Monday, September 2, 2019

क्या न्यायाधीशों को सच बोलना मना है?

पटना हाईकोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति राकेश कुमार के खिलाफ उनके बाकी साथी न्यायाधीशों व मुख्य न्यायाधीश ने बैठक करके एक आदेश पारित किया, जिसके तहत न्यायमूर्ति राकेश कुमार से सभी मुकदमों की सुनवाई छीन ली गई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि न्यायमूर्ति राकेश कुमार ने एक मुकदमें में फैसला देते हुए न्यायाधीशों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर तल्ख टिप्पणी की थी।

न्यायमूर्ति राकेश कुमार ने एक लंबे आदेश में बताया कि जब से उन्होंने न्यायाधीश का काम संभाला, तब से उन्होंने देखा कि किस तरह उनके साथी न्यायाधीश भ्रष्टाचार व अनैतिक आचरण में लिप्त हैं। उन्होंने यह भी देखा कि उनके साथी न्यायाधीश छोटे-छोटे लाभ के लिए किस तरह मुख्य न्यायाधीश की चाटूकारिता करते हैं।

न्यायमूर्ति राकेश कुमार का इतना आक्रामक आदेश और न्यायाधीशों के आचरण पर इतनी बेबाक टिप्पणी न्यायपालिका के माननीय सदस्यों को स्वीकार नहीं हुई और उन्होंने न्यायमूर्ति राकेश कुमार को सच बोलने की सजा दे डाली। 

ये कैसा विरोधाभास है? जबकि अदालतों में बयान देने से पहले धर्म ग्रंथ पर हाथ रखवाकर यह शपथ दिलाई जाती है कि, ‘मैं जो भी कहूंगा, सच कहूंगा और सच के सिवा कुछ नहीं कहूंगा।’ मतलब यह है कि याचिकाकर्ता या प्रतिवादी या गवाह से तो सच बोलने की अपेक्षा की जाती है, पर उनके वक्तव्यों पर अपना फैसला देने वाले न्यायाधीश को सच बोलने की आजादी नहीं है। क्या ये सच नहीं है कि निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालयों तक में अनेक न्यायाधीशों के आचरण समय-समय पर अनैतिक पाये गए हैं और उन पर सप्रमाण भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे हैं। 

भारत के मुख्य न्यायाधीश जे. एस. वर्मा ने एक बार सर्वोच्च न्यायालय की खुली अदालत में ये कहा था कि निचली अदालतों में भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। इतना ही नहीं उनके बाद बने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एस पी भरूचा ने दिसंबर 2001 में केरल के कोवलम् में एक सेमीनार को संबोधित करते हुए कहा था कि, ‘उच्च न्यायालयों में 20 फीसदी न्यायाधीश भ्रष्ट हैं। भ्रष्ट न्यायाधीशों के खिलाफ जांच होनी चाहिए और उन्हें नौकरी से निकाल देना चाहिए।’ साथ ही उन्होने यह भी कहा था कि मौजूदा कानून न्यायाधीशों के भ्रष्टचार से निपटने में नाकाफी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को हटाने के लिए जो संवैधानिक प्रक्रिया आज है, वह अत्यन्त जटिल है। इस प्रक्रिया के तहत लोकसभा के 100 सांसद या राज्यसभा के 50 सांसद जब हस्ताक्षरयुक्त नोटिस लोकसभा या राज्यसभा के सभापतियों को देते हैं और महा अभियोग प्रस्ताव पर बहस होती है और अगर महा अभियोग में आरोप सिद्ध हो जाते है और दो तिहाई सदन की सहमति होती है, तब इसकी सूचना राष्ट्रपति को दी जाती है, जो न्यायाधीश को बर्खास्त करते हैं। संविधान की धारा 124 व 218 में इस पूरी प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन है। 

उच्च न्यायपालिका के सदस्यों में 20 फीसदी भ्रष्ट हैं, यह स्वीकारोक्ति भारत के पदासीन मुख्य न्यायाधीश की है। 2001 से अब यह प्रतिशत 20 से बढ़कर कितना अधिक हो गया है, इसका कोई सर्वेक्षण नहीं हुआ है। अगर मान लें कि 20 फीसदी ही न्यायधीश भ्रष्ट हैं, तो इसका अर्थ यह हुआ कि जिनके मुकदमें इन न्यायाधीशों के सामने सुनवाई के लिए जाते होंगे, उनमें उन्हें न्याय नहीं मिलता होगा। क्योंकि भ्रष्ट न्यायाधीश पैसे लेकर फैसला सुनाने में संकोच नहीं करते होंगे। 

