Rajasthan Patrika 4-11-2007 |
असली बात तो यह है कि इस स्टिंग आ¡परेशन को इस वक्त दिखाने का मकसद क्या विशुद्ध खोजी पत्रकारिता था या इसके पीछे कोई और कारण है ? खुद स्टिंग आॅपरेशन करने वालों ने माना कि उन्होंने यह खोज कई महीने पहले पूरी कर ली थी। फिर क्यों इसे चुनाव के पहले तक रोक कर रखा गया ? इसका उत्तर ये लोग टेलीविजन की वार्ताआंे में नहीं दे पाए। इससे भाजपा को ये कहने का पर्याप्त आधार मिला कि यह स्टिंग आॅपरेशन विपक्षी दल के इशारे पर और चुनावांे को ध्यान में रख कर किया गया है। जो भी हो विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या इस स्टिंग आॅपरेशन से नरेन्द्र मोदी की छवि खराब हुई है ? वामपंथी या खुद को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले राजनैतिक लोग यही कहेंगे। पर जमीनी हकीकत कुछ और है। इस स्टिंग आ¡परेशन से गुजरात के बहुसंख्यक मतदाताओं के बीच नरेन्द्र मोदी की छवि सुधरी है। गुजरात के अनेक नगरों में मैने विभिन्न तबके के लोगों से बात की तो पता चला कि ये लोग नरेन्द्र मोदी को एक योग्य और सक्षम नेता मानते हS। उनका कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से गुजरात के शहरों में बढ रहे कठमुल्लापन पर नरेन्द्र मोदी ने लगाम कसी और गोधरा के बाद के दंगों से यह संदेश दिया कि अल्पसंख्यक होने का अर्थ उद्दंडता और आतताई होना स्वीकारा नहीं जाएगा। इस बात का सीधा प्रमाण यह है कि नरेन्द्र मोदी के इस शासनकाल में गुजरात में कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। दूसरी ओर आर्थिक प्रगति के इच्छुक लोगों को नरेन्द्र मोदी के शासन में मदद ही मिली है। चाहे वे अल्पसंख्यक ही क्यों न हों।
गुजरात के बहुसंख्यकों का कहना है कि मीडिया और खुद को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले राजनैतिक दल हमेशा मुसलमान का पक्ष लेते हैं और हिन्दू हितों का उपेक्षा करते हैं। गुजरात के लोग यह प्रश्न करते हैं कि जब कश्मीर के हिन्दू मारे जा रहे थे या मुसलमान आतंकवादियों द्वारा आज भी देश में बड़ी संख्या में हिन्दू मारे जा रहे हैं तब यह लोग क्यों नहीं उतने ही मुखर होते जितने की मुसलमानों के पिटने पर होते हैं ? इसलिए स्टिंग आॅपरेशन के बावजूद गुजरात के लोगों में चाहे-अनचाहे यह बात बैठ गई है कि अगर गोधरा कांड के बाद हुए दंगों में नरेन्द्र मोदी या उनकी सरकार का कोई हाथ है भी तो इसमें कोई बुराई नहीं। क्योंकि अगर ऐसा न होता तो गुजरात का बहुसंख्यक समाज अल्पसंख्यकों के उद्दंड व्यवहार से अशांत और असुरक्षित ही रहता।
ये गंभीर बात है कि मीडिया के प्रति बहुसंख्यकों के मन में यह बात घर कर गई है कि वह हिन्दुओं के हित नहीं साधता। जबकि मीडिया की छवि यथा संभव निष्पक्ष ही होनी चाहिए। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि वैदिक परंपराओं के वैज्ञानिक आधार सिद्ध हो जाने के बावजूद इस देश का पढ़ा-लिखा प्रगतिशील वर्ग स्वयं को हिन्दू मानने से बचता है। उसे लगता है कि धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा ओढे बिना कुलीन समाज में उसे स्वीकारा नहीं जाएगा। इसलिए उसे दोहरे मापदंड अपनाने पड़ते हैं। पर मतदाता अपना अच्छा-बुरा खुद सोच लेता हैं। वह मीडिया के नियंत्रित ‘टाॅक-शो’ ‘ओपिनियन पोल’ और राजनैतिक विश्लेषणों से प्रभावित नहीं होता। मीडिया की उपक्षा के बावजूद मायावती की चुनावी फतह इसका उदाहरण है। यही वजह है कि मायावती मीडिया की परवाह नहीं करतीं। लालू यादव भी नहीं करते थे और अब नरेन्द्र मोदी भी नहीं करते। ये तीनों ही नेता अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए मीडिया पर निर्भर नहीं है। लोकतंत्र के लिए मीडिया का इस तरह निरर्थक हो जाना शुभ संकेत नहीं है। मीडियाकर्मियांे और अखबार व टीवी चैनलों के मालिकों को गंभीरता से सोचना होगा। अगर मतदाता और नेता दोनों उससे प्रभावित नहीं हो रहे तो स्पष्ट है कि मीडिया के कुछ हिस्से ने अपनी सार्थकता खो दी है। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ किया गया स्टिंग आॅपरेशन भी इसीलिए उनके हक मे गया है। जिसका लाभ नरेन्द्र मोदी को आगामी विधान सभा चुनाव में देखने को मिल सकता है।
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