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Monday, December 5, 2016

नोटबंदी दूसरे नजरिये से








70 के दशक में जब कुकिंग गैस का परिचय ग्रहणियों को मिला तो हर घर में एक बहस चल पड़ी कि इस गैस के चूल्हे पर खाना बनाना चाहिए या नहीं।बहुमत इसके पक्ष में था कि दाल-सब्जी तो भले ही पका लो, पर रोटी मत सेंकना। क्योंकि रोटी में जहरीली गैस चली जायेगी। पर बाद में जब ग्रहणियों को गैस पर खाना बनाने में सुविधा महसूस हुई तो इसे हर घर ने इसे अपना लिया । यह बात दूसरी है कि चूल्हे पर या तंदूर में सिकी रोटी का स्वाद गैस पर सिकी रोटी से  बेहतर होता है। पर शहरों में चूल्हे जलाना संभव नहीं होता।

1980 में जब रिचर्ड एटनबरो महात्मा गांधी पर फिल्म बनाने भारत आए तो गांधीवादियों ने सड़कों पर उनके खिलाफ प्रदर्शन किए। उनका सवाल था कि कोई अंग्रेज ये काम क्यों करे ? बाद में उसी फिल्म ने विश्वभर की नयी पीढी को गांधी जी से परिचित करवाया। फिल्म की खूब तारीफ हुई।

1985 में जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कम्प्यूटर क्रांति लाकर 21 वीं सदी में जाने की बात की तो भाजपा सहित सारे विपक्ष ने देशभर में तूफान मचा दिया और राजीव गांधी का खूब मजाक उड़ाया। आज गांव -गांव में हर नौजवान को कम्प्यूटर हासिल करने की ललक रहती है। कम्प्यूटर के आने से बहुत से क्षेत्रों में कार्यकुशलता सैकड़ों गुना बढ़ गयी है। इसी तरह जब संजय गांधी मारूति कार का विचार लेकर आये तो उनका भी खूब मजाक उड़ाया गया। बाद में उसी कार ने आटोमोबाईल्स उद्योग में क्रांति कर दी।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नोटबंदी को भी इसी परिपेक्ष में देखा जाना चाहिए। जो लोग आज विरोध कर रहे है, बहुत संभव है कि वही लोग कल इसका गुणगान करें। नोटबंदी के आर्थिक पहलुओं और बैंको के मायाजाल पर पिछले दो हफ्तों में इसी कालम में मैं दो लेख लिख चुका हूं। पर आज बात दूसरे नजरिये से कर रहा हूँ । मान लें कि मोदी जी का सपना सच हो जाए और भारत के लोग नकद पैसे का इस्तेमाल 92 फीसदी से घटाकर 20 फीसदी तक भी ले आयें, तो कितना बड़ा फायदा होगा, इस पर भी विचार कर लिया जाए।

आज जब मजदूर महानगरों से अपनी मेहनत की कमाई अंटी में खोसकर गांव जाते हैं, तो रेल गाड़ियों में लूट लिए जाते हैं। पर कल जब वे डिजिटल सुविधाओं का प्रयोग करना सीख जायेंगे तो महानगरों से खाली हाथ गांव जायेगें और अपने गांव के बैंकों से पैसा निकाल कर घरवालों को दे आयेंगे। हम शहरी लोगों को तो इससे बहुत सुविधा होगी जब बिना पैसा जेब में रखे हर काम कर सकेंगे। चाहे कहीं खाना हो, आना-जाना हो और चाहे कुछ खरीदना हो, सब कुछ बिना नकद के लेनदेन के हो जायेगा। हिसाब हर वक्त उपलब्ध रहेगा। मोदी जी ठीक कह रहे हैं कि इससे कारोबार में सबको ही बहुत सुविधा हो जायेगी। ग्रामीण अंचलों को छोड़कर।

