Monday, December 1, 2025

‘डांसिंग भालू’: शोषण से संरक्षण तक की यात्रा 

स्लॉथ भालुओं का लंबे समय तक चला ‘डांसिंग भालू’ शोषण‑मॉडल आज लगभग समाप्त हो चुका है, और इसके केंद्र में एक संगठित, मानवीय व वैज्ञानिक दृष्टि से समर्थ संरक्षण आंदोलन खड़ा है। यह बदलाव केवल एक प्रजाति को बचाने की कहानी नहीं, बल्कि कानून, करुणा और समुदाय-आधारित पुनर्वास के अनोखे संतुलन का उदाहरण भी है। सदियों तक स्लॉथ भालुओं को सड़कों पर नचाने, करतब दिखाने और मनोरंजन का साधन बनाने की परंपरा जारी रही, जिसे कलंदर समुदाय की रोज़ी‑रोटी का आधार माना गया। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत यह प्रथा दंडनीय अपराध है, फिर भी सामाजिक‑आर्थिक निर्भरता और ढीले अमल के कारण यह व्यापार दशकों बाद तक जारी रहा।

ऐसे माहौल में वाइल्डलाइफ एसओएस जैसी संस्था का हस्तक्षेप केवल ‘रेस्क्यू ऑपरेशन’ भर नहीं था, बल्कि इसने राज्य, कानून और हाशिए पर खड़े समुदाय के बीच एक संवाद की नई भाषा गढ़ी। आगरा, बैंगलुरु, भोपाल और पुरुलिया में भालू संरक्षण केंद्रों की स्थापना ने दिखाया कि पशु‑कल्याण तभी टिकाऊ है जब उसके साथ मानवीय पुनर्वास की समांतर संरचना खड़ी की जाए। 

डांसिंग भालू प्रथा को समाप्त करने की सबसे बड़ी नैतिक चुनौती यह थी कि कलंदर समुदाय की आजीविका उसी शोषण पर टिकी थी, जिसे कानून रोकना चाहता था। केवल दमनकारी कार्रवाई से भालू तो शायद छिटपुट रूप से बचाए जा सकते थे, पर समुदाय और कानून दोनों के बीच अविश्वास और बढ़ता।


यहाँ वाइल्डलाइफ एसओएस का मॉडल उल्लेखनीय है, जिसने कलंदरों के लिए वैकल्पिक रोज़गार, कौशल‑विकास, सीड फंडिंग और विशेष रूप से महिलाओं के सशक्तीकरण पर ज़ोर दिया। लगभग 5,000 से अधिक कलंदर परिवारों को व्यावसायिक प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता देकर वन्यजीव शोषण से अलग आजीविका की ओर मोड़ना सामाजिक न्याय और संरक्षण को एक साथ आगे बढ़ाने का उदाहरण है।

डांसिंग भालू व्यापार के खात्मे के साथ‑साथ सवाल यह भी था कि बचाए गए सैकड़ों भालुओं की जीवन‑भर देखभाल कैसे हो। इन भालुओं पर वर्षों के शारीरिक‑मानसिक अत्याचार, दांत तोड़ने से लेकर नाक में छेद कर रस्सी डालने जैसी क्रूर प्रथाओं के गहरे घाव रहे हैं, जिनसे वे जंगली जीवन में लौट ही नहीं सकते।


आगरा भालू संरक्षण केंद्र सहित देश भर के रेस्क्यू फैसिलिटीज़ में 90 दिन का क्वारंटाइन, टीकाकरण, पोषण प्रबंधन, दंत उपचार, सर्जरी, थर्मल इमेजिंग, डिजिटल एक्स‑रे और वृद्ध भालुओं के लिए विशेष जेरियाट्रिक केयर जैसे प्रावधान दिखाते हैं कि आधुनिक पशु‑चिकित्सा और एथोलॉजी को गंभीरता से अपनाया गया है। बड़े प्राकृतिक बाड़ों में भोजन खोजने, पेड़ों पर चढ़ने, मिट्टी खोदने और सामाजिक संपर्क जैसे व्यवहारों को प्रोत्साहित करना ‘कैद’ नहीं, बल्कि पुनर्वास की वैज्ञानिक परिकल्पना को सामने लाता है।

भारत में अंतिम डांसिंग भालू अदित का 2009 में बचाया जाना इस कुप्रथा के औपचारिक अंत का प्रतीक है, लेकिन इससे जुड़े नैतिक और नीतिगत प्रश्न यहीं समाप्त नहीं होते। क्या वन्यजीव संरक्षण केवल कानून की भाषा में सीमित रह सकता है, या उसे सामाजिक सुधार, गरीबी उन्मूलन और शिक्षा की नीतियों के साथ जोड़कर देखना अनिवार्य है?


कलंदर समुदाय में बाल विवाह पर रोक, महिलाओं के लिए सिलाई‑शिल्प केंद्र और बच्चों के लिए ट्यूशन सेंटरों से जुड़े प्रयास दिखाते हैं कि जब संरक्षण नीति समुदाय‑केंद्रित होती है, तब वह समानांतर रूप से मानवाधिकार, शिक्षा और लैंगिक न्याय के एजेंडा को भी आगे बढ़ा सकती है। 17,000 से अधिक बच्चों को शिक्षा सहायता और 4,000 से अधिक महिलाओं को कौशल प्रशिक्षण दिलाना वन्यजीव नीति को ‘सिर्फ जानवरों की नीति’ मानने की संकीर्ण दृष्टि को चुनौती देता है।



12 अक्टूबर को विश्व स्लॉथ भालू दिवस के रूप में मान्यता मिलना, और उसमें वाइल्डलाइफ एसओएस की पहल का योगदान, इस संघर्ष को वैश्विक संरक्षण विमर्श से जोड़ता है। यह दिन न केवल एक प्रजाति के संरक्षण का प्रतीक है, बल्कि उन समुदायों की भी याद दिलाता है जिन्हें नई शुरुआत देने के लिए सामाजिक‑आर्थिक हस्तक्षेप अनिवार्य थे।

भारतीय संदर्भ में यह उपलब्धि दिखाती है कि जब नागरिक समाज, राज्य और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं मिलकर काम करती हैं, तो अवैध शिकार, वन्यजीव तस्करी और मानवीय शोषण जैसी जटिल समस्याओं के भी स्थायी समाधान संभव हैं। ‘फॉरेस्ट वॉच’ जैसी एंटी‑पोचिंग इकाइयाँ यह स्पष्ट करती हैं कि केवल भालू नचाने की प्रथा खत्म कर देना काफी नहीं, अवैध शिकार की अर्थव्यवस्था पर लगातार निगरानी और कार्रवाई भी उतनी ही ज़रूरी है।

डांसिंग भालू प्रथा का अंत एक उल्लेखनीय उपलब्धि है, पर इसे सफलता की अंतिम रेखा नहीं, बल्कि एक मॉडल के रूप में देखा जाना चाहिए जिसे अन्य वन्यजीवों और समुदायों पर भी लागू किया जा सकता है। सर्कसों में जंगली जानवरों के इस्तेमाल से लेकर हाथियों, बड़े बिल्ली प्रजातियों और पक्षियों के अवैध व्यापार तक, अनेक क्षेत्र हैं जहाँ इसी तरह की समुदाय‑आधारित, वैकल्पिक आजीविका वाली योजनाएँ अपनाई जा सकती हैं।