इस स्वीकारोक्ति को आज 18 साल हो गए। इन दो दशकों में संसद ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया, जिससे देश की जनता को भ्रष्ट न्यायाधीशों से छुटकारा मिल पाता। यह स्वीकारोक्ति भी न्यायमूर्ति भरूचा ने तब की थी, जब मैंने 1998-2000 के बीच सर्वोच्च न्यायालय के दो मुख्य न्यायाधीशों और एक न्यायधीश के भ्रष्टाचार को सप्रमाण अपने साप्ताहिक अखबार में छापकर देश के सामने उजागर करने की हिम्मत दिखाई थी। इस ‘दुस्साहस’ का परिणाम यह हुआ कि सर्वोच्च न्यायालय के जमीन घोटालों में आरोपित मुख्य न्यायाधीश ने मुझ पर जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय में अदालत की अवमानना का मुकदमा दायर करवाया। जिसका मैंने डटकर मुकाबला किया और इस विषय को अंतर्राष्ट्रीय टैलीवीजन और अखबारों में खूब प्रसारित किया। तब देश में ऐसा माहौल बन गया था कि न्यायमूर्ति भरूचा को यह कड़वा सच सार्वजनिक रूप से स्वीकारना पड़ा।

इस संदर्भ में यह महत्वपूर्णं है कि अदालत की अवमानना कानून का नाजायज उपयोग करके भ्रष्टाचार में लिप्त न्यायाधीश आवाज उठाने वाले को प्रताड़ित करते हैं। जो प्रयास मेरे विरूद्ध भी किया गया और तब मैंने पुस्तक लिखी ‘अदालत की अवमानना कानून का दुरूपयोग।’ इस पर टिप्पणी करते हुए ‘प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया’ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति पी बी सांवत का कहना था कि, ‘इस संघर्ष ने अदालत की अवमानना कानून के दुरूपयोग को एक मुद्दा बना दिया।’ दुख की बात ये है कि इतना संघर्ष करने के बाद भी आज तक स्थिति ज्यों की त्यों है। तभी तो न्यायपालिका के खिलाफ सच बोलने वाले एक हम जैसे पत्रकार या साधारण नागरिक को नहीं, बल्कि स्वयं पटना हाईकोर्ट के न्यायधीश को न्यायपालिका का आज कोपभाजन बनना पड़ा है। 

ऐसे में देश के जागरूक नागरिकों को सभी सांसदों से अपील करनी चाहिए कि संविधान में इस तरह का संशोधन हो, जिससे न्यायपालिका के सदस्यों पर भ्रष्टाचार या अनैतिक आचरण के प्रामाणिक आरोप लगाने वाला कोई भी साहसी व्यक्ति अदालत की प्रताड़ना का शिकार न हो।

