Sunday, March 28, 2010

थाईलैंड: राजतंत्र बनाम लोकतंत्र

चाणाक्य पंडित ने कहा है कि व्यवस्था कोई भी हो अगर उसको चलाने वाले ठीक हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर चाहे राजतंत्र हो या लोकतंत्र। अगर राजा चरित्रहीन या खुदगर्ज हो तो राजतंत्र जनता के लिए अभिशाप बन जाता है और अगर सांसद अपराधी और भ्रष्ट हों तो लोकतंत्र जनता के लिए नासूर बन जाता है। थाईलैंड जो कभी गुलाम नहीं रहा। पिछले 64 साल से एक ही राजा के आधीन शासित है। 1946 में अपने बड़े भाई की रहस्यमय मृत्यु के दिन ही भूमिबोल का राज्याभिषेक कर दिया गया। तब से आज तक राजा भूमिबोल ने पितातुल्य व्यवहार से शासन किया और जनता के हृदय में स्थान बनाया है। वे आज दुनिया के सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में रहने वाले राजा हैं। यूं तो थाईलैंड में 1932 से आज तक 18 बार फौजी हुकूमत कायम हो चुकी है। पर यह राजा भूमिबोल की सूझ-बूझ थी कि हर बार उन्होंने सत्ता का संतुलन पुनः स्थापित कर दिया। अभी 2008 में ही बैंकाक की सड़कों पर लाल कमीज वाले प्रदर्शनकारियों ने फौज से संर्घष किया था। पिछले वर्ष भी ये सड़कों पर उतर आये। एक बार फिर इस मार्च के दूसरे हफ्ते में डेढ़ लाख लाल कमीज वाले प्रदर्शनकारी एक हफ्ते तक धरना प्रदर्शन करते रहे। ये लोग लोकतंत्र की बहाली चाहते हैं। इन्हें भगोड़े प्रधानमंत्री थकसिन का समर्थन है। जिन्हें 2006 में सैना ने अपदस्थ कर कठपुतली प्रधानमंत्री अभिशित वजाजिवा को सत्ता पर बिठा दिया। राजा ने इस परिवर्तन को स्वीकार कर लिया। थाईलैंड के धनाड्य वर्ग के चहेते अभिशित वजाजिवा जनता की आंखों में खटक रहे हैं। आम जनता विशेष कर पूर्वोतर की जनता थकसिन की जनहित नीतियों के कारण उनकी लोकतांत्रिक बहाली चाहती है। हलाकि थकसिन की अकूत दौलत और शाही जीवन आलोचना का विषय रहा है पर उनकी नीतियां आम जनता के हित में रही।

थाईलैंड के बुद्धिजीवी मानते हैं कि आज की दुनिया में राजतंत्र का कोई औचित्य नहीं बचा है। थाईलैंड को भी यूरोप के देशों की तरह राजा का पद मात्र अलंकरण के लिए ही रखना चाहिए। राजा को शासन में दखल नहीं देना चाहिए। पर यह बात वहां खुलकर नहीं कही जा सकती। जनसभाओं, लेखों और अखबारों में तो बिलकुल नहीं। थाईलैंड का कानून राज परिवार के बारे में कुछ भी नकारात्मक चर्चा करने की अनुमति नहीं देता। ऐसा करने वाले को फौरन कारावास भेज दिया जाता है। इसलिए यह राजनैतिक चर्चा दबी जुबान से निजी दायरों में की जाती है। पर बहुमत लोकतंत्र के पक्ष में है। अलबता जनता राजवंश को पूरी तरह खत्म नहीं करना चाहती। विशेष कर मौजूदा राजा को तो कतई नहीं। समस्या युवराज को लेकर है। 57 वर्षीय युवराज वाजीरालोगोकर्ण का जीवन ढर्रा, स्वभाव, चरित्र व आचरण जनता के बीच चिंता का विषय बना रहता है। राजा भूमिबोल गत सात माह से अस्पताल में है। 82 वर्ष की आयु में उनके बहुत ठीक  होने या लंबे समय तक जिंदा रहने की आशा नहीं की जा सकती। थाईलैंड की जनता को यही चिंता सत्ता रही है कि राजा के बाद उनका उत्तराधिकारी देश को दिशा कैसे दे पायेगा। जबकि दूसरी तरफ राजकुमारी सिरिधौर्न की छवि एक ममतामयी समाज सेवी की है। जनता की हार्दिक इच्छा राजकुमारी सिरिधौर्न को सत्ता में देखने की है।

राजनैतिक विश्लेषकों को भय है कि अगर राजकुमार वाजीरालोगोकर्ण को सत्ता मिलती है तो कहीं थाईलैंड में नेपाल जैसी खूनी क्रांति न हो जाए और कहीं राजतंत्र समाप्त ही न हो जाए। स्वयं वाजीरालोगोकर्ण अपने जीवन को लेकर इतने सशंकित रहते हैं कि उनके अंगरक्षकों को आग्नेय अस्त्र रखकर उनके इर्द-गिर्द खड़े होने की छूट नहीं है। बुजुर्गों का कहना है कि राजा अंत समय में अपनी वसीयत में राजकुमारी सिरिधौर्न को सत्ता देंगे और राजकुमार वाजीरालोगोकर्ण को देश निकाला। राजकुमार वाजीरालोगोकर्ण के पास अकूत दौलत है। इसलिए उन्हें यूरोप जैसे देशों में रहकर ऐशोआराम की जिंदगी बिताना मुश्किल न होगा। राजा ऐसा करेंगे या नहीं यह तो वक्त ही बतायेगा किन्तु इतना निश्चित है कि राजा भूमिबोल की मृत्यु के बाद थाईलैंड के राजतंत्र का स्वरूप और छवि ऐसी नहीं रहने वाली है जैसे आज है।

अच्छा होता कि राजा भूमिबोल अपने जीवनकाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था को विकसित करते। इससे देश में राजनैतिक अस्थिरता का माहौल इस तरह बार-बार न बनता। उन्होंने अपनी मर्जी के श्रेष्ठ लोगों की सलाहकार परिषद् बनाकर और उनसे सलाह लेकर देश तो ठीक चलाया और आर्थिक तरक्की भी खूब की। पर वे देश में सही नेतृत्व विकसित नहीं कर पाये। दरअसल थाईलैंड के राजा का आर्थिक साम्राज्य बहुत विशाल है। थाई अर्थव्यवस्था के लगभग हर क्षेत्र में राज परिवार का मोटा पैसा लगा है। वे प्रशासन कम और तिजारत ज्यादा करते हैं। लोगों को उनकी दौलत का कोई आंकलन नहीं है और न ही उनके खर्चों के हिसाब जनता की जांच के लिए उपलब्ध होते हैं। जबकि यूरोप के देशों में राज परिवारों पर किये जा रहे खर्चे को बाकायदा जनता की जांच के लिए प्रचारित किया जाता है या वेबसाईट पर डाला जाता है।

अगर थाईलैंड के राजपरिवार को लंबे समय तक अपनी स्थिति बनाये रखनी है तो उसे भूटान के राजा से सबक लेकर स्वतः ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बहाल कर देना चाहिए। थाईलैंड के जागरूक लोगों को डर है कि ऐसा न करने पर थाईलैंड के राजवंश की दशा नेपाल के राजवंश जैसी न हो जाए।

Sunday, March 21, 2010

विकंलागों के साथ यह मजाक क्यों?


1995 में भारत सरकार ने विकलांगों को शिक्षा में समान अवसर देने के मकसद से एक कानून बनाया। जिसके तहत हर विकलांग के लिए शिक्षा प्राप्त करना उसका मूलभूत अधिकार बन गया। सर्व शिक्षा अभियान के तहत स्कूलों को निर्देश जारी किये गये कि वे ऐसे सभी बच्चों के पंजीकरण कर लें। दिल्ली में जनवरी 2010 में एक अभियान चलाकर स्कूलों में विकलांगों के पंजीकरण कराये गये। सरकार की इस पहल का बहुत स्वागत हुआ। पंजीकरण के लिए विद्यालयों में काफी बच्चे आये। स्वयंसेवी संस्थाओं ने भी इस अभियान में बढ़-चढ़ कर भाग लिया और उनकी जानकारी में जितने भी विकलांग बच्चे थे उन सबका पंजीकरण करवा दिया।

अब पहली अप्रैल से इन बच्चों के बकायदा दाखिले किये जायेंगे। पर इस नई उत्पन्न स्थिति के लिए यह स्कूल  तैयार नहीं है। इसलिए हर ओर अफरा तफरी का माहौल है। विकलांगों के लिए हर स्कूल में जगह-जगह लोहे की रेलिंग, रैम्प व विशेष टा¡यलेट होना जरूरी है। काफी स्कूलों ने दावा किया है कि उनके यहां यह व्यवस्था की जा चुकी है। जबकि हकीकत यह है कि इन स्कूलों के  इन विशेष टा¡यलटों में टूटा फर्नीचर या फाइलें भरी हुई हैं। इन्हें गोदाम बना दिया है। रेलिंग या तो है ही नहीं या टूटी पड़ी हैं। रैम्प बनाने वालों ने यह नहीं सोचा कि इन रैम्पों पर विकलांग बच्चे चलेंगे। इतनी बेहूदा रैम्प हैं कि उन पर चलने से दुर्घटना होने की संभावना ज्यादा है। वैसे भी इन रैम्पों पर स्कूल के कर्मचारी और छात्र दिनभर स्कूटर या साइकिल उतारते रहते हैं।