12 वर्ष पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने मुझ पर वृंदावन के सुप्रसिद्ध बांकेबिहारी मंदिर और गोवर्धन के दानघाटी मंदिर के रिसीवर की मानद जिम्मेदारी सौंपी। उन दिनों मुझे यह जानकर बहुत अचम्भा हुआ कि मथुरा जनपद में ज्यादातर व्यापार कच्ची पर्ची से होता है। इससे मुझे बहुत परेशानी हुई और मैने जोर देकर कहा कि हमारे मंदिरों में जो सप्लाई आयेगी वह उन्हीं दुकानों से आयेगी जो पक्का बिल देंगे और चैक से भुगतान लेंगे। शुरू में मुझे अपने ही प्रबंधको का विरोध सहना पड़ा। पर सख्ती करने पर यह व्यवस्था जम गयी। वहां एक मंदिर में तो कर्मचारियों को वेतन तक नकद में मिलता था। उन्होंने मुझसे शिकायत की कि वेतन देने वाला कुछ कमीशन काट लेता है। मुझे आश्चर्य हुआ कि जिस मंदिर के प्रांगण में ही स्टेट बैंक आफ इण्डिया की शाखा मौजूद है, उसमें कर्मचारियों के बैक अकाउंट आज तक क्यों नहीं खुले? 2003 में ही मैंने सबके अकाउंट खुलवाये और उनका वेतन सीधा उनके खाते में जमा होने लगा।

इसी तरह आजकल भगवान की लीलास्थलियों के जीर्णोद्धार का जो काम ब्रज में हम बड़े स्तर पर कर रहे हैं, उसमें भी यही दिक्कत आ रही है। सीमेंट की आपूर्ति करने वाला किसी और आईटम के नाम से बिल देना चाहता है। कारण यह बताता है कि वो उस वस्तु के विक्रय का अधिकृत डीलर नहीं है इसलिए दूसरी वस्तु के नाम से बिल  देता है। मैने इसे स्वीकार नहीं किया। क्योंकि साईट पर जरूरत है 100 ईटों की पर बिल में लिखा है 1000 ईंट। क्योंकि 900 ईंट की जगह तो सीमेंट आया है। तो हम अपने खाते में कैसें इस बात को सिद्ध करेंगे कि हमने 100 की जगह 1000 ईंट लगाई। सारा घालमेल हो जायेगा। पक्के बिलों और चैक के भुगतान से इस समस्या का हल हो जायेगा। जो खरीदो बेचो उसी का बिल बनाओ। इसी तरह टोल बैरियर हो या रोजमर्रा की खरीददारी, हमारी आधी उर्जा तो फुटकर मांगने और देने में निकल जाती है। अगर आनलाइन ट्रांस्फर होगा तो चिल्लर की जरूरत ही नही पड़ेगी।

तुर्की के राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा ने जब दकियानुसी तुर्क समाज को आधुनिक बनाने की कोशिश की तो उनका भारी विरोध हुआ। वे चाहते थे कि उनके कबिलाई समाज अरबी- फारसी की लिपि को छोड़कर अंग्रेजी सीख जायें और दुनिया से जुड़ जाये। लड़कियां लड़के साथ-साथ पढ़ें। उनके शिक्षा मंत्री ने कहा कि यह असंभव है कि निरक्षर जनता, खासकर महिलाएं बुर्के के बाहर आकर शिक्षा ग्रहण करें। मंत्री महोदय का आंकलन था कि इस काम में कई दशक लग जायेंगे। पर कमाल पाशा कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने खुद ही गांव-गांव जाकर साक्षरता की क्लास लेना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि 2 वर्ष में ही तुर्की के लोग अंग्रेजी लिखने, पढ़ने और बोलने लगे। अगर सरकार समाज में  जरूरी 8 लाख करोड़ रूपये के नोट जल्दी जारी कर पाई, तभी यह योजना सफल हो पायेगी। इसके अलावा भी मोदी जी को जनता के बीच जाकर कमाल पाशा की तरह कुछ करना पड़ेगा। पुरानी कहावत है न कि ‘बिना मरे स्वर्ग नहीं दीखता।’ फिर चाहे स्वच्छता अभियान हो या बैंकिग प्रणाली का विस्तार, मोदी जी को इसे एक सतत आंदोलन के रूप में चलाना होगा। तभी देश बदलेगा।