Monday, August 19, 2019

अचानक क्यों बढ़ रही हैं देश की आर्थिक हालत की चर्चाएँ

देश की आर्थिक स्थिति को लेकर मीडिया में चर्चाएं अचानक बढ़ गई हैं। पिछली तिमाहीं में कार और दो पहिया वाहनों की माँग में तेज़ी से आयी गिरावट के बाद तो कुछ ज्यादा ही चिंता जताई जाने लगी है। उधर विश्व में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भारत का ओहदा घट जाने की खबर ने भी ऐसी चर्चाओं को और हवा दे दी। अंदरूनी तौर पर वास्तविक स्थिति क्या है, इसका पता फ़ौरन नहीं चलता। हकीकत बाद में पता चलेगी। लेकिन फिलहाल सरकार उतनी चिंतित नहीं दिखाई देती। उसके पास कुछ तर्क भी हैं। मसलन जीएसटी से कर संग्रह पर असर पड़ा नहीं दिख रहा है। दूसरा तर्क यह कि अपने देश में उत्पादन में सुस्ती का एक कारण वैश्विक मंदी है। बहरहाल, आर्थिक हालत अभी उतनी बुरी न सही लेकिन आगे के लिए सतर्कता बरतना हमेशा ही जरूरी माना जाता है।
सकल घरेलू उत्पाद में आधा पौन फीसद की घटबढ़ एक रूझान तो हो सकता है लेकिन यह किसी आफत का लक्षण नहीं कहा जा सकता। इसी आंकड़े से देश की अर्थव्यवस्था का आकार तय होता है। हाल ही में हम विश्व में पांचवे से खिसककर सातवें पर भले ही आ गए हों लेकिन यह उतनी चिंताजनक बात है नहीं। बल्कि यह आंकड़ा हमें उत्पादक कामकाज में सुधार के लिए प्रेरित कर सकता है। 
पिछली तिमाही में वाहनों की बिक्री में फिलहाल कमी ही दिखी है, ये उघोग खत्म नहीं हो गया है। विशेष प्रयासों से देश में आर्थिक गतिविधियाँ कभी भी बढ़ाई जा सकती हैं। देश में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ाने के कई उपाय किए जा सकते है और स्थिति को सुधारा जा सकता है। खबरें हैं कि वित्तमंत्री इस काम पर लग भी गई हैं। फिर भी सावधानी के तौर पर  यह समय देश की माली हालत के कई पहलुओं पर गौर करने का जरूर है।
आर्थिक मामलों के जानकार बताते रहते हैं कि अपने देश की अर्थव्यवस्था तीन क्षेत्रों में वृद्धि से तय होती है। ये क्षेत्र हैं विनिर्माण, सेवा और कृषि। मौजूदा चिंता विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में सुस्ती से उपजी है। कृषि को कोई लेखे में नही ले रहा है। भले ही जीडीपी में कृषि का योगदान थोड़ा सा ही बचा हो लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि कृषि ही वह क्षेत्र है जो देश में आधी से ज्यादा आबादी को उत्पादक काम में लगाए हुए है। और यही वह क्षेत्र है जिसमें बेरोजगारी की समस्या ज्यादा बढ़ गई है। इसी क्षेत्र के लोगों को उत्पादक कार्यो में लगाने की गुंजाइश भी है और मौजूदा हालात से निपटने का मौका भी इसी क्षेत्र में बन सकता है।
कई विद्वानों की तरफ से सुझाव मिल रहा है कि देश में किसी भी तरह से मांग बढ़ाने की कोशिश होनी चाहिए। लेकिन मांग बढ़ाने के लिए क्या यह जरूरी नहीं कि लोगों की जेब में ज्यादा पैसा हो। सरकार ने किसानों के बैंक खातों में हर महीने पांच सौ रूप्ए डालने का फैसला किया था। इस योजना में  सरकारी खजाने से हर साल 90 हजार करोड़ निकल कर किसानों की जेब में जाना है। कुछ विश्लेषकों ने अंदाजा लगाया था कि यह रकम देश में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ा देगी और उत्पादन में सुस्ती कम होगी। लेकिन पिछले छह महीनों का अनुभव यह है कि इस योेजना का ऐसा असर अभी दिखा नहीं है। हो सकता है कि इस कारण से न दिखा हो क्योंकि अभी यह रकम सभी किसानों के खातों में पहुंच नहीं पाई है। अगर वाकई देश में मांग घटने की समस्या बड़ी होती जा रही है तो किसानों को रकम भेजने का काम फौरन तेज किया जाना चाहिए। लोगों की जेबों में पैसा डालने के तरीके अपनाए जाने चाहिए।
सरकार के स्तर पर सतर्कता बरतने के लिए एक क्षेत्र और है। यह मामला भी कृषि क्षेत्र से जुड़ा है। वह ये है कि देश में बारिश के आंकड़े सामान्य नहीं हैं। बारिश के दो महीने से ज्यादा गुजरने के बाद भी देश में नौ फीसद वर्षा कम हुई है। आने वाले समय में अगर देश में औसम वर्षा की भरपाई न हुई तो कृषि उत्पादन पर भारी असर पड़ सकता है। वैसे यह अभी उतनी चिंता की बात नहीं है। फिर भी किसी ख़तरे की आशंका पर नज़र तो रखनी ही पड़ेगी।
आर्थिक मंदी की सबसे ज़्यादा मार रोजगार पर पड़ती है। हम पहले से ही बेरोेजगारी से परेशान हैं। इस तरह से वर्तमान परिस्थितियों में अगर सबसे ज्यादा सतर्कता की जरूरत है तो वह बेरोज़गारी के मोर्चे पर चैकस रहने की है।
एक तबका महंगाई को लेकर परेशानी जता रहा है। हालांकि यह शिकायत खाने पीने की कुछ चीजों को लेकर है। लेकिन देश में महंगाई की चिंता का तुक बैठता नहीं है। जहां मंदी के लक्षण हो वहां शुरूआती तौर पर माल बिकने की ही परेशानी खड़ी होती है और दाम गिरते हैं। विद्वानों ने इस बात पर ज्यादा गौर नहीे किया है कि पिछला एक साल खाद्य महंगाई की दर ज्यादा नहीं बढ़ने का रहा है। कृषि उत्पाद के दाम न बढ़ने से किसान बहुत परेशान रहे हैं। देश में मौसम की गड़बड़ी उनको और ज्यादा चिंता में डाले है। 

कुल मिलाकर मंदी की आहट के इस दौर में सरकार को अगर किसी की चिंता करने की जरूरत है तो सबसे ज्यादा किसानों की चिंता करने की है।

Monday, August 12, 2019

अब कश्मीर में क्या होगा?


जहाँ सारा देश मोदी सरकार के कश्मीर कदम से बमबम है वहीं अलगाववादी तत्वों के समर्थक अभी भी मानते हैं कि घाटी के आतंकवादी फिलिस्तानियों की तरह लंबे समय तक आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहेंगे। जिसके कारण अमरीका जैसे-शस्त्र निर्माता देश भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव को बढ़ाकर हथियारों बिक्री करेंगे। उनका ये भी मानना है कि केंद्र के निर्देश पर जो पूंजी निवेश कश्मीर में करवाया जाएगा, उसका सीधा लाभ आम आदमी को नहीं मिलेगा और इसलिए कश्मीर के हालात सामान्य नहीं होंगे। पर ये नकारात्मक सोच है।

इतिहास गवाह है कि मजबूत इरादों से किसी शासक ने जब कभी इस तरह के चुनौतीपूर्णं कदम उठाये हैं, तो उन्हें अंजाम तक ले जाने की नीति भी पहले से ही बना ली होती है।

कश्मीर में जो कुछ मोदी और शाह जोड़ी ने किया, वो अप्रत्याशित और ऐतिहासिक तो है ही, चिरप्रतिक्षित कदम भी है। हम इसी कॉलम में कई बार लिखते आए हैं, कि जब कश्मीरी सारे देश में सम्पत्ति खरीद सकते हैं, व्यापार और नौकरी भी कर सकते हैं, तो शेष भारतवासियों को कश्मीर में ये हक क्यों नहीं मिले?