विकलांग छात्रों को शिक्षा देने के लिए शिक्षकों को जिस विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है उसकी कोई व्यवस्था आज तक नहीं की गयी है। बिना इस प्रशिक्षण के यह पारंपरिक शिक्षक इन बच्चों से कैसा व्यवहार करेंगे? उनकी समस्याओं को कैसे समझेंगे? उनकी सीमाओं में रहते हुए उनके सीखने की क्षमता को कैसे बढ़ायेंगे? यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिनकी चिंता मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नहीं की है। जाहिर है कि जहां इन शिक्षकों में इस नई स्थिति को लेकर असमंजस और तनाव है वहीं विकलांग बच्चों के माता-पिता भी कम चिंतित नहीं। उन्हें डर है कि संवेदनशीलता के अभाव में उनके बच्चों के साथ शिक्षक और सहपाठी ऐसा आक्रामक या व्यंगात्मक व्यवहार कर सकते है जिससे बच्चों  के मनोविज्ञान पर विपरीत प्रभाव पड़ जाए। शिक्षा पाने की बजाय उसका मन टूट जाए और उसका जीवन और भी जटिल हो जाए।

इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय को निर्देश दिये गये हैं कि वह 90-90 दिन के विशेष पाठ्यक्रम चलाकर सभी शिक्षकों को विकलांग बच्चों के साथ उचित व्यवहार करने का प्रशिक्षण दें। यह प्रशिक्षण महज खानापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं है। इसके अलावा इस नीति में यह भी प्रावधान है कि होम ऐजुकेशनदी जाए। यानी शिक्षक विकलांग छात्रों के घर जाकर भी उन्हें शिक्षा दें। आज की भाग दौड़ की जिंदगी में ऐसे कितने शिक्षक हैं जो सहानुभूतिपूर्वक विकलांग बच्चों की समस्याओं को समझे और उनके घर जाकर भी शिक्षा देने को तैयार हों?

वैसे भी सरकारी स्कूलों में हर कक्षा में 80-80 बच्चे हैं। कहीं-कहीं तो सवा सौ बच्चे भी एक कक्षा में भर्ती किये गये हैं। सर्व शिक्षा अभियान में 14 वर्ष तक के हर बच्चे को शिक्षा दिये जाने की नीति बनायी गयी है। नतीजतन गांव, गली, मौहोल्ले के हर बच्चे को ढूंढ-ढूंढ कर दाखिल किया जा रहा है। भेड़-बकरी की तरह बच्चे भर दिये गये हैं। न तो जगह है और न ही फर्नीचर। ऐसे में एक शिक्षक जो ऐसी कक्षा में जायेगा वह कितनी देर में तो हाजिरी लेगा? क्या पढ़ायेगा? कैसे जानेगा कि बच्चे समझे या नहीं? कैसे बच्चे परीक्षा में अच्छा कर पायेंगे? नहीं कर पायेंगे तो शिक्षक की खिंचायी नहीं की जायेगी क्या? फिर इस बेचारे शिक्षक से कैसे उम्मीद की जाए की वह विकलांगों की ओर विशेष ध्यान देगा?

इतना ही नहीं स्कूलों में शिक्षकों का भारी आभाव है। भर्तियां हुई ही नहीं हेैं। अनेक स्कूल तो बिना प्राचार्यों के ही चल रहे हैं। जिस स्कूल में प्राचार्य ही नहीं उसके प्रशासन की क्या दशा होगी? इसकी चिंता शायद सर्व शिक्षा अभियान चलाने वालों को नहीं है।

आजादी के बाद से आज तक प्राथमिक शिक्षा को लेकर नीतियां तो बहुत बनीं। बजट भी बहुत आवंटित किये गये। घोषणाएं भी बहुत हुईं। पर धरातल पर कुछ भी नहीं बदला है। हर नया शिक्षा मंत्री नई नीतियां और नये दावों का ढिंढोरा पीटता है। पर बदलता कुछ नहीं। साधन सम्पन्न लोग ही अपने बच्चों को ठीक शिक्षा दिलवा पाते हैं। बाकी के करोड़ों बच्चे तो भगवान भरोसे जीवन काट देते हैं। फिर वे नक्सलवादी, आतंकवादी या अपराधी बनें तो दोष किसका है। विकलांग बच्चे तो यह भी नहीं कर सकते। आवश्यकता है ईमानदार सोच और व्यवहारिक नीतियों की। नारों से समस्याओं के हल नहीं निकला करते।

Sunday, March 14, 2010

मायावती का मायाजाल

15 मार्च को बसपा अपनी रजत जयंती मना रही है। इस मौके पर बसपा सुप्रीमो मायावती ने लखनऊ में एक महारैली बुलाई है। दलित प्रतीकों की स्थापना के अति उत्साह में मायावती ने लखनऊ में अम्बेडकर पार्क, काशीराम मेमोरियल और प्रेरणा स्थली जैसे सैकड़ों करोड़ रूपये के जो भव्य स्मारक बनाये हैं उनको दलित समाज के सम्मुख प्रस्तुत करने का भी यही एक मौका है। क्योंकि इस रैली में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों से भारी संख्या में दलित लखनऊ पहुंच रहे हैं। उन सब के लिए यह भव्य स्मारक कौतूहल का विषय रहेंगे। दो वर्ष पहले जब मायवती ने लखनऊ में एक दलित रैली की थी तो विभिन्न प्रांतों से आने वाले इन दलितों का व्यवहार आम जनता के लिए उत्सुकता भरा था। ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाले अम्बेडकरवादियों के लिए कोई देवालय, चर्च या मस्जि़द् तो है नहीं जहां जाकर वे अपने श्रृद्धा सुमन अर्पित कर सकें। इसलिए जब वे इन स्मारकों पर आये तो उन्होंने मायावती की मूर्ति के सामने नारियल फोड़े, उसे तिलक लगाया, हार पहनाया और परिक्रमा भी की। इस बार सर्वोच्च न्यायालय में हुई खिंचाई के बावजूद जिस युद्ध स्तर पर मायावती ने लखनऊ में इन भव्य स्मारकों का निर्माण कराया है उससे वे पूरी दुनिया के मीडिया का व जनता का ध्यान आकर्षित करने में सफल रही हैैं। इस रैली में आने वाले लाखों दलितों का वैसा ही व्यवहार शायद अब फिर देखने को मिलेगा जो शेष समाज के लिए कौतूहल का विषय होगा।

इस रैली की तैयारी इतने व्यापक स्तर पर की जा रही है कि लखनऊ का चप्पा-चप्पा नीली झंडियों से और हाथी के प्रतीकों से रंगीन हो गया है। दलित समाज सुधारकाs, अम्बेडकर, काशीराम व मायावती के विशाल कट-आउटों से लखनऊ का हर चैराहा पटा पड़ा है। अपनी ताकत और एैश्वर्य के प्रदर्शन का कोई भी अवसर मायावती गंवाना नहीं चाहतीं। जाहिर है कि जब लाखों लोग देशभर से इस रैली में आयेंगे तो मायावती के मायाजाल से प्रभावित हुए बिना नहीं जायेंगे।

इस संदर्भ में लखनऊ की सत्ता के गलियारों में दबी जुबान से इन स्मारकों के असर और भविष्य पर भी चर्चा चल रही है। मायावती के अधिनायकवादी व्यवहार के कारण उनसे शुब्ध अफसरशाही को विश्वास है कि अगले चुनाव तक मायावती अपना करिश्मा खो देंगीं। क्योंकि दलितों के उद्धार के नाम पर उन्होंने प्रदेश के दलितों के लिए कुछ भी उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। सारा का सारा ध्यान लखनऊ में दलित स्मारक बनाने में ही लगा दिया है। पर दूसरी तरफ काफी लोगों का मानना है कि तमाम निंदा, टांगखिंचाई, कानूनी पचड़ों व आलोचनाओं के बावजूद मायावती ने यह विशाल स्मारक बनवाकर अपनी जगह दलित इतिहास में सुरक्षित कर ली है। दलित स्वाभिमान के यह प्रतीक आने वाली दशाब्दियों में भी दलितों को उनके नेतृत्व की याद दिलाते रहsगे। सरकार कोई भी आ जाए, चाहे मुलायम सिंह की क्यों न हो, इन स्मारकों को क्षति नहीं पहुंचा पायेगी। ऐसा कोई भी प्रयास दलित हिंसा और संघर्ष को जन्म देगा। यह बात दूसरी है कि विपरीत परिस्थितियों में इन स्मारकों को दी जा रही सजावट की रोशनी, सशत्र सुरक्षा व विशेष देखभाल जैसी सुविधाओं को आने वाली सरकारें वापस ले लें और यह स्मारक आज की तरह चमचमाते और जगमगाते न रहे। उपेक्षा के कारण इनका स्वरूप बिगड़ जाए पर अस्तित्व समाप्त नहीं होगा और फिर सत्ता में दलितों के आने पर इनका कायाकल्प हो जायेगा। यह कोई अनहोनी बात नहीं है। इतिहास में ऐसे तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं।
कुल मिलाकार यह माना जाना चाहिए कि चाहे मायावती की जितनी आलोचना कोई कर ले पर वे अपने इरादे से डिगती नहीं हैं। सारे विरोध के बावजूद उन्होंने अपनी जिद पूरी की है और इसके पीछे उनकी दूरदृष्टि स्पष्ट है। दलित समाज का भला हुआ हो या न हुआ हो मायावती ने अपनी ऐतिहासिक पहचान जरूर स्थापित कर ली है। एक कम उम्र की दलित महिला नेता का इस तरह उठ खड़े होना और अपनी जिद पूरी करना यह सिद्ध करता है कि मायावती ने प्रदेश की राजनीति में गहरी जड़े जमा ली हैं। इस तरह की महारैली तो उस शक्ति प्रदर्शन का एक प्रमाण मात्र है।

