Sunday, March 2, 2008

कितने बदल गये लालू

Rajasthan Patrika 2-3-2008
एक लालू वो थे जिनका नाम लेकर विपक्ष के बड़े-बड़े नेता जन सभाओं में उन पर कसीदे कसा करते थे। यहा तक कि लाल कृष्ण आड़वाणी भी जनता को चुटकला सुनाते थे कि जापान के प्रधानमंत्री ने बिहार की दुर्दशा देखकर लालू से कहा कि आप बिहार हमें सौंप दीजिये हम इसे 6 साल मे जापान बना देगें। तो लालू प्रसाद ने उत्तर दिया कि आप हमें जापान सौंप दीजिये तो मै उसे 6 महीने में बिहार बना दूगां। लालू के साले साधू यादव के नाम का बिहार में आंतक था। चारा धोटाले के हल्ले में लालू की चमक फीकी पड़ गई थी। राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना कर लालू ने एक रोचक इतिहास रचा था। कुल मिलाकर लालू की छवि एक खलनायक या विदूषक की बनाई गई। उन दिनों दिल्ली के प्रतिष्ठित इंण्डिया इंण्टरनेशनल सेंटर के एक सेमिनार में एक नामी बुद्धिजीवी ने कहा कि देश का दुर्भाग्य देखिये एक अपराधी बिहार की हुकूमत चला रहा है। तभी किसी ने जबाव दिया कि दरअसल अब तक हमें दिल्ली में रहने वाले सफेदपोश हुक्मरान अपराधियों की आदत थी इसलिये एक देहाती अपराधी की हुकूमत हमारे गले नहीं उतर रही। बिहार की पिछड़ी जातियों के लोग भी इसी सुर में बोलते थे कि जब तक हमने अगड़ी जातियों की लूट और हुकूमत झेली तब तो कोई कुछ नहीं बोला अब हमारी जाति का मुख्यमंत्री बना है तो अगड़ी जाति वाले इतने परेशान क्यों है ?

आज मेनेजमेंट गुरू लालू प्रसाद यादव को मेनेजमंेट के गुर सिखानें देश विदेश के प्रतिष्ठित मेनेजमेंट संस्थानों में बुलाया जाता है। घाटे के रेल मंत्रालय को भारी मुनाफे का बना कर लालू ने अपनी कार्यकुशलता के झण्ड़े गाढ़ दिये है। लगातार चार बरस तक रेल भाड़े में वृद्धि न करके उन्होने रिकाडऱ् कायम किया है। रेल बजट के विश्लेषण पर तो इस हफते दर्जनो लेख छप रहे है। पर लालू की शख्सियत में आये बदलाव का कारण कम ही लोग जानते है। बिहार के चुनाव में नितीश कुमार की सरकार बनने के बाद लालू प्रसाद को बहुत धक्का लगा। पहली बार उन्हें एहसास हुआ कि जनता उनसे नाराज क्यों हुयी। एक जुझारू और आत्मविश्वासी लालू प्रसाद ने कमर कस ली। सबसे पहले तो उन रिश्तेदारों और चाटुकारों से पिण्ड़ छुडाया जो वर्षा से उनका नाम बदनाम कर रहे थे। दूसरी तरफ रेल मंत्रालय में सुधीर कुमार को ओ एस डी बनाकर बडे़ निर्णय लेने की छूट दे दी। आर के महाजन, विनोद श्रीवास्तव व के पी यादव जैसे विश्वास पात्रो को जनता की मदद करने के लिये छोड़ दिया। इस समर्पित टीम ने रेल मंत्रालाय मे अनेक प्रभावी कदम उठाकर लालू के पक्ष मे माहौल बनाया ।

लालू और उनके परिवार में आये भारी बदलाव की वजह राबड़ी देवी के साथ सभी परिवार जनो का अचानक भजन भक्ति की ओर झुकाव भी है। लालू काफी भक्ति करने लगे है। तीर्थाटन भी खूब कर रहे हैं। संत सेवा भी उदारता व श्रद्धा से कर रहे है। इस सब से लालू के व्यक्तित्व मे संजीदगी आई है। अब वे विभिन्न क्षेत्रो के प्रतिष्ठित और योग्य लोगों के बीच बैठना पसंद करते है, चमचे चाटुकारों के नहीं। उनमें अच्छे लोगो के प्रति सम्मान की भावना आई है। वे अपनी स्वस्थ आलोचना सुनने को तत्पर रहते है और फायदे के सुझाव बटोरने में कंजूसी नहीं करते।

दरअसल लालू किसी भी तरह बिहार के अगले विधानसभा चुनाव मे अपनी सत्ता फिर कायम करना चाहते हे। इसलिये उनका इस बार का रेल बजट भी पूरी तरह चुनावी बैनरो से भरा था। उनके निन्दक मानते है कि लालू का बजट सच्चाई का नहीं आंकड़ो का मायाजाल है। कुछ हद तक ऐसा हो भी सकता है पर हकीकत ये है की लालू प्रसाद ने रेल मंत्रालय को एक नई पहचान दी है। इससे यह सिद्ध होता है कि अगर कोई राजनेता ठान ले कि उसे ईमानदारी से अपनी सरकार चलानी है तो वह देश का भला कर सकता है। देश में संसाधनो की कमी नहीं है। जरूरत है उनके सही इस्तेमाल की।

वैसे भी व्यक्ति कोई गलत या सही नहीं होता। उसकी सोच उसे सही या गलत बनाती हैं। जब देश के हजारों कुलीन नेता कई दशको से देश लूट रहे है और कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता तो नई पीढी के नेताओं को भी गलत करने की प्रेरणा मिलती हैं। पर अब हालात तेजी से बदल रहे है। जनता जागरूक हो रही है। बिना जनता का भला किये न तो लालू चुनाव जीत सकते है और नाही दूसरे दलों के नेता। इसलिये हर नेता अब जनता को लुभाने में जुटा है। अगर जनता लोकतन्त्र पर अपनी पकड़ बढ़ायेगी तो नेताओ में कुछ करने की भावना जगेगी। फिर एक लालू ही क्यों हर वो नेता ठोस नतीजे लायेगा जिसे अगली बार फिर चुनाव में कूदना है। लालू में आये बदलाव ने देश के अनेक नेताओं को प्रभावित किया है। अच्छा हो कि वे अपनी इस सोच को अन्य लोगो मे भी विकसित करे। फिर हर मंत्रालाय मुनाफे का बजट बनायेगा।

