Monday, June 16, 2025

बोइंग पर उठते सवाल!

अहमदाबाद में हुई भयानक विमान दुर्घटना के बाद भारत सरकार ने इस दुर्घटना की जाँच के लिए एक उच्च-स्तरीय समिति गठित की है और विमान निर्माण कंपनी बोइंग ने भी सहयोग की पेशकश की है। अन्य विदेशी जांच एजेंसियां भी इस जांच में जुट गई हैं। हवाई जहाज़ के निर्माण में बोइंग एक रसूखदार कंपनी है। बावजूद इसके बोइंग की कार्यक्षमता पर सवाल उठते रहे हैं। सोशल मीडिया पर एक फ़िल्म वायरल हो रही है कि बोइंग कंपनी के ही एक इंजीनियर जॉन बार्नेट, जिसने बोइंग की अंदरूनी क्षमताओं पर महत्वपूर्ण सवाल उठाए थे, उसे 2024 में रहस्यमय परिस्थितियों में बोइंग कंपनी की ही कार पार्किंग में मृत पाया गया। 


जब किसी विमान दुर्घटना में पायलट भी मारे जाते हैं तो एक आम चलन है कि पावरफुल लॉबी साँठ-गाँठ करके जाँच का रूख इस तरह मोड़ देती हैं कि दुर्घटना के लिए पायलट को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। क्योंकि वो अपना पक्ष रखने के लिए अब जीवित नहीं होता। इसलिए ज़रूरी है कि सभी जाँच एजेंसियां इस दुर्घटना की पूरी ईमानदारी से जाँच करें। दुनिया भर में लाखों लोग बोइंग कंपनी के हवाई जहाज़ों में रोज़ उड़ रहे हैं। उन सबकी सुरक्षा के हित में भी यह ज़रूरी है कि बोइंग कंपनी उसके विरुद्ध अक्सर लगाए जाने वाले सभी आरोपों का स्पष्ट जवाब दे और यदि उसकी निर्माण प्रक्रिया में ख़ामियाँ हैं तो उन्हें अविलंब सुधारे।



12 जून 2025 को अहमदाबाद में हुई भयानक विमान दुर्घटना में जीवित बचे विश्वास कुमार रमेश ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है। एयर इंडिया की फ्लाइट AI 171 के इस दुखद हादसे में 242 यात्रियों और चालक दल के सदस्यों में से 241 की मौत हो गई और केवल एक यात्री, विश्वास कुमार रमेश जीवित बचा। यह घटना विमान दुर्घटनाओं में एकमात्र बचे लोगों की उन असाधारण कहानियों में से एक है, जो न केवल चमत्कार को दर्शाती हैं, बल्कि मानव की जीवटता और भाग्य की अनिश्चितता को भी उजागर करती हैं। 


विश्वास कुमार रमेश, 40 वर्षीय ब्रिटिश नागरिक हैं, जो भारतीय मूल के हैं। उस दिन सीट नंबर 11 ए पर बैठे थे, जो एक आपातकालीन निकास द्वार के पास थी। हादसे के तुरंत बाद विश्वास ने भारतीय मीडिया को बताया कि, मैं यह नहीं समझ पा रहा कि मैं कैसे बच गया। सब कुछ मेरी आँखों के सामने हुआ। मैंने सोचा कि मैं भी मर जाऊँगा, लेकिन जब मैंने आँखें खोलीं, तो मैंने खुद को जिंदा पाया। उन्होंने बताया कि उनकी सीट के पास का हिस्सा जमीन पर गिरा और आपातकालीन निकास द्वार टूट गया था, जिसके कारण वे बाहर निकल पाए। विमान का दूसरा हिस्सा इमारत की दीवार से टकराया था, जिसके कारण वहाँ से निकलना असंभव था। 