तमिलनाडु की नेता जयललिता व आंध्र प्रदेश के एन.टी रामाराव ऐसे फिल्मी नेता थे जिन्होंने विशाल कट-आउटों के माध्यम से जनता पर अपने महान होने का प्रभाव जमाया। इस तरह अपने राजनैतिक इरादों को बुलंदी तक पहुंचाया। मायावती भी इन स्मारकों के माध्यम से दलितों के ऐतिहासिक नेता बनने का सपना संजोए है। लगता है कि उनका यह सपना तो पूरा हो जायेगा पर आने वाले वर्षों में यह देखना होगा कि मायावती इसी आत्मविश्वास से सत्ता के रास्ते पर आगे बढ़ती हैं या राजनीति की शतरंज में मात खा जाती है।

Sunday, March 7, 2010

आंकड़ों से बदलता व्यापार का संसार

एक बार ला¡स एन्जेलिस में उद्योगपतियों के एक सम्मेलन को सम्बोधित करते समय मैने श्रम आधारित तकनीकी के समर्थन और औद्योगिकरण के विरोध में काफी जोर से भाषण दिया। तब वहां मौजूद एक धनाड्य उद्योगपति गणपत पटेल ने मुझे एक पुस्तक भेंट की। जिसमें बताया गया था कि 1920 में अमरीका में जिन क्षेत्रों में रोजगार काफी मात्रा में उपलब्ध था वे क्षेत्र 1960 के दशक में गायब हो गए। पर इससे बेरोजगारी नहीं बढ़ी क्योंकि अनेक नए रोजगार क्षेत्र विकसित हो गए। उदाहरण के तौर पर 1920 के दशक में हाथ की मशीन पर टाइप करने वालों की भारी मांग थी। पर कम्प्यूटर आने के बाद यह मांग समाप्त हो गयी। 1920 में हवाई जहाज के पायलटों की कोई मांग नहीं थी। पर बाद में हजारों पायलटों की मांग पैदा हो गयी। श्री पटेल ने मुझसे जोर देकर कहा कि तकनीकी आने से बेरोजगारी नहीं बढ़ती। ऐसा ही अनुभव आज देश में सूचना क्रान्ति को देखकर हो रहा है। सूचना क्रान्ति ने हर क्षेत्र को बहुत व्यापक रूप में प्रभावित किया है।

कुछ वर्ष पहले तक व्यापारी के बहीखातों में आमदनी-खर्च का जो हिसाब रखा जाता था वो इतना माकूल होता था कि उसमें एक पैसे की भी गलती नहीं होती थी। सदियों से भारत में यही प्रथा चल रही थी। पर कम्प्यूटर का्रंति ने सब बदल कर रख दिया। अब व्यापार के आंकडे़ केवल आमदनी खर्च तक सीमित नहीं है। अब तो व्यापारी यह जानना चाहता है कि उसका कौन सा उत्पादन किस इलाके में ज्यादा बिक रहा है। उसके ग्राहक किस वर्ग के हैं। साल के किस महीने में उसकी बिक्री बढ़ जाती है। कौन सी राजनैतिक या सामाजिक घटनाओं के बाद किस वस्तु की मांग अचानक बढ़ जाती है। जैसे-जैसे यह जानकारी उत्पादक या वितरक कम्पनी के पास आती जाती है वैसे-वैसे उसका नजरिया और नीति बदलने लगती है। जबकि बहीखाते में केवल आमदनी-खर्च या लाभ-घाटे का हिसाब रखा जाता था।

साम्प्रदायिक दंगों का अंदेशा हो तो अचानक शहर में डबल रोटी, दूध, चाय, काॅफी के पैकेट, दाल-चावल, चीनी, मोमबत्ती, टाॅर्च, शस्त्रों की मांग बढ़ जाती है। जाहिर है कि इन वस्तुओं के निर्माताओं को देश की नाड़ी पर इस नजरिये से निगाह रखनी पड़ती है। जिस इलाके में साम्प्रदायिक तनाव बढ़े वहां इन वस्तुओं की आपूर्ति तेजी से बढ़ा दी जाए। इसी तरह बरसात से पहले छाते और बरसाती की मांग, गर्मी से पहले कूलर और एसी की मांग, जाड़े से पहले हीटर और गीजर की मांग बढ़ जाना सामान्य सी बात है। पर एसी दस हजार रू0 वाला बिकेगा या चालीस हजार रु0 वाला यह जानने के लिए उसे ग्राहकों का मनोविज्ञान और उनकी हैसियत जानना जरूरी है। अगर निम्न वर्गीय रिहायशी क्षेत्र में लिप्टन की ग्रीन लेबल चाय के डिब्बे दुकानों पर सजा दिए जाएं तो शायद एक डिब्बा भी न बिके। पर रैड लेबल चाय धड़ल्ले से बिकती है। धनी बस्ती में पांच रु0 वाला ग्लूकोज बिस्कुट का पैकेट खरीदने कोई नहीं आयेगा। पर पांच सौ रू0 किलो की कूकीज़ के पैकेट धड़ल्ले से बिकते हैं। इसलिए इन कम्पनियों को हर पल बाजार और ग्राहक के मूड़ पर निगाह रखनी होती है।

इससे यह कम्पनियां कई अहम फैसले ले पाती हैं। मसलन उत्पादन कब, कैसा और कितना किया जाए। वितरण कहां, कब और कितना किया जाए।  विज्ञापन का स्वरूप कैसा हो। उसमें किस वर्ग का प्रतिनिधित्व किया जाए और क्या कहा जाए जो ग्राहक का ध्यान आकर्षित कर सके। इसी सूचना संकलन का यह असर था कि 10 वर्ष पहले सभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने विज्ञापन अंग्रेजी की बजाय क्षेत्रीय भाषाओं में देने शुरू कर दिए। वरना हमारे बचपन में तो लक्स साबुन का विज्ञापन हिंदी के अखबार में भी अंग्रेजी भाषा में आता था। जब सूचना का इतना महत्व बढ़ गया है तो जाहिर है कि इस सूचना को एकत्र करने वाले, प्रोसेस करने वाले और उसका विश्लेषण करने वाले सभी की मांग बजार में बेहद बढ़ गयी है। यहां तक कि केवल इसी किस्म की सेवायें देने वाली कम्पनियों की बाढ़ आ गयी है। जैसे पहले शेयर मार्केट को चलाने वाले बड़े-बड़े दलाल और बड़ी कम्पनियां होती थीं। पर आज इंटरनेट की मदद से देश के हर कस्बे और शहर में शेयर मार्केट में खेलने वाली हजारों कम्पनियां खड़ी हो गयीं है।

अर्थव्यवस्था ही नहीं कानून की स्थिति को बनाये रखने के लिए भी इस सूचना का्रंति ने भारी मदद की है। आज अपराधियों या आतंकवादियों के बारे में सूचना का भंडार पुलिस विभाग के पास उपलब्ध है और आवश्यकता पड़ने पर मिनटों में देश में इधर से उधर भेज दिया जाता है। इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी इस सूचना का्रंति ने शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए ज्ञान के सैकड़ों दरवाजे खोल दिये हैं। आज देश के आम शहरों में इंटरनेट की मदद से बच्चों के पास दुनिया भर की जानकारी पहुंच रही है।

जब 1985 में युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कम्प्यूटराईजेशन की बाद की थी तो विपक्षी दलों और उनसे जुड़े पत्रकारों ने श्री गांधी का खूब मखौल बनाया था। उन पर कार्टून बनाये गये थे। जिनमें दिखाया गया कि भूखे लोगों को राजीव गांधी कम्प्यूटर सिखा रहे हैं। उस वक्त हमला करने वाले आज सबसे ज्यादा कम्प्यूटर का प्रयोग कर रहे हैं। यह अनुभव यही बताता है कि हम राजनीति में हों या मीडिया में तथ्यों का विवेकपूर्ण मूल्यांकन करें तो देश का लाभ होगा। विरोध के लिए विरोध करना सनसनीखेज तो हो सकता है पर इससे जनहित नहीं होता। क्या यह बात हमारे सांसद सोचेंगे?

