मला ही भाषा येत नाही। भाषा संवाद के लिए होती है, झगड़े उपद्रव के लिए नहीं। झगड़े उपद्रव के लिए लट्ठबाजी, गोलीबारी होती है। गले लगा लो तो बिना भाषा के भी संवाद हो जाता है।


राष्ट्र में महाराष्ट्र का होना गौरव और गरिमा की बात है। महाराष्ट्र की उत्कृष्ट सभ्यता संस्कृति है। इसे क्षुद्र स्तर पर न ले आने के लिए हम सजग सावधान रहें तो इसकी सभ्यता-संस्कृति पूरे विश्व में जगमगाती रहेगी। मराठी-गुजराती-हिंदी-अंग्रेज़ी की यहाँ सब नदियां एक ही महासागर से जुडी हैं। इसलिए यहाँ संकीर्णता नहीं, उदारता ही प्रवाहमान होती है। सभ्यता-संस्कृति का दीप-स्तम्भ बनती है। यह कहना है स्वामी चैतन्य कीर्ति का। 


इस विषय में ओशो क्या कहते हैं: एक मित्र ने पूछा है कि क्या भारत में कोई राष्ट्रभाषा होनी चाहिए? यदि हां, तो कौन सी?



राष्ट्रभाषा का सवाल ही भारत में बुनियादी रूप से गलत है। भारत में इतनी भाषाएं हैं कि राष्ट्रभाषा सिर्फ लादी जा सकती है और जिन भाषाओं पर लादी जाएगी उनके साथ अन्याय होगा। भारत में राष्ट्रभाषा की कोई भी जरूरत नहीं है। भारत में बहुत सी राष्ट्रभाषाएं ही होंगी और आज कोई कठिनाई भी नहीं है कि राष्ट्रभाषा जरूरी हो। रूस बिना राष्ट्रभाषा के काम चलाता है तो हम क्यों नहीं चला सकते? आज तो यांत्रिक व्यवस्था हो सकती है संसद में, बहुत थोड़े खर्च से, जिसके द्वारा एक भाषा सभी भाषाओं में अनुवादित हो जाए।


लेकिन राष्ट्रभाषा का मोह बहुत महंगा पड़ रहा है। भारत की प्रत्येक भाषा राष्ट्रभाषा होने में समर्थ है इसलिए कोई भी भाषा अपना अधिकार छोड़ने को राजी नहीं होगी, होना भी नहीं चाहिए। लेकिन यदि हमने जबरदस्ती किसी भाषा को राष्ट्रभाषा बना कर थोपने की कोशिश की तो देश खंड-खंड हो जाएगा। आज देश के बीच विभाजन के जो बुनियादी कारण हैं उनमें भाषा एक है। राष्ट्रभाषा बनाने का खयाल ही राष्ट्र को खंड-खंड में तोड़ने का कारण बनेगा। अगर राष्ट्र को बचाना हो तो राष्ट्रभाषा से बचना पड़ेगा और अगर राष्ट्र को मिटाना हो तो राष्ट्रभाषा की बात आगे भी जारी रखी जा सकती है।



मेरी दृष्टि में भारत में जितनी भाषाएं बोली जाती हैं, सब राष्ट्रभाषाएं हैं। उनको समान आदर उपलब्ध होना चाहिए। किसी एक भाषा का साम्राज्य दूसरी भाषाओं पर बरदाश्त नहीं किया जाएगा, वह भाषा चाहे हिंदी हो और चाहे कोई और हो। कोई कारण नहीं है कि तमिल, तेलगू, बंगाली या गुजराती को हिंदी दबाए। लेकिन गांधी जी के कारण कुछ बीमारियां इस देश में छूटीं, उनमें एक बीमारी हिंदी को राष्ट्रभाषा का वहम देने की भी है। हिंदी को यह अहंकार गांधी जी दे गए कि वह राष्ट्रभाषा है। तो हिंदी प्रांत उस अहंकार से परेशान हैं और वह अपनी भाषा को पूरे देश पर थोपने की कोशिश में लगे हुए हैं। हिंदी का साम्राज्य भी बरदाश्त नहीं किया जा सकता है, तो किसी भाषा का नहीं किया जा सकता हैं। सिर्फ संसद में हमें यांत्रिक व्यवस्था करनी चाहिए कि सारी भाषाएं अनुवादित हो सकें। और वैसे भी संसद कोई काम तो कोई करती नहीं है कि कोई अड़चन हो जाएगी। सालों तक एक-एक बात पर चर्चा चलती है, थोड़ी देर और चल लेगी तो कोई फर्क नहीं होने वाला है। संसद कुछ करती हो तो भी विचार होता कि कहीं कार्य में बाधा न पड़ जाए। कार्य में कोई बाधा पड़ने वाली नहीं मालूम होती हैं।



