आज देश में लाखों नौजवान हट्टे-कट्टे, पढ़-लिखे और साधन सम्पन्न होते हुए भी समाज, दुनिया और भगवान को अपने साथ हो रही बेइंसाफी के लिए कोसते हैं। जिंदगी के महत्वपूर्ण वर्ष नौकरी की तलाश में गुजार देते हैं। नशे और अपराध की तरफ आसानी से फिसल जाते हैं। समाज के लिए भार बन कर जीते हैं। पर नागा नरेश जैसे नौजवानों का जीवन उदाहरण है कि जिंदगी को जिंदादिली से जीने के जज्बे का। राहुल गांधी जब देश के नौजवानों के बीच जाते हैं तो उन्हें देश के काम में जुड़ने के लिए न्योता देते हैं। जिसका उन्हें अच्छा प्रत्युत्तर मिल रहा है। तमिलनाडु के चैन्नई जैसे शहर में नौजवान राहुल के मुरीद हो गए। जरूरी नहीं कि राहुल गांधी ऐसे सब नौजवानों को राष्ट्र निर्माण में जोड़ पाएं। यह भी जरूरी नहीं कि वे इन नौजवानों को पूरी तरह से दिशा दे पाए। पर इतना जरूर है कि अपने इस छोटे से प्रयास से राहुल गांधी बहुत तेजी से युवा वर्ग के बीच लोकप्रिय हो रहे हैं। इससे क्या संदेश मिलता है? यह नहीं कि अब हर दल को इस तरह अपने युवराजों को आगे खड़ा कर वोट बटोरने का नया तमाशा खड़ा करना होगा। बल्कि ये कि देश का नौजवान अपनी ऊर्जा को सकारात्मक रूप से देश के निर्माण के काम में लगाने को तैयार है। उसे सही दिशा निर्देश की जरूरत है।
अगर आन्ध्र प्रदेश में गोदावरी के तट पर एक छोटे से गांव टीपार्रू में गरीब घर में पैदा हुआ विकलांग बच्चा इसी समाज में इतनी ऊंचाई तक पहुंच सकता है तो बाकी नौजवान क्यों नहीं? साफ जाहिर है कि उनमें कुछ कर गुजरने का या तो जज्बा नहीं है या रास्ते का ज्ञान नहh है। आज देश का मीडिया अपना बाजार बढाने के लिए ही सही नौजवानों को पढ़ने और रोजगार पाने के नए नुस्खे बताने लगा है। ऐसा पहले नहीं होता था। जाहिर है कि इन नुस्खों से नौजवानों को काफी सार्थक जानकारी मिल रही है और वे आगे भी बढ़ रहे हैं। पर प्रश्न है कि क्या डिग्री हासिल करना और नौकरी पाना ही नौजवानों का लक्ष्य होना चाहिए। कहा जाता है कि भारत कृषि प्रधान देश है। यहां की 70 फीसदी आबादी गांवों में बसती है। पर जो सूचनाएं मीडिया की मार्फत इन नौजवानों को दी जा रही है क्या उनमें अपने गांव और खेती को सुधारने के नुस्खे भी इन्हें बताए जा रहे हैं। शायद नहीं। क्योंकि गांव की बात करना फैशनेबल नहीं माना जाता। इसलिए अब गांव की बात कोई नहीं करता। मीडिया भी नहीं क्योंकि उसको चलाने वाले और पढ़ने, देखने वाले शहरों में रहते है। वे गांव के उत्पादनों का उपभोग तो डटकर करते हैं पर बदले में गांव को कुछ देना नहीं चाहते। सब कुछ शहरों तक सीमित रखना चाहते हैं। इससे दो नुकसान हो रहे हैं। एक तो गांवों का सही विकास नहीं हो रहा और दूसरा गांव में गरीबी बढ़ रही है। एक उदाहरण काफी होगा कि 1967 में कृषि उत्पादनों का जो दाम था वो 2007 तक 40 साल में, मात्र 10 गुना बढ़ा। जबकि इन्हीं 40 वर्षों में शहरों में होने वाले उत्पादनों की कीमत 30 फीसदी बढ़ गयी। साफ जाहिर है कि इन 40 वर्षों में गांव वालों को डटकर लूटा गया। जिससे शहर बढ़े और गांव बर्बाद हुए। अब ये इतनी बड़ी चुनौती है कि अगर गांव का नौजवान इसे स्वीकार कर ले और तय करे कि उसे अपने गांव को आत्मनिर्भर बनाना है तो कोई वजह नहीं कि वह नागा नरेश से पीछे रह जाए। ऐसा संकल्प करने वाले नौजवान किसी की नौकरी के मोहताज नहीं रहेगs। वे तो उपलब्ध संसाधनों से ही अपना संसार बना लेंगे। ऐसी सोच और ऐसे मार्ग दर्शन की देश के नौजवानों को भारी जरूरत है। अगर साधन सम्पन्न लोग विशेषज्ञों को बुलाकर गांव के नौजवानों को गांव में ही रहकर सुखी और सम्पन्न जीवन जीने की कला सिखा सके तो वे समाज का बहुत भला करेंगे।
नागा नरेश जैसी घटनाएं कभी-कभी प्रकाश में आती रहती हैं और इनसे नौजवानों को प्रेरणा भी मिलती है। पर वह अल्पकालिक होती है। भारत जैसे देश को जहां नौजवानों की संख्या 40 करोड़ तक जा पहुंची है, देश के नौजवानों के लिए सरकार को एक नई दृष्टि से सोचना होगा। अपनी नीतियों और योजनाओं में ऐसे बुनियादी बदलाव करने होंगे जिससे देश का युवा नौकरी की आस छोड़ उत्पादन, सृजन या निर्माण में जुट जाए। आईआईटी में तो गिने चुने ही जाते हैं। पर बाकी करोड़ों नौजवानों को रास्ता नहीं सूझता। इसलिए उन्हें सही नेतृत्व या यूं कहें कि सही मार्ग दर्शन की तलाश रहती है। सही लोगों का मार्ग दर्शन मिल जाए तो ये नौजवान दुनिया के किसी भी कोने में जाकर झंडे गाढ़ सकते हैं।
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