विमान दुर्घटनाओं में एकमात्र बचे लोगों की कहानियाँ बेहद दुर्लभ हैं, लेकिन ये मानव की जीवटता और कभी-कभी भाग्य के खेल को दर्शाती हैं। इतिहास में कुछ ऐसी घटनाएँ दर्ज हैं, जिनमें एकमात्र व्यक्ति ही जीवित बचा। जूलियन कोएपके 17 साल की एक जर्मन लड़की थी जो 1971 में पेरू के अमेज़न जंगल में हुई लांसा फ्लाइट 508 की दुर्घटना में एकमात्र जीवित बची थी। विमान 10,000 फीट की ऊँचाई से गिरा और जूलियन अपनी सीट से बंधी हुई जंगल में जा गिरी। गंभीर चोटों के बावजूद वह 11 दिनों तक जंगल में भटकती रही और अंततः मदद मिलने पर बच गई। उसकी कहानी साहस और जीवित रहने की इच्छाशक्ति का प्रतीक बन गई। वेस्ना वुलोविच, एक सर्बियाई फ्लाइट अटेंडेंट थी जो 1972 में JAT फ्लाइट 367 के मध्य हवा में हुए विस्फोट के बाद एकमात्र ज़िंदा बची थी। वह 33,000 फीट की ऊँचाई से गिरने के बावजूद जीवित रही, जो गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है। वेस्ना को गंभीर चोटें आई थीं, लेकिन वह ठीक हो गई और बाद में अपनी कहानी साझा की। 



चार साल की सेसिलिया सिचन 1987 में नॉर्थवेस्ट एयरलाइंस फ्लाइट 255 के दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद एकमात्र ज़िंदा बची थी। यह विमान मिशिगन में दुर्घटनाग्रस्त हुआ, जिसमें 154 यात्री और चालक दल के सदस्य मारे गए। सेसिलिया को मलबे में दबा हुआ पाया गया और उनकी जान बचाने के लिए व्यापक उपचार किया गया। 12 साल की बाहिया बकारी 2009 में येमेनिया एयरवेज की उड़ान के कोमोरो द्वीप समूह के पास दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद एकमात्र ज़िंदा बची थी। वह समुद्र में तैरती रही और बाद में बचाव दल द्वारा बचा ली गई। उसकी कहानी भी दुनिया भर में चर्चा का विषय बनी।


विमान दुर्घटनाओं के अलावा, अन्य दुखद हादसों में भी एकमात्र बचे लोगों की कहानियाँ सामने आई हैं। 1912 में  टाइटैनिक के डूबने में कई लोगों की जान गई। लेकिन कुछ लोग, जैसे कि मिल्विना डीन, जो उस समय केवल दो महीने की थी, जीवित बची। वह उन अंतिम लोगों में से थी जो इस त्रासदी से बची थीं। 2004, हिंद महासागर सुनामी की प्राकृतिक आपदा में लाखों लोग मारे गए, लेकिन कुछ लोग, जैसे कि एक इंडोनेशियाई व्यक्ति जिसे लहरों ने समुद्र में बहा दिया था, चमत्कारिक रूप से जीवित बच गए।


विमान दुर्घटना या अन्य त्रासदियों में एकमात्र बचे लोग अक्सर ‘सर्वाइवर्स गिल्ट’ (जीवित रहने का अपराधबोध) से गुजरते हैं। विश्वास कुमार रमेश ने भी बताया कि वह अपनी जान बचने के बावजूद अपने भाई को खोने के दुख से जूझ रहे हैं। जॉर्ज लैमसन जूनियर, जो 1985 में गैलेक्सी एयरलाइंस की दुर्घटना में एकमात्र बचे थे, ने सोशल मीडिया पर लिखा कि वह विश्वास की स्थिति को समझ सकते हैं, क्योंकि ऐसी घटनाएँ जीवित बचे लोगों के जीवन पर गहरा प्रभाव डालती हैं। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसे लोग अक्सर पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) से पीड़ित हो सकते हैं। विश्वास के मामले में, डॉ. रजनीश पटेल ने बताया कि वह ‘पोस्ट-ट्रॉमेटिक अम्नेसिया’ से प्रभावित हो सकते हैं, जिसके कारण उन्हें दुर्घटना की पूरी तस्वीर याद नहीं है।


विश्वास कुमार रमेश का जीवित रहना कई कारकों का परिणाम हो सकता है। प्रोफेसर जॉन हंसमैन, एम आई टी के वैमानिकी विशेषज्ञ, के अनुसार विमान दुर्घटना में जीवित रहने की संभावना सीट की स्थिति, दुर्घटना का प्रकार और त्वरित निर्णय लेने पर निर्भर करती है। विश्वास की सीट आपातकालीन निकास के पास थी, जो कि बिना  किसी बड़े नुकसान के ज़मीन पर जा गिरी और उन्हें बाहर निकलने का मौका मिला। इसके अलावा, उनकी त्वरित प्रतिक्रिया और भाग्य ने भी उनकी जान बचाई। 


