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Monday, November 22, 2021

सीबीआई और ईडी निदेशकों का सेवा विस्तार


ताज़ा अध्यादेश के ज़रिए भारत सरकार ने सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के निदेशकों के कार्यकाल को 5 वर्ष तक बढ़ाने की व्यवस्था की है। अब तक यह कार्यकाल दो वर्ष का निर्धारित था। अब इन निदेशकों को एक-एक साल करके तीन साल तक और अपने पद पर रखा जा सकता है। पहले से ही विवादों में घिरी ये दोनों जाँच एजेंसियाँ विपक्ष के निशाने पर रही हैं। इस नए अध्यादेश ने विपक्ष को और उत्तेजित कर दिया है, जो अगले संसदीय सत्र में इस मामले को ज़ोर-शोर से उठाने की तैयारी कर रहा है।
 

इन दो निदेशकों के दो वर्ष के कार्यकाल का निर्धारण दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फ़ैसले के तहत किया गया था। इसी फ़ैसले की तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जाँच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी जब हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। क्योंकि तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिज़बुल मुजाहिद्दीन की हवाला के ज़रिए हो रही दुबई और लंदन से फ़ंडिंग की जाँच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उसपर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में क़ानून बने। 



ताज़ा अध्यादेश में सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले की भावना की उपेक्षा कर दी गई है। जिससे यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। इस तरह यह महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन सकती हैं। क्योंकि केंद्र में जो भी सरकार रही है उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। 


बेहतर होता कि सरकार इस अध्यादेश को लाने से पहले लोक सभा के आगामी सत्र में इस पर बहस करवा लेती या सर्वोच्च न्यायालय से इसकी अनुमति ले लेती। इतनी हड़बड़ी में इस अध्यादेश को लाने की क्या आवश्यकता थी? सरकार इस फ़ैसले को अपना विशेषाधिकार बता कर पल्ला झाड़ सकती है। पर सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फ़ैसला इन जाँच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दख़ल के अपना काम कर सके। क्योंकि सीबीआई को अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया है। 


प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री श्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 7 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमख़म के साथ कहते हैं न खाऊँगा न खाने दूँगा। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच करने वाली ये एजेंसियाँ सरकार के दख़ल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा। हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 7 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। ये बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लम्बी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उसकी निष्पक्ष जाँच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं बल्कि शुभचिंतक माना जाए। क्योंकि संत कह गए हैं कि, ‘निंदक नियरे  राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’ 


इसलिए इस अध्यादेश के मामले सर्वोच्च न्यायालय को तुरंत दख़ल देकर इसकी विवेचना करनी चाहिए। इन महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियों के निदेशकों के कार्यकाल का विस्तार 5 वर्ष करना मोदी जी की ग़लत सोच नहीं है, पर यहाँ दो बातों का ध्यान रखना होगा। पहला; ये नियुक्ति एकमुश्त की जाए, यानी जिस प्रक्रिया से इनका चयन होता है, उसी प्रक्रिया से उन्हें 5 वर्ष का नियुक्ति पत्र या सेवा विस्तार दिया जाए। दूसरा; अधिकारियों में सरकार की चाटुकारिता की प्रवृत्ति विकसित न हो और वे जनहित में निष्पक्षता से कार्य कर सकें इसके लिए उन्हें 60 वर्ष की आयु के बाद सेवा विस्तार न दिया जाए बल्कि इन महत्वपूर्ण पदों पर उन्हीं अधिकारियों के नामों पर विचार किया जाए जिनका सेवा काल अभी 5 वर्ष शेष हो। अगर सरकार ऐसा करती है तो उसकी विश्वसनीयता बढ़ेगी और नहीं करती है तो ये जाँच एजेंसियाँ हमेशा संदेह के घेरे में ही रहेंगी और नौकरशाही में भी हताशा बढ़ेगी।


