Sunday, January 10, 2010

अनोखे सफर की अनोखी दास्तान

भारत की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा सिंह पाटिल ने, चार दिन पहले उनसे मिलने आये, एक त्रिदंडी अमेरिका स्वामी से पूछा कि उन्हें भारत की संस्कृति में ऐसा क्या लगा जो वे भारत के होकर रह गए। राधानाथ स्वामी का जवाब था कि भारत की संस्कृति एक महासागर है। जिसमें सारी दुनिया की संस्कृतियों का समावेश है। यह तथ्य 1950 में शिकागो के एक सम्पन्न यहूदी परिवार में जन्में रिची को तब समझ में आया जब उसने 19 वर्ष की उम्र में गृहत्याग कर आध्यात्मिक सफर की शुरूआत की। अमरीका से यूरोप और यूरोप से पश्चिम एशिया का 6 महीने तक रोमांच, अवसाद और खतरों से भरा सफर करते हुए रिची पाकिस्तान की ओर से भारत में प्रवेश करने के लिए बाघा सीमा पर पहुंचा। वहां खडे भारत के आव्रजक अधिकारी ने इस धूल-धूसरित फटेहाल अमरीकी नौजवान से कहा कि भारत में पहले ही बहुत भिखारी हैं, मैं तुम्हें प्रवेश नहीं दूंगा।कुछ घंटे बाद जब उसकी ड्यूटी बदली तो एक उम्रदार सरदार जी ड्यूटी पर आए। उन्होंने इस नौजवान की दयनीय दशा और आद्र प्रार्थना सुनकर उसे भारत में आने दिया। जिसके बाद कई वर्षों तक, बिना पैसे के, अयाचक भाव से देशभर में घम-घूम कर रिची ने पूरे भारत की आध्यात्मिक परंपराओं का नजदीकी से अध्ययन किया। देश के सभी बड़े संतों से सत्संग किया और अंत में भक्तियोग का मार्ग अपना लिया और उसका नाम हुआ राधानाथ स्वामी। आज राधारानाथ स्वामी का प्रचार क्षेत्र पूरा विश्व है। उनके हजारों शिष्यों में सैकड़ों नौजवान मेडिकल, आईआईटी, आईआईएम के स्नातक हैं, मुंबई के दर्जनों बड़ें उद्योगपति हैं। यह सब हजारों शिष्य चाहे गरीब हो या अमीर आपसी प्रेम और सहयोग के साथ एक वृहद परिवार के रूप में रहते हैं। कोई किसी की निंदा नहीं करता। दूसरे को अपनी सेवा, दीनता व प्रेम से जीतने का प्रयास करते हैं। ऐसा अद्भुत अनुभव कम स्थानों पर ही होता है।

रिची से राधानाथ स्वामी तक का अनोखा सफर बहुत रोमांचकारी था। जिसे अब 40 वर्ष बाद स्वामी जी ने द जर्नी होमया अनोखा सफरनाम से प्रकाशित अपनी पुस्तकों में लिखा है। मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी सौरभ गांगुली का कहना है कि, ‘यह पुस्तक पूरी युवा पीढ़ी के लिए उत्कृष्ट भेंट है। अशांति से भरे हमारे संसार में यह एक अमरीकी युवक द्वारा संतुष्टि की खोज की कथा है।आज भारत का युवा पश्चिम की चमक-दमक से चकाचैंध है। डीजे, डिस्को, ड्रग्स, सैक्स व उपभोगतावाद के जाल में उलझता जा रहा है। दूसरी तरफ रिची ने 19 वर्ष की आयु में  संपन्नता के शिखर पर बैठे अमरीकी समाज को छोड़ा था तो वहां संपन्नता से उकताये लाखाs युवा हिप्पी बन रहे थे। रिची भी बन सकता था। पर उसे तलाश थी जीवन के ध्येय की जो उसे मिला भारत की सनातन संस्कृति में। आज भारत आर्थिक सफलता की ओर तेजी से बढ़ रहा है। फिर भी उसे अभी ऐसी सफलता नहीं मिली कि एक सौ दस करोड़ भारतीयों के पास वैभव के ढेर लग गए हों और भारत की युवा पीढ़ी इस वैभव से उकताने लगी हो। अभी तो भारत में मुठ्ठीभर लोगों के हाथ में अकूत दौलत आयी है। शेष भारत तो आज भी दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहा है। ऐसे में पश्चिम की संस्कृति का अंधानुकरण आत्मघाती सिद्ध हो रहा है। पर युवाओं को झकझोरने वाला, जगाने वाला और रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं। इसलिए भटकन है। इसलिए बिखराव है और इसीलिए हताशा है।

अनोखा सफरएक ऐसी सम-सामायिक पुस्तक है जिसे पढ़कर भारत के युवा, विशेषकर वे युवा जो पश्चिम से आकर्षित हैं, भारत की संस्कृति में ही अपनी कुंठाओं के हल खोज सकते हैं। 336 पेज की यह पुस्तक इतनी सरल भाषा में लिखी गयी है कि पाठक को हर क्षण लगता है कि वह रिची के साथ इस रोमांचक यात्रा को स्वयं कर रहा है। राधानाथ स्वामी ने इस्लाम, ईसायित, बौद्धधर्म, तांत्रिक व औघड़ पंरपरायें, हठयोग जैसी अनेक आध्यात्मिक धाराओं का अनुभव किया।  इस अनुभव को इतनी खूबसूरती से इस पुस्तक में जड़ दिया कि बिना किसी के प्रति नकारात्मक भाव अभिव्यक्ति किये ही भारत की सनातन संस्कृति की ही श्रेष्ठता को पाठकों के लिए प्रस्तुत कर दिया। आज से कई दशक पहले 1946 में एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी एक योगी की आत्मकथा।इस पुस्तक ने दुनियाभर में तहलका मचा दिया था। आज दशकों बाद भी इस पुस्तक की ढेरों प्रतियां पूरे विश्व में बिकती रहती हैं। उस पुस्तक के लेखक परमहंस योगानंद एक भारतीय स्वामी थे। जिन्होंने हठयोग और ध्यान की अपनी सिद्धि को स्थापित कर पश्चिमी जगत को चमत्कृत किया था। आज दशकों बाद एक अमरीकी स्वामी ने अपनी आध्यात्मिक खोज को युवा पीढ़ी के सामने इस तरह प्रस्तुत किया है कि उसे जीवन का सही रास्ता खोजने की प्रेरणा मिल सके।

स्वामी जी ने बहुत संजीदगी, संवेदनशीलता और कलात्मक आकर्षण के साथ कृष्णभक्ति और भगवान की लीलास्थली ब्रज क्षेत्र की महिमा को भी प्रस्तुत किया है और इसे ही अपने जीवन का अंतिम पड़ाव बनाया है। यही कारण है कि उनके हजारों अनुयायी ब्रज भूमि और कृष्णभक्ति के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हैं और इस भूमि के लिए हर तरह की सेवा करने को तत्पर रहते हैं। अनोखी बात है कि एक अमरीकी युवा इतने कम समय में भारत के प्रबुद्ध और संपन्न लोगों को कृष्ण भक्ति व ब्रज भक्ति के प्रति आकर्षित करने में सफल रहा। हाल ही में जारी हुई यह पुस्तक मराठी, कन्नड़ व तेलगू भाषाओं में भी जल्दी ही जारी हो रही है। निश्चित रूप से इसकी शैली और इसमें व्यक्त की गई भावना भारत के युवाओं को कुछ सोचने पर मजबूर करेगी। बशर्ते कि वे इसे पढ़ने की जहमत उठाने को तैयार हों।

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