विश्वास कुमार रमेश की कहानी, अन्य एकमात्र बचे लोगों की तरह, हमें जीवन की नाजुकता और चमत्कारों की संभावना की याद दिलाती है। ये कहानियाँ न केवल प्रेरणादायक हैं, बल्कि विमानन सुरक्षा में सुधार की आवश्यकता को भी उजागर करती हैं।

Monday, June 9, 2025

बैंकिंग प्रणाली ग्राहक केंद्रित बने

भारतीय बैंकिंग प्रणाली, जो देश की आर्थिक रीढ़ मानी जाती है, समय-समय पर ग्राहकों के साथ अनुचित व्यवहार के लिए आलोचना का विषय रही है। हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की नई दिशानिर्देशों का ऐलान किया गया जिससे देश भर के बैंकों में नए सेवा शुल्कों और लेनदेन की सीमाओं को लेकर काफ़ी असमंजस की स्थिति फैली हुई है। ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कॉन्फेडरेशन के पूर्व महासचिव, थॉमस फ्रैंको ने हाल ही में बैंकों द्वारा ग्राहकों से अनुचित शुल्क वसूलने और आरबीआई की नीतियों के प्रभावों पर गंभीर सवाल उठाए हैं।


थॉमस फ्रैंको ने बैंकों की उन प्रथाओं पर प्रकाश डाला है, जिनके माध्यम से ग्राहक अनजाने में अतिरिक्त शुल्क और चार्जेस का बोझ उठाते हैं। उनके अनुसार, बैंक न केवल अपनी सेवाओं के लिए मनमाने ढंग से शुल्क बढ़ाते हैं, बल्कि ग्राहकों को अनुचित नियमों और शर्तों के जाल में फंसाते हैं। उदाहरण के लिए, एटीएम लेनदेन पर लगने वाले शुल्क, न्यूनतम बैलेंस की आवश्यकता और तीसरे पक्ष के उत्पादों (जैसे बीमा) की गलत बिक्री (मिस-सेलिंग) आम ग्राहकों के लिए परेशानी का कारण बन रही है। 



आरबीआई के दिशानिर्देशों के बावजूद, बैंक ग्राहकों के साथ पारदर्शिता और निष्पक्षता बरतने में विफल रहे हैं। वे बताते हैं कि बैंकों द्वारा लगाए गए कई शुल्क, जैसे एटीएम से नकदी निकासी पर चार्ज या न्यूनतम बैलेंस न रखने की सजा, ग्राहकों के लिए अनुचित और बोझिल हैं। विशेष रूप से, छोटे बचत खाताधारकों और ग्रामीण क्षेत्रों के ग्राहकों पर इसका सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है।


आरबीआई ने हाल ही में एटीएम संचालन, लेनदेन सीमा और शुल्क से संबंधित नए दिशानिर्देश जारी किए हैं। इन दिशानिर्देशों के अनुसार, ग्राहकों को अपने बैंक के एटीएम पर सीमित मुफ्त लेनदेन की सुविधा दी जाती है और अन्य बैंकों के एटीएम पर भी मुफ्त लेनदेन की संख्या निर्धारित की गई है। इन सीमाओं को पार करने पर ग्राहकों से शुल्क वसूला जाता है। फ्रैंको का तर्क है कि ये दिशानिर्देश बैंकों को ग्राहकों से अतिरिक्त शुल्क वसूलने की छूट देते हैं, जिससे आम आदमी पर बोझ बढ़ता है।



उदाहरण के लिए, यदि कोई ग्राहक अपने बैंक के एटीएम से पांच मुफ्त लेनदेन के बाद अतिरिक्त निकासी करता है, तो उसे प्रति लेनदेन 20 रुपये तक का शुल्क देना पड़ सकता है। इसी तरह, अन्य बैंकों के एटीएम पर तीन मुफ्त लेनदेन के बाद शुल्क लागू होता है। फ्रैंको के अनुसार, यह व्यवस्था ग्राहकों को उनकी ही बचत का उपयोग करने के लिए दंडित करती है।