डांसिंग भालू प्रथा के उन्मूलन से एक और महत्वपूर्ण पाठ यह मिलता है कि संरक्षण केवल संकट के समय चलाया गया अभियान नहीं, बल्कि निरंतर निगरानी और जन‑भागीदारी पर टिका लंबा राजनीतिक‑सामाजिक प्रोजेक्ट होना चाहिए। स्कूलों, मीडिया और स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के पाठ्यक्रम और कार्ययोजनाओं में वन्यजीव‑कल्याण और समुदाय‑आधारित पुनर्वास जैसे उदाहरणों को शामिल करना ज़रूरी है, ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए यह क्रूरता सिर्फ इतिहास की किताबों में दर्ज चेतावनी बनकर रह जाए, ज़मीनी हकीकत नहीं। इसी के साथ, नीति‑निर्माताओं के लिए यह एक स्पष्ट संकेत है कि जब भी किसी पारंपरिक, लेकिन अमानवीय प्रथा को समाप्त करने की बात हो, तो विकल्प, गरिमा और न्याय के बिना लागू की गई ‘प्रतिबंध‑राजनीति’ न टिकाऊ होती है, न ही नैतिक।

भारत जैसे देश में, जहाँ गरीबी, परंपरा और मनोरंजन की विकृत मांग मिलकर वन्यजीव शोषण को हवा देते हैं, डांसिंग भालू के खिलाफ संघर्ष यह सिखाता है कि संवेदना और संरचना, दोनों की ज़रूरत है – कानून की सख्ती के साथ‑साथ पुनर्वास की कोमलता भी। यह कहानी आखिरकार इस आशा को मजबूत करती है कि जब समाज निर्णय ले ले, तो सदियों पुरानी क्रूर परंपराएँ भी इतिहास बन सकती हैं और मनुष्य‑वन्यजीव संबंध अधिक न्यायपूर्ण और करुणामय दिशा में बढ़ सकते हैं। 

Monday, November 24, 2025

सेना बनाम सर्वोच्च न्यायालय बनाम मानवाधिकार

पिछले दिनों एक पोस्ट सोशल मीडिया पर तेज़ी से वायरल हुई। इस पोस्ट में सेवानिवृत्त कर्नल ए. एन. रॉय का बयान सेना के उस वर्ग की भावना को स्पष्ट करता है, जो लगातार आतंकवाद, हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता वाले इलाकों में डटा रहता है। जब सैनिक सीमाओं या कश्मीर जैसे ‘संवेदनशील क्षेत्रों’ में आतंकवाद का सामना करते हैं, तब उन्हें कुछ फैसले अक्सर सेकंडों में लेने पड़ते हैं। इसमें औपचारिकताओं के लिए समय नहीं होता। जो भी निर्णय लेना होता है वह उन सैनिकों को दिए गए प्रशिक्षण और अपने विवेक से ही लेना पड़ता है। 

इस पोस्ट ने सीधे सवाल उठाया, क्या आपने कभी अपने बेटे को खोया है? — यह व्यवस्था से उपजी पीड़ा और असंतोष की प्रामाणिक अभिव्यक्ति है। इसका मूल भाव यही है कि जब सैनिक आतंकवादी का सामना करता है, तो वह कानून या न्यायालय की व्याख्याओं से अधिक, अपने प्रशिक्षण और परिस्थिति पर ही निर्भर करता है। बाद में उस पर अभियोग या अधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगना उसे अपमानजनक महसूस होता है।


दूसरी ओर, सर्वोच्च न्यायालय की दृष्टि संविधान की मूल भावना, ‘हर नागरिक के मौलिक अधिकार’ से निर्देशित होती है। न्यायालय किसी सेना या व्यक्ति का विरोध नहीं करता, बल्कि यह सुनिश्चित करता है कि ‘राज्य की शक्ति’ जवाबदेही से परे न हो। कश्मीर या किसी अशांत क्षेत्र में नागरिकों पर अत्याचार या फर्जी मुठभेड़ों के आरोप अक्सर सामने आते हैं। यदि जांच का हक छीन लिया जाए, तो लोकतांत्रिक संस्थाओं की पारदर्शिता पर सवाल उठेंगे। न्यायालय यह नहीं कहता कि आतंकवादी को बचाया जाए, बल्कि यह मांगता है कि निर्दोष लोग आतंकवादी समझकर मारे न जाएं। यही ‘न्याय का नैतिक आधार’ है।


पोस्ट में आतंकवादियों के मानवाधिकारों को लेकर जो कटाक्ष किया गया है, वह भावनात्मक प्रतिक्रिया है। लेकिन मानवाधिकारों का सार आतंकवादी के प्रति करुणा नहीं, बल्कि बिना भेदभाव सिद्धांतों पर आधारित न्याय को सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में है। जब किसी संदिग्ध की मौत की जांच होती है, तो लक्ष्य अपराधियों को बचाना नहीं, बल्कि सत्ता के दुरुपयोग को रोकना होता है। वैश्विक संदर्भ में भी अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस जैसे देशों में वॉर क्राइम्स या एक्सेसिव फोर्स पर सवाल उठते रहे हैं। सशक्त लोकतंत्र वे हैं जो अपने संस्थानों से प्रश्न पूछने का साहस रखते हैं।

यह साफ है कि सेना को अपराधी न मानें और न्यायपालिका को देशविरोधी न कहें। दोनों राष्ट्रीय सुरक्षा और संवैधानिक निष्ठा के दो मजबूत स्तंभ हैं। समस्या तब आती है जब संवैधानिक प्रक्रिया को देश विरोधी साजिश या सैनिक कार्रवाई को न्याय की हत्या मान लिया जाता है। इससे संवाद में विघटन और अविश्वास बढ़ता है।


समुचित समाधान यही है कि सेना को ‘ऑपरेशनल प्रोटेक्शन’ मिले, ताकि तत्काल कार्रवाई में की गई गलती अपराध न माना जाए, लेकिन शक्ति का दुरुपयोग करने पर न्यायिक जांच की प्रक्रिया बनी रहे। ऐसे पोस्ट सोशल मीडिया पर राष्ट्रभक्ति की भावना को सीधा स्पर्श करते हैं। खतरा इस बात में है कि भावनाओं की लहरों में तथ्य और कानूनी सीमाओं की अनदेखी होने लगती है। न्यायपालिका, सेना और मानवाधिकार, ये विरोधी नहीं बल्कि लोकतंत्र के पूरक अंग हैं। सोशल मीडिया पर एकांगी नैरेटिव अंततः सार्वजनिक विश्वास को कमजोर करता है। 

भारत में सेना, सुप्रीम कोर्ट और मानवाधिकार को लेकर टकराव की घटनाएँ केवल हाल ही की नहीं, बल्कि देश के इतिहास में समय-समय पर सामने आई हैं। 18वीं शताब्दी में, कोलोनियल शासन के दौरान सुप्रीम कोर्ट और गवर्नर जनरल इन काउंसिल के बीच अधिकार को लेकर पहली बड़ी भिड़ंत कोसिजुरा मामला में देखने को मिली। सुप्रीम कोर्ट ने सेना का इस्तेमाल करते हुए अपनी शक्तियाँ बढ़ाने का प्रयास किया, जबकि गवर्नर जनरल इन काउंसिल ने अदालत के आदेशों को चुनौती दी और सेना को अदालत के खिलाफ तैनात कर दिया। यह विवाद बंगाल ज्यूडिकेचर एक्ट 1781 के पास होने तक चलता रहा, जिसने अदालत की सीमाएँ तय कर दीं और टकराव का अंत किया। इस मामले ने जता दिया कि अधिकारों की अस्पष्टता शक्ति संघर्ष का हमेंशा केंद्र रही है। 