मोदी है, तो मुमकिन है। आज ये हो गया। जिस तरह का प्रशासनिक, फौजी और पुलिस बंदोबस्त करके गृहमंत्री अमित शाह ने अपनी नीति को अंजाम दिया है, उसमें अलगावादी नेताओं और आतंकवादियों के समर्थकों के लिए बच निकलने का अब कोई रास्ता नहीं बचा। अब अगर उन्होंने कुछ भी हरकत की, तो उन्हें बुरे अंजाम भोगने होंगे। जहां तक  कश्मीर की बहुसंख्यक आबादी का प्रश्न है, वो तो हमेशा ही आर्थिक प्रगति चाहती है। जो बिना अमन-चैन कायम हुए संभव नहीं है। इसलिए भी अब कश्मीर में अराजकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची।

कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर, गृहमंत्री ने वहंा की कानून व्यवस्था पर अपना सीधा नियंत्रण स्थापित कर लिया है। अब जम्मू-कश्मीर पुलिस की जबावदेही वहां के मुख्यमंत्रियों के प्रति नहीं, बल्कि केंद्रीय गृहमंत्री के प्रति होगी। ऐसे में अलगाववादी शक्तियों से निपटना और भी सरल होगा।

जहां तक स्थानीय नेतृत्व का सवाल है। कश्मीर की राजनीति में मुफ्ती मोहम्मद सईद और मेहबूबा मुफ्ती ने सबसे ज्यादा नकारात्मक भूमिका निभाई है। अब ऐसे नेताओं को कश्मीर में अपनी जमीन तलाशना मुश्किल होगा। इससे घाटी में से नये नेतृत्व के उभरने की संभावनाऐं बढ़ गई हैं। जो नेतृत्व पाकिस्तान के इशारे पर चलने के बजाय अपने आवाम के फायदे को सामने रखकर आगे बढ़ेगा, तभी कामयाब हो पाऐगा।

जहां तक कश्मीर की तरक्की की बात है। आजादी के बाद से आज तक कश्मीर के साथ केंद्र की सरकार ने दामाद जैसा व्यवहार किया है। उन्हें सस्ता राशन, सस्ती बिजली, आयकर में छूट जैसी तमाम सुविधाऐं दी गई और विकास के लिए अरबों रूपया झोंका गया। इसलिए ये कहना कि अब कश्मीर का विकास तेजी से करने की जरूरत है, सही नहीं होगा। भारत के अनेक राज्यों की तुलना में कश्मीरीयों का जीवन स्तर आज भी बहुत बेहतर है।

जरूरत इस बात है कि कश्मीर के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना वहाँ पर्यटन, फल-फूल और सब्जी से जुड़े उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए और देशभर के लोगों को वहां ऐसे उद्योग व्यापार स्थापित करने में मदद दी जाऐ। ताकि कश्मीर की जनता शेष भारत की जनता के प्रति द्वेष की भावना से निकलकर सहयोग की भावना की तरफ आगे बढ़े।
आज तक सबसे ज्यादा प्रहार तो कश्मीर में हिंदू संस्कृति पर किया गया। जब से वहां मुसलमानों का शासन आया, तब से हजारों साल की हिंदू संस्कृति को नृशंस तरीके से नष्ट किया गया। आज उस सबके पुनरोद्धार की जरूरत है। जिससे दुनिया को एक बार फिर पता चल सके कि भारत सरकार कश्मीर में ज्यात्ती नहीं कर रही थी, जैसा कि आज तक दुष्प्रचार किया गया, बल्कि मुस्लिम आक्रांताओं ने हिंदूओं पर अत्याचार किये, उनके शास्त्र और धम्रस्थल नष्ट किये और उन्हें खदेड़कर कश्मीर से बाहर कर दिया। जिसे देखकर सारी दुनिया मौन रही। श्रीनगर के सरकारी संग्रहालय में वहाँ की हिंदू संस्कृति और इतिहास के अनेक प्रमाण मौजूद हैं पर वहाँ की सरकारों ने उनको उपेक्षित तरीकों से पटका हुआ है। जब हमने संग्रहालय के धूप सेंकते कर्मचारियों से संग्रहालय की इन धरोहरों के बारे में बताने को कहा तो उन्होंने हमारी ओर उपेक्षा से देखकर कहा कि वहाँ पड़ी हैं, जाकर देख लो। वो तो गनीमत है कि प्रभु कृपा से ये प्रमाण बचे रह गए, वरना आतंकवादी तो इस संग्रहालय को ध्वस्त करना चाहते थे। जिससे कश्मीर के हिंदू इतिहास के सबूत ही नष्ट हो जाएँ। अब इस सबको बदलने का समय आ गया है। देशभर के लोगों को उम्मीद है कि मोदी और शाह की जोड़ी के द्वारा लिए गए इस ऐतहासिक फैसले से ऐसा मुमकिन हो पायेगा।

Monday, August 5, 2019

2500 वर्ष बाद की दुनिया को हम क्या देंगे?