Sunday, February 28, 2010

खान हूं तो जो करूं

रेल बजट, आम बजट, महंगाई पर संसद में हंगामा, पाकिस्तान के विदेश सचिव की अर्से बाद दिल्ली यात्रा और प्रधानमंत्री की 28 वर्ष बाद सउदी अरब यात्रा की तैयारी- एैसे सभी मुद्दों पर मीडिया में बहुत कुछ लिखा और कुछ कहा जा रहा है। इसलिए कुछ नया बताने को नहीं है। पर इस सब के बीच बा¡लीवुड की एक बहुचर्चित फिल्म रिलीज हुई। बड़े दिन से हल्ला था इस फिल्म का। माई नेम इज़ खानफिल्म रिलीज होने से पहले विवादों में घिर गई। शिव सैनिकों ने महाराष्ट्र में इसके पोस्टर फाड़ डाले। शाहरूख खान और बालठाकरे के बीच वाक्युद्ध भी चला। इस तरह बड़े हंगामे के साथ फिल्म रिलीज हुई और आजकल देशभर में दिखायी जा रही है। इस हंगामें के प्रचार के चक्कर में हम भी आ गए। पर ढाई घंटे थियेटर में काटने भारी पड़ गये। इस फिल्म का मूल है एक छोटी सी घटना। जो पिछले वर्ष अमरीका में घटी।

न्यूया¡र्क के हवाई अड्डे पर सुरक्षा जांच के लिए रोके गए भारतीय फिल्मी सितारे शाहरूख खान को अपनी ये बेइज्जतीबर्दाश्त नहीं हुई, तो उन्होंने यह फिल्म बनवा डाली। जिसमें बार-बार यह बात दोहराई गयी है कि, ‘माई नेम इज़ खान एण्ड आई एम ना¡ट ए टैरेरिस्टमैं खान हूं पर आतंकवादी नहीं। 9/11 के बाद से अमरीका में रह रहे मुसलमानों को स्थानीय आबादी की घृणा का शिकार होना पड़ा है। इसलिए तब से अब तक इस मुद्दे पर दर्जनों फिल्में भारत और अमरीका में भारतीय मूल के निर्माता बना चुका हैं। जिनमें इस्लाम के मानने वालों की मानवीय संवेदनाओं को दिखाने की कोशिश की गयी है। अपने आप में यह कोशिश सही भी है और जरूरी भी। पर इसका मतलब यह नहीं कि चाहे जो दर्शकों को परोस दिया जाए।

माई नेम इ़ज खानएक ऐसी फिल्म है जिसमें तथ्य दो मिनट का है कहानी को नाहक ही ढाई घंटे घसीटा गया है। फिल्म का कथानक दमदार नहीं है। रेंगती हुई कहानी बढ़ती है। बार-बार वही डायला¡ग दोहराये जाते हैं। बोझिल दृश्यों की भरमार है। शाहरूख खान को अमन का मसीहा बनाकर पेश किया गया है। फिल्म के दौरान दर्शक थियेटर से उठने को बेताब रहते हैं और कुछ तो उठकर चले भी जाते हैं। पिछले दो-तीन वर्षों से शाहरूख खान की फिल्मों में उनकी शख्सियत को कई गुना बढ़ा कर पेश किया जा रहा है। जहां एक तरफ कामयाबी और दौलत ने शाहरूख खान को भारत के सफलतम फिल्मी सितारों की श्रेणी में खड़ा कर दिया है वहीं लगता है कि अब उन्हें शिखर से नीचे उतरने का डर सताने लगा है। इसलिए उनकी पत्नी गौरी खान के बैनर तले एक के बाद एक फिल्म शाहरूख खान को टिकाये रखने के मकसद से बनाई जा रही है। माई नेम इ़ज खानभी कुछ ऐसी ही फिल्म है। 

पश्चिमी देशों में एक रिवाज है कि जब कोई फिल्मी सितारा, गायक कलाकार या उद्योगपत्ति बहुत ज्यादा सफल हो जाता है और उसके पास दौलत का अंबार लग जाता है तो वह जन सेवा के कामों की ओर बढ़ जाता हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य या राहत के कार्यों में अपना धन और अपनी शक्ति लगता देता है। इससे उसे यश भी मिलता है और संतोष भी। आज शाहरूख खान के पास बेशुमार दौलत है। वे चाहे तो अपनी रूचि के क्षेत्र में अपनी ऊर्जा लगाकर जनहित के कार्य कर सकते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि वे फिल्मी दुनिया से सन्यास ले लें। बल्कि हर तरह की फिल्म करने की बजाय चुनिन्दा फिल्मों में काम करें और अपने अभिनय के झंडे गाढ़ते रहे। इस मामले में शाहरूख खान को आमिर खान से सबक लेना चाहिए। जिन्होंने कछुए की चाल चलकर खरगोशों को पछाड़ा है। साल डेढ साल में एक फिल्म लाते हैं। यश भी कमाते हैं, धन भी कमाते हैं और समाज को कुछ ठोस संदेश भी दे जाते हैं। लगान, तारे जमीन पर, रंग दे बंसती व थ्री इडियट जैसी फिल्मों ने पूरी दुनिया के दर्शकों को प्रभावित किया है।

फिल्म सबसे सशक्त माध्यम है जिससे समाज में बड़ा परिवर्तन किया जा सकता है। राजनीति में आने वाले फिल्मी सितारों ने अपनी लोकप्रियता को भुनाया तो खूब पर समाज का कुछ भला नहीं कर पाए। चाहे गोविन्दा हो या धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन हो या एन.टी.रामाराव। शाहरूख खान अपनी लोकप्रियता की उस बुलंदी पर है जहां से वे युवाओं का सैलाब सही दिशा में मोड़ सकते हैं। बशर्तें कि उन्हें खुद इस बात का अहसास हो कि दिशा क्या है। खुद ना हो तो उन्हें बताने वाले सही सलाह दें। फिर उन्हें अच्छी फिल्म का कथानक भी मिलेगा और अपने किरदार के लिए मौका भी। उनकी फिल्म उन्हें यश भी दिलायेगी और कुछ परिवर्तन भी ला पायेगी। उम्मीद है कि शाहरूख खान इन बातों पर गंभीरता से मनन करेंगे और अपनी कामयाबी के सूरज के डूबने से पहले एक बार फिर नए भूमिका में जनता के दिल के सितारे बनेंगे। माइ नेम इज़ खानबनाकर नहीं बल्कि काम से नाम पैदा करके।

Sunday, February 7, 2010

रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह

राजनीति के सदाबहार चर्चित चेहरे अमर सिंह के सितारे गर्दिश में हैं। सपा के नेता मुलायम सिंह यादव ने अपने इस निकटतम सहयोगी को दल से निष्कासित कर दिया है। पिछले कुछ हफ्तों का घटनाक्रम इस परिणिति की ओर इशारा कर रहा था। दोनों के बीच तकरार के कारणों को लेकर कई तरह की बातें कहीं जा रही हैं। अखिलेश यादव और रामगोपाल यादव की अमर सिंह से नाराजगी छिपी हुई नहीं है। इसलिए यही माना जा रहा है कि इस विवाद की जड़ में यही मनमुटाव है। पर औद्योगिक जगत में कुछ और ही चर्चा है।

सभी जानते हैं कि देश के एक सबसे बड़े घराने के दो भाइयों के बीच गत कुछ वर्षों से महाभारत छिड़ा है। इनमें से एक भाई के साथ अमर सिंह डटकर खड़े रहे हैं। कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता से बाहर होने के बाद दूसरे भाई को लगता था कि अमर सिंह ठंडे पड़ जायेंगे। पर अमर सिंह ने हमेशा सही मौके पर सही निर्णय लेकर अपने विरोधियों को ठेंगा दिखाया है। केन्द्र में जब राजग सरकार आई तो अमर सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी से ऐसी जुगलबंदी की कि भाजपा के नेता तक उनसे परेशान थे। भाजपा की सरकार में  अमर सिंह के काम भाजपाइयों से पहले होते थे।

यूपीए की सरकार आई तो अमर सिंह ने हरकिशन सिंह सुरजीत से ऐसे तार जोड़े  कि उनकी हैसियत बरकरार रही। मनमोहन सिंह सरकार जब परमाणु मुद्दे पर विश्वास मत में गिरने लगी तो अमर सिंह ने अपना बैर भुलाकर उसका हाथ थाम लिया। मनमोहन सिंह की सरकार की वैतरणी तो पर हुई ही पर अमर सिंह की भी खूब चल निकली। समाजवादी पार्टी पर अमर सिंह की पकड़ कैसे इतनी मजबूत हुई कि दल के पुराने धाकड़ नेता हाशिए पर बिठा दिए गए या दल छोड़कर चले गए, इसे लेकर तमाम बातें सत्ता के गलियारों में कही जाती हैं। पर सपा के नेताओं को तब यह सब स्वीकार्य था। आज सपा अमर सिंह पर पूंजीपतियों का हित साधने और दल में समाजवादी मूल्यों से किनारा करने का आरोप लगा रही है। सपा वाले यह कैसे भूल गए कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की पिछली सरकार बनते ही एक उत्तर प्रदेश विकास परिषद बनाई गई थी जिसके अध्यक्ष अमर सिंह और सदस्य वे सारे उद्योगपति थे जिनके अमर सिंह से प्रगाढ़ संबंध थे। तब सपाइयों ने इसका विरोध क्यों नहीं किया ? अचानक ऐसा क्या हो गया कि अमर सिंह दाल में कंकड़ी की तरह दिखने लगे।

दरअसल बात कुछ और है। राजनीतिक मोहरे फिट करने में उस्ताद अमर सिंह लगता है अब की बार गच्चा खा गए। अंदर की खबर रखने वाले विश्वसनीय सा्रेत बताते हैं कि उस बड़े औद्योगिक घराने के बड़े भाई ने मुलायम सिंह यादव व अखिलेश यादव से मुलाकात कर पूछा कि उनका छोटा भाई सपा को नियमित रूप से कितना पैसा देता है? साथ ही यह पेशकश भी की कि वे चाहे तो उनके दल को इससे ज्यादा मदद मिल सकती है बशर्ते कि वे अपने दल से अमर सिंह को बाहर कर दे। लगता हैं कि बड़े भाई की यह युक्ति काम कर गई और नतीजा सबके सामने है। अब तो फिल्मी गाना गाने के शौकीन अमर सिंह अपने बाथरूम में गुनगुना रहे होंगे, ‘रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह, बैठे हैं उन्हीं के कूंचे में हम आज गुनहगारों की तरह। पर हम्पटी-डम्पटी अमर सिंह इतनी आसानी से गिरने वाली दीवार नहीं है। वे कहीं न कहीं अपनी जुगाड़ फिट कर ही लेंगे। सोनिया गांधी भले ही उन्हें पास न फटकने दे पर मायावती से लेकर दर्जनों क्षेत्रीय दल में जाने का उनका विकल्प खुला है। क्योंकि हर दल को पैसे जुटाने वाले की जरूरत होती है और अमर सिंह इस कला में महारथी हैं। पर उनकी मुश्किल यह है कि  सत्तारूढ़ दल अभी कमजोर नहीं हुआ है और जल्दी उसके सत्ता से हटने के आसार नहीं है। इसलिए इस व्यवस्था में अमर सिंह अपना प्रभाव जमा पाएंगे इसके आसार कम ही नजर आते हैं। बिना केन्द्र की सत्ता में पकड़ हुए औद्योगिक जगत की पकड़ भी ढीली पड़ जाती है।

