Monday, October 13, 2025

जल संकट की दस्तक: अब दिल्ली से दूर नहीं

इस वर्ष देश भर में हुई भारी बारिशों और जल प्रलय के बावजूद भारत के शहरी क्षेत्रों में जल संकट अब कोई दूर की आशंका नहीं, बल्कि एक कठोर सच्चाई बन चुका है। दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, बेंगलुरु जैसे महानगर, जो आर्थिक प्रगति और आधुनिक जीवनशैली के प्रतीक हैं, अब जल प्रबंधन की विफलता के गंभीर परिणाम झेल रहे हैं। हाल ही में दिल्ली के वसंत कुंज क्षेत्र में तीन बड़े मॉल और आसपास की कॉलोनियों में पानी की सप्लाई पूरी तरह ठप हो जाने से यह संकट फिर सुर्ख़ियों में आया। इन प्रतिष्ठानों को बंद करने की नौबत इसलिए आ गई है क्योंकि टैंकरों से इनकी जल आपूर्ति रुक गई, जबकि भूजल दोहन (ग्राउंड वॉटर बोरिंग) पर पहले से ही एनजीटी ने प्रतिबंध लगा रखा है। यह स्थिति केवल अस्थायी तकनीकी समस्या नहीं, बल्कि एक गहरे प्रशासनिक और नैतिक संकट की ओर संकेत करती है। पिछले सात दशकों में खरबों रुपया जल प्रबंधन पर खर्च किए जाने के बावजूद ऐसा क्यों है? 


दिल्ली जैसे शहर में जहाँ जनसंख्या 2 करोड़ से अधिक है, जल आपूर्ति व्यवस्था लंबे समय से दबाव में है। दिल्ली जल बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार, शहर में प्रतिदिन करीब 1,000 मिलियन गैलन पानी की मांग है, जबकि उपलब्धता मुश्किल से 850 मिलियन गैलन तक पहुँच पाती है। वसंत कुंज जैसे पॉश इलाकों में भी पिछले कुछ वर्षों से पानी की टंकियों और निजी टैंकरों पर निर्भरता बढ़ी है। परंतु इस बार स्थिति पहले से कहीं अधिक भयावह हो गई क्योंकि प्रशासन ने सुरक्षा और ट्रैफिक कारणों से टैंकरों की आवाजाही पर रोक लगा दी। इस निर्णय का सबसे बड़ा असर व्यापारिक केंद्रों जैसे मॉल्स, रेस्तरां और दुकानों पर पड़ा है। इन मॉल्स में हज़ारों कर्मचारी काम करते हैं और प्रतिदिन लाखों ग्राहक आते हैं; बिना पानी के ऐसी व्यवस्था एक दिन भी नहीं चल सकती। शौचालय, सफाई, भोजनालय, अग्निशमन प्रणाली, सब कुछ जल आपूर्ति पर निर्भर हैं। जब टैंकरों की आपूर्ति रुकी, तो केवल व्यापार ही नहीं, आसपास के आवासीय समाज भी संकट में पड़ गए।



दिल्ली सरकार ने कुछ वर्ष पहले भूजल दोहन पर सख्त प्रतिबंध लगाया था। उद्देश्य यह था कि गिरते जलस्तर को रोका जाए। यह पहल पर्यावरणीय दृष्टि से आवश्यक थी, क्योंकि लगातार बढ़ते दोहन ने दिल्ली के अधिकांश क्षेत्रों में भूजल को 300 फीट से भी अधिक नीचे पहुँचा दिया था। लेकिन सवाल यह है कि क्या वैकल्पिक व्यवस्था पर्याप्त रूप से विकसित की गई?


जब सरकार ने ग्राउंड वॉटर बोरिंग को गैरकानूनी घोषित किया, तब उसे समानांतर रूप से मजबूत टैंकर नेटवर्क, पुनर्चक्रण संयंत्र और रेन वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम विकसित करने चाहिए थे। दुर्भाग्यवश, नीतियाँ बनीं पर उनका कार्यान्वयन अधूरा रह गया। परिणामस्वरूप, लोग न तो कानूनी तरीके से पानी निकाल सकते हैं, न सरकारी वितरण पर भरोसा कर सकते हैं। सोचने वाली बात ये है कि यदि जाड़ों में यह हाल है तो गर्मियों में क्या होगा?



दिल्ली ही नहीं, बल्कि पूरे देश में पानी की आपूर्ति से जुड़ा टैंकर कारोबार वर्षों से विवादों में रहा है। कई जगह यह सार्वजनिक सेवा से अधिक निजी व्यवसाय बन चुका है। अधिकारियों और टैंकर ठेकेदारों के बीच मिलीभगत के आरोप नए नहीं हैं। दिल्ली में जल आपूर्ति में आई यह हालिया बाधा भी ऐसे ही भ्रष्टाचार की परतें उजागर करती प्रतीत होती है।


त्योहारों के मौसम में जब पानी की मांग बढ़ जाती है, घरों में सजावट, साफ-सफाई और उत्सव आयोजन अधिक होते हैं।ऐसे समय पर टैंकरों की आवाजाही पर प्रतिबंध या ‘तकनीकी समस्या’ का बहाना बना देना संदेह उत्पन्न करता है। कई स्थानीय निवासियों का कहना है कि कुछ जल एजेंसियों ने टैंकरों की उपलब्धता को कृत्रिम रूप से सीमित कर कीमतें बढ़ाने की कोशिश की है। इससे न केवल आम नागरिकों पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ा, बल्कि मॉल्स और व्यापारिक प्रतिष्ठानों को बंद करने की स्थिति आ गई। अगर ये आरोप सही साबित होते हैं, तो यह सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही नहीं, बल्कि नैतिक दिवालियापन का उदाहरण होगा। जल जैसी बुनियादी संपदा के साथ ऐसा बर्ताव किसी नागरिक समाज में अक्षम्य अपराध है।


भारत में जल नीति के कई स्तर हैं। केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और नगरपालिका निकाय सब अपने ढंग से काम करते हैं। लेकिन इन सबमें तालमेल का अभाव है। राष्ट्रीय जल नीति (2012) यह कहती है कि हर नागरिक को पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण जल मिलेगा, पर छोटे शहरों को तो छोड़ें, दिल्ली जैसे शहरों में भी वास्तविकता इसके उलट है। नगर पालिकाएँ रेन वॉटर हार्वेस्टिंग की अनिवार्यता घोषित तो करती हैं, पर अधिकांश इमारतों में यह प्रणाली केवल कागज़ों पर मौजूद है। जल पुनर्चक्रण संयंत्रों की क्षमता भी इस संकट का सामना करने के लिए अपर्याप्त है। यमुना का प्रदूषण भी दिल्ली की जल आपूर्ति पर सीधा असर डालता है। यदि यमुना से शुद्ध जल नहीं मिलेगा, तो शहर को बाहरी स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ेगा, जिससे राजनीतिक टकराव भी बढ़ते हैं।