Sunday, February 24, 2008

संत करेंगे प्राकृतिक धरोहरों की रक्षा

Rajasthan Patrika 24-02-2008
6 फरवरी 2008 को राजस्थान सरकार ने डीग व कामां के कृष्ण कालीन पर्वतों के खनन पर रोक लगाकर यह स्वीकार कर लिया कि सांस्कृतिक धरोहर केवल पुराने भवन, कलाकृतियां, पांडुलिपियां, या अन्य भौतिक वस्तुएं ही नहीं होती बल्कि पर्वत, वन, वन्य जीवन, नदी व सरोवर भी देश की संस्कृति के प्रतीक होते हैं। खासकर भारत जैसे देश में जहां नदियों को देवी मां और पर्वतों को देवता माना जाता है। अभी राजस्थान सरकार ने ब्रज के इन पर्वतों को वन विभाग को सौंपा है। पर इतना ही काफी नहीं है। राजस्थान सरकार को चाहिए कि वह विधान सभा में विधेयक लाकर ब्रज के पर्वतों के स्थाई संरक्षण का कानून बनाऐ। वरना भविष्य में कोई भी सरकार इस निर्णय को पलट सकती है।

देश में ऐसा अनेक बार हुआ है। इसलिए यह आशंका निर्मूल नहीं है। स्वस्थ रहने के लिए देश में हरियाली का प्रतिशत कुल धरती का 33 फीसदी होना चाहिए। पर चिंता की बात है कि यह प्रतिशत घटकर 20.6 रह गया है। वन्य अभ्यारण्यों को समेटे भरतपुर जिले में तो हरियाली का प्रतिशत 7 से भी कम है। इसलिए भरतपुर में मौजूद ब्रज के पर्वत बचेगें तो हरियाली भी बढ़ेगी।

अगर वसुंधरा राजे ने हृदय से यह निर्णय किया है तो उनकी सरकार को चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय में दायर ’नीलाम्बर बाबा व अन्य बनाम भारत सरकार व अन्य‘ मुकदमें में राज्य सरकार की ओर से एक नया शपथ पत्र दाखिल करे। जिसमें सर्वोच्च अदालत को अपने ताजा निर्णय की प्रति देकर यह आग्रह करे कि अब उसका याचिकाकर्ताओं से कोई मतभेद नहीं है और वह भी यही चाहती है कि ब्रज में सभी तरह के प्रदूषणकारी उद्योग जिनमें खनन व पत्थर तोड़ना भी शामिल है पर स्थायी रूप से प्रतिबंध लगाया जाय।

चिंता और दुख की बात यह है कि पिछले पांच वर्षों से बरसाना के साधु और ब्रज रक्षक दल के कार्यकर्ता अनेक स्तरों पर ब्रज के पर्वतों की रक्षा का जुझारू आन्दोलन चला रहे थे। पर तब वसुंधरा राजे नहीं मानी। अगर संतो के दबाव में अब खनन रोका है तो अगस्त 2006 में तो देश के सभी सुविख्यात संतों ने यह अपील की थी तब उनकी क्यों नहीं सुनी गई? जहां तक ब्रजवासियों के धरने व प्रदर्शन से डरने की बात है तो यह सही नहीं लगता। क्योंकि जो सरकार गुर्जर आन्दोलन के आगे नहीं झुकी उसे ऐसी धमकियों से फर्क नहीं पड़ता। दरअसल भाजपा ने अगले लोकसभा चुनाव में रामसेतु का मुद्दा प्रमुखता से उठाने का निर्णय किया है। ब्रज में पर्वत तोड़कर रामसेतु की रक्षा की दुहाई नहीं दी जा सकती थी। विधान सभा का चुनाव सिर पर है इसलिए जनता की भावनाएं और संतों का रूख अपने पक्ष में करने के लिए ही यह कदम उठाया गया है।

राजस्थान सरकार का यह तर्क ठीक नहीं कि डीग व कामां में खनन के ज्यादातर पट्टे इंका के शासन काल में दिये गये। धर्मनिर्पेक्षता का बैनर लेकर चलने वाली इंका ने अगर ब्रज के पर्वतों के आध्यात्मिक महत्व को नहीं समझा तो हिन्दू धर्म की रक्षा की दुहाई देने वाली भाजपा ने इस सच को स्वीकारने में पांच वर्ष क्यों लगा दिये? ब्रज रक्षक दल ने उपग्रह चित्रों के माध्यम से यह सिद्ध कर दिया था कि पिछले वर्षों में डीग व कामां में खनन की मात्रा 28 गुना बढ़ गई है। संघ, विहिप व भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की जानकारी में यह सब कई वर्षों से था। फिर क्यों कुछ नहीं किया गया? अब चुनाव के डर से ही सही जो कुछ किया गया है वह सराहनीय है। पर वन विभाग के ही वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि बिना वाहनों, सुरक्षा कर्मियों व प्रशासनिक साधनों के उनके लिए अवैध खनन रोक पाना असंभव होगा। उनका यह भी कहना है कि जब पुलिस व प्रशासन मिलकर कुछ नहीं कर सके तो छोटा सा वन विभाग अवैध खनन को कैसे रोकेगा ? सही भी है कि इस इलाके में वैध से सौ गुना ज्यादा अवैध खनन हो रहा था। भाजपा के जिले से लेकर जयपुर तक हर स्तर के नेताओं का इसको पूरा समर्थन था। ऐसा खुद भाजपा के पूर्व सांसद व विहिप अध्यक्ष के अनुज Mk¡. बी.पी. सिंघल का कहना है। जिन पर 7 दिसंबर 2006 को कामां में भरतपुर के भाजपा अध्यक्ष ने खड़े होकर कातिलाना हमला करवाया था। वे ब्रज रक्षक दल के अध्यक्ष के साथ उनकी गाड़ी में बोलखेड़ा में चल रहे संतों के अनशन और खनन के विनाश को देखने गये थे। इतने संगीन हादसे के बाद भी राजस्थान सरकार ने कोई कारवाई नहीं की। दो दिन बाद भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के घर बैठक में श्रीमती राजे ने ब्रज के पर्वतों के मामले में तुरंत एक समिति बनाने का आश्वासन दिया, पर ऐसा किया नहीं। साफ जाहिर है कि राजस्थान सरकार ने पांच वर्षों तक जानबूझ कर तथ्यों को अनदेखा किया।