1945 में आज़ाद हिंद फौज के सैनिकों पर देशद्रोह और हत्या के आरोप लगे और उन पर कोर्ट मार्शल चलाया गया। ब्रिटिश सरकार ने इन सैनिकों की गतिविधियों को किंग के खिलाफ युद्ध माना, जबकि भारतीय जनता और नेताओं ने देशभक्ति की भावना को कानूनी प्रक्रिया के विरोध में जोरदार तरीके से रखा। इस संघर्ष में अदालत के आदेशों और जनता के मानस के बीच गहरा विभाजन आया। 

नगा पीपल्स मूवमेंट बनाम भारत सरकार केस में सर्वोच्च न्यायालय में AFSPA की वैधता को चुनौती दी गई, लेकिन अदालत ने यह माना कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सेना को अतिरिक्त अधिकार देने का प्रावधान संविधान के खिलाफ नहीं। फिर भी, अदालत ने सेना के अधिकारों पर निगरानी और जवाबदेही सुनिश्चित करने के उद्देश्य से दिशानिर्देश जारी किए। इस मामले में मानवाधिकार और सैन्य अधिकार की सीमा को लेकर बड़ी बहस छिड़ी। 

2023 में मणिपुर में जातीय हिंसा के दौरान सर्वोच्च न्यायालय से सेना/पैरामिलिट्री तैनात करने की मांग की गई थी। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि ऐसे आदेश देना न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। यह कार्यकार्यपालिका का दायित्व है। बावजूद इसके, कभी-कभी अदालत ने सुरक्षा बलों की तैनाती के निर्देश दिए हैं, जैसे 2008 के ओडिशा के दंगों या 2023 के पश्चिम बंगाल पंचायत चुनावों के दौरान हुआ। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे देशों में भी कभी-कभी सेना और मानवाधिकार संस्थाओं के बीच टकराव सामने आते हैं। मगर वहीं बार-बार यह सुनिश्चित किया जाता है कि जनहित और राज्यहित के बीच संतुलन बना रहे। 

मणिपुर अथवा कश्मीर में जारी घटनाओं में, अदालत के आदेश, सेना के अधिकार और जनता का विश्वास—तीनों पहलू परस्पर टकरा सकते हैं। मगर, लोकतंत्र की खूबसूरती इनमें संतुलन बनाना और संवाद की प्रक्रिया में सही समाधान ढूंढना ही होना चाहिए। जरूरत इसी बात की है कि अतीत के अनुभवों से सीखकर, आज के तात्कालिक विवादों को अंधी भावनाओं के बजाय गहन विश्लेषण और खुले संवाद द्वारा हल किया जाए। संविधान की साझा जिम्मेदारी मानते हुए सुरक्षा और अधिकार दोनों के बीच संतुलन जरूरी है। संवाद के बिना, नफरत और अविश्वास बढ़ते हैं। सेना का आत्मसम्मान वही रख सकेगा, जो न्यायपालिका पर भरोसा रखे और न्यायपालिका वही सम्मान पाएगी जो सैनिक के त्याग को समझ सके। इसीलिए, सवाल पूछना गलत नहीं है लेकिन, एक दूसरे पर दोषारोपण करना लोकतंत्र के लिए रचनात्मक नहीं। 

Monday, November 17, 2025

क्यों नहीं रुकते आतंकी हमले ?

एक बार फिर आतंकवादी हमलों ने देश की राजधानी दिल्ली को दहला दिया। लाल क़िले के भीड़ भरे इलाक़े में ये जानलेवा विस्फोट उस साज़िश से कहीं कम थे जो पूरी दिल्ली को दहलाने के लिए रची गई थी। इन आतंकी हमलों के पीछे पढ़े लिखे ऐसे लोग शामिल हैं जिनसे ऐसी वैशियाना हरकत की उम्मीद नहीं की जा सकती। प्रश्न है कि जब देश की सुरक्षा एजेंसियां हर समय अपने पंजों पर रहती हैं उसके बावजूद भी देश की राजधानी जो कि सुरक्षा के लिहाज़ से काफ़ी मुस्तैद मानी जाती है, वहाँ पर इतनी भारी मात्रा विस्फोटक सामग्री लेकर एक आतंकी कैसे घूम रहा था? कैसे इन विस्फोटक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पहुंचा? हमारी रक्षा और गृह मंत्रालय की खुफिया एजेंसियां  क्या कर रही थी?

इन हमलों से सारा देश हतप्रभ है पहलगाम में हुई आतंकवादी वारदात के छह महीने बाद ही ये दूसरा बड़ा झटका लगा है। सवाल उठता है कि देश में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाए? हमारा देश ही नहीं दुनिया के तमाम देशों का आतंकवाद के विरुद्ध इकतरफा साझा जनमत है। ऐसे में सरकार अगर कोई ठोस कदम उठाती है, तो देश उसके साथ खड़ा होगा। उधर तो हम सीमा पर लड़ने और जीतने की तैयारी में जुटे रहें और देश के भीतर आईएसआई के एजेंट आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहें तो यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। मैं पिछले 30 वर्षों से अपने लेखों में लिखता रहा हूं कि देश की खुफिया एजेंसियों को इस बात की पुख्ता जानकारी है कि देश के 350 से ज्यादा शहरों और कस्बों की सघन बस्तियों में आरडीएक्स, मादक द्रव्यों और अवैध हथियारों का जखीरा जमा हुआ है जो आतंकवादियों के लिए रसद पहुँचाने का काम करता है। प्रधान मंत्री को चाहिए कि इसके खिलाफ एक ‘आपरेशन क्लीन स्टार’ या ‘अपराधमुक्त भारत अभियान’ की शुरुआत करें और पुलिस व अर्धसैनिक बलों को इस बात की खुली छूट दें जिससे वे इन बस्तियों में जाकर व्यापक तलाशी अभियान चलाएं और ऐसे सारे जखीरों को बाहर निकालें।



गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली में हुए धमाके के बाद अपने बयान में यह साफ कहा कि आतंकियों को ऐसा सबक सिखाया जाएगा कि पूरी दुनिया देखेगी। उल्लेखनीय है कि कश्मीर के खतरनाक आतंकवादी संगठन ‘हिजबुल मुजाईदीन’ को दुबई और लंदन से आ रही अवैध आर्थिक मदद का खुलासा 1993 में मैंने ही अपनी विडियो समाचार पत्रिका ‘कालचक्र’ के 10वें अंक में किया था। इस घोटाले की खास बात यह थी कि आतंकवादियों को मदद देने वाले स्रोत देश के लगभग सभी प्रमुख दलों के बड़े नेताओं और बड़े अफसरों को भी यह अवैध धन मुहैया करा रहे थे। इसलिए सीबीआई ने इस कांड को दबा रखा था। घोटाला उजागर करने के बाद मैंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और आतंकवादियों को आ रही आर्थिक मदद के इस कांड की जांच करवाने को कहा।



सर्वोच्च अदालत ने मेरी मांग का सम्मान किया और भारत के इतिहास में पहली बार अपनी निगरानी में इस कांड की जांच करवाई। बाद में यही कांड ‘जैन हवाला कांड’ के नाम से मशहूर हुआ। जिसने भारत की राजनीति में भूचाल ला दिया। पर मेरी चिंता का विषय यह है कि इतना सब होने पर भी इस कांड की ईमानदारी से जांच आज तक नहीं हुई और यही कारण है कि आतंकवादियों को हवाला के जरिये, पैसा आना जारी रहा और आतंकवाद पनपता रहा।



उन दिनों हॉंगकॉंग से ‘फार ईस्र्टन इकोनोमिक रिव्यू’ के संवाददाता ने ‘हवाला कांड’ पर मेरा इंटरव्यू लेकर कश्मीर में तहकीकात की और फिर जो रिर्पोट छपी, उसका निचोड़ यह था कि आतंकवाद को पनपाए रखने में बहुत से प्रभावशाली लोगों के हित जुड़े हैं। उस पत्रकार ने तो यहां तक लिखा कि कश्मीर में आतंकवाद एक उद्योग की तरह है। जिसमें बहुतों को मुनाफा हो रहा है।


उसके दो वर्ष बाद जम्मू के राजभवन में मेरी वहाँ के तत्कालीन राज्यपाल गिरीश सक्सैना से चाय पर वार्ता हो रही थी। मैंने उनसे आतंकवाद के बारे में पूछा, तो उन्होंने अंग्रेजी में एक व्यग्यात्मक टिप्पणी की जिसका अर्थ था कि मुझे ‘घाटी के आतंकवादियों’ की चिंता नहीं है, मुझे ‘दिल्ली के आतंकवादियों’ से परेशानी है। अब इसके क्या मायने लगाए जाए?