Monday, November 2, 2015

लौटाना ताजपोशी का

 गए वो जमाने, जब राजा कलाकारों, साहित्यकारों और संतों से प्रसन्न होकर उन्हें अपने गले के आभूषण, स्वर्ण मुद्राएं या जागीरें दान में दिया करते थे। लोकतंत्र की स्थापना के बाद जनता के चुने हुए प्रतिनिधि जब सरकार बनाते हैं, तो वे कोई राजा नहीं होते, जो पत्रकारों, साहित्यकारों या कलाकारों को सम्मान दें। इन सब लोगों का सम्मान तो वह प्यार है, जो इन्हें इनके दर्शकों और श्रोताओं से मिलता है।




1989 में जब हमने देश का पहला हिंदी टेलीविजन समाचार ‘कालचक्र वीडियो’ शुरू किया था, तब मशहूर पत्रकार निखिल चक्रवर्ती, गिरीलाल जैन और अरूण शौरी जैसे पत्रकारों को अलग-अलग सरकारों ने पद्मभूषण या पद्मश्री दिए। निखिल चक्रवर्ती ने वह पद्मभूषण लेने से मना कर दिया। हमने तब कालचक्र वीडियो समाचार के दूसरे अंक में एक रिपोर्ट तैयार की ‘पत्रकारों की ताजपोशी’। जिसका मूल यह था कि सरकार का पत्रकारों को कोई भी अवार्ड देना, उन पत्रकारों की निष्पक्षता और ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न लगा देता है। यही कारण है कि मैंने आजतक श्रेष्ठ पत्रकारिता का कोई अवार्ड किसी संस्था से नहीं लिया। हालांकि मेरे पाठक और श्रोता जानते हैं कि पिछले 30 वर्षों में पत्रकारिता में मैंने कितनी बार इस देश में इतिहास रचा है। यहां यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि किसी सरकार ने मुझे ऐसा कोई ईनाम देने की कभी कोई पेशकश नहीं की। जाहिर है कि जब हम डंडा लेकर निष्पक्षता से हर दल की सरकार के पीछे पड़े रहेंगे और उसकी कमियों को उजागर करेंगे, तो कौन सरकार इतनी मूर्ख है, जो हमें सम्मानित करेगी। अब वो दिन थोड़े ही हैं, जब कहा जाता था कि, ‘निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाए। बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करें सुभाय।।’ अब तो उन पत्रकारों, साहित्यकारों और कलाकारों को राज्यसभा का सदस्य बनाया जाता है या अवार्ड दिए जाते हैं या राजदूत बनाया जाता है, जो किसी एक राजनैतिक दल की चाटुकारिता में लगे रहते हैं और जब वह दल सत्ता में आता है, तो उनको इस तरह के ईनाम देकर पुरूस्कृत किया जाता है।

 
 इसलिए जो लोग आज अवार्ड लौटा रहे हैं, हो सकता है कि वो वाकई देश के सामाजिक ढांचे में तथाकथित रूप से पैदा की जा रही विसंगतियों से आहत हों। हमें इस विषय में कुछ नहीं कहना। पर, यह जरूर है कि वे लोग अपने मन में जानते हैं कि जो अवार्ड इन्हें मिले, वो केवल इसलिए नहीं मिले कि ये अपने समय के सर्वश्रेष्ठ कलाकार, पत्रकार या साहित्यकार थे। इन्हें पता है कि इनके समय में इनसे भी ज्यादा योग्य लोग थे, जिनका नाम तक ऐसे किसी अवार्ड की सूची में विचारार्थ नहीं रखा गया। क्योंकि ऐसी सूचियों में नाम स्वतः ही प्रकट नहीं हो जाते। अवार्ड लेने के लिए आपको एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। नौकरशाही और राजनेताओं के तलवे चाटने पड़ते हैं। बड़े-बड़े ताकतवर लोगों से सिफारिशें करवानी पड़ती हैं और ये सब तब, जब आप पहले से ही सत्तारूढ़ दल के चाटुकार रहे हों। क्योंकि चाटुकारों की कोई कमी थोड़े ही होती है। उनकी भी एक बड़ी जमात होती है। उनमें से कुछ ही को तो अवाॅर्ड मिलता है, बाकी को कहां पूछा जाता है ?
 