वरना मौजूदा कानून में ही इतनी ताकत है कि अवैध खनन को ही नही बल्कि इंका शासनकाल में दिये गये पट्टों के वैध खनन को भी आसानी से रोका जा सकता था। बशर्तें कि राजनैतिक इच्छा शक्ति होती। यह तो पांच वर्ष से कहा ही जा रहा था कि कितने भी आन्दोलन करलो, मीडिया में शोर मचा लो, धरने दे लो या प्रदर्शन कर लो वसुंधरा सरकार विधान सभा चुनाव के 6 महीने पहले डीग व कामां में खनन पर रोक लगा देगी। खैर जो भी हो अंत भला तो सब भला। पर अंत भला तभी होगा जब इस निर्णय पर कानून बने और सर्वोच्च न्यायालय में राजस्थान सरकार अपने इस नए निर्णय पर अदालत की स्वीकृति की मुहर लगवा ले।

ब्रज ही क्यों सारे भारत में नदियों और नहरों में बेदर्दी से जहरीला और रासायनिक कचड़ा फेंका जा रहा है। बड़ी तेजी से वन काटे जा रहे है। पर्वतों को डायनामाइट से तोड़ा जा रहा है। इस सब विनाश के चलते देश के पर्यावरण व धरोहरों का तेजी से विनाश हो रहा है। जो हर कीमत पर रूकना चाहिए। वरना हालात जीने लायक नहीं बचेंगे। तीस वर्ष पहले किसने सोचा था कि यमुना सड़ा नाला बन जाएगी और विशाल गंगा की हरिद्वार में पतली सी धारा बहेगी। दुर्भाग्य से आज यही हो रहा है। हमारे देश के ऋषियों ने प्रकृति को धर्म से जोड़ कर उसके संरक्षण की बहुत lqaUnj व्यवस्था विकसित की थी। पर विकास की आंधी, योजनाकारों का असंवेदनशील रवैया और सरकारी लोगों व ठेकेदारों की लूट ने देश के पर्यावरण को बहुत तेजी से बर्बाद कर दिया है। जिस पर रोक भी अब ऋषि ही लगाऐंगे। आशा की जानी चाहिए कि ब्रज की प्राकृतिक धरोहरों की रक्षा के पुरोधा विरक्त संत रमेश बाबा के सिंहनाद का स्वर आने वाले वर्षों में भारत के कोने कोने में जाकर प्रकृति की रक्षा का शंखनाद करेगा।

Sunday, February 17, 2008

नए रिश्तों की तलाश

Rajasthan Patrika 17-02-2008
दशकों तक भारत और सोवियत यूनियन एक दसरे से रक्षा व्यापर बौर विज्ञान के क्षेत्र में गहराई तक गंथे हुए थे। फिर अचानक इतनी बड़ी खाई पैदा हो गई कि पिछले दिनों दिल्ली में रूसी प्रधानमंत्री विक्टर ए जुबकोच को कहना पड़ा कि भारत ओर रूस के निवासी एक दूसरे को अच्छभ् तरह नहीं जानते। दोनों के बीच समाचारों का आदान प्रदान भी संतोषजनक स्तर तक नहीं है। उन्होंने कहा कि हमें अस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि दोनों देश के लोगों में एक दूसरे के प्रति काफी रूचि है। दोनों ओर की जनता में एक दूसरे को समझने की जबरदस्त ख्वाहिश है। दोनों के बीच व्यापार, संस्कृति औ विज्ञान के क्षेत्र में आदान प्रदान की व्यापक संभावनाएं है।

जिस सोवियत यूनियन में सब्जी, अनाज, प्रसाधन सामिग्री, खनिज, दवाऐं, इलैक्ट्रोनिक उपकारण औ कपड़ा सब भरत से जाता था। भारत के रक्षा बलों को ज्यादातर आपूर्ति सोवियत यूनियन से होती थी। उसी सोवियत यूनियन का 1991 में 15 देशों में रूस समाजवादी से पूंजीवादी हो गया। पहले वहां सारे व्यपार पर सरकार का निंयत्रण होता था और सरकार सामरिक व आर्थिक दृष्टि से भरत को अपना साथी मानकर भरत से ही ज्यादातर आयात करती थी। पूंजीवाद में बाजार खुल गया। भारत के कई शहरों में इसका बुरा असर पड़ा। जैसे लुधियाना का हौज़री उत्पादन काफी हद तक बंद हो गया।

जहां पहले सोवियत यूनियन में कोई लखपति नहीं होता था वहीं रातें रात अरबपति और खबपति पैदा हो गये। माफया ने रूस की अर्थव्यवस्था को अपने शिकंजे में ले लिया। पहले डेढ़ सौ रूबल रोजाना एक पर्यटक मास्के में मजे से दिन बिता लेता था। पूंजीवाद के दौर में डेढ़ सौ रूबल में चाय का प्यला Hkh नहीं मिलतk Fkk । जहां पहले बढि़या कार किसीके पास नहीं होती थी। वहां आज यूरोप और अमरीका की सबसे महंगी कारें पेरिस से पहले मास्को की सड़कों पर दौड़ती है। रूस के नवधनाड्य अब फ्रांस, साइप्रस, स्विटजरलैंड और यहां तक कि अमरीका में आलीशान फार्म हाऊस बनवा रहे हैं।

इधर भारत में सोवियत यूनियन से व्यापार का नियंत्रण पहले सरकारी संस्था स्टेट ट्रेडिंग कारपोरेशन के हाथ में था। किसी को स्वतंत्र व्यापार करने की छूट नहीं थी । पर 1992 के बाद डा. मनमोहन सिंह की पहल पर भारत में उदारीकरण का दौर शुरू हुआ। हमें वैश्विक बाजार से मुकाबला करना था। इसलिए स्टेट ट्रेडिंग काफरपोरेशन की पकड़ ढीली कर दी गई और भरत के कारोबारयिों को दुनिया की दौड़ में मुक्त छोड़ दिया गया। इन हालातों में रूस हमारे हाथ से छूट गया ।उसे पश्चिमी देशों ने अनेक आर्थिक संधियों में फंसा कर उस पर पूरा नियंत्रण कर लिया। अब वो भारत का माल खरीदने को स्वतंत्र नहीं था। लेकिन अब रूस सभंल गया है। विघटन के बाद के दौर में जिन संधियों में फंस गया था उनसे निकल रहा है। उसकी आर्थिक रीढ़ इसलिए मजबूत है क्योंकि उसके पस बिजली, तेल और वन की विशाल संपदा है। उसकी सैन्य व्यवस्था पहले से ही मजबूत है।