आतंकवाद को रसद पहुंचाने का मुख्य जरिया है हवाला कारोबार। अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के तालिबानी हमले के बाद से अमरीका ने इस तथ्य को समझा और हवाला कारोबार पर कड़ा नियन्त्रण कर लिया। नतीजतन तब से आज तक वहां आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुइ। जबकि भारत में हवाला कारोबार बेरोकटोक जारी है। इस पर नियन्त्रण किये बिना आतंकवाद की श्वासनली को काटा नहीं जा सकता। एक कदम संसद को उठाना है, ऐसे कानून बनाकर जिनके तहत आतंकवाद के आरोपित मुजरिमों पर विशेष अदालतों में मुकदमे चला कर 6 महीनों में सजा सुनाई जा सके। जिस दिन मोदी सरकार ये 3 कदम उठा लेगी उस दिन से भारत में आतंकवाद का बहुत हद तक सफाया हो जाएगा।


ये चिंता का विषय है कि तमाम दावों और आश्वासनों के बावजूद पिछले चार दशक में कोई भी सरकार आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर उपाय कर नहीं पायी है। हर देश के नेता आतंकवाद को व्यवस्था के खिलाफ एक अलोकतांत्रिक हमला मानते रहे हैं और बेगुनाह नागरिकों की हत्याओं के बाद यही कहते रहे हैं कि आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। पर कई दशक बीत जाने के बाद भी विश्व में आतंकवाद के कम होने या थमने का कोई लक्षण हमें दिखाई नहीं देता।


नए हालात में जरूरी हो गया है कि आतंकवाद के बदलते स्वरुप पर नए सिरे से समझना शुरू किया जाए। हो सकता है कि आतंकवाद से निपटने के लिए बल प्रयोग ही अकेला उपाय न हो। क्या उपाय हो सकते हैं उनके लिए हमें शोधपरख अध्ययनों की जरूरत पड़ेगी। अगर सिर्फ 70 के दशक से अब तक यानी पिछले 40 साल के अपने सोच विचारदृष्टि अपनी कार्यपद्धति पर नजर डालें तो हमें हमेशा तदर्थ उपायों से ही काम चलाना पड़ा है। इसका उदाहरण कंधार विमान अपहरण के समय का है जब विशेषज्ञों ने हाथ खड़े कर दिए थे कि आतंकवाद से निपटने के लिए हमारे पास कोई सुनियोजित व्यवस्था ही नहीं है।

यदि विश्वभर के शीर्ष नेतृत्त्व एकजुट होकर कुछ ठोस कदम उठाऐं, तो उम्मीद है कि हम आतंकवाद के साथ भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, शोषण और बेरोजगारी जैसी समस्याओं का भी समाधान पा लें। देश इस समय गंभीर हालत से गुजर रहा है। मातम की इस घड़ी में रोने के बजाए सीमा सुरक्षा पर गिद्धदृष्टि और दोषियों को कड़ा जबाब देने की कार्यवाही की जानी चाहिए। पर ये भी याद रहे कि हम जो भी करें, वो दिलों में आग और दिमाग में बर्फ रखकर करें। 

Monday, November 10, 2025

सुप्रीम कोर्ट का आदेश और आवारा कुत्तों की समस्या!

भारत में आवारा कुत्तों की समस्या एक जटिल सामाजिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दा रही है। बीते शुक्रवार को  सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश जारी किया है जिसमें रेलवे स्टेशनों, अस्पतालों, स्कूलों सहित अन्य सार्वजनिक स्थलों से आवारा कुत्तों को तुरंत हटाने और उन्हें नसबंदी, टीकाकरण के बाद निश्चित आश्रमों में स्थानांतरित करने का निर्देश दिया गया है। साथ ही कोर्ट ने साफ किया है कि इन कुत्तों को उनकी मूल जगह वापस नहीं छोड़ा जाएगा, ताकि इन सार्वजनिक स्थलों से उनकी उपस्थिति खत्म हो सके। यह फैसला भारत में आवारा कुत्तों से जुड़ी बढ़ती समस्या, जैसे कि कुत्ते के काटने की घटनाओं में वृद्धि को देखते हुए लिया गया है। 

सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की बेंच ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि सभी राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय दो सप्ताह के अंदर सभी सरकारी और निजी स्कूलों, अस्पतालों, रेलवे स्टेशनों, बस स्टैंड आदि की पहचान करें जहां आवारा कुत्ते उपस्थित हैं। इसके बाद स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी होगी कि वे इन कुत्तों को पकड़कर सुरक्षित आश्रमों में स्थानांतरित करें, जहां उन्हें न सिर्फ नसबंदी और टीकाकरण दिया जाएगा, बल्कि उनकी देखभाल भी सुनिश्चित की जाएगी। कोर्ट ने यह भी चेतावनी दी है कि यदि कोई व्यक्ति या संगठन इस कार्रवाई में बाधा डालता है तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। यह आदेश 13 जनवरी 2026 को समीक्षा के लिए पुनः लाया जाएगा।


जानवर प्रेमियों और पशु अधिकार संगठनों ने इस आदेश पर व्यापक असंतोष जताया है। उनका कहना है कि इस तरह के आदेश से कुत्तों के प्रति चिंता और संरक्षण कम हो सकता है। कई संगठन इस बात पर जोर देते हैं कि नसबंदी और टीकाकरण के बाद कुत्तों को उनके मूल क्षेत्र में ही जारी रखना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से इलाके में कुत्तों की आबादी नियंत्रित रहती है और कुत्तों के व्यवहार पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वे पशु कल्याण बोर्ड के पुराने सुझावों का हवाला देते हैं, जिनमें कहा गया है कि आवारा कुत्तों का पुनः उनके क्षेत्र में छोड़ना बेहतर तरीका है न कि उन्हें जोर जबरदस्ती आश्रमों में बंद करना। कई जानवर प्रेमी और समाजसेवी समूह आशंकित हैं कि इस कदम से आवारा कुत्तों की संख्या और व्यवहार संबंधी समस्याएँ बढ़ सकती हैं।

पशु प्रेमी, जो जानवरों के कल्याण के प्रति संवेदनशील होते हैं, उन्हें इस निर्णय को एक सकारात्मक कदम के रूप में देखना चाहिए। यह आदेश केवल कुत्तों को सार्वजनिक स्थानों से हटाने की बात नहीं करता, बल्कि उनके लिए एक सुरक्षित और मानवीय वातावरण प्रदान करने पर भी जोर देता है। नसबंदी और टीकाकरण जैसे कदम न केवल कुत्तों की आबादी को नियंत्रित करेंगे, बल्कि उनके स्वास्थ्य को भी बेहतर बनाएंगे। सड़कों पर रहने वाले कुत्ते अक्सर भोजन, पानी और चिकित्सा सुविधाओं की कमी से जूझते हैं, जिसके कारण वे आक्रामक हो सकते हैं। आश्रय स्थलों में उन्हें नियमित भोजन, चिकित्सा देखभाल और सुरक्षित स्थान मिलेगा, जो उनके जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाएगा।