हालाँकि नीति-निर्माण और कार्यान्वयन की बड़ी जिम्मेदारी सरकार पर है, नागरिक भी पूरी तरह निर्दोष नहीं हैं। शहरी समाज में जल का अनावश्यक उपयोग आम बात है। बागवानी में अत्यधिक पानी, कार धोने में व्यर्थ बहाव, और रिसाव की अनदेखी। स्वच्छ भारत मिशन या हर घर जल जैसे अभियानों की सफलता तभी संभव है जब लोग खुद बदलाव का हिस्सा बनें। रेन वॉटर हार्वेस्टिंग और ग्रे-वॉटर रीसाइक्लिंग जैसे उपाय व्यक्तिगत और सामुदायिक स्तर पर अपनाए जा सकते हैं। मॉल्स और हाउसिंग सोसाइटीज़ में यह व्यवस्था अनिवार्य की जानी चाहिए, ताकि टैंकरों पर निर्भरता घटे।


दिल्ली का वर्तमान संकट केवल एक चेतावनी है। आने वाले वर्षों में ऐसी घटनाएँ और बढ़ सकती हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक़, यदि ठोस कदम नहीं उठाए गए तो 2030 तक देश के आधे बड़े शहर ‘जल-विहीन’ क्षेत्रों की श्रेणी में आ सकते हैं। इसलिए अब समय है कि सरकार और समाज दोनों मिलकर दीर्घकालिक रणनीति अपनाएँ। गौरतलब है कि अकबर की राजधानी फतेहपुर सीकरी पानी के अभाव के कारण मात्र 15 सालों में ही उजड़ गई थी। महानगरों में वर्षा जल संग्रहण प्रणाली को सख्ती से लागू करना। जल पुनर्चक्रण संयंत्रों की संख्या और क्षमता बढ़ाना। टैंकर संचालन को पारदर्शी और जीपीएस-नियंत्रित बनाना ताकि रिश्वतखोरी पर रोक लगे। यमुना जैसी नदियों की सफाई और पुनर्जीवन को प्राथमिकता देना। पानी की बर्बादी रोकने के लिए सख्त कानून और जनजागरूकता अभियान चलाना। इन कदमों के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित करना होगा कि जल प्रबंधन केवल संकट आने पर चर्चा का विषय न बने, बल्कि शहरी नियोजन की मूल नीति का हिस्सा हो। 


दिल्ली पर आई जल संकट की दस्तक यह याद दिलाता है कि पानी केवल संसाधन नहीं, बल्कि जीवन का आधार है। जब-जब हम इसे समझने में चूक करते हैं, तो सभ्यता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है। यदि सरकार और नागरिक समाज अब भी इस संकट को गंभीरता से नहीं लेते, तो ‘जल युद्ध’ भविष्य का नहीं, वर्तमान का शब्द बन जाएगा। जलसंकट का समाधान केवल योजनाओं से नहीं, ईमानदार नीयत और सामूहिक प्रयासों से ही संभव है। 

 Corruption

Monday, October 6, 2025

भगदड़: भारत क्यों बार-बार विफल हो रहा है ?

भारत, दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश, जहां धार्मिक उत्सव, राजनीतिक रैलियां और सांस्कृतिक आयोजन में लाखों-करोड़ों लोग एकत्रित होते हैं। वहां भीड़ प्रबंधन की विफलता एक बार फिर से राष्ट्रीय शर्म का कारण बन रही है। हाल के वर्षों में हुई कई भयानक घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि प्रशासनिक लापरवाही, अपर्याप्त योजना और बुनियादी ढांचे की कमी कैसे निर्दोष लोगों की जान ले रही है। सितंबर 2025 में तमिलनाडु के करूर में अभिनेता-नेता विजय की राजनीतिक रैली में 41 लोगों की मौत हो गई, जब देरी से पहुंचे काफिले को देखने के लिए लोग सड़क पर उमड़ पड़े। भगदड़ के हादसों की सूची बहुत लंबी है लेकिन यहाँ सवाल उठता है कि एक के बाद एक हादसों से हमने क्या सीखा? क्या ऐसे हादसे कभी कम होंगे? 



2024 में उत्तर प्रदेश के हाथरस में भोले बाबा के सत्संग के दौरान हुई भगदड़ में 121 लोगों की मौत हो गई, ज्यादातर महिलाएं और बच्चे थे। यह घटना कार्यक्रम समाप्ति के समय भीड़ के बहाव के कारण हुई, जब लोग बाबा के चरण छूने या उनकी चरण रज लेने के लिए उमड़ पड़े। इसी तरह, 2025 में प्रयागराज के महाकुंभ मेला में 'मौनी अमावस्या' के दिन पवित्र नदी में स्नान के दौरान हुई भगदड़ ने 30 लोगों की जान ले ली और 60 से अधिक घायल हो गए। इन घटनाओं से स्पष्ट है कि भारत अपनी जनता की सुरक्षा सुनिश्चित करने में बार-बार असफल हो रहा है। इन घटनाओं पर शासन और प्रशासन इतना गंभीर क्यों नहीं दिखाई देता?


हाल के वर्षों में भारत में भगदड़ की घटनाएं एक चक्रव्यूह की तरह घूम रही हैं। 2024 के दिसंबर में हैदराबाद के संध्या थिएटर में 'पुष्पा 2' फिल्म की स्क्रीनिंग के दौरान हुई भगदड़ में एक महिला की मौत हो गई। 2025 की शुरुआत में आंध्र प्रदेश के तिरुपति मंदिर में वैकुंठ द्वार दर्शन के टोकन वितरण के समय छह भक्तों की मौत हो गई, जब हजारों लोग टोकन के लिए उमड़ पड़े। फरवरी 2025 में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर फुट ओवर ब्रिज पर हुई भगदड़ ने कई जानें लीं। बेंगलुरु में क्रिकेट टीम रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु (आरसीबी) की आईपीएल विजय परेड के दौरान 11 लोगों की मौत हुई, जहां प्रशासन ने भीड़ का अनुमान लगाने में चूक की। बिहार के बाबा सिद्धनाथ मंदिर में अगस्त 2024 की भगदड़ में सात मौतें हुईं। ये घटनाएं धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आयोजनों में ही नहीं, बल्कि रेलवे स्टेशनों और सिनेमा घरों जैसे सार्वजनिक स्थानों पर भी हो रही हैं। 1954 से 2012 तक भारत में 79% भगदड़ें धार्मिक आयोजनों के दौरान हुईं, जो आज भी जारी है।  


