Rajasthan Patrika 03-02-2008 |
योजना का मकसद इन महत्वपूर्ण शहरों की नागरिक सुविधाओं का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुधार करना है ताकि यहां आने और रहने वाले बेहतर जिंदगी जी सकें। इस योजना में सबसे ज्यादा जोर जल की आपूर्ति, सीवर व्यवस्था, सड़कों की दशा का सुधार, धरोहरों का संरक्षण व शहरी गंदी बस्तियों का सुधार आदि पर है। इसी सूची में लिए गए शहरांे में से 35 तो महानगर हैं और 18 प्रांतों की राजधानियां। सब जानते हैं कि हमारे शहरों की हालत नारकीय होती जा रही हैं। पुरानी सीवर लाइनें मौजूदा दबाव के आगे नाकाफी सिद्ध हो रही हैं। उपभोक्तावाद के चलते पैकेजिंग मैटेरियल की खपत बढ़ी है। जिसने शहरों में ठोस कूड़े का रूप ले लिया है। जिसका निस्तारण एक चुनौती बन गया है। सबमर्सिबिल पम्पों के कारण शहरों में घटती हरी पट्टी के कारण और पहाडो़ के उत्खनन के कारण भू जल स्तर तेजी से नीचे जा रहा हैं । औद्योगिक ईकाईयों ने धरती के ऊपर और धरती के नीचे सारा जल प्रदूषित कर दिया है। धूएं से शहरों का प्रदूषण बर्दाश्त सीमा से कहीं आगे पहुंच गया है। ऐसे में अगर कुछ शहरों की हालत सुधारने के लिए सरकार एक लाख करोड रूपया खर्च करने जा रही है तो इससे खुश ही होना चाहिए। खासकर उन लोगों को जो उन शहरों में रहते हैं, जो नर्म की सूची में gS ।
पर वास्तव में यह खुशी की नहीं चिंता की बात है कि इतनी महत्वाकांक्षी योजना को केन्द्र सरकार बिना सोचे समझे लागू करने जा रही है। योजना के प्रारूप में ही इतनी सारी कमियां हैं कि अगर इसे लागू कर दिया गया तो इसकी भी वहीं दुर्गति होगी जो ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की हो रही है। इसका कारण है कि नर्म के लिए योजना बनाने वाले सलाहकारों ने अपना मेहनताना तो करोडों रूपया वसूल लिया पर उन्होंने कभी मौके पर जाकर जमीनी हकीकत जानने की कोशिश तक नहीं की। इनमें से ज्यादातर योजनाओं को अधकचरे तरीके से, अपने कार्यालयों में बैठकर और फर्जी आंकडे डालकर तैयार किया गया है। जब योजना बनाने वाले को ही असली समस्याएं नहीं पता तो वह उनका निदान कैसे करेगा ?
पिछले दिनो उ.प्र. सरकार के अनेक ks विभागों के प्रमुख सचिवों की एक बैठक लखनऊ की नर्म योजना पर चिंतन करने के लिए हुई। जिसमें योजना बनाने वाले दिल्ली के विशेषज्ञ अपनी प्रस्तुति करने आए थे। मुझे भी अपनी राय देने के लिए इस बैठक में बुलाया गया। वहां विशेषज्ञों की प्रस्तुति देखकर हमने माथा पकड़ लिया। इस प्रस्तुति में लखनऊ के 45 कुंडों के जीर्णोद्धार के लिए 45 करोड़ रूपए का प्रावधान रखा गया था। हमने विशेषज्ञ महोदय से पूछा कि क्या आपने इन कुंडों का आकार नापा है ? क्या उनके अंदर जमा गाद की मोटाई नापी है ? क्या इन कुंडों के नीचे भू जल स्तर का कोई आकलन किया है ? क्या आपने इन कुंडों के जलस्रोतों का अध्ययन किया है ? क्या आपने इन कुंडों के घाटो की दुर्दशा का कोई मूल्यांकन किया है ? मेरे सवालों पर इन विशेषज्ञों का चेहरा उतर गया। उनका उत्तर था ‘नहीं’। फिर कैसे उन्होंने तय कर लिया कि 45 कुंडों के जीर्णोंद्धार पर 45 करोड रूपया खर्च होगा? इसका जवाब वो नहीं दे सके। साफ जाहिर था कि पूरी योजना फर्जी आंकडों और हवाई ख्यालों से बनाई गई थी।