इसके अलावा, आरबीआई ने डिजिटल बैंकिंग और साइबर सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए भी दिशानिर्देश जारी किए हैं, जैसे मल्टी-फैक्टर ऑथेंटिकेशन और अनधिकृत लेनदेन की स्थिति में ग्राहकों की शून्य देयता। हालांकि, फ्रैंको का कहना है कि इन नियमों का कार्यान्वयन अपर्याप्त है। बैंकों द्वारा ग्राहकों को सूचित करने और शिकायत निवारण की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी बनी रहती है।


थॉमस फ्रैंको ने बैंकों द्वारा तीसरे पक्ष के उत्पादों, विशेष रूप से बीमा और म्यूचुअल फंड, की मिस-सेलिंग पर विशेष ध्यान दिया है। उनके अनुसार, बैंक कर्मचारी अक्सर ग्राहकों, विशेष रूप से वरिष्ठ नागरिकों, को भ्रामक जानकारी देकर ऐसे उत्पाद बेचते हैं जो उनकी वित्तीय जरूरतों के लिए उपयुक्त नहीं होते। उदाहरण के लिए, सिंगल प्रीमियम बीमा पॉलिसियों की बिक्री में ग्राहकों को जोखिमों की पूरी जानकारी नहीं दी जाती, जिसके परिणामस्वरूप कई लोग अपनी बचत खो देते हैं।


अक्सर देखा गया है कि बैंकों द्वारा ग्राहकों को अनुचित शर्तों वाले ऋण समझौतों में फंसाया जाता है। उदाहरण के लिए, फ्लोटिंग रेट होम लोन लेने वाले ग्राहकों को ब्याज दरों में कमी का लाभ स्वचालित रूप से नहीं दिया जाता और इसके लिए अतिरिक्त शुल्क वसूला जाता है। यह न केवल अनुचित है, बल्कि आरबीआई की ग्राहक अधिकार चार्टर का भी उल्लंघन करता है, जिसमें निष्पक्ष व्यवहार और पारदर्शिता की बात कही गई है।


आरबीआई ने 2014 में ग्राहक अधिकार चार्टर जारी किया था, जिसमें पांच मूलभूत अधिकारों की बात की गई थी। निष्पक्ष व्यवहार, पारदर्शिता, उपयुक्तता, गोपनीयता और शिकायत निवारण। हालांकि, फ्रैंको और अन्य उपभोक्ता कार्यकर्ताओं का कहना है कि आरबीआई ने इन अधिकारों को लागू करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए। उदाहरण के लिए, शिकायत निवारण के लिए समयसीमा निर्धारित नहीं की गई है और बैंकिंग लोकपाल अक्सर बैंकों के पक्ष में ही फैसले सुनाता है। आरबीआई को बैंकों पर सख्ती बरतनी चाहिए और अनुचित शुल्क वसूली, मिस-सेलिंग और एकतरफा समझौतों पर रोक लगानी चाहिए। उनके अनुसार, आरबीआई की निष्क्रियता बैंकों को ग्राहकों का शोषण करने की खुली छूट देती है।


बैंकों की इन प्रथाओं का सबसे अधिक प्रभाव मध्यम वर्ग, छोटे बचतकर्ताओं और ग्रामीण क्षेत्रों के ग्राहकों पर पड़ता है। न्यूनतम बैलेंस न रख पाने वाले खाताधारकों से भारी जुर्माना वसूला जाता है, जो उनकी बचत को और कम करता है। इसके अलावा, डिजिटल बैंकिंग के बढ़ते उपयोग के साथ, साइबर धोखाधड़ी के मामले भी बढ़े हैं और ग्राहकों को नुकसान की भरपाई के लिए लंबी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।


ऐसे में कुछ समाधान पर आरबीआई को गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है। टेलीकॉम सेक्टर की तरह, बैंक खातों की पोर्टेबिलिटी को आसान करना चाहिए, ताकि ग्राहक आसानी से बैंक बदल सकें। बैंकों को सभी शुल्क और चार्जेस की जानकारी स्पष्ट और सरल भाषा में देनी चाहिए। तीसरे पक्ष के उत्पादों की बिक्री के लिए सख्त नियम और ग्राहक सहमति अनिवार्य होनी चाहिए। आरबीआई को शिकायत निवारण के लिए समयसीमा निर्धारित करनी चाहिए और बैंकों पर दंड लगाना चाहिए। छोटे लेनदेन और ग्रामीण क्षेत्रों में एटीएम शुल्क को पूरी तरह खत्म करना चाहिए।