प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी नोटबंदी जैसे बहुत सारे महत्वाकांक्षी फ़ैसले लेते आए हैं। जिससे उनकी उत्साही प्रवृत्ति का परिचय मिलता है। हर फ़ैसला जितने गाजे-बाजे और महंगे प्रचार के साथ देश भर में प्रसारित होता है वैसे परिणाम देखने को प्रायः नहीं मिलते। क्योंकि उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली है और समाज का एक वर्ग उन्हें बहुत चाहता है इसलिए शायद वे संसदीय परम्पराओं व अनुभवी और योग्य सलाहकारों से सलाह लेने की ज़रूरत नहीं समझते। अगर वे अपने व्यक्तित्व में ये बदलाव ले आएँ कि हर बड़े और महत्वपूर्ण फ़ैसले को लागू करने से पहले उसके गुण-दोषों पर आम जनता से न सही कम से कम अनुभवी लोगों से सलाह ज़रूर ले लें तो उनके फ़ैसले अधिक सकारात्मक हो सकते हैं। उल्लेखनीय है कि स्विट्ज़रलैंड में सरकार कोई भी नया क़ानून बनाने से पहले जनमत संग्रह ज़रूर कराती है। भारत अभी इतना परिपक्व लोकतंत्र नहीं है पर 135 करोड़ लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाले फ़ैसले सामूहिक मंथन से लिए जाएं तो यह जनहित में होगा।

Monday, December 14, 2020

भ्रष्टाचार : नए कानून की नहीं, निष्पक्ष अनुपालन की जरूरत


हाल ही में दो अलग जनहित याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने शुक्रवार को कहा कि समाज या व्यवस्था की सारी बुराइयां सुप्रीम कोर्ट दूर नहीं कर सकता है। ना ही यह जिम्मेदारी अकेले सुप्रीम कोर्ट की है। अदालत ने कहा कि कार्यपालिका और विधायिका की अपनी जिम्मेदारी है और यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट सारी भूमिकाएं संभाल ले तथा सब कुछ करे।
 

याचिका के जरिए सुप्रीम कोर्ट से मांग की गई थी कि केन्द्र सरकार को ‘बेनामी’ संपत्ति, बेहिसाब वाली संपत्ति तथा काला धन जब्त करने से संबंधित कानून बनाने की संभावना तलाशने का निर्देश दिया जाए। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति ऋषिकेष रॉय की पीठ ने समाज में बदलाव की जरूरत पर जोर दिया और कहा कि, ‘‘पैसा लेने वाले हर व्यक्ति को पैसे देने वाला कोई दूसरा व्यक्ति भी है।’’


एक अन्य जनहित याचिका में यह भी एक मांग थी कि केंद्र सरकार को 1993 की वोहरा समिति की रिपोर्ट भिन्न केंद्रीय एजेंसियों को देने का निर्देश दिया जाए ताकि इनकी व्यापक जांच हो सके। याचिकाकर्ता, जो कि भाजपा नेता भी हैं, ने आरोप लगाया कि तत्कालीन गृहसचिव एनएन वोहरा ने अपराध सिंडिकेट, राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के कथित संपर्कों पर एक रिपोर्ट दी थी जिसका कोई फॉलो अप नहीं हुआ। 



इसपर अदालत ने कहा, आप ऐसी प्रार्थना क्यों कर रहे हैं। इसपर किताब लिखिए। ऐसी याचिकाएं मत दाखिल कीजिए। पीठ ने कहा कि कानून बनाना संसद का काम है और हम ऐसा आदेश नहीं दे सकते। पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता को चाहिए कि जन प्रतिनिधियों को ऐसा कानून बनाने के लिए तैयार करें।  


पीठ ने जनहित के मामले में याचिका दायर करने के याचिकाकर्ता के अच्छे कामों की सराहना की और यह भी कहा कि जनहित याचिकाएं अब प्रचार याचिकाएं बनती जा रही हैं। याचिकाकर्ता ने अच्छे काम किये हैं लेकिन इस पर हम विचार नहीं कर सकते।’’ पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता को जन प्रतिनिधियों को इस बारे में कानून बनाने के लिये तैयार करना चाहिए। पीठ ने याचिकाकर्ता को यह जनहित याचिका वापस लेने और विधि आयोग में प्रतिवेदन देने की अनुमति दी।


इसमें कोई दो राय नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट अकेले सब कुछ ठीक नहीं कर सकता है। जब ज्यादातर राजनेता और नौकरशाह अपनी जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश करें या सच कहिए तो इसका कारण बन जाएं तब न्यायपालिका से अजूबे की उम्मीद नहीं की जा सकती है। भ्रष्टाचार सामाजिक बुराई है और अगर कोई पैसे लेकर काम करता है तो कोई है जो काम कराने के पैसे देता भी है। बुराई दोनों तरफ से है, एक तरह की मिलीभगत है। ऐसे में कानून बहुत उपयोगी नहीं हो सकता है। 


