Sunday, March 14, 2010

मायावती का मायाजाल

15 मार्च को बसपा अपनी रजत जयंती मना रही है। इस मौके पर बसपा सुप्रीमो मायावती ने लखनऊ में एक महारैली बुलाई है। दलित प्रतीकों की स्थापना के अति उत्साह में मायावती ने लखनऊ में अम्बेडकर पार्क, काशीराम मेमोरियल और प्रेरणा स्थली जैसे सैकड़ों करोड़ रूपये के जो भव्य स्मारक बनाये हैं उनको दलित समाज के सम्मुख प्रस्तुत करने का भी यही एक मौका है। क्योंकि इस रैली में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों से भारी संख्या में दलित लखनऊ पहुंच रहे हैं। उन सब के लिए यह भव्य स्मारक कौतूहल का विषय रहेंगे। दो वर्ष पहले जब मायवती ने लखनऊ में एक दलित रैली की थी तो विभिन्न प्रांतों से आने वाले इन दलितों का व्यवहार आम जनता के लिए उत्सुकता भरा था। ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाले अम्बेडकरवादियों के लिए कोई देवालय, चर्च या मस्जि़द् तो है नहीं जहां जाकर वे अपने श्रृद्धा सुमन अर्पित कर सकें। इसलिए जब वे इन स्मारकों पर आये तो उन्होंने मायावती की मूर्ति के सामने नारियल फोड़े, उसे तिलक लगाया, हार पहनाया और परिक्रमा भी की। इस बार सर्वोच्च न्यायालय में हुई खिंचाई के बावजूद जिस युद्ध स्तर पर मायावती ने लखनऊ में इन भव्य स्मारकों का निर्माण कराया है उससे वे पूरी दुनिया के मीडिया का व जनता का ध्यान आकर्षित करने में सफल रही हैैं। इस रैली में आने वाले लाखों दलितों का वैसा ही व्यवहार शायद अब फिर देखने को मिलेगा जो शेष समाज के लिए कौतूहल का विषय होगा।

इस रैली की तैयारी इतने व्यापक स्तर पर की जा रही है कि लखनऊ का चप्पा-चप्पा नीली झंडियों से और हाथी के प्रतीकों से रंगीन हो गया है। दलित समाज सुधारकाs, अम्बेडकर, काशीराम व मायावती के विशाल कट-आउटों से लखनऊ का हर चैराहा पटा पड़ा है। अपनी ताकत और एैश्वर्य के प्रदर्शन का कोई भी अवसर मायावती गंवाना नहीं चाहतीं। जाहिर है कि जब लाखों लोग देशभर से इस रैली में आयेंगे तो मायावती के मायाजाल से प्रभावित हुए बिना नहीं जायेंगे।

इस संदर्भ में लखनऊ की सत्ता के गलियारों में दबी जुबान से इन स्मारकों के असर और भविष्य पर भी चर्चा चल रही है। मायावती के अधिनायकवादी व्यवहार के कारण उनसे शुब्ध अफसरशाही को विश्वास है कि अगले चुनाव तक मायावती अपना करिश्मा खो देंगीं। क्योंकि दलितों के उद्धार के नाम पर उन्होंने प्रदेश के दलितों के लिए कुछ भी उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। सारा का सारा ध्यान लखनऊ में दलित स्मारक बनाने में ही लगा दिया है। पर दूसरी तरफ काफी लोगों का मानना है कि तमाम निंदा, टांगखिंचाई, कानूनी पचड़ों व आलोचनाओं के बावजूद मायावती ने यह विशाल स्मारक बनवाकर अपनी जगह दलित इतिहास में सुरक्षित कर ली है। दलित स्वाभिमान के यह प्रतीक आने वाली दशाब्दियों में भी दलितों को उनके नेतृत्व की याद दिलाते रहsगे। सरकार कोई भी आ जाए, चाहे मुलायम सिंह की क्यों न हो, इन स्मारकों को क्षति नहीं पहुंचा पायेगी। ऐसा कोई भी प्रयास दलित हिंसा और संघर्ष को जन्म देगा। यह बात दूसरी है कि विपरीत परिस्थितियों में इन स्मारकों को दी जा रही सजावट की रोशनी, सशत्र सुरक्षा व विशेष देखभाल जैसी सुविधाओं को आने वाली सरकारें वापस ले लें और यह स्मारक आज की तरह चमचमाते और जगमगाते न रहे। उपेक्षा के कारण इनका स्वरूप बिगड़ जाए पर अस्तित्व समाप्त नहीं होगा और फिर सत्ता में दलितों के आने पर इनका कायाकल्प हो जायेगा। यह कोई अनहोनी बात नहीं है। इतिहास में ऐसे तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं।
कुल मिलाकार यह माना जाना चाहिए कि चाहे मायावती की जितनी आलोचना कोई कर ले पर वे अपने इरादे से डिगती नहीं हैं। सारे विरोध के बावजूद उन्होंने अपनी जिद पूरी की है और इसके पीछे उनकी दूरदृष्टि स्पष्ट है। दलित समाज का भला हुआ हो या न हुआ हो मायावती ने अपनी ऐतिहासिक पहचान जरूर स्थापित कर ली है। एक कम उम्र की दलित महिला नेता का इस तरह उठ खड़े होना और अपनी जिद पूरी करना यह सिद्ध करता है कि मायावती ने प्रदेश की राजनीति में गहरी जड़े जमा ली हैं। इस तरह की महारैली तो उस शक्ति प्रदर्शन का एक प्रमाण मात्र है।

तमिलनाडु की नेता जयललिता व आंध्र प्रदेश के एन.टी रामाराव ऐसे फिल्मी नेता थे जिन्होंने विशाल कट-आउटों के माध्यम से जनता पर अपने महान होने का प्रभाव जमाया। इस तरह अपने राजनैतिक इरादों को बुलंदी तक पहुंचाया। मायावती भी इन स्मारकों के माध्यम से दलितों के ऐतिहासिक नेता बनने का सपना संजोए है। लगता है कि उनका यह सपना तो पूरा हो जायेगा पर आने वाले वर्षों में यह देखना होगा कि मायावती इसी आत्मविश्वास से सत्ता के रास्ते पर आगे बढ़ती हैं या राजनीति की शतरंज में मात खा जाती है।

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