इधर विश्व बाजार की दृष्टि से भारत की स्थिति भी मजबूत हुई है। भारत के लिए यह संतोष की बात है कि अब दुनिया में उसकी हैसियत बहुत बढ़ गई है। पश्चिमी देशों की नजर में भारत अब सपेरों और बजीगरों का देष नहीं बल्कि मजबूत और जेती से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था वाला देश है।

इसी परिस्थिति को समझते हुए दोनों देशों के प्रधान मंत्रियों ने एक दूसरे के देशों की यात्राऐं की। जवाहरलाल नेहरू विरूवविद्यालय के रूसी भाषा के विद्वान प्रो. वरियाम सिंह का मानना है कि अब दानों देशों के के बीच रिश्तों का नया दोर फिर से शुरू होगा। इसका संकेत इसीबात से मिल रहा है कि भारत में अब फिर से रूसी भाषा पढ़ने वाले छात्रों की भीड़ बढ़ने लगी है। वैसे भी भरत में दर्जनों विश्व विद्यालययों में रूसी भाषा वर्षों से पढ़ाई जा रही है। किंतु विछले 15 वर्षों से इन केंन्द्रो में छात्रों की संख्या में काफी गिरावट इा गई थी। भरत रूस व्यापार काफी गिर जाने के कारण रूसी जानने वालों के लिए रोजगार के अवसर भी काफी कम हो गये थे। पर अब रूस से व्यापार भी बढ़ने के हालात पैदा हो गए हैं। रूसी धनाड्य भारत में निवेश करने के लिए घूम रहे हैं। गोवा में तो काफी संपत्तियां रूसियों ने खीद ली है।

यही मौका है जब हस्त कला उद्योग, पर्यटन, स्वास्थ्य सेवाओं, औद्योगिक उत्पादनों, कला? संस्कृति व शिक्षा के क्षेत्र में भरत के डद्यमी रूस में नया बाजार तलाश सकते हैं। दोनों देशों के बीच भौगोलिक दूरी भी इतनी कम है कि ऐसा करना दोनों के लिए फायदे का सौदा रहेगा। यही वजह कि रूसी प्रधानमंत्री विक्टर ए. जबकोव ने दोनों देशों के नागरिकों को एक दूसरे को समझने की जरूरत पर जोर दिया। यह हम पर हे कि हम इस बदली परिस्थति में अपनी संस्कृति इसक मूल्यों से कटे बिना ही दुनिया के आर्थिक रूप से सक्षम देशों से कारोबार करके अपनी आर्थिक दशा को और कितना बेहतर बना सकें।

Sunday, February 10, 2008

राज ठाकरे की राजनीति पहचान का संकट


Rajasthan Patrika 10-02-2008
बैठे ठाले राज ठाकरे ने एक विवाद खड़ा कर दिया। मुम्बई अशांत है। गैर मराठी असुरक्षित महसूस कर रहे है। आम तौर पर चुपचाप धन्धे में जुटा रहने वाला मुम्बई कर सड़कों पर हो रही हिंसा से परेशान है। राजनैतिक दल और उनके नेताहमेशा की तरह बयान बाजी करके घडि़याली आंसू बहारहे है। यह हिंसा और अराजकता का यह दोर ज्यादा दिन नहीं चलेगा। पुलिस का डंडा जनता का दबाब, मीडिया का शोर औरराज ठाकरे के साथियों की हताशा के चलते इसे रूकनाहोगा। तब तक जान माल का काफी नुकसान हो लेगा।

पर यह पहली बार नहीं हुआ कि किसी नेता ने अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए निरीह जनता को हिंसा की बलि चढाया हो। साम्प्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद के नाम पर देश के अलग अलग हिस्सों में ऐसे फायदा होते ही रहे हैं। जब कभी किसी राजनैतिक दल को मीडिया की सुर्खियों रहना होता है। तो वो ऐसी हरकत करने से बाज नहीं आता। उसकी बला से लोग मरे तो मरे लुटे तो लुट, और बर्बाद हो तो हो जायें। उसका स्वार्थ द्धि होना चाहिए। राम जन्म भूमि आन्दोलन में जो मरे उनकी भावनाओं की और उनके बलिदान की भाजपा ने क्या कद्र की ? मुलायम सिंह के समर्थन में लखनऊ में पिछले दिनों शहीद हुए नौजवान को क्या मिला? घडि़याली आंसू? उसकी श्हादत किसी राष्ट्रीय हित या सामाजिक हित के लिए बल्कि एक राजनेता का हित साधने के लिए हुई। गुर्जर आन्दोलन में यही हुआ। जयललिता के लिए अक्सर आत्मदाह करने वालों को क्या मिलता है?

जनता भावुक है। जल्दी बहक जातीहै। नेता ये बखूबी जानते है। इसलिए जनता को बार-बार बहकाकर अपना उल्लू सीधा करते है। धर्म? जाति क्षेत्र ऐसे सम्वेदन “khy मुद्दे है जिन पर जनता को भड़कना आसान होता है। जब कोई दल या नेता जनता को कुछ ठोस दे पता तो ऐसे फालतू के मुद्दों पर आन्दोलन खड़ा कर देता है। राज ठाकरे अभ राजनी में पैर जमाने कि जुगत में लगे है। खुद की कोई राजनैतिक पहचान है नहीं। विरासत में बाल ठाकरे से कुछ मिला नहीं। इसलिए ये बखेड़ा कर दिया ताकि लोग उनके वजूद को पहचाने।
 
पर अब समय बदल गया है। आज जब शीला दीक्षित, नरेन्द्र मोदी, नितीश कुमार जैसे मुख्यमंत्री विकास की सकारात्मक राजनीति करके सफल हो रहे है तो राजनीति में पहली बार कदम रखने वाले राज ठाकरे को Hkh हवा का रूख पहचानना चाहिए। वो दिन लद गए जब उनके काका ने ऐसीवैमनस्यपूर्ण हिंसा भड़काकर शिव सेना को खड़ा किया था। अब जनता नेता से परिणाम चाहतीहै। कोरे वायदे और भड़काउ नारे नहीं। जनता जानती हे कि राजनीति में कोई तप या त्याग करने नहीं बल्कि अपना ?kj भरने सत्ता का मजा लूटने आत है। इसलिए अब कुछ कर दिखाने वाले नेताओं की पूंछ बड़ने लगी है। 