फिर मेरी दृष्टि यह भी है कि यदि हम राष्ट्रभाषा को थोपने का उपाय न करें तो शायद बीस पच्चीस वर्षोंं में कोई एक भाषा विकसित हो और धीरे-धीरे राष्ट्र के प्राणों को घेर ले। वह भाषा हिंदी नहीं होगी, वह भाषा हिंदुस्तानी होगी। उसमें तमिल के शब्द भी होंगे, तेलगू के भी, अंग्रेजी के भी, गुजराती के भी, मराठी के भी। वह एक मिश्रित नई भाषा होगी जो धीरे-धीरे भारत के जीवन में से विकसित हो जाएगी। लेकिन, अगर कोई शुद्धतावादी चाहता हो कि शुद्ध हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना है तो यह सब पागलपन की बातें है। इससे कुछ हित नहीं हो सकता है। यह तो थी ओशो की सोच। 


महाराष्ट्र, एक ऐसा राज्य है जो अपनी सांस्कृतिक समृद्धि और मराठी भाषा के लिए जाना जाता है, आज भाषा विवाद के कारण चर्चा में है। मराठी, जो इस राज्य की आत्मा है, न केवल एक भाषा है, बल्कि महाराष्ट्र की पहचान, इतिहास और गौरव का प्रतीक भी है। हाल के वर्षों में, मराठी भाषा के उपयोग और सम्मान को लेकर कई विवाद सामने आए हैं, जो सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर तनाव का कारण बन रहे हैं।


महाराष्ट्र में मराठी को प्राथमिकता देने की मांग लंबे समय से चली आ रही है। विशेष रूप से मुंबई जैसे महानगरों में, जहां विविधता अपनी चरम सीमा पर है, मराठी भाषा को कई बार उपेक्षित महसूस किया जाता है। गैर-मराठी भाषी समुदायों की उपस्थिति और वैश्वीकरण के प्रभाव ने मराठी के उपयोग को कुछ हद तक सीमित किया है। यह स्थिति स्थानीय लोगों में असंतोष को जन्म देती है, जो अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं।


भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति, साहित्य और परंपराओं का वाहक भी है। मराठी साहित्य, जिसमें संत ज्ञानेश्वर से लेकर आधुनिक लेखकों तक का योगदान शामिल है, जो विश्व स्तर पर अपनी गहराई के लिए जाना जाता है। फिर भी, सरकारी कार्यालयों, शिक्षण संस्थानों और सार्वजनिक स्थानों पर मराठी के उपयोग में कमी देखी जा रही है। यह स्थिति मराठी भाषी समुदाय के लिए चिंता का विषय है।


राज्य सरकार ने मराठी को अनिवार्य करने के लिए कुछ कदम उठाए हैं, जैसे स्कूलों में मराठी पढ़ाई को बढ़ावा देना और सरकारी कार्यों में इसका उपयोग सुनिश्चित करना। लेकिन इन प्रयासों को और प्रभावी करने की आवश्यकता है। साथ ही, मराठी के प्रति सम्मान को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक जागरूकता भी जरूरी है। गैर-मराठी भाषी लोगों को भी मराठी सीखने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि सामाजिक एकता मजबूत हो।


मराठी भाषा या देश की अन्य भाषा का संरक्षण केवल एक राज्य की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि यह हमारी साझा सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है। विवादों को सुलझाने के लिए संवाद और सहयोग जरूरी है। मराठी व अन्य भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलाने के लिए हमें एकजुट होकर प्रयास करना होगा, ताकि सभी भाषाएँ अपनी गरिमा और गौरव के साथ फलती-फूलती रहें।