जहां तक अपना दल खड़ा करने की बात है तो उसमें अमर सिंह की कामयाबी संदेहास्पद है। क्योंकि किसी भी राजनैतिक दल को जमीन से खड़ा करने के लिए देश के गली-देहातों मे चप्पलें घिसनी पड़ती हैं। धूल-धूप झेलनी पड़ती है। जनता की खरी-खोटी सुननी पड़ती है। पांच सितारा जिंदगी जीने के आदी अमर सिंह ऐसा कर पायेंगे इसमें शक है और इसलिए उनका यह प्रयास शायद परवान न चढ़े। दूसरी तरफ अमर सिंह से द्वेष रखने वाले मानते हैं कि यह अमर सिंह के पतन की शुरूआत है। सिंगापुर में किडनी का आप्रेशन कराकर लौटे अमर सिंह का स्वास्थ्य अब ऐसा नहीं कि वे किसी नये दल को खड़ा कर सके। अब देखना यह होगा कि इन विपरीत परिस्थितियों में ठाकुर अमर सिंह खुद को कैसे फिर से खड़ा करते हैं?

Sunday, January 31, 2010

खुदी को कर बुलंद इतना

कम्प्यूटर साइंस की दुनिया में बिल गेटस के अलावा एक हिंदुस्तानी नाम आज पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है। नागा नरेश करातूरा नाम के 21 वर्षीय इस नौजवान ने आईआईटी मद्रास से कम्प्यूटर साइंस में बीटैक की डिग्री हासिल करके गूगल बैंगलौर में एक बढि़या नौकरी हासिल की है। तो इसमें नया क्या ? नया है मुश्किलों से जूझने का नरेश का जज्बा। बे-पढ़े लिखे मजदूर मां बाप का यह लड़का 4 साल की उम्र में एक दुर्घटना में अपनी दोनों टांगे गवा बैठा। इस कदर कि जयपुर फुट भी बांधना मुश्किल था। क्योंकि नितंबों के नीचे टांगें बची ही नही थी। पर इसके हौसले और हर स्तर पर मिले बेहद प्यार और सहयोग ने इसे यहां तक पहुंचा दिया। सबसे प्रभावशाली बात यह है कि नागा नरेश खुद को बहुत सौभाग्यशाली मानता है और भगवान का धन्यवाद करता है कि उसने हर मोड़ पर उसका साथ दिया। उसे किसी से कोई शिकायत नहीं है। हरदम खुश रहने वाला नागा मानता है कि दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है। नागा नरेश का नाम गूगल पर ढूंढने पर उसके बारे में बहुत रोचक जानकारी मिलती है। पर इस लेख का उद्देश्य एक नौजवान के अनोखे जीवन की दास्तान सुनाना नहीं बल्कि उसकी जिंदगी से सबक सीखना है।

आज देश में लाखों नौजवान हट्टे-कट्टे, पढ़-लिखे और साधन सम्पन्न होते हुए भी समाज, दुनिया और भगवान को अपने साथ हो रही बेइंसाफी के लिए कोसते हैं। जिंदगी के महत्वपूर्ण वर्ष नौकरी की तलाश में गुजार देते हैं। नशे और अपराध की तरफ आसानी से फिसल जाते हैं। समाज के लिए भार बन कर जीते हैं। पर नागा नरेश जैसे नौजवानों का जीवन उदाहरण है कि जिंदगी को जिंदादिली से जीने के जज्बे का। राहुल गांधी जब देश के नौजवानों के बीच जाते हैं तो उन्हें देश के काम में जुड़ने के लिए न्योता देते हैं। जिसका उन्हें अच्छा प्रत्युत्तर मिल रहा है। तमिलनाडु के चैन्नई जैसे शहर में नौजवान राहुल के मुरीद हो गए। जरूरी नहीं कि राहुल गांधी ऐसे सब नौजवानों को राष्ट्र निर्माण में जोड़ पाएं। यह भी जरूरी नहीं कि वे इन नौजवानों को पूरी तरह से दिशा दे पाए। पर इतना जरूर है कि अपने इस छोटे से प्रयास से राहुल गांधी बहुत तेजी से युवा वर्ग के बीच लोकप्रिय हो रहे हैं। इससे क्या संदेश मिलता है? यह नहीं कि अब हर दल को इस तरह अपने युवराजों को आगे खड़ा कर वोट बटोरने का नया तमाशा खड़ा करना होगा। बल्कि ये कि देश का नौजवान अपनी ऊर्जा को सकारात्मक रूप से देश के निर्माण के काम में लगाने को तैयार है। उसे सही दिशा निर्देश की जरूरत है।

अगर आन्ध्र प्रदेश में गोदावरी के तट पर एक छोटे से गांव टीपार्रू में गरीब घर में पैदा हुआ विकलांग बच्चा इसी समाज में इतनी ऊंचाई तक पहुंच सकता है तो बाकी नौजवान क्यों नहीं? साफ जाहिर है कि उनमें कुछ कर गुजरने का या तो जज्बा नहीं है या रास्ते का ज्ञान नहh है। आज देश का मीडिया अपना बाजार बढाने के लिए ही सही नौजवानों को पढ़ने और रोजगार पाने के नए नुस्खे बताने लगा है। ऐसा पहले नहीं होता था। जाहिर है कि इन नुस्खों से नौजवानों को काफी सार्थक जानकारी मिल रही है और वे आगे भी बढ़ रहे हैं। पर प्रश्न है कि क्या डिग्री हासिल करना और नौकरी पाना ही नौजवानों का लक्ष्य होना चाहिए। कहा जाता है कि भारत कृषि प्रधान देश है। यहां की 70 फीसदी आबादी गांवों में बसती है। पर जो सूचनाएं मीडिया की मार्फत इन नौजवानों को दी जा रही है क्या उनमें अपने गांव और खेती को सुधारने के नुस्खे भी इन्हें बताए जा रहे हैं। शायद नहीं। क्योंकि गांव की बात करना फैशनेबल नहीं माना जाता। इसलिए अब गांव की बात कोई नहीं करता। मीडिया भी नहीं क्योंकि उसको चलाने वाले और पढ़ने, देखने वाले शहरों में रहते है। वे गांव के उत्पादनों का उपभोग तो डटकर करते हैं पर बदले में गांव को कुछ देना नहीं चाहते। सब कुछ शहरों तक सीमित रखना चाहते हैं। इससे दो नुकसान हो रहे हैं। एक तो गांवों का सही विकास नहीं हो रहा और दूसरा गांव में गरीबी बढ़ रही है। एक उदाहरण काफी होगा कि 1967 में कृषि उत्पादनों का जो दाम था वो 2007 तक 40 साल में, मात्र 10 गुना बढ़ा। जबकि इन्हीं 40 वर्षों में शहरों में होने वाले उत्पादनों की कीमत 30 फीसदी बढ़ गयी। साफ जाहिर है कि इन 40 वर्षों में गांव वालों को डटकर लूटा गया। जिससे शहर बढ़े और गांव बर्बाद हुए। अब ये इतनी बड़ी चुनौती है कि अगर गांव का नौजवान इसे स्वीकार कर ले और तय करे कि उसे अपने गांव को आत्मनिर्भर बनाना है तो कोई वजह नहीं कि वह नागा नरेश से पीछे रह जाए। ऐसा संकल्प करने वाले नौजवान किसी की नौकरी के मोहताज नहीं रहेगs। वे तो उपलब्ध संसाधनों से ही अपना संसार बना लेंगे। ऐसी सोच और ऐसे मार्ग दर्शन की देश के नौजवानों को भारी जरूरत है। अगर साधन सम्पन्न लोग विशेषज्ञों को बुलाकर गांव के नौजवानों को गांव में ही रहकर सुखी और सम्पन्न जीवन जीने की कला सिखा सके तो वे समाज का बहुत भला करेंगे।

नागा नरेश जैसी घटनाएं कभी-कभी प्रकाश में आती रहती हैं और इनसे नौजवानों को प्रेरणा भी मिलती है। पर वह अल्पकालिक होती है। भारत जैसे देश को जहां नौजवानों की संख्या 40 करोड़ तक जा पहुंची है, देश के नौजवानों के लिए सरकार को एक नई दृष्टि से सोचना होगा। अपनी नीतियों और योजनाओं में ऐसे बुनियादी बदलाव करने होंगे जिससे देश का युवा नौकरी की आस छोड़ उत्पादन, सृजन या निर्माण में जुट जाए। आईआईटी में तो गिने चुने ही जाते हैं। पर बाकी करोड़ों नौजवानों को रास्ता नहीं सूझता। इसलिए उन्हें सही नेतृत्व या यूं कहें कि सही मार्ग दर्शन की तलाश रहती है। सही लोगों का मार्ग दर्शन मिल जाए तो ये नौजवान दुनिया के किसी भी कोने में जाकर झंडे गाढ़ सकते हैं।

Sunday, January 24, 2010

ये कैसा मजहब?