मैं जीवन में पहली बार यूनान (ग्रीस) आया हूँ। जिसे पश्चिमी दुनिया की सभ्यता का पालना कहते हैं। यहाँ आज भी 2500 साल पुराने संगेमरमर के विशाल मंदिर और 30 मी. की ऊँची देवी-देवताओं की मूत्र्तियों के अवशेष या प्रमाण मौजूद हैं। जिन्हें देखकर पूरी दुनिया के लोग हतप्रभ हो जाते हैं। हमारा टूरिस्ट गाईड एक बहुत ही पढ़ा लिखा व्यक्ति है। जिसने पुरातत्व पर पीएचडी. की है और लंदन से मास्टर की डिग्री हासिल की है। उसने हमें 2 घंटे में यूनान का 3000 साल का इतिहास तारीखवार इतना सुंदर बताया कि हम उसके मुरीद हो गऐ। जब हमने इन भव्य इमारतों के खंडहरों को देखकर आश्चर्य व्यक्त किया, तो उसने पलटकर एक ऐसा सवाल पूछा, जिसे सुनकर मैं सोच में पड़ गया। उसने कहा, ‘‘ये इमारते तो 2500 साल बाद भी अपनी संस्कृति और सभ्यता का प्रमाण दे रही हैं, पर क्या आज की दुनिया में हम कुछ ऐसा छोड़कर जा रहे हैं, जो 2500 वर्ष बाद भी दुनिया में मौजूद रहेगा’’। उसने आगे कहा,‘‘हम प्रदूषण बढ़ा रहे हैं, जल, जमीन और हवा जितनी प्रदूषित पिछले 50 साल में हुई है, उतनी पिछले 1 लाख साल में भी नहीं हुई थी। आज ग्रीस गर्मी से झुलस रहा है, हमारे जंगलों आग लग रही है, रूस के जंगलों में भी लग रही है, कैलिफोर्निया के जंगलों में भी लग रही है। ये तो एक ट्रेलर है। अगर ‘ग्लोबल वाॅर्मिंग’ इसी तरह बढ़ती गई,तो उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव के ग्लेश्यिर अगले 2-3 दशकों में ही काफी पिघल जाऐंगे। जिससे समुद्र का जलस्तर ऊँचा होकर, दुनिया के तमाम उन देशों को डूबो देगा, जो आज टापुओं पर बसे हैं’’।
उसे संस्कृति में आई गिरावट पर भी बहुत चिंता थी। उसका कहना था कि जिस संस्कृति को आज दुनिया अपना रही है, यह भक्षक संस्कृति है। जो भविष्य में हमें लील जाऐगी।
दुनिया के सबसे पुराने ऐतिहासिक सांस्कृतिक केंद्र ऐथेंस नगर का यह टूरिस्ट गाईड हर रोज दुनिया के कोेने-कोने से आने वाले पर्यटकों को घुमाता है और इसलिए इस तरह की बातचीत वह दुनियाभर के लोगों से करता है। जाहिर है कि दुनिया के हर हिस्से में विचारवान लोगों की सोच इस टूरिस्ट गाईड की सोच से बहुत मिलती है। पर प्रश्न है कि सब कुछ जानते-बूझते हुए भी हम इतना आत्मघाती जीवन क्यों जी रहे हैं? जबाव सरल है। किसी देश में सही सोचने वाले मुट्ठीभर लोग होते हैं। ज्यादातर लोग भेड़ों की तरह ताकतवर या पैसे वाले लोगों का अनुसरण करते हैं। अब वो ताकत जिसके पास होगी, वो अपनी मर्जी से दुनिया का नक्शा बनायेगा। फिर वो चाहे राज सत्ता के शिखर पर बैठा व्यक्ति हो या फिर कुबेर के खजाने पर बैठा हुआ। दोनों की ही सोच समाज से बिल्कुल कटी हुई या यूं कहे कि  जनहित के मुद्दों से हटी हुई होती है। इसलिए वे एक से एक वाहियात् और फिजूल खर्ची वाली योजनाऐं लेकर आते हैं। चाहे उससे देश के प्राकृतिक या आर्थिक संसाधनो का दोहन हो या समाज में विषमता फैले। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। 
ग्रीस का इतिहास दुनिया के तमाम दूसरे देशों की तरह है, जहां राज सत्ताओं ने या आक्रांताओं ने बार-बार तबाही मचाई और सबकुछ पूरी तरह नष्ट कर दिया। ये तो आम आदमी की हिम्मत है कि वो बार-बार ऐसे तूफान झेलकर भी फिर उठ खड़ा होता है और तिनके-तिनके बीनकर अपना आशियाना फिर बना लेता है। पिछली सदियों में जो नुकसान हुआ, उसमें जनधन की ही हानि हुई। पर अब जो पाश्विक वृत्ति की सत्ताऐं हैं, वो लगभग दुनिया के हर देश में है। ऐसी तबाही मचा रही है, जिसका खामियाजा आने वाली पीढ़िया बहुत गहराई तक, महसूस करेंगी। पर उससे उबरने के लिए उनके पास बहुत विकल्प नहीं बचेंगे। 
जलवायु परिवर्तन के शिखर सम्मेलन में फ्रांस में दुनियाभर के राष्ट्राध्यक्ष  इकट्ठे हुए और सबने ‘ग्लाबल वाॅर्मिंग’ पर चिंता जताई  और गंभीर प्रयास करने की घोषणाऐं की ।पर अपने देश में जाकर मुकर गऐ, जैसे अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने पेरिस में कुछ कहा और वाॅशिंग्टन में जाकर कुछ और बोला। राष्ट्राध्यक्षों की ये दोहरी नीति समाज और पर्यावरण के लिए घातक सिद्ध हो रही है। सूचनाक्रांति के इस युग में हर देश की जागरूक जनता को इस नकारात्मक प्रवृत्ति के विरूद्ध मिलकर जोरदार आवाज उठानी चाहिए और अपने जीवन में ऐसा बदलाव लाना चाहिए कि हम प्रकृति का दोहन न कर, उसके साथ संतुलन में जीना सीखे। तभी हमारी भावी पीढ़ियों का जीवन सुधर पाऐगा।