थॉमस फ्रैंको के विचार और आरबीआई के दिशानिर्देशों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है। बैंकों द्वारा ग्राहकों से अनुचित शुल्क वसूलने और मिस-सेलिंग की प्रथाएं आम आदमी के लिए वित्तीय बोझ बढ़ा रही हैं। आरबीआई को अपनी नियामक भूमिका को और सख्ती से निभाना होगा और ग्राहक अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। फ्रैंको का यह संदेश कि ग्राहकों का सशक्तिकरण धन संरक्षण का सबसे सुरक्षित तरीका है, हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि बैंकिंग प्रणाली को पारदर्शी, निष्पक्ष और ग्राहक-केंद्रित बनाने की जरूरत है। 

Sunday, June 1, 2025

रक्षा परियोजनाओं में देरी क्यों?

भारतीय वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह ने 29 मई 2025 को नई दिल्ली में आयोजित एक सभा में रक्षा परियोजनाओं में देरी को लेकर एक महत्वपूर्ण बयान दिया। उन्होंने कहा, टाइमलाइन एक बड़ा मुद्दा है। मेरे विचार में एक भी परियोजना ऐसी नहीं है जो समय पर पूरी हुई हो। कई बार हम कॉन्ट्रैक्ट साइन करते समय जानते हैं कि यह सिस्टम समय पर नहीं आएगा। फिर भी हम कॉन्ट्रैक्ट साइन कर लेते हैं। यह बयान न केवल रक्षा क्षेत्र में मौजूदा चुनौतियों को उजागर करता है, बल्कि भारत की रक्षा आत्मनिर्भरता की दिशा में चल रही प्रक्रिया पर भी सवाल उठाता है।


एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह ने अपने बयान में विशेष रूप से हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) द्वारा तेजस Mk1A फाइटर जेट की डिलीवरी में देरी का उल्लेख किया। यह देरी 2021 में हस्ताक्षरित 48,000 करोड़ रुपये के कॉन्ट्रैक्ट का हिस्सा है, जिसमें 83 तेजस Mk1A जेट्स की डिलीवरी मार्च 2024 से शुरू होनी थी, लेकिन अभी तक एक भी विमान डिलीवर नहीं हुआ है। इसके अलावा, उन्होंने तेजस Mk2 और उन्नत मध्यम लड़ाकू विमान (AMCA) जैसे अन्य महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स में भी प्रोटोटाइप की कमी और देरी का जिक्र किया। यह बयान ऐसे समय में आया है जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ रहा है, विशेष रूप से ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद, जिसे उन्होंने राष्ट्रीय जीत करार दिया।



उनके बयान का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि यह रक्षा क्षेत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही की आवश्यकता को रेखांकित करता है। यह पहली बार नहीं है जब HAL की आलोचना हुई है। फरवरी 2025 में, एयरो इंडिया 2025 के दौरान, एयर चीफ मार्शल सिंह ने HAL के प्रति अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा था, मुझे HAL पर भरोसा नहीं है, जो बहुत गलत बात है। यह बयान एक अनौपचारिक बातचीत में रिकॉर्ड हुआ था, लेकिन इसने रक्षा उद्योग में गहरे मुद्दों को उजागर किया।