मलेशिया के उच्च न्यायालय ने ईसाइयों को गाड की जगह अल्ला शब्द के इस्तमाल की अनुमति दे दी। जिससे मलेशिया में तूफान मच गया। कट्टरपंथियों ने गिरजाघरों और गुरूद्वारों पर हिंसक हमले किये। मजबूरन सरकार को अदालत से फरियाद करनी पड़ी कि वे अपने इस फैसले को पलट दे। सवाल उठता है कि हम भगवान गाड या खुदा को मजहब के आधार पर अलग कैसे कर सकते हैं। क्या यह सही नहीं है कि लाखों हिंदू रोज बोलचाल की भाषा में भगवान को खुदा कहने में संकोच नहीं करते? तो क्या अब हिंदू तय कर लें कि वे खुदा शब्द का प्रयोग नहीं करेंगे। इससे दूरियां बढ़ेंगी या घटेंगी? पेड़ से एक सेब तोड़ो और हिंदू से पूछो इसको किसने पैदा किया तो जवाब मिलेगा भगवान ने। मुसलमान कहेगा खुदा ने और ईसाई कहेगा गाड ने। पर सेब तो एक ही है, तो फिर बनाने वाले तीन कैसे हो गए? जवाब साफ है कि एक बनाने वाले को तीन अलग-अलग मजहब के लोग अपने-अपने नाम से बुलाते हैं। मलेशिया के ईसाई अगर अल्ला शब्द का इस्तमाल करते हैं तो हर्ज क्या है। हां यह बात गलत है कि ईसाई मिशनरी स्थानीय धर्म और परंपराओं का अनुसरण कर लोगों के धर्म बदलवाते हैं। जैसे झारखण्ड में गिरजाघर का रंग और पादरी का चोगा सफेद नहीं केसरिया कर दिए गए हैं। क्योंकि इस रंग का हिंदू समाज में सम्मान किया जाता है। वे अपने गिरजाघरों को प्रभु ईशु का मंदिर बताते हैं। यह ढाsaग क्यों?

अभी हाल ही में फ्रांस में महिलाओं के बुर्का पहनने पर पाबंदी लगा दी है। फ्रांस की धर्म निरपेक्ष सरकार इस तरह के धार्मिक प्रतीकों का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं होने देना चाहती। उधर स्विटजरलैंड ने मस्जि़दों में मीनारों के निर्माण पर रोक लगा दी है। उदारनीतियों का वायदा कर सत्ता में आए अमरीकी बराक ओबामा खुद एक मुसलिम पिता की संतान हैं। पर वे भी अमरीका में इस्लाम के प्रति बढ़ते आक्रोश को रोक नहीं पाए। आज अमरीका में अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलनों का आयोजन होना घट गया है। क्योंकि आयोजकों को इस बात का भरोसा नहीं कि दुनिया के दूसरे देशों से मुसलमानी नाम वाले लोगों को वे बुलाएंगे तो उन्हें वीजा़ मिलेगा भी या नहीं। अमरीका के आव्रजन अधिकारी इतने रूखे हो गए हैं कि हर गैर अमरीकी को अपमानित करते नजर आते हैं। पिछले दिनों बालीवुड सितारे शाहरूख खान तक इस व्यवहार के शिकार हुए। ओसामा बिन लादेन के अनुयायियों को अमरीका में घुसने से रोकने के लिए अमरीकी प्रशासन काफी गंभीर और सतर्क है। पर बाकी लोगों से ऐसा रूखा व्यवहार क्यों ?

क्या वजह है कि पूरी दुनिया में इस मजहब के लोगों के प्रति असष्णिुता लगातार बढ़ती जा रही है। जहां कट्टरपंथी इस बात से खुश होंगे कि उनकी गतिविधियों के कारण मुसलिम समाज का ध्रुवीकरण हो रहा है वहh उदार मुसलमान इस्लाम के इस रूप से इत्तफाक नहीं रखते वे धर्म को निजी मामला मानते हैं और मिल-जुल कर रहने में विश्वास करते हैं। पर कट्टरपंथियों के आगे उनकी दाल नहीं गलती। हर मजहब का मकसद होता है सर्वोच्च सत्ता की प्राप्ति या यूं कहें कि भगवत् प्राप्ति। ऐसा जो भी सफर होगा वह द्वेष का नहीं बल्कि प्रेम और सौहार्द के रास्ते का होगा। परस्पर विश्वास का होगा। रूहानियत दिलों को जोड़ती है तोड़ती नहीं। बशर्ते हम धर्म का दिखावा न कर रूहानियत का रास्ता अपनायें। दुनियां जलवायु संकट, जल संकट, खाद्यान संकट और प्राकृतिक विपदाओं से पहले ही त्रस्त है। उस पर यह मजहबी आतंकवाद लोगों की जिंदगी में नासूर बन गया है। इसने दुनिया के हर कोने में बैठे आम आदमी को खौफ के साये में जीने को मजबूर कर दिया है।

अगर मजहब का इसी तरह दुरूपयोग होता रहा और उसके मानने वाले इस दुरूपयोग को रोकने के लिए सामने नहीं आए तो पूरी दुनिया में बहुत तबाही मचेगी। सबसे ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि मजहबी कट्टरता के प्रति पढ़े लिखे युवाओं का आकर्षण तेजी से बढ़ रहा है। जो एक खतरनाक प्रवृति है। अमरीका के वल्र्ड-ट्रेड सेंटर पर आत्मघाती हमला करने वाला मुसलमान और लंदन की मैट्रो में बंम विस्फोट करने वाला मुसलमान युवा क्रमशः इंजीनियर व डा¡क्टर थे। साफ जाहिर है कि मजहब की घुट्टी उन्हें इस तरह पिलाई गई है कि वे आगे पीछे देखे बिना अपनी जान देने को भी तैयार हो जाते है। काश इन पढ़े लिखे नौजवानों की ताकत व दिमाग जन सेवा की तरफ मुड़ जाए तो चमत्कार हो जायेगा। इनके काम से लोगों को राहत मिलेगी और इन्हें भी आम आदमी की जिंदगी सुधारने में फक्र महसूस होगा। समय की मांग है कि हर पढ़ा-लिखा मुसलमान युवा इन बातों को समझें और मजहब को विनाश का नहीं सुख और समृद्धि का कारण बनायें। फिर उनके मजहब का भी सम्मान बढ़ेगा और उन्हें भी जीवन का सही रास्ता दिखाई देगा।

Sunday, January 17, 2010

नये नहीं हैं राजनेताओं के सैक्स स्कैंडल

पिछले दिनों आंध्र प्रदेश के राज्यपाल को सैक्स स्कैंडल के मामले में बड़े बेआबरू होकर राजभवन और अपने राजनैतिक जीवन को अलविदा कहना पड़ा। पर राजनेताओं के सैक्स स्कैंडल कोई नई बात नहीं है। फ्रांस के बहुचर्चित राष्टृपति निकोलस सरकोजी साफ सरकार और मूल्य आधारित राजनीति के वायदों के साथ चुनाव जीते थे। पर आज उनके और उनके मंत्रीमण्डल के सहयोगियों के रंगीले जीवन के किस्से पेरिस की गलियों में चर्चा-ए-आम बन चुके हैं। उनके मंत्रीमण्डलीय सहयोगी फ्रैडरिक मित्रां ने खुलेआम स्वीकारा है कि वे थाईलैंड के वैश्यालयों में पैसे देकर नौजवान लड़कों के साथ सैक्स करते रहे हैं। यह अलग बात है कि फ्रांस और थाईलैंड दोनों ही सैक्स पर्यटन को हतोत्साहित करने का प्रयास कर रहे हैं। इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी के सैक्स कारनामों से जनता इतनी आजि़ज आ गई कि उनकी सरेआम पिटाई कर दी गयी। उन्हें बमुश्किल लहुलुहान हालत में भीड़ से बचाया गया। बहुत दिन नहीं बीते जब अमरीका के व्हाइट हाउस में अमरीका के तत्कालीन राष्टृपति बिल क्लिंटन को मोनिका लेवांस्की के रहस्योद्घाटन के बाद अपने अवैध सैक्स सम्बन्धों को स्वीकारने पर मजबूर होना पड़ा था।

देश की राजधानी दिल्ली और प्रांतों की राजधानियों में राजनीति के उच्चस्तरीय सामाजिक दायरों में हाईक्लास का¡लगर्लभेजने का काम औद्योगिक घराने जमाने से करते आ रहे हैं। ऐसी कुछ महिलायें तो इतनी बैखौफ होती हैं कि अपने सम्बन्धों को खुलेआम स्वीकारने में संकोच नहीं करतीं। हरियाणा के पुलिस महानिदेशक एस.पी.एस. राठौर का किस्सा अभी चर्चा में चल ही रहा है। प्रशासनिक सेवाओं में महत्वपूर्ण पदों पर बैठने वाले अधिकारी प्रायः लोगों को नौकरी या फायदे देने के ऐवज में अपनी कामवासनाओं की पूर्ति करते रहते हैं। कभी-कभी ऐसे किस्से चर्चा में भी आ जाते हैं।

हर धर्म के मठाधीशों के साये तले सैक्स के गुमनाम कारोबार पर भी दुनियाभर का मीडिया बीच-बीच में रहस्योद्घाटन करता रहता है। फिल्म जगत में व उद्योग जगत में तो इसे आम बात माना जाता है। शायनी आहूजा तो सूली चढ़ गया, पर उसके जैसे कितने शायनी मुम्बई में रोज यही जिंदगी जीते हैं। शैक्षिक संस्थानों और वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में छात्र-छात्राओं व शोधकर्ताओं के शारीरिक शोषण के किस्से काफी आम होते हैं।

कुल मिलाकर नाजायज सैक्स सम्बन्ध कोई ऐसी अनहोनी घटना नहीं जो कभी-कभी दुर्घटना के रूप में घटती हो। यह क्रम इतना व्यापक है कि अगर सारी घटनायें प्रकाश में आयें तो मीडिया में सैक्स स्कैंडलों को उछालने के अलावा कुछ बचेगा ही नहीं। गनीमत है कि ऐसी घटनायें कभी-कभी प्रकाश में आती हैं। अगर सामाजिक सर्वेक्षण करने वालों की मानें तो दस फीसदी घटनायें भी प्रकशित नहीं होतीं। ऐसे में क्या माना जाए कि जो पकड़ा गया वही अपराधी है या जो पकड़ा गया वो बद्किस्मत है?