इन विफलताओं के पीछे कई गहरे कारण हैं। सबसे प्रमुख है आमंत्रित भीड़ का होना और अपर्याप्त प्रबंधन। आयोजक अक्सर अनुमानित संख्या से अधिक लोगों को आने की अनुमति माँग करते हैं, जबकि निकास मार्ग संकरे और अपर्याप्त होते हैं। अनुमति देने वाले विभाग भी, किन्हीं कारणों के चलते, सुरक्षा व्यवस्था के पुख्ता इंतज़ामों पर ज़ोर नहीं देते। हाथरस में अस्थायी टेंट में पर्याप्त निकास न होने से भगदड़ बढ़ी। अफवाहें, जैसे आग लगने या ढांचा गिरने की, घबराहट और भगदड़ पैदा करती हैं। बुनियादी ढांचे की कमी, पुरानी इमारतों, संकरी सड़कों और पहाड़ी इलाकों में तो समझी जा सकती है। वहीं सुरक्षा कर्मियों की कमी और अप्रशिक्षित होना एक और समस्या है। महाकुंभ में वीआईपी व्यवस्थाओं पर फोकस से आम भक्तों की उपेक्षा हो जाती है। राजनीतिक और धार्मिक आयोजनों में भावनाओं का उफान भीड़ को अनियंत्रित बनाता है। इसके अलावा, आपदा प्रबंधन में पुलिस, आयोजकों और स्थानीय प्रशासन के बीच समन्वय की कमी घटनाओं को बढ़ावा देती है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के दिशानिर्देशों का पालन न होना एक बड़ी लापरवाही है। ये सभी कारक मिलकर भारत को बार-बार विफल कर रहे हैं, जहां जनता की जानें सस्ती साबित हो रही हैं।


ये भगदड़ें केवल आंकड़ों तक सीमित नहीं हैं, इनका मानवीय और सामाजिक प्रभाव बहुत गहरा है। परिवार टूट जाते हैं, बच्चे अनाथ हो जाते हैं और परिवार पर आर्थिक बोझ बढ़ता है। हाथरस में ज्यादातर महिलाओं की मौत ने लिंग असमानता को भी उजागर किया। मनोवैज्ञानिक आघात पीड़ितों और गवाहों को वर्षों तक सताता है। सामाजिक विश्वास कम होता है और अंतरराष्ट्रीय छवि खराब होती है। भारत जैसे विकासशील देश में ये घटनाएं प्रगति की राह में बाधा हैं।


फिर सवाल उठता है कि इनसे कैसे बचा जाए? प्रबंधन के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाना होगा। सबसे पहले, पूर्व नियोजन जरूरी है। आयोजकों को अनुमति देते समय क्षमता का सख्त आकलन हो और अधिकतम संख्या तय की जाए। बुनियादी ढांचे में सुधार लाएं, चौड़े निकास, आपातकालीन मार्ग और मजबूत संरचनाएं। एनडीएमए के अनुसार, सीसीटीवी, ड्रोन और एआई का उपयोग भीड़ निगरानी के लिए किया जाए, जैसा कुंभ में प्रयास हुआ।   सुरक्षा कर्मियों की संख्या बढ़ाएं और उन्हें विशेष प्रशिक्षण दें। अफवाहों पर नियंत्रण के लिए ‘रियल टाइम’ संचार प्रणाली लगाएं। अंतर-एजेंसी समन्वय मजबूत करें—पुलिस, आयोजक और नागरिक प्रशासन एक साथ काम करें।   कानूनी सख्ती लाएं, लापरवाह आयोजकों पर कड़ी सजा और मुआवजा सुनिश्चित करें। जन जागरूकता अभियान चलाएं, जहां लोग भीड़ में धैर्य रखें और सहयोग करें। शासन और प्रशासन की ज़िम्मेदारी है कि नियमित रूप से देश भर में ‘मॉक ड्रिल’ का आयोजन किया जाए, जिससे जागरूकता बढ़ेगी। अंतरराष्ट्रीय उदाहरण लें, जैसे दुनिया भर के कई देशों में स्कूलों में भी आपात स्थिति से निपटने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है।  

भारत को एक बाद एक हुई इन विफलताओं से सबक लेना होगा। सरकार, आयोजक और नागरिकों की संयुक्त जिम्मेदारी से ही भविष्य की त्रासदियां रोकी जा सकती हैं। अन्यथा, ये घटनाएं जारी रहेंगी और देश अपनी जनता को बचाने में असमर्थ साबित होगा। समय आ गया है कि प्रोएक्टिव अप्रोच अपनाया जाए, जैसा कि कहा जाता है  कि, ‘प्रिवेंशन इज बेटर दैन क्योर’। केवल तभी हम एक सुरक्षित भारत का निर्माण कर पाएंगे। 

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Monday, September 29, 2025

इटावा लायन सफारी: वन्यजीव संरक्षण का प्रतीक

जहाँ एक तरफ़ औद्योगीकरण के नाम पर देश भर में अंधाधुंध जंगल काटे जा रहे हैं, वहीं ऐसे प्रयास बहुत सराहनीय हैं जो हरित क्षेत्र को बढ़ाने की दिशा में किए गए हैं। पिछले हफ़्ते मैं पहली बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इटावा नगर के बाहर स्थित ‘लायन सफारी’ देखने गया। ये इत्तेफाक ही है कि दो महीने पहले ही मैंने अफ़्रीका के केन्या में स्थित ‘मसाई मारा वन्य अभयारण्य’ का दौरा किया था। करीब 1.5 लाख हेक्टर में फैला ये ‘सवाना ग्रासलैंड’ हज़ारों तरह के वन्य जीवों के मुक्त विचरण के कारण विश्वप्रसिद्ध है। वहाँ मैंने एक खुली जीप में बैठ कर 3 मीटर दूर बैठे बब्बर शेर और शेरनियों को देखने का रोमांचकारी अनुभव हासिल किया। मुझे नहीं पता था कि उत्तर प्रदेश में भी एक विशाल सरकारी पार्क है, जहाँ बब्बर शेर और शेरनियां और तमाम दूसरे हिंसक पशु खुलेआम विचरण करते हैं। शायद आपने भी कभी इटावा के ‘लायन सफारी’ का नाम नहीं सुना होगा। 