वहीं सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए सरकार को कई महत्वपूर्ण कदम उठाने होंगे। यदि इसे सही ढंग से अमल में लाया जाए तो यह पूरे देश के लिए एक मॉडल बन सकता है। केवल दिल्ली में अनुमानित 10 लाख आवारा कुत्तों को देखते हुए, इसे अमल करना एक चुनौती हो सकती है। सरकार को बड़े पैमाने पर आधुनिक आश्रय स्थल बनाने होंगे, जो स्वच्छता, भोजन और चिकित्सा सुविधाओं से सुसज्जित हों। इन आश्रय स्थलों में पशु चिकित्सकों और प्रशिक्षित कर्मचारियों की नियुक्ति आवश्यक है।

पशु प्रेमियों की मानें तो इस आदेश जारी करते समय कुछ सावधानियों और वैकल्पिक उपायों पर विचार किया जाना आवश्यक था जैसे: स्थानीय आश्रमों की संख्या, संसाधन और देखभाल क्षमता का आकलन, कुत्तों की संख्या नियंत्रित करने के लिए आम लोगों में जागरूकता और सामाजिक समन्वय, नसबंदी और टीकाकरण के बाद ही कुत्तों को उनके इलाके में छोड़ने की नीति, कुत्तों के प्रति मानवीय व्यवहार सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक शिक्षा, पशु अधिकार समूहों, नगर निगम और प्रशासन के बीच संवाद और सहयोग को बढ़ावा।

भारत में आवारा कुत्तों की संख्या बहुत अधिक है, और प्रबंधन के लिए अलग-अलग राज्यों में ABC (Animal Birth Control) नियम चलाए जाते हैं, जिसमें नसबंदी, टीकाकरण और पुनः छोड़ना शामिल है। उदाहरण स्वरूप, जयपुर और गोवा जैसे शहरों ने इस विधि से कुत्तों से होने वाली बीमारियों को काफी हद तक नियंत्रण में रखा है।

दूसरी ओर, विश्व के कई देशों ने भी अपनी-अपनी रणनीतियाँ अपनायी हैं: सिंगापुर में सरकारी निकाय द्वारा कुत्तों को पकड़कर नसबंदी और टीकाकरण के बाद या तो पुनः छोड़ दिया जाता है या फिर उनका पुनर्वास किया जाता है, तुर्की के इस्तांबुल में मोबाइल वेटरनरी क्लीनिक और सार्वजनिक फीडिंग स्टेशन बनाए गए हैं, जिससे कुत्तों का प्रबंधन प्रभावी ढंग से हो रहा है, भूटान में 2023 में 100% आवारा कुत्तों की नसबंदी का लक्ष्य हासिल किया गया, रोमानिया में कुत्तों की संख्या नियंत्रित करने के लिए नसबंदी पर जोर दिया गया है, साथ ही सार्वजनिक प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुए कुत्तों की हत्या से बचा गया है। 

उल्लेखनीय है कि दुनिया भर में केवल नीदरलैंड ही एक ऐसा देश है जहां पर आपको आवारा कुत्ते नहीं मिलेंगे। नीदरलैंड सरकार ने एक अनूठा नियम लागू किया। किसी भी पालतू पशु की दुकान से ख़रीदे गये महेंगी नसल के कुत्तों पर वहाँ की सरकार भारी मात्रा में टैक्स लगती है। वहीं दूसरी ओर यदि कोई भी नागरिक इन बेघर पशुओं को गोद लेकर अपनाता है तो उसे आयकर में छूट मिलती है। इस नियम के लागू होते ही लोगों ने अधिक से अधिक बेघर कुत्तों को अपनाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे नीदरलैंड की सड़कों व मोहल्लों से आवारा कुत्तों की संख्या घटते-घटते बिलकुल शून्य हो गई।

ये मॉडल भारत के लिए भी प्रासंगिक हैं, जहाँ मानवीय और वैज्ञानिक तरीके से आवारा कुत्तों की संख्या नियंत्रित करना अत्यंत आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश आवारा कुत्तों की समस्या पर कड़ा कदम है, लेकिन इसके अमल में स्थानीय प्रशासन, जानवर प्रेमी और स्थानीय समुदाय के बीच सामंजस्य और समझ जरूरी है। आवारा कुत्तों को हटाने के बजाय उन्हें स्थायी और मानवीय तरीके से नियंत्रित करने के लिए बेहतर नीतियों और जागरूकता की आवश्यकता है, ताकि न सिर्फ इंसानी सुरक्षा सुनिश्चित हो बल्कि पशु कल्याण भी बना रहे। भारत जैसे बहु-आयामी सामाजिक परिवेश में आवारा कुत्तों की समस्या का समाधान सामूहिक और संवेदनशील दृष्टिकोण से ही संभव है। इस लिहाज से यह आवश्यक होगा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ पशु अधिकार संगठनों और स्थानीय निकायों की मदद से ऐसे उपाय किए जाएं, जो दोनों पक्षों के हित में हों और आवारा कुत्तों का हानिरहित प्रबंधन सुनिश्चित करें।   

Monday, November 3, 2025

चुनावी मौसम में पत्रकारों का कर्तव्य

भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी जनता है और इस जनता की आवाज़ बनने का दायित्व पत्रकारों पर है। चुनाव वह समय होता है जब यह शक्ति सबसे अधिक सक्रिय होती है, जब जनता अपने मत से आने वाले पाँच वर्षों की दिशा तय करती है। ऐसे निर्णायक समय में मीडिया की भूमिका केवल सूचना देने तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह एक प्रहरी यानी ‘वॉचडॉग’ की भूमिका निभाता है। दुर्भाग्य से, आज के परिदृश्य में कई बार यह प्रहरी सार्वजनिक हित का रक्षक बनने के बजाय सत्ता या किसी दल का प्रचारक बनता दिखता है। यही वह विमर्श है जिस पर विचार होना चाहिए, कि पत्रकारों और एंकरों को क्यों और कैसे अपनी मूल भूमिका निभानी चाहिए, न कि पीआर (पब्लिक रिलेशन) पेशेवर बन जाना चाहिए।

पत्रकारिता का मूल उद्देश्य हमेशा सत्य का अन्वेषण रहा है। पत्रकार न तो किसी नेता के समर्थक होते हैं, न विरोधी, वे केवल जनता के प्रतिनिधि हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रेस का काम जनता को सरकार की भूलों से सतर्क करना है, सरकार का मुखपत्र बनना नहीं। जब चुनाव आते हैं, तो यही भूमिका और भी संवेदनशील हो जाती है क्योंकि इस समय जनता को सूचित निर्णय लेने के लिए निष्पक्ष जानकारी चाहिए होती है। यदि मीडिया इस समय भ्रम फैलाए या किसी पक्ष के प्रचार का माध्यम बने, तो लोकतंत्र की आत्मा को आघात पहुँचता है।


