Rajasthan Patrika 23-12-2007 |
अगला साल लोक सभा के आगामी चुनावों के लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए इंका अपना वोट बंैक सुदृढ़ करना चाहती है। इसीलिए उसने योजना आयोग से यह शगूफा छुड़वाया है। सरकार अल्पसंख्यकों को सपने दिखा रही है। ठीक वैसे ही जैसे अजादी के बाद से हर दल की सरकार गरीबों को दिखाती रही है। उन सपनों से नेता, अफसर और ठेकेदार तो मालामाल हो गए पर गरीब जनता बद से बदहाल हो गई। पहले अपने गांव में रूखी सूखी खाकर शुद्ध जल और हवा तो ले लेती थी। इस विकास ने उससे यह भी छीन लिया और ऐसे करोड़ों लोगों को महानगरों के फुटपाथ पर लाकर पटक दिया।
अल्पसंख्यकों को जो सपने दिखाये जा रहे हैं वो भी ऐसे ही होंगे ये बात अल्पसंख्यक भी जानते हैं। दरअसल अल्पसंख्यकों को बढा़वा देने या आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने की यह मानसिकता किसी का भला नहीं कर रही है। इससे केवल समाज में विघटन और द्वेष बढ़ रहा है। जहां तक विकास का प्रश्न है यह देखने में आया है कि सही अवसर और बुनियादी सुविधायें मिलने पर हर व्यक्ति अपनी तरक्की की सोचता है। आज देश में स्वरोजगार में लगे और तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहे करोड़ों नौजवान अपने बल पर खड़े हुए है। उन्होंने किसी आरक्षण या सरकारी सहायता की बाट नहीं जोही। किसी ने मैकेनिक का काम सीखा तो किसी ने ढाबा खोला। हर शहर और कस्बे में हजारों खोके नुमा दुकानें इन नौजवानों की देखी जा सकती हैं। पिछले दशक में जबसे भारत के हस्त कला उद्योग की विदेशों में मांग बढ़ी है तब से करोड़ों अल्पसंख्यक कारीगर से निर्यातक बन गए हैं। उनके कोठी बंगले और कारखाने खड़े हो गये है। उनके बच्चे देश के प्रतिष्ठित अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। पंजाब की तरक्की किसी आरक्षण की मोहताज नहीं रही। अगर सरकार चाहती है कि देश का आर्थिक विकास तेजी से हो तो उसे बुनियादी ढंाचे को सुधारने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए।
यही वजह है कि खुद को गुजरात का विकास पुरूष स्थापित करने वाले नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय विकास परिषद् की बैठक में योजना आयोग के इस प्रस्ताव की धज्जियां उड़ा दीं। उन्होंने जो मुद्दे उठाये उन पर देश में बहस की जरूरत है। सबके विकास की बात करना और फिर राजनैतिक हित साधने के लिए समाज को धर्म केे आधार पर बांटना धर्म निरपेक्षता नहीं होता। समाज को इसी तरह बांटने का एक षडयंत्र अंग्रेजी हुकूमत के समय मोरले मिंटो सुधारों के तहत किया गया था। जब हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग अलग चुनाव क्षेत्र घोषित किए गए। भारत के बटवारे की नींव इन्हीं सुधारों के बाद पड़ी। इस नासूर का दर्द हम आज तक भुगत रहे हैं।
आश्चर्य की बात यह है कि एक तरफ तो सरकार तो वैश्वीकरण और उदारीकरण की वकालत करके भारत को दुनिया की अर्थव्यवस्था से जोड़ने की जुगत में लगी है और दूसरी ओर वह ऐसे दकियानूसी शगूफे छोड़कर अपने मानसिक दिवालियापन का परिचय देती है। कुछ समय पहले ही सरकार ने भारतीय सेना में कार्यरत लोगों की धर्म के आधार पर गणना करने का प्रयास किया था। जिसे सेना प्रमुख व सेना के अन्य आला अफसरों के विरोध के कारण रोक देना पड़ा।
इंका व साम्यवादी दलों की ऐसी ही छद्म धर्म निरपेक्षता के कारण भाजपा को घर बैठे चुनावी मुद्दे मिल जाते हैं। तब ये दल भाजपा पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाते हैं। जबकि जरूरत विकास को केन्द्र में रखकर बहुजन हिताय नीतियों के निर्धारण की है। फिर चाहें कोई सत्ता में हो।
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