Monday, July 29, 2019

कर्नाटक में गिरती सरकारों का इतिहास

चार दशक पहले भारत में आयाराम-गयाराम का खेल शुरू हुआ था। जब हरियाणा में रातो-रात सरकार गिराकर विपक्ष ने इसी तरह सरकार बना ली थी। तब से आज तक देशभर में सैकडों बार विधायकों की खरीद-फरोख्त करके हर सत्तारूढ़ केंद्रीय दल ने प्रांतों की उन सरकरों को गिराया है, जहां उनके विरोधी दल की सरकारें थीं। इसमें कोई दल अपवाद नहीं है।
फिलहाल बैंगलूरू में जो हुआ, उसका भी एक लंबा इतिहास है। जिस समय रामकृष्णन हेगड़े ने कर्नाटक में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व किया था, उस समय उनके शासन की समस्त देशवासियों ने प्रशंसा की थी। श्री हेगड़े एक सुलझे हुए, काबिल और सद्व्यवहार वाले नेता थे। उन्हीं की कैबिनेट के एक मंत्री थे एच डी देवगौड़ा। जिन्होंने अपने ऐजेंडे को पूरा करने के लिए, विधायकों की एक समूह के साथ विद्रोह कर दिया और हेगड़े सरकार को गिराने में मुख्य भूमिका निभाई।
अबकी बार एस आर बोम्मई ने हेगड़े की जगह ली और कर्नाटक के मुख्यमंत्री बन गए। उन्होंने भी सुचारू रूप से व प्रभावी ढंग से राज्य पर शासन किया। श्री देवगौड़ा जोकि 20 विधायकों के नेता थे, उनके बल पर पुनः मंत्री मंडल में शामिल कर लिये गए। एक बार फिर बिना किसी कारण के उन्होंने असंतुष्ट गतिविधियां शुरू कर दीं और श्री बोम्मई की सरकार गिरा दी।
हवाला कांड के परिणामस्वरूप जब देश की जनता ने किसी भी एक राष्ट्रीय दल को बहुमत देना उचित नहीं समझा, तब देश में दर्जनों छोटे-बड़े दलों की मिलीजुली सरकार बनी। जिसका नेतृत्व उस समय श्री देवगौड़ा ने किया। वे भारत के प्रधानमंत्री बने। प्रधानमंत्री तो वे बन गए, पर कर्नाटक का मोह नहीं छोड़ सके। वे चाहते थे कि उनकी अनुपस्थिति में कर्नाटक मुख्यमंत्री उनका ही कोई व्यक्ति बने। पर ऐसा हो न सका। उस समय जे.पी. पटेल कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने। पर यह श्री देवगौड़ा को रास नहीं आया। नतीजतन बतौर प्रधानमंत्री के भी उन्होंने अपने अनुयायियों के माध्यम से श्री पटेल की सरकार को गिराने का भरसक प्रयास किया, लेकिन असफल रहे। क्योंकि श्री पटेल ने श्री देवगौड़ा की हर चाल को मात दे दी।
बाद के दौर में जब धरम सिंह कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने तो श्री सिद्दारमैया उनके उप मुख्यमंत्री बने। श्री देवगौड़ा के सुपुत्र कुमार स्वामी, जो पहली बार विधायक चुने गये थे, बीते दिनों की याद में बेचैन हो गये। उन्हें रातदिन यही उधेड़बुन रहती थी कि कैसे में धरम सिंह की सरका गिराऊ और स्वयं मुख्यमंत्री बनूं। कर्नाटक की राजनीति से जुड़े जानकारों का कहना है कि सत्ता की चाह के लिए कुमार स्वामी, धरम सिंह और सिद्दारमैया को लगातार मानसिक रूप से प्रताड़ित करते रहे। फिर वे ‘जेडीएस’ से अलग हो गये और फर्जी बहाना बनाकर धरम सिंह की सरकार से अपना समर्थन वापिस ले लिया और सरकार गिरा दी।