जब योजना की नींव ही खोखली है तो योजना सफल कैसे होगी ? इसी चिंता में हमने अन्य शहरों की योजनाओं का भी अध्ययन दिल्ली आकर किया और देखकर घोर निराशा हुई कि यहां भी यही हाल था। यह जानते हुए भी कि हर शहर पीने के पानी के संकट से जूझ रहा है, इन विशेषज्ञ योजनाकारों ने इतना भी नहीं सोचा की अरबों रूपया खर्च करके पानी की व्यवस्था को सुधारा नहीं जा सकता। जब तक कुछ बुनियादी बातों पर ध्यान न दिया जाए। जैसे पीने के पानी और बाकी उपयोग के पानी की अलग-अलग व्यवस्था होनी चाहिए। शौचालयks में फ्लश सिस्टम से बहुत सा कीमती जल बर्बाद हो जाता है। उसकी जगह आधुनिक तकनीकी में वैक्यूम क्लिनर लगने लगे हैं जिनमें पानी की जरूरत ही नहीं होती। शहरी पानी के सीवर जाल को विवेकपूर्ण और इस तरह बनाने की जरूरत हैं कि इस पानी का एक बहुत बड़ा हिस्सा थोड़े से प्रयास से शहर को हरा-भरा बनाने में फिर से प्रयोग में आ जाए। इससे भूजल स्तर भी बढ़ेगा और पानी की बर्बादी भी घटेगी। पर ऐसी कोई समझदारी इन योजनाओं में नहीं है। वही पुराने ढर्रे पर और फर्जी आंकडों से पानी और सीवर की व्यवस्था सुधारने के लिए हजारों करोड रूपयों का प्रावधान कर दिया गया है। जिससे वही हाल होगा जो गंगा एक्शन प्लान और यमुना एक्शन प्लान का हुआ कि अरबों रूपया खर्च करके भी गंगा और यमुना का प्रदूषण नहीं हट सका।
सबसे ज्यादा चिंता का विषय यह है कि जिन शहरों में यह योजना लागू की जा रही है उन शहरों में शहरी विकास को लेकर जो योजनाएं और कार्यक्रम पहले से इन शहरों में चल रहे हैं उनका कोई उल्लेख इन योजनाओं में नहीं है। उनके साथ कोई सामंजस्य भी नहीं है। साफ जाहिर है कि इससे बहुत बड़े घोटाले होने का रास्ता साफ हो गया है। एक ही काम को दो विभाग वाले दिखा कर दो अलग-अलग योजनाओं के तहत पैसा वसूलेंगे और डकार जाएंगे। होना यह चाहिए था कि जिन शहरों में नर्म की योजना लागू होने जा रही है वहां शहरी विकास की मौजूदा सभी योजनाओं को या तो खत्म कर दिया जाए या इसके साथ जोड़ा जाएं। इसी तरह हैरिटेज यानी धरोहर का भी सवाल है। एक तरफ केंद्रिय सरकार हैरिटेज शहरों को बढ़ावा देकर पर्यटन बढ़ाना चाहती हैं दूसरी ओर इन योजनाओं में घरोहरों की रक्षा या उनके सुधार के लिए कोई समझदारी नहीं दिखाई गई है। पैसों का तो आवंटन कर दिया गया है पर योजनाओं में वहीं पुराना ढर्रा अपनाया गया है जो धरोहरों के लिए काफी खतरनाक है। हमने इस पूरी योजना के खोखलेपन पर 20 पन्नों की एक रिपोर्ट तैयार की है जिसे हम प्रधानमंत्री को इस चेतावनी के साथ सौप रहे हैं कि इन तथ्यों को जानने के बाद भी अगर आप या आपकी सरकार जनता के एक लाख करोड रूपए को बर्बाद ही करना तय करते हैं तो यह साफ हो जाएगा कि यह योजना शहरी विकास के लिए नहीं बल्कि अफसरशाही, नेताओं व ठेकेदारों की जेब भरने के लिए है और इसका नाम जवाहर लाल नेहरू शहरी भ्रष्टाचार वृद्धि योजना होनी चाहिए। फैसला सरकार को करना है।
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