Sunday, January 27, 2008

सवालों में घिरा गणतंत्र

भारत की पहली महिला राष्ट्रपति राजपथ पर देश की उपलब्धियों की परेड देखकर जाहिरन प्रसन्न होंगी। पर गणतंत्र की उपलब्धियों के साथ अनेक ऐसे सवाल खड़े हैं जिनका जवाब हमारे हुक्मरानों के पास नहीं है। ये मौका कुछ ऐसे ही सवालों और उनके जवाबों को टटोलने का है। पहला सवाल है कि हमारे संविधान में सामाजिक और आर्थिक न्याय का जो वायदा किया गया था वो आज 58 वर्ष बाद भी पूरा क्यों नहीं हुआ ? देश की 70 फीसदी आवादी 80 रुपए प्रतिदिन से भी कम पर जीने को मजबूर क्यों है? 9 फीसदी प्रतिवर्ष की प्रभावशाली आर्थिक प्रगति दर का लाभ मुठ्ठी भर लोगों के हाथ में ही क्यों कैद है? गरीब किसान की उपजाऊ भूमि बिना उसकी मर्जी के छीन कर सेज को क्यों दी जा रही है? वामपंथी सरकार भी नंदीग्राम की जनता का दर्द क्यों नहीं समझ पा रही? अरबों रूपया खर्च करने वाले खुफिया तंत्र, हजारों करोड़ रूपया खर्च करने वाली फौज, लाखों थाना से गृह मंत्रालय तक फैले पुलिसिया जाल के बावजूद देश के हर कोने में आतंकवादी क्यों छिपे बैठे है और कैसे खतरनाक वारदातों को अंजाम देकर बच जाते हैं? कुदरत जी खोलकर बरसात देती है फिर क्यों भूजल स्तर खतरनाक गति से नीचे जा रहा है? राजस्थान और गुजरात जैसे सूखे इलाके ही नहीं पंजाब भी इस तबाही से हैरान है।


सूचना क्रान्ति और उदारीकरण से शहरों में बढ़ते रोजगार के अवसर भी ग्रामीण नौजवानों की बेरोजगारी क्यों कम नहीं कर पा रहे हैं? हरित क्रान्ति और अनाज के भरे भंडार भी सवा लाख किसानों को आत्म हत्या करने से क्यों नहीं रोक पाए? रोजगार देना तो दूर नई आर्थिक नीति में सब्जीवालों और खुदरा व्यापारियों तक के रोजगार छीनने का इंतजाम क्यों किया जा रहा है? स्वास्थ्य सेवाओं पर अरबों रूपया खर्च होने के बाद भी देश की 56 फीसदी महिलाएं व 79 फीसदी बच्चे रक्त की कमी से पीडि़त क्यों है? क्या वजह है कि बंगाल से शुरू होकर नक्सलवाद झारखंड, उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र तक फैल चुका है? अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ते तेल के दाम के बावजूद अविवेकपूर्ण तरीके से पैट्रोलियम की खपत क्यों बढ़ाई जा रही है? बड़े-बड़े बाधों व बिजली कारखानों के बावजूद क्यों सरकारें लोगों को 24 घंटे बिजली नहीं दे पातीं ? जितने जेनरेटर पावर कट के दौरान चलते हैं उतने तेल से तो पूरे शहर को बिजली दी जा सकती है। फिर क्यों इसका हल नहीं खोजा जाता ?


सीबीआई, आर्थिक अपराध निरोधक विभाग, निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक का पूरा तंत्र बिछा है फिर भी भ्रष्टाचार पर काबू क्यों नहीं पाया जा रहा ? बड़े-बड़े घोटालों में लिप्त ताकतवर लोगों का ये ऐजेंसियां बाल भी बांका नहीं कर पातीं, ऐसा क्यों ? समाज में सामाजिक सौहार्द स्थापित करने और जातिगत भेदभाव समाप्त करने के अनेक प्रावधान संविधान में मौजूद होने के बावजूद हमारा लोकतंत्र जातिवादी राजनीति के चंगुल से क्यों निकल नहीं पा रहा है ? पश्चिमी देशों के उपभोक्तावादी और प्रकृति विरोधी विकास माडल की तमाम नाकामियां सामने आने के बावजूद हमारे हुक्मरान उसी माडल का अंधानुकरण क्यों किये जा रहे हैं ? हमारे गणतंत्र के नामी मैडिकल और तकनीकी संस्थान आज तक देश के संसाधनों और आवश्यकताओं के अनुरूप शोध परिणाम क्यों नहीं दे पा रहे हैं ? इनसे निकले नौजवान क्यों उन कंपनियों के पीछे दौड़ रहे हैं जिन्होंने दुनिया भर में तबाही मचायी है, प्राकृतिक संसाधनों का नृशंस दोहन किया है और पूरे मानव समाज के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया है ? देश और उसके निवासियों की तरक्की और भलाई के लिए एक के बाद एक योजनायें विफल होने के बावजूद इस गणतंत्र का योजना आयोग भारत की आवश्यकताओं और भारतीयों की आकांशाओं के अनुरूप विकास का कोई भारतीय माडल आजतक क्यों नहीं दे पाया ? क्या उसमें समझदार और मौलिक सोच वाले लोगों की कमी है या राजनैतिक इच्छा की ?