कहने की जरूरत नहीं है कि बहुत सारे कानूनों का उल्लंघन खुलेआम होता है क्योंकि उन्हें रोकने के लिए ना सरकार इच्छुक है ना समाज। ऐसे कुछ कानून को वापस लेने की भी मांग हुई और वापस लिए भी गए हैं। जिस कानून का अनुपालन संभव नहीं हो उसे वापस लिया जाना गलत नहीं है पर वापस लेने का एक मतलब यह भी लगाया और प्रचारित किया जाता है कि अब उसकी अनुमति है जबकि बात ऐसी नहीं होती है। अनैतिक और गैर कानूनी में भी अंतर होता है। 


भ्रष्टाचार के मामले में भी कानून तो हैं ही। सजा कम या ज्यादा हो सकती है। पर भ्रष्टाचार के किन मामलों की जांच हो और किनकी नहीं – यह तय करने में भी भ्रष्टाचार और राजनीति है। ऐसे में कानून बनाने या कार्रवाई का निर्देश देने से ज्यादा जरूरी है कि समाज इस मामले में खुद जागरूक हो और अव्वल तो भ्रष्टाचार हो ही नहीं और हो तो बिना किसी भेदभाव के जांच हो और कार्रवाई की जाए। जबतक यह स्थिति बहाल नहीं हो जाती है तब तक कानून जो हैं और जो बनेंगे उनके दुरुपयोग की संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता है। 


चुनाव लड़ने वालों के मामले में ही बहुत सारे कानून बने हैं लेकिन इनका अनुपालन भी ठीक नहीं होता है। इससे संबंधित शिकायतों की जांच और कार्रवाई के मामले में जन प्रतिनिधियों से भी समान व्यवहार नहीं होता है। फर्जी डिग्री के मामले में एक राजनीतिक दल के विधायक का जो हाल किया गया वैसा सत्तारूढ़ दल के मामले में नहीं हुआ। यह मामला सर्वविदित है। ऐसे में जरूरत नए कानून की नहीं, कानून के निष्पक्ष अनुपालन की है। 


यही नहीं, सत्तारूढ़ दल के लोग अगर अपने हिसाब से कानून बनवाएं (या बना लें) तो वह भी ठीक नहीं है। उदाहरण के लिए आतंकवाद के आरोपी को चुनाव लड़ने का टिकट देने का मामला लीजिए। कायदे से किसी पर कोई आरोप लगे तो उसे स्वयं पद छोड़ देना चाहिए ताकि निष्पक्ष जांच हो सके और अगर निर्दोष पाया जाए तो वह वापस अपने पद पर आ जाए। 


चिंता की बात यह है कि भ्रष्टाचार से अदालतें भी अछूती नहीं हैं। निचली अदालतों में तो भारी भ्रष्टाचार है ही। उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय तक में भ्रष्टाचार के अनेक उदाहरण सामने आ चुके हैं। पर उन मामलों में, कुछ अपवादों को छोड़ कर, कभी कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई। अदालत की अवमानना क़ानून का डर दिखा कर भ्रष्ट न्यायाधीश  शिकायतकर्ताओं को डराते धमकाते हैं। ऐसे न्यायाधीशों को पद  से हटाने के लिए संसद के पास महाभियोग चलाने का अधिकार है। पर सांसद इस अधिकार का उपयोग नहीं करना चाहते। जब कभी ऐसी परिस्थिति आती है तो वे ये कह कर बच निकलते हैं कि हमारे दल में बहुत सारे कार्यकर्ताओं पर आपराधिक मुक़दमें चल रहे हैं। अगर हम न्यायपालिका के ख़िलाफ़ बोलेंगे तो हमारे लोगों को ही पकड़ कर बन्द करवा दिया जाएगा। जब कुएँ में ही भांग पड़ी हो तो कहाँ से शुरू किया जाए? काका हाथरसी की एक कविता है, ‘क्यों डरता है बेटा रिश्वत लेकर - छूट जाएगा तू भी रिश्वत देकर।’

Monday, July 27, 2020

पद्मनाभ स्वामी मन्दिर की गरिमा बची

पिछले हफ़्ते सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने तिरुवनंतपुरम के इस विश्वविख्यात मंदिर की गरिमा बचा दी। विश्व के सबसे बड़े ख़ज़ाने का स्वामी यह मंदिर पिछले 10 वर्षों से पूरी दुनिया के लिए कोतुहल बना हुआ था। क्योंकि इसके लॉकरों में कई लाख  करोड़ रुपए के हीरे जवाहरात और सोना चाँदी रखा है। पिछले 2500 वर्षों से जो कुछ चढ़ावा या धन यहाँ आया उसे त्रावणकोर के राज परिवार ने भगवान की सम्पत्ति मान कर संरक्षित रखा। उसका कोई दुरुपयोग निज लाभ के लिए नहीं किया। 