इसके बाद कुमार स्वामी ने अपने कट्टर प्रतिद्वंदियों के साथ हाथ मिला लिया। अब वे भाजपा के मात्र 30 विधायकों को साथ मिलाकर, सरकार बनाने में सफल हो गए। यह सरकार केवल 40 महीने तक ही काम कर पाई। समझौता यह हुआ था कि पहले 20 महीनों में कुमार स्वामी मुख्यमंत्री रहेंगे और बाद के 20 महीनों में भाजपा के येड्डीउरप्पा मुख्यमंत्री रहेंगे। श्री स्वामी ने कई बार जनता और धर्म गुरूओ के सामने यह वायदा भी किया था कि अपने 20 महीने के कार्यकाल को पूरा करके वे बिना शर्त भाजपा को कर्नाटक की कुर्सी सौप देंगे और भाजपा की सरकार समर्थन करेंगे। लेकिन सत्ता में अपने कार्यकाल का आंनद लेने के बाद कुमार स्वामी ने येड्डीउरप्पा को सत्ता सौंपने से इंकार कर दिया और सरकार गिरा दी।
अंततः, हर कोई यह इतिहास जानता है कि कुमार स्वामी एक बार फिर कर्नाटक के मुख्यमंत्री कैसे बने और किसी भी समय स्वेच्छा से अपना इस्तीफा देने की सार्वजनिक घोषणा करने के बावजूद उन्होंने क्या किया? पुरानी कहवत है कि, ‘जैसी करनी, वैसी भरनी’। अब अगर भाजपा ने कुमार स्वामी की सरकार, उनके विधायकों को लुभाकर या खरीदकर, गिरा दी, तो कुमार स्वामी को भाजपा से कोई शिकवा नहीं होना चाहिए। ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय’।
कहते हैं कि राजनीति, युद्ध और प्रेम में कुछ भी गलत या सही नहीं होता। इन परिस्थितियों में फंसे हुए पात्रों को साम, दाम, दंड व भेद जैसे सब हथकंडे अपनाकर अपना लक्ष्य हासिल करना जायज माना जाता है। पर लोकतंत्र के लिए यह बहुत ही कष्टप्रद स्थिति है। इससे स्पष्ट है कि जो भी विधायक, सांसद इस तरह सत्ता के लालच में दल बदल करते हैं या जो राष्ट्रीय दल इसे अंजाम देते हैं, वे सब मतदाताओं की निगाह में गुनहगार है। पर जब कुएं में ही भांग पड़ी हो, तो किसे दोष दें।
अब जब नये भारत के निर्माण का मोदी जी ने बीड़ा उठाया है, तो उन्हें इस ओर भी ध्यान देना चाहिए। सभी दलों की राय लेकर कानून में कुछ ऐसी व्यवस्थाऐं करें, जिससे ये आयाराम-गयाराम की सृंस्कृति पर हमेशा के लिए विराम लग सके। एक नियम तो अवश्य ही बनना चाहिए कि जो भी विधायक या सांसद जिस राजनैतिक दल की टिकट पर चुनाव जीते, यदि उसे छोड़े, तो उसके लिए विधानसभा या संसद से इस्तीफा देना अनिवार्य हो। इससे विधायकों और सांसदों की खरीद-फरोख्त पर विराम लग जायेगा। क्योंकि कोई भी जीता हुआ प्रत्याशी इतना बड़ा जोखिम मोल नहीं लेगा। क्योंकि उसे इस बात की कोई गारंटी नहीं होगी कि वह इतनी जल्दी दल बदलकर, फिर से चुनाव जीत जाएगा।

Monday, July 22, 2019

भूटान क्यों न बने भारत का गुरू ?

3 वर्ष पहले जब मैं पड़ोसी देश भूटान गया, तब मुझे ये जानने की उत्सुकता थी कि बिना औद्योगिक प्रगति वाला भूटान दुनिया का सबसे सुखी देश कैसे है? वहां जाकर जो कुछ देखा उसने जिज्ञासा शांत कर दी। पर अभी एक मित्र ने व्हाट्सएप्प पर भूटान के विषय में जो सूचनाऐं भेजी, उन्हें देखकर तो यही लगता है कि भारत को चाहिए कि भूटान को अपना गुरू बना ले। उस मित्र की भेजी सामग्री को यहाँ यथा रूप प्रस्तुत करना उचित रहेगा। इसलिए उसे लगभग वैसा ही प्रस्तुत कर रहा हूँ।