पिछले दिनों मैंने पुराने टी.वी. सीरियल चाणक्य के 47 एपिसोड तन्मयता से बैठकर देखे। इस सीरियल में ईसा से 300 वर्ष पूर्व के राजनैतिक भारत का काफी सटीक दर्शन कराया गया है। उस समय भी सत्ता के दायरों में और धनिकों के समाज में वैश्याओं और नर्तकियों के उपभोग का प्रचलन आम था। यह बात उन हजारों ग्रंथों में भी दर्ज है जिन्हें समय-समय पर समकालीन इतिहासकारों ने दर्ज किया। बाबर की आत्मकथा बाबरनामामें तो खुद बादशाह बाबर इस बात का दुःख प्रकट करता है कि हिन्दुस्तान में उसे खूबसूरत लौंडे दिखाई नहीं देते इसलिए उसे गजनी के लौंडों की याद सताती है।

भारत के धर्मग्रन्थों में विशेषकर महाभारत जैसे पुराणों में जिस तरह के सामाजिक जीवन का वर्णन है, उसमें भी ऐसा नहीं लगता कि सैक्स के सम्बन्धों को लेकर नैतिकता के नियम बहुत कड़े रहे हों। संस्कृत के विद्वानों का तो यह तक कहना रहा है कि क्षत्रिय आचरण करने वाले को यदि कामवासना की पूर्ति न हो तो शासन करना और अपने दिमाग का संतुलन बनाये रखना सरल न होगा। इसीलिए पुराने जमाने के राजाओं की बहुपत्नियों की प्रथा को सहजता से स्वीकारा जाता है।

ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि राजनेताओं या प्रशासनिक पदों पर बैठे महत्वपूर्ण व्यक्तियों का निजी जीवन क्या पूरी तरह पारदर्शी होना चाहिए? क्या इसे नैतिकता के सर्वोच्च मानदण्डों पर खरा उतरना चाहिए? अगर हा¡ तो क्या  ऐसे शुद्ध आचरण वाले लोग थोक में ढू¡ढे जा सकेंगे और क्या यह सम्भव होगा कि सत्ता के शिखर पर केवल वही बैठें जो अपना आचरण सिद्ध कर सकें? प्रश्न यह भी उठाया जाता है कि शासन चलाने वाले का काम देखना चाहिए, उसके काम का परिणाम देखना चाहिए, किन्तु उसकी निजी जिन्दगी में ताकझांक करने का हक किसी को भी नहीं मिलना चाहिए, चाहे वह मीडिया ही क्यों न हो। यहा¡  यह बात भी रखी जाती है कि यदि ऐसा व्यक्ति अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए अपने पद का दुरूपयोग करता है तो उसे अपराध की श्रेणी में माना जाना चाहिए। पर यह बहस शाश्वत है। इसका कोई समाधान नहीं। जब-जब राजपुरूषों के सैक्स स्कैंडल सामने आते हैं, ऐसी चर्चाऐं जोर पकड़ लेती हैं। फिर समाज में वही सब चलता रहता है और कोई कुछ नहीं कहता। 

Sunday, January 10, 2010

अनोखे सफर की अनोखी दास्तान

भारत की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा सिंह पाटिल ने, चार दिन पहले उनसे मिलने आये, एक त्रिदंडी अमेरिका स्वामी से पूछा कि उन्हें भारत की संस्कृति में ऐसा क्या लगा जो वे भारत के होकर रह गए। राधानाथ स्वामी का जवाब था कि भारत की संस्कृति एक महासागर है। जिसमें सारी दुनिया की संस्कृतियों का समावेश है। यह तथ्य 1950 में शिकागो के एक सम्पन्न यहूदी परिवार में जन्में रिची को तब समझ में आया जब उसने 19 वर्ष की उम्र में गृहत्याग कर आध्यात्मिक सफर की शुरूआत की। अमरीका से यूरोप और यूरोप से पश्चिम एशिया का 6 महीने तक रोमांच, अवसाद और खतरों से भरा सफर करते हुए रिची पाकिस्तान की ओर से भारत में प्रवेश करने के लिए बाघा सीमा पर पहुंचा। वहां खडे भारत के आव्रजक अधिकारी ने इस धूल-धूसरित फटेहाल अमरीकी नौजवान से कहा कि भारत में पहले ही बहुत भिखारी हैं, मैं तुम्हें प्रवेश नहीं दूंगा।कुछ घंटे बाद जब उसकी ड्यूटी बदली तो एक उम्रदार सरदार जी ड्यूटी पर आए। उन्होंने इस नौजवान की दयनीय दशा और आद्र प्रार्थना सुनकर उसे भारत में आने दिया। जिसके बाद कई वर्षों तक, बिना पैसे के, अयाचक भाव से देशभर में घम-घूम कर रिची ने पूरे भारत की आध्यात्मिक परंपराओं का नजदीकी से अध्ययन किया। देश के सभी बड़े संतों से सत्संग किया और अंत में भक्तियोग का मार्ग अपना लिया और उसका नाम हुआ राधानाथ स्वामी। आज राधारानाथ स्वामी का प्रचार क्षेत्र पूरा विश्व है। उनके हजारों शिष्यों में सैकड़ों नौजवान मेडिकल, आईआईटी, आईआईएम के स्नातक हैं, मुंबई के दर्जनों बड़ें उद्योगपति हैं। यह सब हजारों शिष्य चाहे गरीब हो या अमीर आपसी प्रेम और सहयोग के साथ एक वृहद परिवार के रूप में रहते हैं। कोई किसी की निंदा नहीं करता। दूसरे को अपनी सेवा, दीनता व प्रेम से जीतने का प्रयास करते हैं। ऐसा अद्भुत अनुभव कम स्थानों पर ही होता है।

रिची से राधानाथ स्वामी तक का अनोखा सफर बहुत रोमांचकारी था। जिसे अब 40 वर्ष बाद स्वामी जी ने द जर्नी होमया अनोखा सफरनाम से प्रकाशित अपनी पुस्तकों में लिखा है। मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी सौरभ गांगुली का कहना है कि, ‘यह पुस्तक पूरी युवा पीढ़ी के लिए उत्कृष्ट भेंट है। अशांति से भरे हमारे संसार में यह एक अमरीकी युवक द्वारा संतुष्टि की खोज की कथा है।आज भारत का युवा पश्चिम की चमक-दमक से चकाचैंध है। डीजे, डिस्को, ड्रग्स, सैक्स व उपभोगतावाद के जाल में उलझता जा रहा है। दूसरी तरफ रिची ने 19 वर्ष की आयु में  संपन्नता के शिखर पर बैठे अमरीकी समाज को छोड़ा था तो वहां संपन्नता से उकताये लाखाs युवा हिप्पी बन रहे थे। रिची भी बन सकता था। पर उसे तलाश थी जीवन के ध्येय की जो उसे मिला भारत की सनातन संस्कृति में। आज भारत आर्थिक सफलता की ओर तेजी से बढ़ रहा है। फिर भी उसे अभी ऐसी सफलता नहीं मिली कि एक सौ दस करोड़ भारतीयों के पास वैभव के ढेर लग गए हों और भारत की युवा पीढ़ी इस वैभव से उकताने लगी हो। अभी तो भारत में मुठ्ठीभर लोगों के हाथ में अकूत दौलत आयी है। शेष भारत तो आज भी दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहा है। ऐसे में पश्चिम की संस्कृति का अंधानुकरण आत्मघाती सिद्ध हो रहा है। पर युवाओं को झकझोरने वाला, जगाने वाला और रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं। इसलिए भटकन है। इसलिए बिखराव है और इसीलिए हताशा है।