राज ठाकरे के पास अकूत दौलत है। इसका प्रमाण यही है कि उन्होंने शिवसेना मुख्यालय के ठीक सामने अरबों रूपये कीसम्पत्ति अपना मुख्यालय बनाने के लिए खरीदी है। उनकी संगठन क्षमता उद्धव ठाकरे से बेहतर मानी जातीहै। वे युवा है और उनमें आगे बढ़ने की ललक है। अभी राजनीति में उन्हें लम्बी पारी खेलनी है। ऐसली अधीरता गैर जिम्मेदाराना व्यवहार से कोई अच्छ संदेश नहीं जाता। राज ठाकरे मगर दिमाग से काम लेते तो राहाराष्ट्र की राजनीति में ऐसा शगूफा ठोड़ते कि उनकी छवि एक ऐसे नेता बन जायेंगे तो यह उनकी भूल है। क्योंकि उनके काका अब क्षेत्रवाद के इस फार्मूले का घटता प्रभाव देखकर अपनी भाषा सोच बदल चुके है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि राज ठाकरे अपनी भूल lq/kkjsaxs s और लोगों के घावों पर मरहम लगाकर उन्हें अपने योग्य नेता होने का विश्वास दिलायेगें। अगर वे ऐसा नही करते तो उनके नये बने दल की छवि एक गुण्डे और मवालियों के दल के रूप में होगी। जो उकने राजनैतिक शेविशवकाल में ही उनके पतन का कारण बनेगी। राज ठकरे कीह नहीं देष के अन्य प्रान्तों में राजनीति करने वाले को  समझ लेना चाहिए कि आत के हालात में वही आग लगाकर रोटी सेकने वालों के दिन अब लद रहें है।


Sunday, February 3, 2008

नर्म में घोटाला ही घोटाला शहरी विकास पर अरबों की बर्बादी

 Rajasthan Patrika 03-02-2008
पिछले दिनों युवराज राहुल गांधी बुंदेलखण्ड की यात्रा पर ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की विफलता देखकर काफी आग बबूला हुए। ये जगजाहिर है कि गरीबों को रोजगार देने की ये सरकारी योजना केवल कागजों पर चल रही है। चिंता की बात यह है कि पिछले 50 वर्षों से ज्यादातर योजनाओं का यही हाल रहा है। फिर भी सरकार कोई सबक नहीं सीखती या सीखना नहीं चाहती। आज कल देश में जवाहर लाल नेहरू अर्बन रिन्यूएबल मिशन (नर्म) का बहुत शोर मचाया जा रहा है। एक लाख करोड रूपया देश के 63 शहरों के विकास के लिए केन्द्र सरकार देने जा रही है। इन 63 शहरों में से 8 शहर ‘धरोहर शहर’ भी हैं जैसे मथुरा, जयपुर, मैसूर, मदुरै, गया, पुरी, श्रीनगर (कश्मीर) व नैनीताल। अकेले आगरा के लिए ही 7 हजार करोड रूपए दिए गए हैं। 2005 में यह योजना शुरू की गई। पहले 60 शहर के लिए थी फिर तीन और शहर जोड़ दिए गए।

योजना का मकसद इन महत्वपूर्ण शहरों की नागरिक सुविधाओं का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुधार करना है ताकि यहां आने और रहने वाले बेहतर जिंदगी जी सकें। इस योजना में सबसे ज्यादा जोर जल की आपूर्ति, सीवर व्यवस्था, सड़कों की दशा का सुधार, धरोहरों का संरक्षण व शहरी गंदी बस्तियों का सुधार आदि पर है। इसी सूची में लिए गए शहरांे में से 35 तो महानगर हैं और 18 प्रांतों की राजधानियां। सब जानते हैं कि हमारे शहरों की हालत नारकीय होती जा रही हैं। पुरानी सीवर लाइनें मौजूदा दबाव के आगे नाकाफी सिद्ध हो रही हैं। उपभोक्तावाद के चलते पैकेजिंग मैटेरियल की खपत बढ़ी है। जिसने शहरों में ठोस कूड़े का रूप ले लिया है। जिसका निस्तारण एक चुनौती बन गया है। सबमर्सिबिल पम्पों के कारण शहरों में घटती हरी पट्टी के कारण और पहाडो़ के उत्खनन के कारण भू जल स्तर तेजी से नीचे जा रहा हैं । औद्योगिक ईकाईयों ने धरती के ऊपर और धरती के नीचे सारा जल प्रदूषित कर दिया है। धूएं से शहरों का प्रदूषण बर्दाश्त सीमा से कहीं आगे पहुंच गया है। ऐसे में अगर कुछ शहरों की हालत सुधारने के लिए सरकार एक लाख करोड रूपया खर्च करने जा रही है तो इससे खुश ही होना चाहिए। खासकर उन लोगों को जो उन शहरों में रहते हैं, जो नर्म की सूची में gS ।

पर वास्तव में यह खुशी की नहीं चिंता की बात है कि इतनी महत्वाकांक्षी योजना को केन्द्र सरकार बिना सोचे समझे लागू करने जा रही है। योजना के प्रारूप में ही इतनी सारी कमियां हैं कि अगर इसे लागू कर दिया गया तो इसकी भी वहीं दुर्गति होगी जो ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की हो रही है। इसका कारण है कि नर्म के लिए योजना बनाने वाले सलाहकारों ने अपना मेहनताना तो करोडों रूपया वसूल लिया पर उन्होंने कभी मौके पर जाकर जमीनी हकीकत जानने की कोशिश तक नहीं की। इनमें से ज्यादातर योजनाओं को अधकचरे तरीके से, अपने कार्यालयों में बैठकर और फर्जी आंकडे डालकर तैयार किया गया है। जब योजना बनाने वाले को ही असली समस्याएं नहीं पता तो वह उनका निदान कैसे करेगा ?