 इसलिए इनका अवार्ड लौटाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए चिंता का विषय नहीं होना चाहिए। क्योंकि अगर ये आज की सरकार के समय में दावेदार होते, तो जाहिर है, इन्हें यह अवाॅर्ड नहीं मिलते। मतलब साफ है कि जिसने अवार्ड दिए, उसकी राजनीति चमकाने के लिए अगर हम आज अवाॅर्ड लौटा भी दें और खुदा-न-खास्ता कल वो फिर से सत्ता में आ जाएं, तो इस ‘बलिदान’ के लिए दुगना-चैगुना पुरूस्कार मिलेगा। अगर वे सत्ता में न भी आएं, तो भी उनके प्रति कुछ फर्ज तो अदा करना चाहिए। वैसे भी इन पुरूस्कारों को कौन पूछ रहा है। सबको पता है कि कैसे मिलते हैं और किसको मिलते हैं ? जो यश तब लेना था, वो तो मिल चुका। अब तो लौटने में भी वाहवाही है।
 
 
 इसका मतलब यह नहीं कि मैं समाज में सामाजिक वैमनस्य पैदा करने वालों के हक में बोल रहा हूं। ऐसा कार्य तो जिस भी दल के कार्यकर्ता करते हैं, वह राष्ट्रद्रोह से कम नहीं हैं और अगर ऐसा भाजपा के कार्यकर्ता कर रहे हैं, तो मोदीजी को उनकी लगाम कसनी चाहिए। पर, हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जब संसद में भाजपा के मात्र 2 सांसद होते थे, तब भी तो देश में सामाजिक वैमनस्य होता था। सांप्रदायिक दंगे होते थे और खूब लोग मरते थे। क्या कश्मीर में जब हिंदूओं को मार-मारकर निकाला गया और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटी गई, तब इन सब लोगों ने क्या अपने अवार्ड लौटाए थे ? तब तो सबको सांप सूंघ गया था।
 
 
इसलिए अवार्ड लौटाने का यह नाटक बंद होना चाहिए। इसलिए जगह मांग उठनी चाहिए कि किसी भी सरकार को किसी कलाकार, पत्रकार, साहित्यकार को कोई भी अवार्ड देने का कोई हक नहीं हो। जितने अवार्ड आजतक दिए गए हैं, वे सब राष्ट्रपति का अध्यादेश लाकर निरस्त किए जाएं। अब आप ही सोचिए कि अमिताभ बच्चन को 50 हजार रूपए महीने की पेंशन का अवार्ड देने के पीछे क्या तुक है ? वो तो खुद ऐसी पेंशन हर महीने 50 लोगों को दे सकते हैं। हां, अगर कोई पत्रकार, साहित्यकार या कलाकार गरीबी में जी रहा हो और उसके पास इलाज को भी पैसे न हों और समाज उसकी मदद को आगे न आए, तो सरकारों का फर्ज बनता है कि उसकी मदद करें। अच्छे भले खाते-पीते संपन्न लोगों को आर्थिक अवार्ड या तमगे देना उनके स्वाभिमान को कुचलने जैसा है। जिसे रोकने की पहल हम सबको करनी चाहिए। अवार्ड लौटाकर नहीं, बल्कि आजतक मिले सभी अवार्ड निरस्त करवाकर।