भूटान के जाने-माने चिंतक और ग्रोस नेशनल हैप्पीनेस सेंटर, भूटान के प्रमुख डॉ. सांगडू छेत्री कहते हैं कि भूटान के लोग प्रकृति को भगवान मानते हैं।वहां आज भी कई पीढ़ियां एक साथ, एक ही घर में, प्रकृति की फिक्र के साथ रहती हैं। भूटान की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पादन) भारत की तुलना में बहुत ही कम है। बड़े उद्योग हैं ही नहीं। मगर वहां के लोग प्रसन्नचित, संतुष्ट, प्रकृति से प्रेम करते हुए व जीवन मूल्यों को संरक्षित करते हुए आगे बढ़ रहे हैं।

भूटान की सबसे बड़ी ताकत यहां के जंगल हैं। इसे दुनिया का सबसे हरा-भरा देश माना जाता है। प्रकृति के घिरे भूटान को दुनिया का सबसे ज्यादा ऑक्सीजन बनाने वाला देश भी माना जाता है। यहां के 70 फीसदी हिस्से में जंगल है। ऊंचे पर्वत, नदियों का साफ पानी और हरियाली यहां की खासियत है। यहां जितना कार्बन सालभर में पैदा होता है, उसे यहां के जंगल ही नष्ट कर देते हैं। इस खूबी के कारण भूटान प्रदूषण रहित है। जंगल को बचाने के लिए सरकार ही नहीं यहां के लोग भी बराबर योगदान देते हैं।   

प्लास्टिक किस हद तक खतरनाक है, इसे  यहाँ बहुत पहले समझ लिया गया था। 1999 में यहां प्लास्टिक के कई सामानों पर प्रतिबंध लगाया गया था। 20 साल बाद भी कई देशों ने इस नियम को अपने यहां लागू नहीं किया। लिहाजा समुद्र की गहराई में टनों प्लास्टिक कचरा पहुंच रहा है। प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने के नियम को यहां का हर नागरिक अभियान की तरह मानता है और सख्ती से इसका पालन भी करता है। 

भूटान की ज्यादातर नीतियां ऐसी हैं जो पर्यावरण और लोगों, दोनों की सेहत को दुरुस्त रखने का काम करती हैं। सिगरेट और धूम्रपान से भूटान की लड़ाई काफी पुरानी है। कहते हैं 1729 में तम्बाकू पर कानून लाने वाला भूटान पहला देश था। 1990 में यहां तम्बाकू और सिगरेट के खिलाफ अभियान और सख्त हुआ। नतीजा, भूटान के करीब 20 जिले स्मोक फ्री घोषित किए गए। 2004 में स्मोकिंग को पूरे देश में बैन कर दिया गया। कानून के मुताबिक, सिगरेट और तम्बाकू के सेवन करते पकड़े जाने पर सीधी जेल होगी और जमानत नहीं दी जाएगी। 

भूटान की हरियाली और स्वच्छता के चर्चे विदेशों में भी हैं। देश को और हरा-भरा बनाने के लिए 2015 में ‘सोशल फॉरेस्ट्री डे’ के मौके पर भूटान में 100 जवानों की टीम ने मिलकर एक घंटे में 49,672 पेड़ लगाए। सर्वाधिक पेड़ लगाने के लिए भूटान का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज हुआ। इस बार पिछले रिकॉर्ड के मुकाबले, 10 हजार अधिक पेड़ लगाए गए। 2015 में हजारों लोगों ने भूटान के राजा-रानी के पहले बच्चे, राजकुमार ग्यालसे, के जन्मदिन का जश्न 1,08,000 पौधे लगाकर मनाया था।  

पिछले साल भूटान में विश्व पर्यावरण दिवस को ‘पैदल दिवस’ के रूप में मनाने की पहल की गई थी। भूटान के यातायात विभाग रॉयल भूटान पुलिस के निर्देश के अनुसार, देशभर के शहरी क्षेत्रों में यातायात बंद रहा था। सड़कों पर आपातकालीन सेवा वाले वाहनों की आवाजाही पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया था। जिसे यहां के लोगों ने भी सख्ती से पालन भी किया था।

दिलचस्प बात है कि भूटान में एक भी वृद्धाश्रम नहीं हैं और यहां के लोगों का मानना है कि हमारे समाज में ऐसी जगह होनी भी नहीं चाहिए। भूटान के चिंतक डॉ. सांगडू छेत्री कहते हैं यह समाज के लिए कलंक है। जिस मां ने हमें जन्म दिया उस मां को हमें वृद्धाश्रम में छोड़ना पड़ता है। जब तक हम नकारात्मक विचारों से जुड़े रहेंगे, प्रसन्नता हमसे कोसों दूर रहेगी।

वे बताते हैं कि जब मैं प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्य करता था तो कोशिश करता था कि अधिक से अधिक लोगों से मिलूं। हम भी यही करें। जब भी किसी व्यक्ति से मिलें, तो कोशिश करें कि चेहरे पर मुस्कान बनी रहे।

आज हम विश्व की तेजी बढ़ती अर्थव्यवस्था होने का चाहे कितना दावा कर लें पर हम  जीवन में कितने बदहवास हैं ये किससे छिपा है? क्या हमें भूटान को गुरु नहीं बनाना चाहिये?