पिछले दिनो उ.प्र. सरकार के अनेक ks विभागों के प्रमुख सचिवों की एक बैठक लखनऊ की नर्म योजना पर चिंतन करने के लिए हुई। जिसमें योजना बनाने वाले दिल्ली के विशेषज्ञ अपनी प्रस्तुति करने आए थे। मुझे भी अपनी राय देने के लिए इस बैठक में बुलाया गया। वहां विशेषज्ञों की प्रस्तुति देखकर हमने माथा पकड़ लिया। इस प्रस्तुति में लखनऊ के 45 कुंडों के जीर्णोद्धार के लिए 45 करोड़ रूपए का प्रावधान रखा गया था। हमने विशेषज्ञ महोदय से पूछा कि क्या आपने इन कुंडों का आकार नापा है ? क्या उनके अंदर जमा गाद की मोटाई नापी है ? क्या इन कुंडों के नीचे भू जल स्तर का कोई आकलन किया है ? क्या आपने इन कुंडों के जलस्रोतों का अध्ययन किया है ? क्या आपने इन कुंडों के घाटो की दुर्दशा का कोई मूल्यांकन किया है ? मेरे सवालों पर इन विशेषज्ञों का चेहरा उतर गया। उनका उत्तर था ‘नहीं’। फिर कैसे उन्होंने तय कर लिया कि 45 कुंडों के जीर्णोंद्धार पर 45 करोड रूपया खर्च होगा? इसका जवाब वो नहीं दे सके। साफ जाहिर था कि पूरी योजना फर्जी आंकडों और हवाई ख्यालों से बनाई गई थी।

जब योजना की नींव ही खोखली है तो योजना सफल कैसे होगी ? इसी चिंता में हमने अन्य शहरों की योजनाओं का भी अध्ययन दिल्ली आकर किया और देखकर घोर निराशा हुई कि यहां भी यही हाल था। यह जानते हुए भी कि हर शहर पीने के पानी के संकट से जूझ रहा है, इन विशेषज्ञ योजनाकारों ने इतना भी नहीं सोचा की अरबों रूपया खर्च करके पानी की व्यवस्था को सुधारा नहीं जा सकता। जब तक कुछ बुनियादी बातों पर ध्यान न दिया जाए। जैसे पीने के पानी और बाकी उपयोग के पानी की अलग-अलग व्यवस्था होनी चाहिए। शौचालयks में फ्लश सिस्टम से बहुत सा कीमती जल बर्बाद हो जाता है। उसकी जगह आधुनिक तकनीकी में वैक्यूम क्लिनर लगने लगे हैं जिनमें पानी की जरूरत ही नहीं होती। शहरी पानी के सीवर जाल को विवेकपूर्ण और इस तरह बनाने की जरूरत हैं कि इस पानी का एक बहुत बड़ा हिस्सा थोड़े से प्रयास से शहर को हरा-भरा बनाने में फिर से प्रयोग में आ जाए। इससे भूजल स्तर भी बढ़ेगा और पानी की बर्बादी भी घटेगी। पर ऐसी कोई समझदारी इन योजनाओं में नहीं है। वही पुराने ढर्रे पर और फर्जी आंकडों से पानी और सीवर की व्यवस्था सुधारने के लिए हजारों करोड रूपयों का प्रावधान कर दिया गया है। जिससे वही हाल होगा जो गंगा एक्शन प्लान और यमुना एक्शन प्लान का हुआ कि अरबों रूपया खर्च करके भी गंगा और यमुना का प्रदूषण नहीं हट सका।

सबसे ज्यादा चिंता का विषय यह है कि जिन शहरों में यह योजना लागू की जा रही है उन शहरों में शहरी विकास को लेकर जो योजनाएं और कार्यक्रम पहले से इन शहरों में चल रहे हैं उनका कोई उल्लेख इन योजनाओं में नहीं है। उनके साथ कोई सामंजस्य भी नहीं है। साफ जाहिर है कि इससे बहुत बड़े घोटाले होने का रास्ता साफ हो गया है। एक ही काम को दो विभाग वाले दिखा कर दो अलग-अलग योजनाओं के तहत पैसा वसूलेंगे और डकार जाएंगे। होना यह चाहिए था कि जिन शहरों में नर्म की योजना लागू होने जा रही है वहां शहरी विकास की मौजूदा सभी योजनाओं को या तो खत्म कर दिया जाए या इसके साथ जोड़ा जाएं। इसी तरह हैरिटेज यानी धरोहर का भी सवाल है। एक तरफ केंद्रिय सरकार हैरिटेज शहरों को बढ़ावा देकर पर्यटन बढ़ाना चाहती हैं दूसरी ओर इन योजनाओं में घरोहरों की रक्षा या उनके सुधार के लिए कोई समझदारी नहीं दिखाई गई है। पैसों का तो आवंटन कर दिया गया है पर योजनाओं में वहीं पुराना ढर्रा अपनाया गया है जो धरोहरों के लिए काफी खतरनाक है। हमने इस पूरी योजना के खोखलेपन पर 20 पन्नों की एक रिपोर्ट तैयार की है जिसे हम प्रधानमंत्री को इस चेतावनी के साथ सौप रहे हैं कि इन तथ्यों को जानने के बाद भी अगर आप या आपकी सरकार जनता के एक लाख करोड रूपए को बर्बाद ही करना तय करते हैं तो यह साफ हो जाएगा कि यह योजना शहरी विकास के लिए नहीं बल्कि अफसरशाही, नेताओं व ठेकेदारों की जेब भरने के लिए है और इसका नाम जवाहर लाल नेहरू शहरी भ्रष्टाचार वृद्धि योजना होनी चाहिए। फैसला सरकार को करना है।

Sunday, January 27, 2008

सवालों में घिरा गणतंत्र

भारत की पहली महिला राष्ट्रपति राजपथ पर देश की उपलब्धियों की परेड देखकर जाहिरन प्रसन्न होंगी। पर गणतंत्र की उपलब्धियों के साथ अनेक ऐसे सवाल खड़े हैं जिनका जवाब हमारे हुक्मरानों के पास नहीं है। ये मौका कुछ ऐसे ही सवालों और उनके जवाबों को टटोलने का है। पहला सवाल है कि हमारे संविधान में सामाजिक और आर्थिक न्याय का जो वायदा किया गया था वो आज 58 वर्ष बाद भी पूरा क्यों नहीं हुआ ? देश की 70 फीसदी आवादी 80 रुपए प्रतिदिन से भी कम पर जीने को मजबूर क्यों है? 9 फीसदी प्रतिवर्ष की प्रभावशाली आर्थिक प्रगति दर का लाभ मुठ्ठी भर लोगों के हाथ में ही क्यों कैद है? गरीब किसान की उपजाऊ भूमि बिना उसकी मर्जी के छीन कर सेज को क्यों दी जा रही है? वामपंथी सरकार भी नंदीग्राम की जनता का दर्द क्यों नहीं समझ पा रही? अरबों रूपया खर्च करने वाले खुफिया तंत्र, हजारों करोड़ रूपया खर्च करने वाली फौज, लाखों थाना से गृह मंत्रालय तक फैले पुलिसिया जाल के बावजूद देश के हर कोने में आतंकवादी क्यों छिपे बैठे है और कैसे खतरनाक वारदातों को अंजाम देकर बच जाते हैं? कुदरत जी खोलकर बरसात देती है फिर क्यों भूजल स्तर खतरनाक गति से नीचे जा रहा है? राजस्थान और गुजरात जैसे सूखे इलाके ही नहीं पंजाब भी इस तबाही से हैरान है।