इटावा का ये लायन सफारी (जिसे अब इटावा सफारी पार्क के नाम से जाना जाता है) मसाई मारा के स्तर का तो नहीं है, पर इसकी अनेक विशेषताएँ मसाई मारा के अभयारण्य से ज़्यादा आकर्षक बनाती हैं। जहाँ एक ओर सवाना ग्रासलैंड में पेड़ों का नितांत अभाव है और पचासों मील तक सपाट मैदान है, वहीं इटावा का लायन सफारी बीहड़ क्षेत्र में बसा है। इसमें सैंकड़ों प्रजाति के बड़े-बड़े सघन वृक्ष लगे हैं। इसके चारों ओर चंबल नदी की घाटी की तरह मिट्टी के कच्चे पहाड़ हैं। जिनके पास से यमुना नदी बहती है। यह न केवल एशिया के सबसे बड़े ड्राइव-थ्रू सफारी पार्कों में से एक है, बल्कि एशियाई शेरों के संरक्षण का एक जीवंत केंद्र भी है।


इटावा लायन सफारी की अवधारणा 2006 में ही प्रस्तावित हो चुकी थी, लेकिन इसका निर्माण वर्ष 2012-13 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार के दौरान शुरू हुआ। यह परियोजना उत्तर प्रदेश वन विभाग के सामाजिक वानिकी प्रभाग इटावा के तहत ‘फिशर फॉरेस्ट’ क्षेत्र में विकसित की गई, जो इटावा शहर से मात्र 5 किलोमीटर दूर इटावा-ग्वालियर रोड पर स्थित है। फिशर फॉरेस्ट का अपना ऐतिहासिक महत्व है। 1884 में इटावा के तत्कालीन जिला प्रशासक जे.एफ. फिशर ने स्थानीय जमींदारों को मनाकर इस क्षेत्र में वनरोपण की शुरुआत की थी, जो राज्य का सबसे पुराना वन क्षेत्र माना जाता है। यह निर्माण कार्य उत्तर प्रदेश वन विभाग की निगरानी में हुआ, जिसमें केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण की मंजूरी प्राप्त हुई। परियोजना का डिजाइन स्पेनिश आर्किटेक्ट फ्रैंक बिडल द्वारा की गई है।



यह सफारी पार्क कुल 350 हेक्टेयर में फैला हुआ है, जिसकी परिधि लगभग 8 किलोमीटर लंबी है। इसमें शेर ब्रिडिंग सेंटर के लिए 2 हेक्टेयर क्षेत्र आरक्षित है, जहां 4 ब्रिडिंग सेल हैं। सफारी के विभिन्न जोन – लायन सफारी, डियर सफारी, एंटीलोप सफारी, बियर सफारी और लेपर्ड सफारी। इसका एक बड़ा हिस्सा  आरक्षित वन क्षेत्र के रूप में विकसित किया गया है। यहां पंचवटी वृक्षों (बरगद, आंवला, अशोक, बेल और पीपल) की प्रजातियों से भरा हरित आवरण है। पूरा क्षेत्र 7800 मीटर लंबी बफर बॉर्डर वॉल से सुरक्षित है, जो वन्यजीवों को बाहरी खतरों से बचाता है। 2014 में गुजरात के चिड़ियाघरों से 8 शेरों को यहां लाया गया, जिनमें से कुछ कुत्ते की बीमारी (कैनाइन डिस्टेंपर) से प्रभावित हुए, लेकिन अमेरिका से आयातित वैक्सीन के बाद अब यहां 19 एशियाई शेर (7 नर और 12 मादा) हैं। इसके अलावा, पार्क में लगभग 247 प्रजातियों के पक्षी, 17 स्तनधारी प्रजातियां और 10 सरीसृप प्रजातियां पाई जाती हैं।



यह सफारी पार्क जनता के लिए 24 नवंबर 2019 से खुला। लायन सेगमेंट को अंतिम चरण में जोड़ा गया। आज यह उत्तर प्रदेश का एकमात्र मल्टीपल सफारी पार्क है, जो एशियाई शेर जैसे लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। शेर ब्रिडिंग सेंटर न केवल प्रजनन को बढ़ावा देता है, बल्कि आनुवंशिक विविधता को बनाए रखने में भी सहायक है। पर्यावरणीय दृष्टि से, यह पार्क जलवायु परिवर्तन के दौर में जैव विविधता के संरक्षण का प्रतीक है। यहां आने वाले पर्यटक न केवल शेरों को उनके प्राकृतिक वातावरण में देख सकते हैं, बल्कि 4डी थिएटर के माध्यम से वन्यजीवों के करीब महसूस भी कर सकते हैं।



सवाल उठता है कि इसका रखरखाव और विकास कैसे सुनिश्चित किया जाए ताकि यह एक प्रमुख पर्यटन स्थल बने। इस पार्क की डिजिटल बुकिंग सिस्टम को मजबूत किया जाना, इको-फ्रेंडली आवास सुविधाएं बढ़ाना और स्थानीय समुदायों को रोजगार से जोड़ने की ज़रूरत है। सौर ऊर्जा के उपयोग, जो कि अभी कम है, को बढ़ाकर इसे ग्रीन टूरिज्म मॉडल बनाया जा सकता है। इसके अलावा, चंबल नदी के निकट होने से नेशनल चंबल सैंक्चुअरी के साथ इंटीग्रेटेड टूर पैकेज विकसित किए जाएं। अगर सरकार और स्थानीय प्रशासन मिलकर वार्षिक बजट आवंटन बढ़ाएं, तो यह पार्क न केवल राष्ट्रीय स्तर पर, बल्कि अंतरराष्ट्रीय पर्यटन मानचित्र पर चमकेगा। पर्यटकों की संख्या बढ़ाने के लिए सोशल मीडिया कैंपेन और स्कूलों के लिए एजुकेशनल टूर्स आयोजित किए जाएं।


गौरतलब है कि एशियाई शेर, जो गिर वन (गुजरात) तक सीमित हैं, भारत के प्रतीक हैं। यहां आकर हम अपनी जैव विविधता की जिम्मेदारी समझते हैं। बच्चे और युवा वन्यजीव संरक्षण के महत्व को सीख सकते हैं, जो आज के पर्यावरण संकट के समय में आवश्यक है। पर्यटन के चलते इटावा जैसे छोटे शहरों में रोजगार सृजन होता है, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करता है। आगरा (ताज महल) से मात्र 2 घंटे और लखनऊ से 3 घंटे की दूरी पर स्थित होने से यह आसानी से एक्सेसिबल है। यह एक अनोखा अनुभव प्रदान करता है, अपनी कार से शेरों को नजदीक से देखना, जो अजायब घर की कैद से अलग है, यह हमें प्रकृति से जोड़ता है। जो हमारे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। भारतीयों को यहां आकर गर्व महसूस करना चाहिए कि हमारा देश ऐसे प्रयास कर रहा है, जो वैश्विक स्तर पर वन्यजीव संरक्षण में योगदान दे रहा है।

इटावा लायन सफारी केवल एक पर्यटन स्थल नहीं, बल्कि संरक्षण, शिक्षा और सतत विकास का प्रतीक है। सरकार, वन विभाग और नागरिकों के संयुक्त प्रयासों से इसे और समृद्ध बनाया जाए। हर भारतीय को कम से कम एक बार यहां आना चाहिए – प्रकृति की पुकार सुनने के लिए, अपनी जड़ों से जुड़ने के लिए। 

Monday, September 22, 2025

स्वच्छ ऊर्जा की दौड़ में चीन का बढ़ता वर्चस्व !

