Rajasthan Patrika 02-12-2007 |
सच्चाई यह है कि गृह मन्त्रkलय के आला अफसर ही नहीं किरण बेदी के साथ काम कर चुके तमाम वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी उन्हें पसंद नहीं करते. उनका कहना है कि किरण बेदी में टीम भावना नहीं है. वे हर कायZक्रम का नेतृत्व स्वय करना चाहती हैं. वे स्वय को सबसे यksग्य और सबसे सही समझती हैं. वे अपने से वरिष्ठ अधिकारियks का सम्मान नहीं करतीं. उनकी अवज्ञा करती हैं और उन्हें दरकिनार कर खुद ही श्रेय लेना चाहती हैं. वे काम से ज्यkदा यश की भूखी हैं और मीडियk के पीछे भागती हैं. वे यह भी कहते हैं कि किरण बेदी जैसा यk उनसे बेहतर काम करने वाले अनेक अधिकारी इसी व्यवस्था के अंग हैं और वे बिना शोरगुल मचाए अपना कर्तव्य भी निभाते हैं व ईमानदार भी हैं और व्यवस्था के अनुरूप अनुशासन में भी रहते हैं.
दूसरी तरफ किरण बेदी का आरोप है कि चू¡कि वह महिला हैं इसलिए पुरूष प्रधान व्यवस्था में उन्हें कोई पनपने नहीं देना चाहता. उनके मौलिक और जन उपयksगी विचारों को समझने और सराहने की कुव्वत पोंगा पंथी आला अफसरों में नहीं है. वे मानती हैं कि सुधार के लिए जो कडे कदम उठाने पडते हैं उन्हें उठाने से यह अधिकारी डरते हैं क्यksकि उन्हें अपने आकाओं के नाराज होने का खतरा होता है.इसीलिए कुछ बदलता नहीं सुधरता नहीं और आम आदमी को न्यk; नहीं मिलता.
किरण बेदी बेशक एक अनूठी महिला अधिकारी रहीं जिन्होंने का¡लेज के दिनों से ही हर क्षेत्र में पुरूषों को पछाडा जिससे उन्हें अपने साथी पुरूष अधिकारियks की ईष्यर का शिकार होना पडा. तिहाड जेल में किए गए सुधारों के लिए उन्हें मैगासेसे जैसे इनाम से नवाजा गयk दिल्ली ट्रैफिक पुलिस की उपायqक्त के पद पर रहते हुए उन्होंने जिस तरह से अनुशासन हीन वीआईपी गाडियks को उठवायk उससे उनका नाम के्रन बेदी हो गयk था. किरण बेदी का सबसे बडा यksगदान भारत की मध्यम वर्गीय यqवतियks के लिए रहा. आज से 37 वर्ष पूर्व जब भारत की यह यqवतियk¡ खुली हवा में सा¡स लेने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाती थीं किरण बेदी ने आत्मविश्वास और सफलता के झण्डे गाढ कर इन महिलाओं के सामने एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कियk जिसकी वजह से फिर अनेक महिला पुलिस की नौकरी में आने लगीं और दूसरे ऐसे क्षेत्र में जाने की हिम्मत करने लगीं जिन्हें परम्परा से पुरूषों के लिए आरक्षित माना जाता था. शायद यही वजह है कि वे मध्य्म वर्ग के लिए एक सितारा बन गईं और उनके हर कदम को इसी मध्यम वर्ग ने हाथों हाथ लियk. मीडियk ने भी सुश्री बेदी को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाइ. इसलिए उनका समय से पहले नाराज होकर इस्तीफा देना उनके प्रशंसकों को अच्छा नहीं लगा.
किरण पिछले 15 वर्ष से मेरी अच्छी दोस्त रही हैं. देश के कई मंचों पर हम दोनों साथ साथ भाषण देने जाते रहे हैं. एक टीवी पत्रकार के रूप में मैंने सन् 1979 में ही उनके कायर्कलापों पर एक कायZक्रम दिल्ली दूरदर्शन पर बनाकर दिखायk था. इसलिए मुझs भी यह आश्चयर होता था कि गृह मन्त्रkलय के आला अधिकारी उनसे खुश क्यks नहीं हैं.
दरअसल कुछ हद तक यह बात ठीक है कि व्यवस्था क्रान्तिकारी व्यक्तित्व को सहन नहीं करती. चाहे वह सरकारी तन्त्र हो यk निजी क्षेत्र मीडियk के क्षेत्र में भी तो यही होता है. अपने को बहादुरी से सच बताने वाला दावा करने वाले समूह भी स्वतन्त्र सोच और क्रान्तिकारी विचारों के पत्रकारों को पनपने नहीं देते. लोकतन्त्र की वकालत करने वाले राजनैतिक दलों तक में लोकतन्त्र नहीं होता और तो और वैदिक परम्परा पर चलने का दावा करने वाले धर्मगुरू तक खरे प्रश्न करने वाले अनुयkfय;ks और शिष्यks को बर्दाश्त नहीं करते. इसलिए वे लोग जो लीक से हटकर चलना चाहते हैं किसी व्यवस्था के अंग हो ही नहीं सकते. अगर बनते हैं तो उन्हें अपनी सीमा का ध्यkन रखना ही होगा. जैसे डा¡ मनमोहन सिंह हैं. खुद ईमानदार होकर भी वे अपने चारों तरफ होते आ रहे भ्रष्टाचार से आ¡खें मू¡द लेते हैं. अगर मु¡ह खोलते तो उन्हें वित्तमंत्रh यk प्रधानमंत्रh कोई नहीं बनाता. इसलिए प्रशासन में जाने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि वे व्यवस्था का अंग बनकर क्रान्ति नहीं कर सकते. अगर क्रान्ति करनी है तो फाकामस्ती करनी पडेगी. यह नहीं हो सकता कि आप सरकारी बंगला, लाल बत्ती की गाडी और देश विदेश के सैर सपाटे करते हुए क्रान्तिकारी होने की छवि बनाए¡ सुरक्षा की गारण्टी सुनिश्चित करने के बाद क्रान्ति नहीं हुआ करती. किरण बेदी की यही गलती रही कि उन्होंने इस सच्चाई को समझने से इनकार कर दियk
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