पत्रकारिता एक सार्वजनिक सेवा है, जबकि पीआर एक निजी हित का कारोबार। दोनों के स्वरूप में मूलभूत अंतर है। जहाँ पत्रकारिता का उद्देश्य सत्य और पारदर्शिता है, वहीं पीआर का उद्देश्य छवि निर्माण होता है, और वह भी किसी व्यक्ति या संगठन के हित में। जब कोई पत्रकार या एंकर अपने मंच का उपयोग किसी नेता की छवि चमकाने या विरोधी को बदनाम करने के लिए करता है, तो वह पत्रकार नहीं, पीआर एजेंट बन जाता है। यह स्थिति न केवल उसकी पेशेवर आचारसंहिता का उल्लंघन करती है, बल्कि जनता के साथ विश्वासघात भी है।

चुनाव कवरेज अक्सर टीआरपी की होड़ में सनसनीखेज रूप ले लेता है। लेकिन वास्तविक पत्रकारिता की परीक्षा इसी समय होती है जब दबाव हो, आकर्षण हो और फिर भी कोई पत्रकार निष्पक्ष रह पाए। पत्रकारों को चाहिए कि वे चुनावी खबरों में तथ्यों की पुष्टि करें, उम्मीदवारों के वादों की जांच करें और जनता से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखें, न कि केवल रैलियों की भीड़ या विवादों की गहमागहमी को।

एंकरों के लिए भी यह समय आत्म-संयम का होता है। उनसे अपेक्षा है कि वे मंच पर दोनों पक्षों को बराबर अवसर दें, तर्क पर तर्क से जवाब लें और चुनावी बहस को ‘शोर’ नहीं बल्कि ‘संवाद’ में बदलें। पत्रकारों व एंकरों का उद्देश्य दर्शकों को किसी दल की मनोवैज्ञानिक दिशा में मोड़ना नहीं, बल्कि उन्हें सोचने के लिए प्रेरित करना होना चाहिए।


लोकतंत्र में पत्रकार सत्ता का संतुलन बनाए रखने वाले चौथे स्तंभ का प्रतिनिधि है। चुनाव काल में जब राजनीतिक दल वादों की बाढ़ लाते हैं, तब मीडिया का दायित्व है कि वह इन वादों की जांच करे। कौन से वादे व्यवहारिक हैं, कौन से केवल भाषणों की सजावट। इसके अलावा, मीडिया को यह भी देखना चाहिए कि क्या चुनावी प्रक्रिया पारदर्शी है? क्या प्रशासन और चुनाव आयोग निष्पक्ष हैं? क्या मतदाता को स्वतंत्र रूप से वोट डालने का अवसर मिल रहा है? यदि पत्रकार यह निगरानी न करें, तो सत्ता और धनबल का उपयोग करके जनमत को गुमराह करने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसे में पत्रकार ही वह दीवार है जो जनतंत्र को ‘विज्ञापनतंत्र’ बनने से बचा सकती है। 


सच्चा पत्रकार अपनी राय ज़रूर रख सकता है, लेकिन उसे तथ्यों की सत्यता से कभी समझौता नहीं करना चाहिए। उसे चाहिए कि वह हर रिपोर्ट में स्रोत स्पष्ट करे, हर दावा परखे और किसी भी राजनीतिक संदेश को प्रसारित करने से पहले उसकी विश्वसनीयता सुनिश्चित करे। पत्रकारिता में ‘निष्पक्षता’ का अर्थ यह नहीं कि सबकी बात एक समान मानी जाए, बल्कि यह कि सच्चाई के प्रति वफ़ादारी रखी जाए, चाहे वह सत्ता के खिलाफ़ हो या विपक्ष के।

एंकरों को भी समझना होगा कि उनका मंच और चैनल एक भरोसे का प्रतीक है। यदि वे उसी मंच से किसी विशेष पार्टी के प्रवक्ता बन जाएँ, तो वह भरोसा टूट जाता है। ट्रोल्स के प्रभाव, कॉर्पोरेट दबाव और राजनीतिक समीकरणों के बीच संतुलन बनाए रखना कठिन अवश्य है, पर यही कठिनाई पत्रकारिता को सम्मान दिलाती है।


आज के युग में सोशल मीडिया ने सूचना का लोकतंत्रीकरण किया है, लेकिन अफवाहों और आधी सच्चाईयों के प्रसार का खतरा भी बढ़ा है। इस वातावरण में टीवी और प्रिंट मीडिया के पत्रकारों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। उन्हें चाहिए कि वे त्वरित सुर्खियों से आगे बढ़कर पड़ताल करें, डेटा और दस्तावेज़ों पर आधारित रिपोर्ट तैयार करें और जनता को यह सिखाएँ कि सच्ची खबर कैसे पहचानी जाए। यदि पत्रकार भी सिर्फ़ ट्रेंड या वायरल वीडियो के पीछे भागने लगे, तो वह समाज को जागरूक नहीं बल्कि भ्रमित करेगा।

आज चुनाव के मौसम में पत्रकारों को आत्ममंथन की ज़रूरत है। क्या वे अपनी रिपोर्टों से जनता को सशक्त बना रहे हैं या किसी राजनीतिक पार्टी या कॉर्पोरेट घराने के एजेंडे को मज़बूत कर रहे हैं? क्या उनके सवाल जनता के प्रश्न हैं या टीआरपी के लिए रचे गए नाटक? लोकतंत्र तभी सुरक्षित रहेगा जब पत्रकार अपने पेशे की आत्मा को जिंदा रखेंगे।  जब वे सत्ता से नहीं, बल्कि जनता से डरेंगे। ‘वॉचडॉग’ बनने का अर्थ है सत्ता पर निगाह रखना, अन्याय पर सवाल करना और जनता के अधिकारों की रक्षा करना। चुनाव चाहे लोकसभा का हो या नगरपालिका का, मीडिया का धर्म एक ही है: सच दिखाना, पूरी ईमानदारी से, चाहे किसी को असुविधा ही क्यों न हो।

पत्रकारिता केवल करियर नहीं, बल्कि लोकसेवा का माध्यम है। यदि पत्रकार और एंकर इस आत्मा को पहचान लें और चुनावी मौसम में पीआर के प्रभाव से ऊपर उठकर तटस्थ प्रहरी बनें, तो लोकतंत्र की नींव और अधिक मजबूत होगी। जनमत जागरूक होगा, सत्ता जवाबदेह बनेगी और भारत की लोकतांत्रिक परंपरा सच्चे अर्थों में सशक्त होगी। 

Monday, October 27, 2025

बिहार चुनाव: एक नया मोड़ या वही राह?

बिहार की राजनीति हमेशा से प्रयोगों, व्यक्तित्वों और गठबंधनों की धरती रही है। यहाँ सत्ता तक पहुँचने का रास्ता सिर्फ वोटों से नहीं, बल्कि समाजिक समीकरणों, जातीय गणित और जनभावनाओं से होकर गुजरता है। अब जब 2025 के विधानसभा चुनावों की दस्तक हो चुकी है, पूरा देश बिहार की ओर देख रहा है। यह चुनाव न केवल राज्य की राजनीति को बल्कि राष्ट्रीय समीकरणों को भी प्रभावित करने की क्षमता रखता है। 

इस बार मुकाबला दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण इसलिए है क्योंकि मैदान में तीन धाराएँ साफ तौर पर दिखाई दे रही हैं। ‘इंडिया’ गठबंधन, जिसमें मुख्य भूमिका में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) है। एनडीए, जिसमें जनता दल (यू) के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फिर एक बार केंद्र में हैं। वहीं, तेजी से उभरती शक्ति के रूप में प्रशांत किशोर का ‘जन सुराज अभियान’।


राजद की अगुवाई वाला ‘इंडिया’ गठबंधन इस चुनाव को अपनी साख बचाने के साथ-साथ केंद्र की राजनीति पर असर डालने के अवसर के रूप में देख रहा है। तेजस्वी यादव पिछले कुछ वर्षों में अपनी राजनीतिक परिपक्वता दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, चाहे वह बेरोजगारी का मुद्दा हो, युवाओं से संवाद हो या नीतीश सरकार की नीतियों की कड़ी आलोचना। 