सूचना क्रान्ति और उदारीकरण से शहरों में बढ़ते रोजगार के अवसर भी ग्रामीण नौजवानों की बेरोजगारी क्यों कम नहीं कर पा रहे हैं? हरित क्रान्ति और अनाज के भरे भंडार भी सवा लाख किसानों को आत्म हत्या करने से क्यों नहीं रोक पाए? रोजगार देना तो दूर नई आर्थिक नीति में सब्जीवालों और खुदरा व्यापारियों तक के रोजगार छीनने का इंतजाम क्यों किया जा रहा है? स्वास्थ्य सेवाओं पर अरबों रूपया खर्च होने के बाद भी देश की 56 फीसदी महिलाएं व 79 फीसदी बच्चे रक्त की कमी से पीडि़त क्यों है? क्या वजह है कि बंगाल से शुरू होकर नक्सलवाद झारखंड, उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र तक फैल चुका है? अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ते तेल के दाम के बावजूद अविवेकपूर्ण तरीके से पैट्रोलियम की खपत क्यों बढ़ाई जा रही है? बड़े-बड़े बाधों व बिजली कारखानों के बावजूद क्यों सरकारें लोगों को 24 घंटे बिजली नहीं दे पातीं ? जितने जेनरेटर पावर कट के दौरान चलते हैं उतने तेल से तो पूरे शहर को बिजली दी जा सकती है। फिर क्यों इसका हल नहीं खोजा जाता ?


सीबीआई, आर्थिक अपराध निरोधक विभाग, निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक का पूरा तंत्र बिछा है फिर भी भ्रष्टाचार पर काबू क्यों नहीं पाया जा रहा ? बड़े-बड़े घोटालों में लिप्त ताकतवर लोगों का ये ऐजेंसियां बाल भी बांका नहीं कर पातीं, ऐसा क्यों ? समाज में सामाजिक सौहार्द स्थापित करने और जातिगत भेदभाव समाप्त करने के अनेक प्रावधान संविधान में मौजूद होने के बावजूद हमारा लोकतंत्र जातिवादी राजनीति के चंगुल से क्यों निकल नहीं पा रहा है ? पश्चिमी देशों के उपभोक्तावादी और प्रकृति विरोधी विकास माडल की तमाम नाकामियां सामने आने के बावजूद हमारे हुक्मरान उसी माडल का अंधानुकरण क्यों किये जा रहे हैं ? हमारे गणतंत्र के नामी मैडिकल और तकनीकी संस्थान आज तक देश के संसाधनों और आवश्यकताओं के अनुरूप शोध परिणाम क्यों नहीं दे पा रहे हैं ? इनसे निकले नौजवान क्यों उन कंपनियों के पीछे दौड़ रहे हैं जिन्होंने दुनिया भर में तबाही मचायी है, प्राकृतिक संसाधनों का नृशंस दोहन किया है और पूरे मानव समाज के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया है ? देश और उसके निवासियों की तरक्की और भलाई के लिए एक के बाद एक योजनायें विफल होने के बावजूद इस गणतंत्र का योजना आयोग भारत की आवश्यकताओं और भारतीयों की आकांशाओं के अनुरूप विकास का कोई भारतीय माडल आजतक क्यों नहीं दे पाया ? क्या उसमें समझदार और मौलिक सोच वाले लोगों की कमी है या राजनैतिक इच्छा की ?

इन सारे सवालों का जवाब ढ़ाई हजार वर्ष पहले चिंतक और युगपुरूष आचार्य विष्णुगुप्त यानी चाणाक्य पंडित ने एक वाक्य में दे दिया था। उनका कहना था, जिस देश का राजा महलों में रहता है उसकी प्रजा झोपडि़यों में रहती है और जिस देश का राजा झोपड़ी में रहता है उसकी प्रजा महलों में रहती है। जब तक सत्ताधीश और उनकी नौकरशाही सारी योजना और नीति अपने लाभ को केन्द्र में रखकर बनाते रहेंगे तब तक विकास का यही भौंडा स्वरूप हमारे सामने आता रहेगा। हर राष्ट्रीय पर्व और सेमिनार या सम्मेलनों में इन सवालों पर गत 58 वर्षों से लाखों बार बहस हो चुकी है और आज भी हो रही है। पर इन बहसों में हिस्सा लेने वाले दिल से नहीं जुबान से बोलते है इसलिए उनके वक्तव्यों के बांण निशाने पर नहीं लगते। इर्द गिर्द टकराकर गिर जाते हैं। जिनके पास ठोस और मौलिक विचार हैं, सफल अनुभव हैं, कुछ कर गुजरने के जजबात हैं उनके पास अपनी बात सत्ताधीशों तक पहुंचाने के माध्यम नहीं है, मंच नहीं है व साधन नहीं है। इसलिए वे कुढ़कर रह जाते हैं। दुर्भाग्यवश ऐसी सभी शक्तियां अपने अहम में उलझ कर बिखरी पड़ी हैं। एक जुट नहीं है। इसलिए एक ताकत नहीं बन पातीं। उनकी आवाज सत्ता के गलियारों में न गूंजकर केवल किसी गांव और कस्बे तक सिमट कर रह जाती हैं। चार दर्जन से ज्यादा समाचार टीवी चैनल भी इस आवाज को ताकत नहीं दे पा रहे और सतही घटनाओं में उलझ कर अपनी ताकत खोते जा रहे है।

उधर सत्ताधीशों में भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो इस मुल्क की हकीकत को बारीकी से समझते है और इन सभी समस्याओं के हल जानते हैं या खोजने की क्षमता रखते है। पर नौकरी खोने के डर से ऐसे लोग भी मुखर होने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। नौकरी पूरी हो जाने के बाद ही ये लोग हिम्मत दिखाते है पर तब इनके पास कुछ करने की ताकत नहीं रहती। इन सब सवालों से घिरे होने के बावजूद हमारा गणतंत्र आगे बढ़ रहा है। कम से कम ऐसा लिखने और बोलने की छूट तो हमें मिली है। यही क्या कम है। एक दिन वह भी आएगा जब बातें आवाज बनेगी और आवाज नीतियों का रूप लेगी। तब देश के सौ करोड़ से भी ज्यादा चेहरे उसी हर्षोल्लास से अपने घरों में गणतंत्र दिवस को त्योहार के रूप में मनायेंगे जैसे परेड में भाग लेने वाले हजारों लोग राजपथ पर चलते हुए मनाते हैं। यह संभव है। इसी सदी में कई देशों के हुक्मरानों ने अपने कड़े इरादों से अपने अपने मुल्कों में ऐसा कर दिखाया है। इसलिए हम भी इस गणतंत्र दिवस पर पूरी आस्था और विश्वास के साथ आगे बढ़ने का संकल्प लेंगे।

Sunday, January 20, 2008

कथनी और करनी में भेद क्यों ?