आज की दुनिया में ऊर्जा नीतियां सिर्फ आर्थिक निर्णय नहीं हैं, बल्कि वैश्विक वर्चस्व की कुंजी हैं। जब अमेरिका तेल और गैस पर दांव लगाकर पुरानी राह पर लौट रहा है, वहीं चीन स्वच्छ ऊर्जा क्रांति को गति दे रहा है। यह विरोधाभास न केवल आर्थिक असंतुलन पैदा कर रहा है, बल्कि भविष्य की तकनीकी दिग्गजों—जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई)—के लिए बुनियादी ढांचे को भी प्रभावित कर रहा है। साइरस जेन्सेन की हालिया वीडियो ‘अमेरिका जस्ट मेड द ग्रेटेस्ट मिस्टेक ऑफ द 21वीं सेंचुरी’ इस मुद्दे को बेबाकी से उजागर करती है। 



अमेरिका, जो कभी नवाचार का प्रतीक था, अब अपनी ऊर्जा नीतियों में उल्टा चढ़ाव दिखा रहा है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में, अमेरिका ने अलास्का में 44 अरब डॉलर का प्राकृतिक गैस प्रोजेक्ट शुरू किया था। जनरल मोटर्स जैसी कंपनियां इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) की योजनाओं को रद्द कर रही हैं और वी8 गैस इंजनों पर लौट रही हैं। यहां तक कि ईवी खरीद पर टैक्स क्रेडिट भी समाप्त कर दिए गए हैं। यह सब तब हो रहा है जब दुनिया जलवायु परिवर्तन से जूझ रही है और नवीकरणीय ऊर्जा ही भविष्य का रास्ता दिख रही है।


जेन्सेन की वीडियो में साफ कहा गया है कि अमेरिका की यह रणनीति अल्पकालिक लाभ के लिए है। तेल और गैस निर्यात बढ़ाने से तत्काल आर्थिक फायदा तो मिलेगा, लेकिन लंबे समय में यह वैश्विक बाजारों में पीछे धकेल देगा। अमेरिका ने 1950 के दशक में सोलर पैनल विकसित किए थे, 1970 के दशक में लिथियम-आयन बैटरी का आविष्कार किया, लेकिन रोनाल्ड रीगन जैसे नेताओं ने जिमी कार्टर के व्हाइट हाउस सोलर पैनल हटाकर इसकी उपेक्षा की। आज भी वही पुरानी सोच हावी है। परिणामस्वरूप, अमेरिका ईवी निर्यात में मात्र 12 अरब डॉलर और बैटरी निर्यात में 3 अरब डॉलर पर सिमट गया है, जबकि सोलर पैनल निर्यात तो महज 69 मिलियन डॉलर का है।



यह भूल सिर्फ आर्थिक नहीं, भू-राजनीतिक भी है। वैश्विक दक्षिण—जो सौर और पवन ऊर्जा के 70 प्रतिशत स्रोतों और महत्वपूर्ण खनिजों के 50 प्रतिशत का नियंत्रण रखता है—अब नवीकरणीय ऊर्जा की ओर मुड़ रहा है। अमेरिका का जीवाश्म ईंधन पर फोकस इन देशों को अलग-थलग कर देगा, जबकि चीन इनके साथ साझेदारी कर रहा है। वहीं, चीन ने स्वच्छ ऊर्जा को राष्ट्रीय प्राथमिकता बना लिया है। 2024 में चीन ने दुनिया के बाकी देशों से ज्यादा विंड टर्बाइन और सोलर पैनल लगाए। ईवी और बैटरी स्टोरेज में निवेश ने इसे वैश्विक नेता बना दिया है। पिछले साल चीन ने 38 अरब डॉलर के ईवी निर्यात किए, 65 अरब डॉलर की बैटरी बेचीं, और सोलर पैनल के 40 अरब डॉलर के निर्यात किए। स्वच्छ ऊर्जा पेटेंट में चीन के पास 7 लाख से ज्यादा हैं, जो दुनिया के आधे से अधिक हैं।



जेन्सेन उद्धृत करते हुए बताते हैं कि चीन की सफलता का राज समन्वित प्रयास है। सीएल के सह-अध्यक्ष शिएन पैन कहते हैं, चीन को लंबे लक्ष्य पर प्रतिबद्ध करना मुश्किल है, लेकिन जब हम प्रतिबद्ध होते हैं, तो समाज के हर पहलू—सरकार, नीति, निजी क्षेत्र, इंजीनियरिंग—सभी एक ही लक्ष्य की ओर कड़ी मेहनत करते हैं। यह दृष्टिकोण अमेरिका की छिटपुट नीतियों से बिल्कुल अलग है।


चीन अब वैश्विक बाजारों में फैल रहा है। ब्राजील, थाईलैंड, मोरक्को और हंगरी में ईवी और बैटरी फैक्टरियां बना रहा है। हंगरी में 8 अरब डॉलर का कारखाना, इंडोनेशिया में 11 अरब डॉलर का सोलर प्लांट—ये निवेश न केवल आर्थिक, बल्कि भू-राजनीतिक लाभ भी दे रहे हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स के हवाले से जेन्सेन कहते हैं, ईवी बैटरी बनाने वाले देश दशकों तक आर्थिक और भू-राजनीतिक फायदे काटेंगे। अभी तक का एकमात्र विजेता चीन है।



पिछले 15 वर्षों में चीन ने बिजली उत्पादन में अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है। यह आंकड़ा महत्वपूर्ण है क्योंकि एआई जैसी उभरती तकनीकें बिजली पर निर्भर हैं। चीन का स्वच्छ ऊर्जा निवेश न केवल पर्यावरण बचाएगा, बल्कि एआई क्रांति में भी नेतृत्व देगा। आरएमआई की ‘पावरिंग अप द ग्लोबल साउथ’ रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक दक्षिण के 70 प्रतिशत सौर-पवन संसाधन चीन की रणनीति से जुड़ रहे हैं।