राजद के पास एक ठोस सामाजिक आधार है, लेकिन उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती विश्वसनीयता की है। भ्रष्टाचार के पुराने मामलों और शासन की यादें आज भी मतदाताओं के दिमाग में ताजा हैं। कांग्रेस, वामदलों और अन्य सहयोगियों के बीच सीट बँटवारे को लेकर संभावित खींचतान भी गठबंधन की मजबूती पर सवाल उठाती है।फिर भी, तेजस्वी का युवा जोश और उनके प्रचार की डिजिटल समझबूझ उन्हें पहले से अलग बनाती है। ‘इंडिया’ गठबंधन यह भलीभाँति जानता है कि अगर बिहार में उसकी पकड़ मजबूत होती है, तो यह 2029 के लोकसभा समीकरणों में एक नई ऊर्जा भर सकता है।

एनडीए का चेहरा इस बार भी नीतीश कुमार ही हैं, जिनका राजनीतिक अनुभव किसी परिचय का मोहताज नहीं। वे सात बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं, लेकिन अब जनता उनसे बदलाव की बजाय जवाब चाहती है। उनकी सबसे बड़ी ताकत रही है साफ़ छवि और साझा सामाजिक आधार। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि पिछले कुछ सालों में उनके राजनीतिक पलटवारों, कभी महागठबंधन में, कभी एनडीए में आने-जाने ने उनकी विश्वसनीयता को काफ़ी कमजोर किया है।


भाजपा, जो एनडीए की दूसरी बड़ी ताकत है, नीतीश के साथ रहते हुए भी अपने संगठन को बढ़ाने की कोशिश कर रही है। उसे यह अंदाज़ा है कि बिहार में अगर उसे भविष्य में स्वतंत्र रूप से मज़बूत होना है, तो नीतीश के बाद का दौर भी ध्यान में रखना होगा। यही कारण है कि भाजपा अब स्थानीय नेताओं को उभारने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के सहारे मैदान को अपने पक्ष में करने की योजना पर काम कर रही है।

एनडीए का सबसे बड़ा फायदा यह है कि उसके पास वोटों का एक स्थिर कोर आधार है और शासन की निरंतरता की छवि बनी हुई है। लेकिन एंटी-इनकम्बेंसी, बेरोजगारी और ग्रामीण ढाँचों में ठहराव जैसे मुद्दे उनके लिए सिरदर्द बन सकते हैं।

बिहार के इस राजनीतिक त्रिकोण में सबसे दिलचस्प और नया पैदा हुआ  कारक हैं प्रशांत किशोर (पीके)। उन्होंने रणनीतिकार से जननेता बनने की जो यात्रा शुरू की, वह अब निर्णायक दौर में पहुँची है। उनका जन सुराज अभियान पिछले दो वर्षों से गाँव-गाँव में सक्रिय रहा है। वे न तो स्वयं को किसी पारंपरिक पार्टी की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं और न किसी गठबंधन का हिस्सा हैं। उनका संदेश सीधा है — "सिस्टम को बदलने के लिए राजनीति में साफ और नई सोच लानी होगी।" प्रशांत किशोर का यह प्रयोग बिहार की राजनीति की जमीनी सच्चाई को चुनौती देता है। वे युवाओं और शिक्षित तबके में धीरे-धीरे एक विकल्प के रूप में उभर रहे हैं।

हालाँकि यह कहना जल्दबाजी होगी कि वे बड़े पैमाने पर सीटें जीतेंगे, लेकिन उनका प्रभाव दो स्तरों पर होगा। वोट कटवा असर: कई क्षेत्रों में वे परंपरागत दलों का समीकरण बिगाड़ सकते हैं। विचारधारात्मक बदलाव: उनकी राजनीति भ्रष्टाचार विरोधी और विकास-केंद्रित विमर्श को चुनावी बहस के केंद्र में ला रही है। अगर उनका अभियान थोड़ा भी जनसमर्थन जुटाने में सफल रहता है, तो यह बिहार में तीसरी शक्ति के उदय की भूमिका लिख सकता है। 

गौरतलब है कि बिहार की राजनीति बिना जातीय समीकरणों के समझी ही नहीं जा सकती। यादव, कुशवाहा, भूमिहार, राजपूत और मुसलमानों के बीच सामंजस्य और टकराव हमेशा परिणामों को प्रभावित करते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में एक नया सामाजिक तबका, युवा और प्रवासी मजदूर वर्ग, निर्णायक बनकर उभर रहा है।

प्रशासन, कृषि संकट, रोजगार और शिक्षा की स्थिति इस बार मुख्य मुद्दे होंगे। डिजिटल मीडिया और सोशल प्लेटफॉर्मों के उदय ने इस बार चुनावी प्रचार के तरीके को भी बदल दिया है। अब गाँवों तक व्हाट्सऐप समूह और सोशल अभियानों के माध्यम से राजनीतिक विमर्श पहुँच रहा है और यहाँ पर प्रशांत किशोर जैसे नेताओं की रणनीतिक क्षमता का उन्हें फायदा हो सकता है।

इस चुनाव की सबसे बड़ी बहस विकास बनाम विश्वसनीयता की होगी। नीतीश कुमार कहेंगे कि उन्होंने राज्य को बुनियादी ढाँचे और शासन में सुधार दिया, जबकि विरोधी पक्ष यह पूछेगा कि इतने वर्षों में युवाओं के लिए अवसर क्यों नहीं बढ़े। तेजस्वी यादव रोजगार और सामाजिक न्याय का नारा देंगे; भाजपा मोदी के नाम और केंद्रीय योजनाओं की बदौलत वोट जुटाने की कोशिश करेगी और प्रशांत किशोर नई राजनीति की बात करेंगे। नतीजतन, यह चुनाव किसी एक मुद्दे या व्यक्ति पर निर्भर नहीं रहेगा — बल्कि यह आस्था, असंतोष और आकांक्षा के मिश्रण से तय होगा।

बिहार के 2025 के चुनाव इसलिए रोचक हैं क्योंकि तीन पीढ़ियाँ और तीन दृष्टिकोण आमने-सामने हैं। नीतीश कुमार, जिनकी राजनीति स्थिरता और अनुभवी शासन का प्रतीक है। तेजस्वी यादव, जो परिवर्तन और युवा आकांक्षाओं के वाहक हैं। प्रशांत किशोर, जो मौजूदा राजनीति को बदलने की चुनौती दे रहे हैं। यह चुनाव यह तय करेगा कि बिहार पुरानी राजनीति की सीमाओं में रहेगा या सोच के नए अध्याय की ओर कदम बढ़ाएगा। चाहे परिणाम कुछ भी हो, इतना तो तय है कि इस बार बिहार का जनादेश केवल सरकार नहीं, बल्कि देश की  राजनीति की दिशा भी तय करेगा। 

Monday, October 20, 2025

धरातल पर कैसे उतरे ‘स्वदेशी’ आंदोलन?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधनों में ‘वोकल फॉर लोकल’ और ‘हर घर स्वदेशी’ की अपील के जरिए आम जनता से भारतीय वस्तुओं को अपनाने का आग्रह किया है। इसका उद्देश्य आर्थिक आत्मनिर्भरता, देशी उद्योगों व रोजगार बढ़ाना और भारत के आर्थिक स्वावलंबन की दिशा में एक मजबूत कदम उठाना है। इस अभियान के ज़रिए  देशभर में युवाओं, महिलाओं, व्यापारियों सहित सभी वर्गों को जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। जिसमें 20,000 से अधिक ‘आत्मनिर्भर भारत संकल्प अभियान’, 1,000 से ज्यादा मेले और 500 ‘संकल्प रथ’ यात्राएँ आयोजित  करने का भाजपा का कार्यक्रम है। 