Monday, April 7, 2014

तुम कौन होते हो नसीहत देने वाले

अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठित पत्रिका इकॉनोमिस्ट ने अपने ताजा अंक में भारत के मतदाताओं को आगाह किया है कि वे राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच राहुल गांधी का चुनाव करें। क्योंकि पत्रिका के लेख के अनुसार मोदी हिन्दू मानसिकता के हैं और 2002 के सांप्रदायिक दंगों के जिम्मेदार हैं। पिछले दिनों मैं अमेरिका के सुप्रसिद्ध हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने गया था, वहां भी कुछ गोरे लोगों ने नरेंद्र मोदी के नाम पर काफी नाक-भौ सिकोड़ी।
सब जानते हैं कि पिछले 10 वर्षों से अमेरिका ने नरेंद्र मोदी को वीज़ा नहीं दिया है। जबकि अमेरिका में ही मोदी को चाहने वालों की, अप्रवासी भारतीयों की और गोरे नेताओं व लोगों की एक बड़ी भारी जमात है, जो मोदी को एक सशक्त नेता के रूप में देखती है। ऐसी टिप्पणियां पढ़ सुनकर हमारे मन में यह सवाल उठना चाहिए कि हम एक संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं और अपने नेता का चयन करने के लिए स्वतंत्र हैं, तो यह मुट्ठीभर नस्लवादी लोग हमारे देश के प्रधानमंत्री पद के एक सशक्त दावेदार के विरूद्ध ऐसी नकारात्मक टिप्पणियां करके और सीधे-सीधे हमें उसके खिलाफ भड़काकर क्या हासिल करना चाहते हैं ?
    हमारा उद्देश्य यहां नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी की दावेदारी की तुलना करना नहीं है। हम तो केवल कुछ सवाल खड़े करना चाहते हैं, हम मोदी को चुनें या गांधी को, तुम बताने वाले कौन हो ? अगर तुम मोदी पर हिंसा के आरोप लगाते हों, तो 84 के सिख दंगों की बात क्यों भूल जाते हो, हमारे देश की बात छोड़ो, तुमने वियतनाम, ईराक और अफगानिस्तान में जो नाहक तबाही मचाई है, उसके लिए तुम्हारे कान कौन ख्ींाचेगा ? तुम्हें कौन बताएगा कि जिनके घर शीशे के होते हैं, वो दूसरे के घर पर पत्थर नहीं फेंकते। हम मां के स्तन का दुग्धपान करें, तो तुम्हारे उदर में पीड़ा होती है और तुम हमें मजबूरन डिब्बे का दूध पिलाकर नाकारा बना देते हो और छह दशक बाद नींद से जागते हो ये बताने के लिए की मां का दूध डिब्बे से बेहतर होता है। हम गोबर की खाद से खेती करें, तो तुम हमें गंवार बताकर कीटनाशक और रसायनिक उर्वरकों का गुलाम बना देते हों और जब इनसे दुनियाभर में कैंसर जैसी बीमारी फैलती हैं, तो तुम जैविक खेती का नारा देकर फिर अपना उल्लू सीधा करने चले आते हो। हम नीबू का शर्बत पिएं, छाछ या लस्सी पिएं, बेल का रस पिएं, तो तुम्हें पचता नहीं, तुम जहरघुला कोलाकोला व पेप्सी पिलाओ, तो हम वाह वाह करें।