यह संघर्ष सिर्फ दो महाशक्तियों का नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का है। वैश्विक दक्षिण—अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, दक्षिण एशिया—अब सस्ती और सतत ऊर्जा की तलाश में है। चीन ने इन देशों में सस्ते सोलर पैनल और ईवी तकनीक पहुंचाई है, जबकि अमेरिका के महंगे गैस प्रोजेक्ट इनके लिए बोझ साबित हो रहे हैं। परिणाम? ये देश चीन की ओर झुक रहे हैं।


भारत के संदर्भ में देखें तो यह चेतावनी स्पष्ट है। हमारी ‘मेक इन इंडिया’ और ‘प्लेड्ज फॉर क्लाइमेट’ पहलें स्वच्छ ऊर्जा पर केंद्रित हैं, लेकिन चीन का वर्चस्व चुनौती है। भारत सोलर और विंड में प्रगति कर रहा है, लेकिन बैटरी और ईवी चिप्स में आयात पर निर्भरता बनी हुई है। यदि हम चीन की तरह समन्वित नीति नहीं अपनाते, तो वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में पीछे रह जाएंगे। अमेरिका की गलती से सबक लेते हुए, भारत को स्वदेशी नवाचार पर जोर देना चाहिए—जैसे लिथियम खनन और बैटरी रिसाइक्लिंग में निवेश।


अमेरिका की यह भूल नई नहीं है। 20वीं सदी में जापान ने इलेक्ट्रॉनिक्स में अमेरिका को पीछे छोड़ा था, क्योंकि अमेरिका ने अल्पकालिक लाभ को प्राथमिकता दी। आज चीन स्वच्छ ऊर्जा में वही कर रहा है। जेन्सेन की वीडियो एक चेतावनी है: जो देश बिजली उत्पादन में आगे होगा, वही एआई और अगली औद्योगिक क्रांति जीतेगा।

अमेरिका को अपनी नीतियां पलटनी होंगी—ईवी सब्सिडी बहाल करनी होंगी, नवीकरणीय अनुसंधान में निवेश बढ़ाना होगा। लेकिन समय कम है। चीन का बढ़त 10 वर्षों का नहीं, बल्कि दशकों का हो सकता है। अमेरिका ने 21वीं सदी की सबसे बड़ी गलती कर दी है—जीवाश्म ईंधन पर दांव लगाकर स्वच्छ ऊर्जा के भविष्य को गंवा दिया। चीन का उदय एक सबक है: समन्वित, दूरदर्शी नीतियां ही विजेता बनाती हैं। भारत जैसे देशों को इस दौड़ में शामिल होना चाहिए, ताकि हम न केवल पर्यावरण बचाएं, बल्कि आर्थिक स्वतंत्रता भी हासिल करें। समय आ गया है कि दुनिया एकजुट होकर स्वच्छ ऊर्जा को अपनाए। अन्यथा, इतिहास हमें माफ नहीं करेगा। 

Monday, September 15, 2025

टीवी बहसों का गिरता स्तर चिंतनीय

भारत, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहां संवाद और विमर्श लोकतंत्र की रीढ़ माने जाते हैं । वहां आज टीवी बहसें एक ऐसा मंच बन चुकी हैं जहां तर्क की जगह एक दूसरे का अपमान, चीख-पुकार और राजनीतिक दुष्प्रचार हावी हो गया है। प्राइम टाइम के इन शो में विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रवक्ता एक-दूसरे पर व्यक्तिगत हमले करते नजर आते हैं, जिससे बहसें निष्कर्षहीन हो जाती हैं। यह न केवल दर्शकों के समय की बर्बादी है, बल्कि समाज में ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाला एक खतरनाक माध्यम भी बन गया है। प्रवक्ताओं द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली अपमानजनक भाषा ने टीवी डिबेट्स को एक सर्कस का रूप दे दिया है। चैनल और एंकर ऐसे निरर्थक बहसों को क्यों बढ़ावा देते हैं? क्या यह टीआरपी की होड़ है या राजनीतिक दबाव?



टीवी बहसों का इतिहास भारत में 1990 के दशक से जुड़ा है , जब निजी चैनलों का आगमन हुआ। शुरू में ये बहसें मुद्दों पर तथ्यपरक चर्चा का माध्यम थीं, लेकिन आज वे एक शोरगुल भरी जंग बन चुकी हैं। विभिन्न अध्ययनों और रिपोर्टों से स्पष्ट है कि भारतीय टीवी डिबेट्स में आक्रामकता और विषाक्त भाषा का स्तर चिंताजनक रूप से बढ़ा है। एक शोध के अनुसार, बहसों में एंकरों द्वारा आक्रामक लहजे का इस्तेमाल 80 प्रतिशत से अधिक होता है, जो दर्शकों पर नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता है। ये आंकड़े बताते हैं कि बहसें अब सूचना का स्रोत नहीं, बल्कि प्रचार का हथियार बन चुकी हैं। 


राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं द्वारा अपमानजनक भाषा का उपयोग इस समस्या का केंद्रीय बिंदु है। एक बहस के दौरान एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रवक्ता को दूसरी पार्टी के प्रवक्ता द्वारा ‘जयचंद’ और ‘गद्दार’ कहा गया, जिसे सुनकर  उस प्रवक्ता को हार्ट अटैक हुआ और उनकी मृत्यु हो गई। यह घटना टीवी डिबेट्स की विषाक्तता का जीता-जागता उदाहरण है। इसी तरह अन्य प्रवक्ता ने एक दूसरे प्रवक्ता को ‘नाली का कीड़ा’, ‘दादी मां’, ‘वैंप’ कहा या ‘उल्टा टाँग दूंगा’ जैसे शब्दों का प्रयोग करते पाए गए हैं। एक प्रवक्ता ने तो बहस के दौरान दूसरे प्रवक्ता पर हाथ भी उठा दिया।



यह समस्या बढ़ रही है कम नहीं हुई। मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ में एक टीवी बहस के दौरान एक नेता पर कुर्सी फेंकी गई, जिसके बाद एफआईआर भी दर्ज हुई। नवंबर 2024 में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक टीवी चैनल को एक प्रवक्ता के खिलाफ अपमानजनक क्लिप हटाने का आदेश दिया। ये उदाहरण दर्शाते हैं कि अपमान अब शारीरिक हिंसा तक पहुंच गया है। राजनीतिक दलों द्वारा ऐसे प्रवक्ताओं को चुना जाना भी एक चिंताजनक बात है। अधिकांश प्रवक्ता राजनीतिक अनुभव की कमी रखते हैं और केवल टीवी पर चिल्लाने के लिए नियुक्त होते हैं। यदि राजनैतिक दल  द्वारा योग्य प्रवक्ताओं को चुना गया होता, तो बहसें अधिक सभ्य और उत्पादक होतीं। लेकिन वर्तमान में, ये प्रवक्ता दलों के चेहरे बन चुके हैं, जो विचारधारा के बजाय व्यक्तिगत हमलों पर निर्भर हैं।