भाजपा और संघ के कार्यकर्ता इन दिनों इस ‘स्वदेशी’ अभियान को मजबूती से आगे बढ़ाने में जुटे हैं। अगले तीन महीने में वे लोगों को भारतीय उत्पादों को प्राथमिकता देने के लिए प्रेरित करेंगे। जिससे आज़ादी के आंदोलन में महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए स्वदेशी व स्वावलंबन के ऐतिहासिक अभियान को फिर से स्थापित किया जा सके।


इसी क्रम में पिछले दिनों एक दिवाली मेले के दौरान दक्षिण दिल्ली के महरौली और वसंत कुंज क्षेत्र के बीजेपी विधायक गजेंद्र यादव ने उपस्थित जन समुदाय से स्वदेशी को अपनाने की अपील की। विडंबना देखिए कि जिस मंच से श्री यादव पूरी गंभीरता से ये अपील कर रहे थे उसी मंच के सामने, मेले के आयोजकों ने, चीन के बने खिलौनों की दुकानें सजा रखी थीं और विदेशी कारों के दो मॉडलों को इस मेले में बिक्री के लिए रखवाया हुआ था। आम जीवन में ऐसा विरोधाभास हर जगह देखने को मिलेगा। क्योंकि पिछले चार दशकों में शहरी भारतवासी अपने दैनिक जीवन में ढेरों विदेशी उत्पाद प्रयोग करने का आदि हो चुका है। फिर भी बीजेपी का हर सांसद, विधायक और कार्यकर्ता इस अभियान को उत्साह से चला रहा है। उनका ये प्रयास सही भी है क्योंकि दीपावली पर देश भर के हिंदुओं द्वारा भारी मात्र में खरीदारी की जाती है। पिछले दो दशकों से क्रमशः चीनी माल ने भारत के बाजारों को अपने उत्पादनों से पाट दिया है। 


दीवाली पर लक्ष्मी पूजन के लिए गणेश-लक्ष्मी जी के विग्रह अब चीन से ही बन कर आते हैं। पटाखे और बिजली की लड़ियाँ भी अब चीन से ही आती हैं। इसी तरह राखियां, होली के रंग पिचकारी, जन्माष्टमी के लड्डू गोपाल व अन्य देवताओं के विग्रह भी वामपंथी चीन बना कर भेज रहा है, जो भगवान के अस्तित्व को ही नकारता हैं। ये कितनी शर्म और दुर्भाग्य की बात है। इससे हमारे कारीगरों और दुकानदारों के पेट पर गहरी लात पड़ती है। उधर अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा लागू की गयीं बेहूदा आयात शुल्क दरों को देखकर भी हमें जागना होगा । हमें अपने उपभोग के तरीकों को बदलना होगा। इसलिए जहाँ तक संभव हो हम भारत में निर्मित वस्तुओं का ही प्रयोग करें। 

किसी भी अभियान को प्रचारित करना आसान होता है, जो कि अखबारों और टीवी विज्ञापनों के ज़रिए किया जा सकता है। पर उस अभियान की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि देश की जनता ने उसे किस सीमा तक आत्मसात किया। अब मोदी जी के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को ही ले लीजिए। जितना इस अभियान का शोर मचा और प्रचार हुआ उसका 5 फ़ीसदी भी धरातल पर नहीं उतरा। भारत के किसी भी छोटे बड़े शहर, गांव या कस्बे में चले जाइए तो आपको गंदगी के अंबार पड़े दिखाई देंगे। इसलिए इस अभियान का निकट भविष्य में भी सफल होना संभव नहीं लगता। क्योंकि जमीनी चुनौतियां ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। स्वदेशी अभियान की सफलता भी जन-जागरण, सतत् निगरानी और व्यवहार परिवर्तन पर निर्भर करती है। अगर आम नागरिक इसमें सक्रिय भूमिका निभाएँ तभी यह आंदोलन सफल होगा।

निसंदेह ‘स्वच्छ भारत अभियान’ मोदी जी की एक प्रशंसनीय पहल थी। पहली बार किसी प्रधान मंत्री ने हमारे चारों ओर दिनों-दिन जमा होते जा रहे कूड़े के ढेरों की बढ़ती समस्या के निस्तारण का एक देश व्यापी अभियान छेड़ा था। उस समय बहुत से नेताओं, फिल्मी सितारों, मशहूर खिलाड़ियों व उद्योगपतियों तक ने हाथ में झाड़ू पकड़ कर फ़ोटो खिंचवा कर इस अभियान का श्रीगणेश किया था। पर सोचें आज हम कहाँ खड़े हैं?

शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में स्थायी सफाई व्यवस्था बनाना अब भी एक बड़ी चुनौती है। कचरा पृथक्करण, पुनः उपयोग और रीसायक्लिंग की जागरूकता में अपेक्षाकृत कमी दिखती है। कुछ जगहों पर शौचालयों के रख-रखाव, जल आपूर्ति और व्यवहार परिवर्तन को लेकर समस्याएं बनी हुई हैं। इसलिए अभियान के उद्देश्य और जमीनी सच्चाई में अंतर बना हुआ है और अनेक स्थानों पर पुराने तरीकों का पालन अब भी हो रहा है।

दिल्ली हो या देश का कोई अन्य शहर यदि कहीं भी एक औचक निरीक्षण किया जाए तो स्वच्छ भारत अभियान की सफलता का पता चल जाएगा। यदि इतने बड़े स्तर शुरू किए गए अभियान की सफलता अगर काफ़ी कम पाई जाती है तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? निसंदेह स्थानीय निकाय जिम्मेदार हैं। किंतु हम सब नागरिक भी कम जिम्मेदार नहीं है। उल्लेखनीय है कि यदि हम नागरिक किसी साफ़ सुथरे मॉल या अन्य स्थान पर जाते हैं तो सभी नियमों का पालन करते हैं। कचरे को केवल कूड़ेदान में ही डालते हैं। इस तरह हम एक साफ़ सुथरी जगह को साफ़ रखने में सहयोग अवश्य देते हैं। लेकिन ऐसा क्या कारण है कि जहाँ किसी नियम को सख़्ती से लागू किया जाता है तो हम पूरा सहयोग देते हैं। परंतु जहाँ कहीं भी किसी नियम को लागू करने में एजेंसियां ढिलाई बरतती हैं या हमारे विवेक पर छोड़ देती हैं तो आम नागरिक भी उसे हल्के में ले लेता है। भाजपा या अन्य दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं, स्थानीय निकायों और हम सब आम नागरिकों को भी भारत को कचरा मुक्त देश बनाने के लिए अब कमर कसनी होगी। क्योंकि ये कार्य केवल नारों और विज्ञापनों से नहीं हो पाएगा।

आश्चर्य की बात तो यह है कि हम सब जानते हैं कि लगातार कचरे के ढेरों का, हमारे परिवेश में चारों तरफ़ बढ़ते जाना, हमारे व हमारी आनेवाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य के लिए कितना ख़तरनाक है? फिर भी हम सब निष्क्रिय बैठे हैं। हमें जागना होगा और इस समस्या से निपटने के लिए सक्रिय होना होगा। इसलिए नारे चाहे ‘स्वच्छता’ के लगें या ‘स्वदेशी’ के, जनता की भागीदारी के बिना, नारे नारे ही रहेंगे।