    तुम मोदी को हिंदू मानसिकता का बताकर नाकारा सिद्ध करना चाहते हो, पर भूल जाते हो कि यह उसी हिंदू मानसिकता का परिणाम है कि आज पूरी दुनिया योग और ध्यान से अपने जीवन को तबाही से बचा रही है। उसी आयुर्वेद के ज्ञान से मेडिकल साइंस आगे बढ़ रही है। उसी गणित और नक्षत्रों के ज्ञान से तुम्हारा विज्ञान सपनों के जाल बुन रहा है। तुम मानवीय स्वतंत्रता के नाम पर जो उन्मुक्त समाज बना रहे हों, उसमें हताशा, अवसाद, परिवारों की टूटन और आत्महत्या जैसी सामाजिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं, जबकि हिंदूवादी पारंपरिक परिवार व्यवस्था हजारों वर्षों से फल-फूल रही है। इसलिए कोई हिंदूवादी होने से अयोग्य कैसे हो सकता है, यह समझ से परे की बात है। क्या तुमने अपने उन बहुसंख्यक युवाओं से पूछने की कोशिश की है कि दुनिया के तमाम देशों को छोड़कर वो भारत में शांति की खोज में क्यों दौड़े चले आते हैं ?
ऐसा नहीं है कि हिंदू मानसिकता में या नरेंद्र मोदी में कोई कमी न हो और ऐसा भी नहीं है कि पश्चिमी समाज में कोई अच्छाई ही न हो। पर तकलीफ इस बात को देखकर होती है कि तुम गड्ढे में जा रहे हो, तुम्हारा समाज टूट रहा है, नाहक कर्जे में डूब रहा है, पर्यावरण का पाश्विक दोहन कर रहे हो और फिर भी तुम्हारा गुरूर कम नहीं होता। तुम क्यों चैधरी बनते हो ? क्या तुमने नहीं सुना कि अंधे और लंगड़े मित्र ने मिलकर कैसे यात्रा पूरी की। अगर कहा जाए कि हमारी संस्कृति लंगड़ी हो गई है, तो हमें शर्म नहीं आएगी, पर ये कहा जाए कि तुम अंधे होकर दौड़ रहे हो, तो तुम्हें भी बुरा नहीं लगना चाहिए। तुम्हारी प्रबंधकीय क्षमता और हमारी दृष्टि और सोच का अगर मधुर मिलन हो, तो विश्व का कल्याण हो सकता है।
चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे या राहुल गांधी या कोई और, यह फैसला तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का मतदाता करेगा। पर तुम्हें अपना रवैया बदलना चाहिए। नरेंद्र मोदी परंपरा और आधुनिकता का समन्वय लेकर चलने की कोशिश कर रहे हैं। अपने तरीके से राहुल गांधी भी इसी रास्ते पर हैं। हां, दोनों के अनुभव और उपलब्धियों में भारी अंतर है। अगर इस वक्त देश के युवाओं को मोदी से उम्मीद नजर आती है, तो वे मोदी को मौका देंगे। अगर मोदी उनकी उम्मीदों पर खरे उतरे, तो ली क्वान या कमाल अतातुर्क की तरह हिन्दुस्तान की तस्वीर बदलेंगे और अगर उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, समय को नहीं पहचाना, योग्य-अयोग्य लोगों के चयन में भूल कर गए, तो सत्ता से बाहर भी कर दिए जाएंगे। पर यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की खूबी है कि हम बिना खूनी क्रांति के सत्ता पलट देते हैं। पर तुम जिन देशों की मदद के लिए अपने खजाने लुटा देते हो, वे आज तक लोकतंत्र की देहरी भी पार नहीं कर पाए हैं। पहले उनकी हालत सुधारों, हमें शिक्षा मत दो। हम अपना अच्छा बुरा सोचने में सक्षम हैं और हमने बार-बार यह सिद्ध किया है। आज से 40 वर्ष पहले जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने लौह महिला बनकर पश्चिम को चुनौती दी थी, तब भी तुम इतना ही घबराए थे। आज नरेंद्र मोदी के प्रति तुम्हारा एक तरफा रवैया देखकर उसी घबराहट के लक्षण नजर आते हैं। डरो मत, पूरी दुनिया की मानवजाति की तरक्की की सोचो। उसे बांटने और लूटने की नहीं, तो तुम्हें घबराहट नहीं, बल्कि रूहानी सुकून मिलेगा। ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि दें।