ऐसे स्तरहीन प्रवक्ताओं को चैनल क्यों आमंत्रित करते हैं? इसका मुख्य कारण टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पॉइंट) है। शोरगुल भरी बहसें दर्शकों को आकर्षित करती रही हैं, क्योंकि वे मनोरंजन का रूप ले लेती हैं। रॉयटर्स इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट बताती है कि आर्थिक दबावों के कारण ग्राउंड रिपोर्टिंग कम हो गई है और स्टूडियो डिबेट्स ही मुख्य सामग्री बन गई हैं। चैनल जानते हैं कि तर्कपूर्ण चर्चा से दर्शक भागते हैं, लेकिन चीख-पुकार उन्हें बांधे रखती है।


दूसरा कारण राजनीतिक दबाव का उदय है। टाइम मैगजीन के अनुसार, राज्य और पार्टी के विज्ञापन बजट चैनलों को नियंत्रित करते हैं। परिणामस्वरूप, बहसें सत्ता पक्ष को लाभ पहुंचाने वाली बन जाती हैं। विपक्षी प्रवक्ताओं को अपमानित किया जाता है, जबकि सत्ताधारी प्रवक्ताओं को खुली छूट मिलती है। 2022 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने चैनलों को सलाह दी कि वे उत्तेजक भाषा वाली बहसें न दिखाएं। लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ। चैनल जानबूझकर ऐसे प्रवक्ताओं को बुलाते हैं जो विवाद पैदा करें, क्योंकि यह सोशल मीडिया पर वायरल होता है और चैनल की पहुंच बढ़ाता है।


ऐसी बहसों के सामाजिक प्रभाव गंभीर हैं। वे समाज को ध्रुवीकृत करती हैं, विशेषकर हिंदू-मुस्लिम मुद्दों पर। एक शोध के अनुसार, बहसें 'फिक्स्ड मैच' की तरह होती हैं, जहां अपमान और झगड़े पूर्वनियोजित होते हैं। मुस्लिम पैनलिस्टों को 'एंटी-नेशनल' कहा जाता है, जो सांप्रदायिक हिंसा को भड़काता है। ‘गल्फ न्यूज’ की एक रिपोर्ट में कहा गया कि भारत के चैनल मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैला रहे हैं। युवाओं का एक वर्ग, जो रोजगार और शिक्षा चाहता है, इन बहसों से प्रभावित होकर हिंसक हो रहा है। लोकतंत्र में संवाद आवश्यक है, लेकिन यह विषाक्त संवाद समाज को कमजोर कर रहा है।


चैनल और एंकरों की जिम्मेदारी यहां महत्वपूर्ण है। वे मॉडरेटर हैं, न कि भागीदार। लेकिन अधिकांश एंकर, खुद अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करते हैं। रेडिफ की एक रिपोर्ट में कहा गया कि बहसें 'विषैली' हो चुकी हैं। एंकर विपक्ष को बोलने न देकर, मात्र समय काटते हैं। यदि चैनल सख्त कोड ऑफ कंडक्ट लागू करें, तो स्थिति सुधर सकती है। लेकिन टीआरपी और राजनीतिक लाभ के लालच में वे अनदेखी करते हैं।


समाधान के लिए बहुआयामी प्रयास जरूरी हैं। सबसे पहले, राजनैतिक दलों को प्रवक्ताओं के चयन में सुधार करना चाहिए। केवल अनुभवी और सभ्य व्यक्तियों को ही टीवी पर भेजा जाए। दूसरा, ‘ट्राई’ और सूचना मंत्रालय को सख्त नियम लागू करने चाहिए, जैसे अपमानजनक भाषा पर तत्काल जुर्माना लगे। तीसरा, दर्शकों को जागरूक होना चाहिए; वे ऐसे चैनलों का बहिष्कार करें जो सनसनी फैलाते हैं। चौथा, स्वतंत्र मीडिया वॉचडॉग को मजबूत बनाना चाहिए। अंत में, डिजिटल प्लेटफॉर्म्स जैसे यूट्यूब पर तथ्यपरक बहसें बढ़ावा दें, जहां सोशल मीडिया इंगेजमेंट सकारात्मक हो।


भारत की टीवी बहसें लोकतंत्र का मजाक बन चुकी हैं। अपमानजनक प्रवक्ताओं का बोलबाला न केवल बहसों को निरर्थक बनाता है, बल्कि समाज को विभाजित करता है। चैनल और एंकरों को यदि वास्तव में पत्रकारिता का सम्मान करना है, तो उन्हें टीआरपी के पीछे भागना छोड़कर जिम्मेदार संवाद को प्राथमिकता देनी चाहिए। अन्यथा, ये बहसें लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करती रहेंगी। समय आ गया है कि हम एक ऐसे मीडिया की मांग करें जहां तर्क जीते, न कि अपमान। केवल तभी भारत का लोकतंत्र मजबूत होगा। 

Monday, September 8, 2025

प्राकृतिक आपदाओं का बढ़ता कहर

भारत, अपनी प्राकृतिक सुंदरता और विविध भौगोलिक संरचना के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। लेकिन हर साल मानसून के आगमन के साथ यह देश प्राकृतिक आपदाओं की चपेट में आ जाता है। हाल के वर्षों में, विशेष रूप से हिमालयी राज्यों जैसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में बादल फटने, भूस्खलन और भारी बारिश के कारण होने वाली तबाही ने न केवल जन-धन की हानि की है, बल्कि सरकारी तंत्र की नाकामी और भ्रष्टाचार को भी उजागर किया है।



भारत में मानसून का मौसम जून से सितंबर तक रहता है और इस दौरान देश के कई हिस्सों में भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं अब आम हैं। हाल के महीनों में, उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में बादल फटने से भारी तबाही मची, जिसमें कम से कम पांच लोगों की मौत हुई और 50 से अधिक लोग लापता हो गए। हिमाचल प्रदेश में भी अगस्त 2025 में भारी बारिश के कारण दर्जनों सड़कें बंद हो गईं और कई लोगों की जान चली गई। इन घटनाओं ने एक बार फिर यह सवाल उठाया है कि सरकारी तंत्र इन आपदाओं को रोकने और उनके प्रभाव को कम करने में क्यों असफल हो रहा है?