अनोखा सफरएक ऐसी सम-सामायिक पुस्तक है जिसे पढ़कर भारत के युवा, विशेषकर वे युवा जो पश्चिम से आकर्षित हैं, भारत की संस्कृति में ही अपनी कुंठाओं के हल खोज सकते हैं। 336 पेज की यह पुस्तक इतनी सरल भाषा में लिखी गयी है कि पाठक को हर क्षण लगता है कि वह रिची के साथ इस रोमांचक यात्रा को स्वयं कर रहा है। राधानाथ स्वामी ने इस्लाम, ईसायित, बौद्धधर्म, तांत्रिक व औघड़ पंरपरायें, हठयोग जैसी अनेक आध्यात्मिक धाराओं का अनुभव किया।  इस अनुभव को इतनी खूबसूरती से इस पुस्तक में जड़ दिया कि बिना किसी के प्रति नकारात्मक भाव अभिव्यक्ति किये ही भारत की सनातन संस्कृति की ही श्रेष्ठता को पाठकों के लिए प्रस्तुत कर दिया। आज से कई दशक पहले 1946 में एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी एक योगी की आत्मकथा।इस पुस्तक ने दुनियाभर में तहलका मचा दिया था। आज दशकों बाद भी इस पुस्तक की ढेरों प्रतियां पूरे विश्व में बिकती रहती हैं। उस पुस्तक के लेखक परमहंस योगानंद एक भारतीय स्वामी थे। जिन्होंने हठयोग और ध्यान की अपनी सिद्धि को स्थापित कर पश्चिमी जगत को चमत्कृत किया था। आज दशकों बाद एक अमरीकी स्वामी ने अपनी आध्यात्मिक खोज को युवा पीढ़ी के सामने इस तरह प्रस्तुत किया है कि उसे जीवन का सही रास्ता खोजने की प्रेरणा मिल सके।

स्वामी जी ने बहुत संजीदगी, संवेदनशीलता और कलात्मक आकर्षण के साथ कृष्णभक्ति और भगवान की लीलास्थली ब्रज क्षेत्र की महिमा को भी प्रस्तुत किया है और इसे ही अपने जीवन का अंतिम पड़ाव बनाया है। यही कारण है कि उनके हजारों अनुयायी ब्रज भूमि और कृष्णभक्ति के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हैं और इस भूमि के लिए हर तरह की सेवा करने को तत्पर रहते हैं। अनोखी बात है कि एक अमरीकी युवा इतने कम समय में भारत के प्रबुद्ध और संपन्न लोगों को कृष्ण भक्ति व ब्रज भक्ति के प्रति आकर्षित करने में सफल रहा। हाल ही में जारी हुई यह पुस्तक मराठी, कन्नड़ व तेलगू भाषाओं में भी जल्दी ही जारी हो रही है। निश्चित रूप से इसकी शैली और इसमें व्यक्त की गई भावना भारत के युवाओं को कुछ सोचने पर मजबूर करेगी। बशर्ते कि वे इसे पढ़ने की जहमत उठाने को तैयार हों।

Sunday, January 3, 2010

तीन इडियट ही क्यों?

आईआईटी के छात्र रहे चेतन भगत की पुस्तक पर आधारित फिल्म थ्री इडियटखासी लोक प्रिय हो रही है। सिनेमाघरों के बाहर लंबी कतारें लगी है। फिल्म है भी बहुत बढि़या। पूरे तीन घंटे हंसते-हंसते गुजर जाते हैं। पर इस हंसी के बीच बहुत सारे सार्थक संदेश दिए गए हैं। जो  आज के युवाओं और उनके अविभावकों के बड़े काम के हैं। इस पूरी फिल्म की कहानी उन तीन युवाओं के इर्द-गिर्द घूमती है जो आईआईटी जैसे इंजीनियरिंग संस्थान में पढ़ रहे हैं और भौतिक जिंदगी की दौड़ में आगे निकलने के लिए लगातार एक दबाव में जी रहे हैं। आईआईटी जैसे संस्थानों में होने वाली आत्महत्याओं का कारण भी यही तनाव बताया गया है।

फिल्म का मूल संदेश यह है कि अगर एक नौजवान अपनी दिल की आवाज सुनकर अपनी जिंदगी की राह तय करता है तो वह खुश भी होता है सही मायने में सफल भी। केवल ज्यादा पैसे कमाने के लिए पढ़ने वाले कोल्हू के बैल ही होते हैं। जिनकी जिंदगी में रस नहीं आ पाता। यही कारण है कि आईआईटी जैसी प्रतिष्ठित संस्थानों से पढ़कर सैकड़ों नौजवान आज देश में ऐसे काम कर रहे हैं जिसका उनकी डिग्री से कोई लेना देना नहीं है। मसलन झुग्गीयों में बच्चों को पढ़ाना, आध्यात्मिक आन्दोलनों में भगवत्गीता का प्रचारक बनना या गांव के नौजवानों के लिए छाटे-छोटे कुटीर उद्योग स्थापित करने में मदद करना। दूसरी तरफ इंजीनियरिंग की डिग्री की भूख इस कदर बढ़ गयी है कि एक-एक २kहर में दर्जनों प्राईवेट इंजीनियरिंग का¡लेज खुलते जा रहे हैं। जिनमें दाखिले का आधार योग्यता नहीं मोटी रकम होता है। इन का¡लेजों में योग्य शिक्षकों और संसाधनों की भारी कमी रहती है। फिर भी यह छात्रों से भारी रकम फीस में लेते हैं। बेचारे छात्र अधिकतर ऐसे परिवारों से होते हैं जिनके लिए यह फीस देना जिंदगी भर की कमाई को दाव पर लगा देना होता है। इतना रूपया खर्च करके भी जो डिग्री मिलती है उसकी बाजार में कीमत कुछ भी नहीं होती। तब उस युवा को पता चलता है कि इतना रूपया लगाकर भी उसने दी गयी फीस के ब्याज के बराबर भी पैसे की नौकरी नहीं पाई। तब उनमें हताशा आती है। आज हालत यह है कि एम.बी.ए. की डिग्री प्राप्त लड़के साडि़यों की दुकानों पर सेल्समैन का काम कर रहे हैं। समय और पैसे का इससे बड़ा दुरूपयोग और क्या हो सकता है?

थ्री इडियटफिल्म में आमिर खान की भूमिका एक ऐसे युवा की है जो हमेशा अपने रास्ते खुद बनाने में विश्वास करता है। लीक का फकीर बनने में नहीं। यह सलाह वह दूसरों को भी देता है। आज देश की 40 फीसदी आबादी युवाओं की है। जीवन की दिशा स्पष्ट न होने के कारण और बने बनाये रास्तों से अलग हटकर रास्ता बनाने की प्रवृत्ति न होने के कारण यह युवा भटक रहे हैं। नक्सलवाद, आतंकवाद व सामान्य अपराधों में यही युवा लिप्त होते जा रहे हैं। यह खतरनाक स्थिति है। अगर इसी तरह नौजवान हिंसा की तरफ बढ़ते गए तो इन्हें फौज और पुलिस की बंदूकों से रोकना संभव न होगा। जरूरत इस बात की है कि थ्री इडियटजैसी फिल्में दिखाकर देश के युवाओं को अपना भविष्य खुद बनाने की प्रेरणा दी जाए। अगर युवा अपने निकट के परिवेश को समझकर समाज को अपनी सेवाऐं प्रदान करेंगे और नई सोच से समस्याओं के हल ढूँढेगे तो यकीनन वे अपने मकसद में कामयाब होंगे। आज शहरी जीवन में हजारों नई तरह की समस्याएं पैदा हो गई हैं। शहर नरक बनते जा रहे हैं। ऐसे में यह युवा अपनी नई सोच से समस्याओं के हल खोजकर अपनी जीविका कमा सकते हैं। अपनी सेवाओं के बदले समाज से खासी आमदनी पैदा कर सकते हैं। इससे देश की तरक्की भी होगी व युवाओं की भटकन दूर होगी।

सरकारी नौकरियों पर निर्भरता, नौकरियों में आरक्षण की मांग, नौकरियाँ पाने के लिए कठिन प्रतियोगिता, सिफारिश, रिश्वत, ये ऐसे झंझट हैं जो एक युवा को उसकी जिन्दगी के सबसे उत्पादक दौर में थका देते हैं। फूल सी ताजगी खत्म कर देते हैं। इस सबके बाद भी अगर नौकरी न मिले तो उसे हताशा और गलत रास्ते पर चलने को मजबूर कर देते हैं। जितनी ऊर्जा केन्द्र और प्रांत की सरकारें नौकरी का आश्वासन देने में और उसका तानाबाना बुनने में लगाती हैं, उसे कहीं कम खर्चें और प्रयास से इन युवाओं को आत्मनिर्भरता के लिए प्रेरित किया जा सकता है। उसके लिए जिलों के प्रशासन को संवेदनशील बनाना होगा ताकि वे इन युवा उद्यमियों के रास्ते में आने वाली प्रशासनिक दिक्कतों को दूर कर सकें। इसके साथ ही देश के शिक्षा संस्थानों में ऐसा माहौल पैदा करने के लिए सबसे पहले शिक्षकों को अपनी प्रवृत्ति बदलनी होगी। रटे-रटाये कोर्स से अलग हटकर जीवन उपयोगी शिक्षा देने का अभ्यास करना होगा। छात्रों से अधिक अंक लाने की अपेक्षा करने की बजाय उन्हें एक अच्छा इंसान, खुश इंसान और संतुष्ट इंसान बनने की प्रेरणा देनी होगी। यदि शिक्षक ऐसा कर पाते हैं तो भारत की मौजूदा युवा पीढ़ी देश के लिए बहुमूल्य निधि बन जायेगी। इसके लिए मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल को नीतिगत ढाँचे में बदलाव करने होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि जिस तरह मुन्नाभाई से देश के मध्यमवर्गीय शहर वालों ने गांधी गिरी सीखी उसी तरह थ्री इडियटफिल्म से शिक्षा के क्षेत्र में गैर पारंपरिक सोच को आगे बढ़ने का मौका मिलेगा।