इन सारे सवालों का जवाब ढ़ाई हजार वर्ष पहले चिंतक और युगपुरूष आचार्य विष्णुगुप्त यानी चाणाक्य पंडित ने एक वाक्य में दे दिया था। उनका कहना था, जिस देश का राजा महलों में रहता है उसकी प्रजा झोपडि़यों में रहती है और जिस देश का राजा झोपड़ी में रहता है उसकी प्रजा महलों में रहती है। जब तक सत्ताधीश और उनकी नौकरशाही सारी योजना और नीति अपने लाभ को केन्द्र में रखकर बनाते रहेंगे तब तक विकास का यही भौंडा स्वरूप हमारे सामने आता रहेगा। हर राष्ट्रीय पर्व और सेमिनार या सम्मेलनों में इन सवालों पर गत 58 वर्षों से लाखों बार बहस हो चुकी है और आज भी हो रही है। पर इन बहसों में हिस्सा लेने वाले दिल से नहीं जुबान से बोलते है इसलिए उनके वक्तव्यों के बांण निशाने पर नहीं लगते। इर्द गिर्द टकराकर गिर जाते हैं। जिनके पास ठोस और मौलिक विचार हैं, सफल अनुभव हैं, कुछ कर गुजरने के जजबात हैं उनके पास अपनी बात सत्ताधीशों तक पहुंचाने के माध्यम नहीं है, मंच नहीं है व साधन नहीं है। इसलिए वे कुढ़कर रह जाते हैं। दुर्भाग्यवश ऐसी सभी शक्तियां अपने अहम में उलझ कर बिखरी पड़ी हैं। एक जुट नहीं है। इसलिए एक ताकत नहीं बन पातीं। उनकी आवाज सत्ता के गलियारों में न गूंजकर केवल किसी गांव और कस्बे तक सिमट कर रह जाती हैं। चार दर्जन से ज्यादा समाचार टीवी चैनल भी इस आवाज को ताकत नहीं दे पा रहे और सतही घटनाओं में उलझ कर अपनी ताकत खोते जा रहे है।

उधर सत्ताधीशों में भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो इस मुल्क की हकीकत को बारीकी से समझते है और इन सभी समस्याओं के हल जानते हैं या खोजने की क्षमता रखते है। पर नौकरी खोने के डर से ऐसे लोग भी मुखर होने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। नौकरी पूरी हो जाने के बाद ही ये लोग हिम्मत दिखाते है पर तब इनके पास कुछ करने की ताकत नहीं रहती। इन सब सवालों से घिरे होने के बावजूद हमारा गणतंत्र आगे बढ़ रहा है। कम से कम ऐसा लिखने और बोलने की छूट तो हमें मिली है। यही क्या कम है। एक दिन वह भी आएगा जब बातें आवाज बनेगी और आवाज नीतियों का रूप लेगी। तब देश के सौ करोड़ से भी ज्यादा चेहरे उसी हर्षोल्लास से अपने घरों में गणतंत्र दिवस को त्योहार के रूप में मनायेंगे जैसे परेड में भाग लेने वाले हजारों लोग राजपथ पर चलते हुए मनाते हैं। यह संभव है। इसी सदी में कई देशों के हुक्मरानों ने अपने कड़े इरादों से अपने अपने मुल्कों में ऐसा कर दिखाया है। इसलिए हम भी इस गणतंत्र दिवस पर पूरी आस्था और विश्वास के साथ आगे बढ़ने का संकल्प लेंगे।

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