बादल फटने की घटनाएं, जिन्हें भारत मौसम विज्ञान विभाग 100 मिमी प्रति घंटे से अधिक बारिश के रूप में परिभाषित करता है, विशेष रूप से हिमालयी क्षेत्रों में आम हैं। ये घटनाएं न केवल प्राकृतिक हैं, बल्कि जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियों जैसे अनियोजित निर्माण, जंगलों की कटाई और नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में हस्तक्षेप के कारण और भी घातक हो गई हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश की तीव्रता बढ़ रही है, जिससे बादल फटने और भूस्खलन की घटनाएं अधिक बार और अधिक विनाशकारी हो रही हैं।


केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने हाल ही में अपने बयान में कहा कि पहाड़ी राज्यों में होने वाले निर्माण और नुक़सान के लिए घर में बैठकर तैयार की गई फर्जी डीपीआर बनाने वाले दोषी (कल्प्रिट) हैं। ये लोग बिना ज़मीनी हकीकत जाने हुए डीपीआर बना देते हैं जिससे ऐसे हादसे होते हैं। यह बयान न केवल सरकारी तंत्र की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि विकास परियोजनाओं में पारदर्शिता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी कितनी घातक हो सकती है। 



डीपीआर, जो किसी भी योजना का बुनियादी ढांचा व आधार होती है, में अगर भ्रष्टाचार और लापरवाही बरती जाती है, तो इसका परिणाम ऐसी हादसों व त्रासदियों के रूप में सामने आता है। इसे ‘करप्शन ऑफ़ डिज़ाइन’ कहा जाता है। 


पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कों, पुलों और अन्य बुनियादी ढांचे का निर्माण करते समय भूगर्भीय और पर्यावरणीय कारकों को नजरअंदाज करना आम बात हो गई है। गडकरी का यह बयान इस ओर इशारा करता है कि कई परियोजनाओं के लिए डीपीआर बिना स्थानीय भूगोल और जलवायु की गहन जांच के तैयार की जाती हैं। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड जैसे क्षेत्रों में, जहां भूस्खलन और बाढ़ का खतरा हमेशा बना रहता है, सड़क निर्माण के लिए अक्सर पहाड़ों को अंधाधुंध काटा जाता है, जिससे ढलान अस्थिर हो जाते हैं। यह न केवल भूस्खलन को बढ़ावा देता है, बल्कि नदियों में मलबे का प्रवाह भी बढ़ाता है, जिससे बाढ़ की स्थिति और गंभीर हो जाती है।


भारत में बाढ़ और जलभराव की स्थिति को नियंत्रित करने में सरकारी तंत्र की विफलता कई स्तरों पर दिखाई देती है। सबसे पहले तो हमारी आपदा प्रबंधन की तैयारी ही अपर्याप्त है। उत्तराखंड में 2013 की केदारनाथ त्रासदी, जिसमें 6,000 से अधिक लोग मारे गए थे। 2021 की चमोली आपदा, जिसमें 200 से अधिक लोग हिमस्खलन और बाढ़ की चपेट में आए। इन हादसों ने यह स्पष्ट कर दिया कि सरकार को पहले से चेतावनी और तैयारी की जरूरत है। फिर भी, हर साल न सिर्फ़ एक जैसी आपदाएं दोहराई जाती हैं बल्कि राहत और बचाव कार्यों में देरी और अव्यवस्था भी दिखाई देती है।


दूसरा, जल निकासी प्रणालियों की कमी और रखरखाव की अनदेखी भी एक बड़ा मुद्दा है। दिल्ली-एनसीआर जैसे शहरी क्षेत्रों में, जहां 2024 में 108 मिमी बारिश ने भारी जलभराव पैदा किया, नालों की सफाई और उचित जल निकासी की कमी साफ दिखाई दी। पहाड़ी क्षेत्रों में नदियों के किनारे अनियोजित निर्माण और अतिक्रमण ने प्राकृतिक जल प्रवाह को बाधित किया है, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ गया है।


तीसरा, स्थानीय समुदायों की भागीदारी और जागरूकता की कमी भी एक बड़ी समस्या है। ऐसे में स्थानीय ज्ञान का उपयोग करके सड़क निर्माण हो तो शायद भूस्खलन में रोकथाम हो सके। लेकिन वास्तव में, स्थानीय लोगों की सलाह को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है और परियोजनाएं केवल ठेकेदारों और अधिकारियों के हितों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं।


इन समस्याओं का समाधान तभी संभव है जब सरकार और समाज मिलकर एक समग्र और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं। सबसे पहले, डीपीआर तैयार करने की प्रक्रिया को पारदर्शी और वैज्ञानिक बनाना होगा। भूगर्भीय सर्वेक्षण, पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन, और स्थानीय विशेषज्ञों की राय को शामिल करना अनिवार्य होना चाहिए। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए स्वतंत्र ऑडिट और निगरानी तंत्र स्थापित किए जाने चाहिए।


दूसरा, आपदा प्रबंधन के लिए एक मजबूत ढांचा तैयार करना होगा। इसमें न केवल राहत और बचाव की तैयारी शामिल होनी चाहिए, बल्कि प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों, जैसे कि बादल फटने की निगरानी, को भी मजबूत करना होगा। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का उपयोग भूस्खलन और जलभराव की संभावना वाले स्थानों की पहचान के लिए किया जाना चाहिए।


इसके अलावा पर्यावरण संरक्षण और टिकाऊ विकास को प्राथमिकता देनी होगी। जंगलों की कटाई को रोकना, नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बहाल करना और अंधाधुंध निर्माण पर रोक लगाना जरूरी है। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में इको-सेंसिटिव जोन में निर्माण को सख्ती से विनियमित करना होगा।


भारत में बादल फटने, भूस्खलन और बाढ़ की त्रासदियां केवल प्राकृतिक नहीं हैं, बल्कि मानवीय लापरवाही और भ्रष्टाचार का भी परिणाम हैं। नितिन गडकरी का बयान इस दिशा में एक कड़वी सच्चाई को उजागर करता है। सरकारी तंत्र की नाकामी, चाहे वह जलभराव को नियंत्रित करने में हो या आपदा प्रबंधन में, ने आम लोगों का जीवन खतरे में डाल दिया है। अब समय है कि सरकार, समाज और विशेषज्ञ मिलकर एक ऐसी व्यवस्था बनाएं जो न केवल आपदाओं को रोके, बल्कि उनके प्रभाव को कम करने में भी सक्षम हो। टिकाऊ विकास, पारदर्शी प्रशासन, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही इस दिशा में आगे बढ़ने का रास्ता है।