रक्षा परियोजनाओं में देरी के कई कारण हैं, जिनमें से कुछ संरचनात्मक और कुछ प्रबंधन से संबंधित हैं। तेजस Mk1A की डिलीवरी में देरी का एक प्रमुख कारण जनरल इलेक्ट्रिक से इंजनों की धीमी आपूर्ति है। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में समस्याएं, विशेष रूप से 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद भारत पर लगे प्रतिबंधों ने HAL की उत्पादन क्षमता को प्रभावित किया है । सिंह ने HAL को मिशन मोड में न होने के लिए आलोचना की। उन्होंने कहा कि HAL के भीतर लोग अपने-अपने साइलो में काम करते हैं, जिससे समग्र तस्वीर पर ध्यान नहीं दिया जाता। यह संगठनात्मक अक्षमता और समन्वय की कमी का संकेत है। सिंह ने इस बात पर भी जोर दिया कि कई बार कॉन्ट्रैक्ट साइन करते समय ही यह स्पष्ट होता है कि समय सीमा अवास्तविक है। फिर भी, कॉन्ट्रैक्ट साइन कर लिए जाते हैं, जिससे प्रक्रिया शुरू से ही खराब हो जाती है। यह एक गहरी सांस्कृतिक समस्या को दर्शाता है, जहां जवाबदेही की कमी है। हालांकि सरकार ने AMCA जैसे प्रोजेक्ट्स में निजी क्षेत्र की भागीदारी को मंजूरी दी है, लेकिन अभी तक रक्षा उत्पादन में निजी क्षेत्र की भूमिका सीमित रही है। इससे HAL और DRDO जैसे सार्वजनिक उपक्रमों पर अत्यधिक निर्भरता बढ़ती है, जो अक्सर समय सीमा पूरी करने में विफल रहते हैं। भारत की रक्षा खरीद प्रक्रिया जटिल और समय लेने वाली है। इसके अलावा, डिजाइन और विकास में देरी, जैसे कि तेजस Mk2 और AMCA के प्रोटोटाइप की कमी, परियोजनाओं को और पीछे धकेलती है।



रक्षा परियोजनाओं में देरी का भारतीय वायुसेना की परिचालन तत्परता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। वर्तमान में, भारतीय वायु सेना के पास 42.5 स्क्वाड्रनों की स्वीकृत ताकत के मुकाबले केवल 30 फाइटर स्क्वाड्रन हैं। तेजस Mk1A जैसे स्वदेशी विमानों की देरी और पुराने मिग-21 स्क्वाड्रनों का डीकमीशनिंग इस कमी को और गंभीर बनाता है।



इसके अलावा, देरी से रक्षा आत्मनिर्भरता की दिशा में भारत की प्रगति भी प्रभावित होती है। सिंह ने कहा, हमें केवल भारत में उत्पादन की बात नहीं करनी चाहिए, बल्कि डिजाइन और विकास भी भारत में करना चाहिए। देरी न केवल IAF की युद्ध क्षमता को कमजोर करती है, बल्कि रक्षा उद्योग में विश्वास को भी प्रभावित करती है। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसे हालिया सैन्य अभियानों ने यह स्पष्ट किया है कि आधुनिक युद्ध में हवाई शक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका है, और इसके लिए समय पर डिलीवरी और तकनीकी उन्नति अनिवार्य है।


एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह के बयान ने रक्षा क्षेत्र में सुधार की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित किया है। रक्षा कॉन्ट्रैक्ट्स में यथार्थवादी समयसीमाएं निर्धारित की जानी चाहिए। सिंह ने सुझाव दिया कि हमें वही वादा करना चाहिए जो हम हासिल कर सकते हैं। इसके लिए कॉन्ट्रैक्ट साइन करने से पहले गहन तकनीकी और लॉजिस्टिकल मूल्यांकन की आवश्यकता है। AMCA प्रोजेक्ट में निजी क्षेत्र की भागीदारी एक सकारात्मक कदम है। निजी कंपनियों को रक्षा उत्पादन में और अधिक शामिल करने से HAL और DRDO पर निर्भरता कम होगी और प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। 


HAL और अन्य सार्वजनिक उपक्रमों को ‘मिशन मोड’ में काम करने के लिए संगठनात्मक सुधार करने चाहिए। इसके लिए समन्वय, प्रोजेक्ट मैनेजमेंट और कर्मचारी प्रशिक्षण में सुधार की आवश्यकता है। इंजन और अन्य महत्वपूर्ण घटकों के लिए विदेशी आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भरता को कम करने के लिए स्वदेशी विकास पर ध्यान देना होगा। रक्षा खरीद प्रक्रिया को सरल और तेज करने की आवश्यकता है ताकि अनावश्यक देरी से बचा जा सके।


एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह का बयान रक्षा क्षेत्र में गहरी जड़ें जमाए बैठी समस्याओं को उजागर करता है। उनकी स्पष्टवादिता न केवल जवाबदेही की मांग करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि भारत को आत्मनिर्भर और युद्ध के लिए तैयार रहने के लिए तत्काल सुधारों की आवश्यकता है। तेजस Mk1A, Mk2 और AMCA जैसे प्रोजेक्ट्स भारत की रक्षा क्षमता के लिए महत्वपूर्ण हैं। इनमें देरी न केवल हमारी फौज की तत्परता को प्रभावित करती है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा को भी खतरे में डालती है। सरकार, रक्षा उद्योग और निजी क्षेत्र को मिलकर इन चुनौतियों का समाधान करना होगा ताकि भारत न केवल उत्पादन में, बल्कि डिजाइन और विकास में भी आत्मनिर्भर बन सके। सिंह का यह बयान एक चेतावनी तो है ही, लेकिन साथ ही यह रक्षा क्षेत्र को ‘सर्वश्रेष्ठ’ करने  की दिशा में एक अवसर भी है।

Monday, May 26, 2025

राजनीति में अपशब्दों का बढ़ता प्रचलन !

भारत, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है, एक ऐसा देश है जहाँ विविधता उसकी ताकत और चुनौती दोनों है। यहाँ की राजनीति में विभिन्न दलों के राजनेता अपने विचारों, नीतियों और नेतृत्व के माध्यम से जनता का विश्वास जीतने का प्रयास करते हैं। लेकिन हाल के वर्षों में, भारतीय राजनीति में अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों का बढ़ता उपयोग एक गंभीर मुद्दा बन गया है। यह न केवल सार्वजनिक विमर्श के स्तर को नीचे लाता है, बल्कि यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों, जैसे स्वतंत्रता, समानता, सम्मान और संवाद के खिलाफ भी है।



भारतीय राजनीति में अपशब्दों का प्रयोग पहले कतई नहीं होता था। लेकिन हाल के दशकों में इसकी तीव्रता और आवृत्ति में चिंताजनक वृद्धि हुई है। विभिन्न दलों के राजनेता, चाहे वे सत्ताधारी हों या विपक्षी, अक्सर एक-दूसरे पर निजी हमले करने, अपमानजनक टिप्पणियाँ करने और समाज को विभाजित करने वाले बयान देने में संकोच नहीं करते। उदाहरण के लिए, कुछ राजनेताओं ने अपने विरोधियों को नीच, मवाली, गद्दार, जैसे शब्दों से संबोधित किया है।



ऐसे बयानों का उद्देश्य अक्सर अपने समर्थकों को उत्तेजित करना और विपक्ष को कमज़ोर करना होता है। लेकिन यह लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तोड़ता है। 2017 में, एक सांसद ने एक धार्मिक आयोजन में जनसंख्या वृद्धि के लिए एक विशेष समुदाय को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा, देश में समस्याएँ खड़ी हो रही हैं जनसंख्या के कारण। इसके लिए हिंदू ज़िम्मेदार नहीं हैं। ज़िम्मेदार तो वो हैं जो चार बीवियों और चालीस बच्चों की बात करते हैं। इस तरह के बयान न केवल सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देते हैं, बल्कि समाज में विभाजन को और गहरा करते हैं। बढ़ती जनसंख्या चिंता का विषय है पर उस पर प्रहार जनसंख्या नियंत्रण की नीति बना कर किया जाना चाहिए न कि केवल भड़काऊ बयान देकर। 



लोकतंत्र का गुण यह है कि ये जनता की भागीदारी, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और विचारों के खुले आदान-प्रदान का मौक़ा देता है। भारत का संविधान, विशेष रूप से अनुच्छेद 19, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। लेकिन इसके साथ ही यह अपेक्षा भी करता है कि यह स्वतंत्रता जिम्मेदारी के साथ प्रयोग की जाए। जब राजनेता अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों का सहारा लेते हैं, तो वे लोकतंत्र के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। जब राजनेता नीतियों और विचारों के बजाय व्यक्तिगत हमलों और अपशब्दों का प्रयोग करते हैं, तो यह विमर्श का स्तर गिराता है। सार्वजनिक जीवन में हमें एक-दूसरे की नीयत पर भरोसा करना चाहिए, हमारी आलोचना नीतियों पर आधारित होनी चाहिए, व्यक्तित्व पर नहीं। आज के काफ़ी राजनेताओं का व्यवहार इस सिद्धांत के विपरीत हो रहा है।