Rajasthan Patrika 20-01-2008
आतंकवाद, भ्रष्टाचार, लोकतंत्र, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा और आर्थिक विषमता ये कुछ ऐसे विषय है जिन पर सभी बड़े नेता और कुछ नामी विचारक रात दिन बोलते रहते हैं। चाहें टैलीविजन के कार्यक्रम हों या जनसभाऐं या सम्मेलन या फिर संसद। प्रश्न उठता है कि जब इतने बड़े नेता और इतने मशहूर विचारक इन सभी मुदों को लेकर इतने चिंतित हैं और चाहते हैं कि इनका हल निकल जाए तो फिर क्यों ये समस्याएं हल नहीं होती ?

पिछले दिनों एक लोकप्रिय दैनिक अखबार ने दिल्ली में अन्तर्राष्टीय समस्याओं पर एक अन्तर्राष्टीय सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें देश और दुनिया के तमाम बड़े नेताओं और मशहूर विचारकों ने भाग लिया। देश की राजधानी में ऐसे सम्मेलन करना अब काफी आम बात होती जा रही है। अनेक नामी प्रकाशन समूह बड़े स्तर पर ऐसे सम्मेलनों का आयोजन करने लगे है। इन सम्मेलनों में ऐसी सभी समस्याओं पर काफी आंसू बहाऐ जाते हैै और ऐसी भाव भंगिमा से बात रखी जाती है कि सुनने वाले यही समझे कि अगर इस वक्ता को देश चलाने का मौका मिले तो इन समस्याओं का हल जरूर निकल जाएगा। जबकि हकीकत यह है कि इन वक्ताओं में से अनेकों को अनेक बार सत्ता में रहने का मौका मिला और ये समस्यायें इनके सामने तब भी वेसे ही खड़ी थी जैसे आज खड़ी हैं। इन नेताओं ने अपने शासन काल में ऐसे कोई क्रान्तिकारी कदम नहीं उठाये जिनसे देशवासियों को लगता कि वो ईमानदारी से इन समस्याओं का हल चाहते है। अगर उनके कार्यकाल के निर्णयों कोे और बिना राग-द्वेष के मूल्यांकन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जिन समस्यो पर ये नेता गण आज घडि़याली आंसू बहा रहे है उन समस्याओं की जड़ में इन नेताओं की भी अहम भूमिका रही है। पर इस सच्चाई को बेबाकी से उजागर करने वाले लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। मजे कि बात यह कि इन गिने चुने लोगेां की बात को भी जनता के सामने रखने वाले दिलदार मीडिया समूह उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। विरोधाभास ये कि प्रकाशन समूह जिन समस्याओं पर अंतर राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करते हैं और दावा करते है कि इन सम्मेलनों में इन समस्याओं के हल खोजे जा रहे है वे प्रकाशन समूह भी इन सम्मेलनों में सच्चाई को ज्यों का त्यों रखने वालों को नहीं बुलाते। इसलिए सरकारी सम्मेलनों की तरह ये अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी एक हाई प्रोफाइल जन सम्पर्क महोत्सव से ज्यादा कुछ नहीं होते।

यह बड़ी चिंता की बात है कि ज्यादातर राष्ट्रीय माने जाने वाले मीडिया समूह अब जिम्मेदार पत्रिकारिता से हटकर जन सम्पर्क की पत्रिकारिता करने लगे हैं। इसलिए पत्रिकारिता भी अपनी धार खोती जा रही है और समस्याएं घटने के बजाय बढ़ती जा रही है। इसलिए क्षेत्रीय मीडिया समूह का प्रभाव और समाज पर पकड़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में देश के सामने जो बड़ी-बड़ी समस्यायें है उनके हल के लिए क्षेत्रीय मीडिया समूहों को एक ठोस पहल करनी चाहिए। अपने संवाददाताओं को एक व्यापक दृष्टि देकर उनसे ऐसी रिपोर्टों की मांग करनी चाहिए जो न सिर्फ समस्याओं का स्वरूप बताती हों बल्कि उनका समाधान भी। चिंता की बात यह कि आज कुछ क्षेत्रीय समाचार पत्र भी बयानों की पत्रकारिता पर ज्यादा जोर दे रहे है। ऐसे अखबारों में विकास और समाधान पर खबरें कम या आधी अधूरी होती है और छुटभैये नेताओं के बयान ज्यादा होते हैं। इससे उन नेताओं का तो सीना फूल जाता है पर समाज को कुछ नहीं मिलता, न तो मौलिक विचार और न हीं उनकी समस्याओं का हल। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब आम आदमी तक हर सूचना पहुचंे और समस्याओं के समाधान तय करने में आम आदमी की भी भावना को तरजीह दी जाए। जो मीडिया समूह इस परिपेक्ष में पत्रकारिता कर रहे हैं उनके प्रकाशनों में गहरायी भी है और वजन भी। पर चिंता की बात यह कि देश के अनेक क्षेत्रों में ऐसे लेाग मीडिया के कारोबार में आ गए है जो आज तक तमाम अवैध धंधे और अनैतिक कृत्य करते आये है। उनका उद्देश्य मीडिया को ब्लैकमेंलिंग का हथियार बनाने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जिनसे समाज के हम में किसी सार्थक पहल की उम्मीद नहीं की जा सकती।


दरअसल देश की समस्याओं के हल के लिए विदेशी विचारको की नहीं बल्कि स्वयं सिद्ध व मौलिक विचारों के धनी ऐसे देशी लोगों की है जो वास्तव में इन समस्याओं के हल प्रस्तुत कर सकें। चिंता की बात यह कि ऐसे ठोस लोगों की बात सुनने के लिए बहुत कम लोग अपना मंच उपलब्ध कराते है। इससे साफ जाहिए है कि देश की समस्याओं पर अंतर्राष्ट्रीय समेलन कराना उस समूह के लिए महज जन संपर्क का माध्यम है। इन सम्मेलनों से ठोस कुछ भी नहीं निकलता क्योंकि इनमें बोलने वालों की कथनी और करनी एक नहीं होती।