गत दस वर्षों से मुसलमानों के लेकर कार्यकर्ताओं और नेतृत्व के लगातार आने वाले विरोधी बयानों ने देश में भ्रम की स्थिति पैदा कर दी। उदाहरण के लिए, एक महिला नेता ने 2014 में एक सभा में लोगों को रामज़ादों और हरामज़ादों में बाँटने की बात कही। दूसरी तरफ़ सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत कहते हैं कि ‘हिंदू और मुसलमानों का डीएनए एक है, या मुसलमानों के बिना हिंदुत्व नहीं हैं।’ ऐसे विरोधाभासी बयानों से समाज में वैमनस्य और भ्रम की स्थिति फैलती है। जब राजनेता गैर-जिम्मेदाराना बयान देते हैं, तो यह लोकतांत्रिक संस्थाओं, जैसे संसद और न्यायपालिका, के प्रति जनता के विश्वास को कम करता है। उदाहरण के लिए, 2024 में एक सांसद ने भाजपा पर संविधान को हज़ार घावों से खून बहाने का आरोप लगाया, जबकि भाजपा नेताओं ने विपक्षी नेताओं पर संविधान का अपमान करने का आरोप लगाया। इस तरह के आपसी आरोप-प्रत्यारोप संसद जैसे मंच की गरिमा को कम करते हैं। अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों का उपयोग अक्सर असहमति को दबाने के लिए किया जाता है। पत्रकारों और आलोचकों को प्रेस्टीट्यूट जैसे शब्दों से संबोधित करना या उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करता है। यह लोकतंत्र के लिए खतरा है, क्योंकि असहमति और आलोचना लोकतंत्र के आधार हैं।


राजनेताओं के अपशब्द और गैर-जिम्मेदाराना बयान समाज पर गहरा प्रभाव डालते हैं। ये बयान न केवल जनता के बीच नकारात्मक भावनाओं को भड़काते हैं, बल्कि सामाजिक समरसता को भी नुकसान पहुँचाते हैं। सोशल मीडिया के युग में, जहाँ ये बयान तेजी से वायरल होते हैं, इनका प्रभाव और भी व्यापक हो जाता है। इससे न केवल राजनीतिक तनाव बढ़ता है, बल्कि सामाजिक ध्रुवीकरण भी होता है।


इसके अलावा, जब राजनेता लैंगिक, धार्मिक या जातीय आधार पर अपमानजनक टिप्पणियाँ करते हैं, तो यह समाज के कमज़ोर वर्गों, जैसे महिलाओं, अल्पसंख्यकों और दलितों के प्रति असंवेदनशीलता को बढ़ावा देता है। उदाहरण के लिए, 2013 में एक नेता ने अपनी ही पार्टी की सांसद को सौ टंच माल कहकर संबोधित किया, जो न केवल अपमानजनक था, बल्कि लैंगिक रूप से असंवेदनशील भी था।


इस समस्या से निपटने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं। चुनाव आयोग को राजनेताओं के अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। 2019 में, चुनाव आयोग ने कुछ नेताओं को नोटिस जारी किए थे, लेकिन ऐसी कार्रवाइयों को और प्रभावी करने की आवश्यकता है। मीडिया को भी गैर-जिम्मेदाराना बयानों को बढ़ावा देने के बजाय, स्वस्थ विमर्श को प्रोत्साहित करना चाहिए। सोशल मीडिया पर भी ऐसी सामग्री को नियंत्रित करने के लिए नीतियाँ बनानी चाहिए। जनता को जागरूक करने की आवश्यकता है कि वे ऐसे नेताओं का समर्थन न करें जो अपशब्दों और विभाजनकारी बयानों का सहारा लेते हैं। शिक्षा और जागरूकता अभियान इस दिशा में मदद कर सकते हैं। राजनेताओं को अपने बयानों के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। संसद और विधानसभाओं में आचार समितियों को और सक्रिय करना होगा।


जबसे संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण टीवी पर होना शुरू हुआ है, तब से देश के कोने-कोने में बैठे आम जन अपने राजनेताओं का आचरण देख कर उनके प्रति हेयदृष्टि अपनाने लगे हैं। युवा पीढ़ी पर तो इसका बहुत ही खराब असर पड़ रहा है। भगवान श्री कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं कि बड़े लोग जैसा आचरण करते हैं तो समाज उनका वैसे ही अनुसरण करता है। नेताओं के उद्दंड व्यवहार से समाज में अराजकता और हिंसा बढ़ रही है जो सबके लिए चिंता का विषय होना चाहिए।