जबकि दूसरी तरफ़ केरल की साम्यवादी सरकार इस बेशुमार दौलत से केरल के गरीब लोगों के लिए स्कूल, अस्पताल आदि की व्यवस्था करना चाहती थी। इसलिए उसने इसके अधिग्रहण का प्रयास किया। चूँकि यह मंदिर त्रावणकोर रियासत के राजपरिवार है, जिसके पारिवारिक ट्रस्ट की सम्पत्ति यह मन्दिर है। उनका कहना था कि इस सम्पत्ति पर केवल ट्रस्टियों का हक है और किसी भी बाहरी व्यक्ति को इसके विषय में निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं है। राजपरिवार के समर्थन में खड़े लोग यह कहने में नहीं झिझकते कि इस राजपरिवार ने भगवान की सम्पत्ति की धूल तक अपने प्रयोग के लिए नहीं ली। ये नित्य पूजन के बाद, जब मन्दिर की देहरी से बाहर निकलते हैं, तो एक पारंपरिक लकड़ी से अपने पैर रगड़ते हैं, ताकि मन्दिर की धूल मन्दिर में ही रह जाए। इन लोगों का कहना है कि भगवान के निमित्त रखी गयी यह सम्पत्ति केवल भगवान की सेवा के लिए ही प्रयोग की जा सकती है। 


इन सबके अलावा हिन्दू धर्मावलंबियों की भी भावना यही है कि देश के किसी भी मन्दिर की सम्पत्ति पर नियन्त्रण करने का, किसी भी

राज्य या केन्द्र सरकार को कोई हक नहीं है। वे तर्क देते हैं कि जो सरकारें मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों अन्य धर्मावलंबियों के धर्मस्थानों की सम्पत्ति का अधिग्रहण नहीं कर सकतीं, वे हिन्दुओं के मन्दिरों पर क्यों दांत गढ़ाती हैं? खासकर तब जबकि आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबी हुई सरकारें और नौकरशाह सरकारी धन का भी ठीक प्रबन्धन नहीं कर पाते हैं। 


यह विवाद सर्वोच्च न्यायालय तक गया, जिसने अपने फ़ैसले में केरल सरकार के दावे को ख़ारिज कर दिया और त्रावणकोर राज परिवार के दाव को सही माना। जिससे पूरे दुनिया के हिंदू धर्मावलंबियों ने राहत की साँस ली है। ये तो एक शुरुआत है देश अनेक मंदिरों की सम्पत्तिपर राजनैतिक दल और नौकरशाह अरसे से गिद्ध दृष्टि लगाए बैठे हैं। जिन राज्यों में धर्मनिरपेक्ष दलों की सरकारें हैं उन पर भाजपा मंदिरों के धन के दुरुपयोग का आरोप लगाती आई है और मंदिरों केअधिग्रहण का ज़ोर शोर से संघ, भाजपा विहिप विरोध करते आए हैं। जैसे आजकल तिरुपति बालाजी के मंदिर को लेकर आंध्र प्रदेश की रेड्डी  सरकार पर भाजपा का लगातार हमला हो रहा है, जो सही भी है और हम जैसे आस्थावान हिंदू इसका समर्थन भी करते हैं। पर हमारे लिए चिंता की बात यह है कि उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने ही अनेक हिंदू मंदिरों का अधिग्रहण कर लिया है। और भाजपा अन्य राज्यों में भी यही करने की तैयारी में है। जिससे हिंदू धर्मावलंबियों में भारी आक्रोश है।   


दरअसल धार्मिक आस्था एक ऐसी चीज है जिसे कानून के दायरों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। आध्यात्म और धर्म की भावना रखने वाले, धर्मावलंबियों की भावनाओं को तो समझ सकते हैं और ही उनकी सम्पत्ति का ठीक प्रबन्धन कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि जहाँ कहीं ऐसा विवाद हो, वहाँ उसी धर्म के मानने वाले समाज के प्रतिष्ठित और सम्पन्न लोगों की एक प्रबन्धकीय समिति का गठन अदालतोंको कर देना चाहिए। इस समिति के सदस्य बाहरी लोग हों और वे भी हों जिनकी आस्था उस देव विग्रह में हो। जब साधन सम्पन्न भक्त मिल बैठकर योजना बनाएंगे तो दैविक द्रव्य का बहुजन हिताय सार्थक उपयोग ही करेंगे। जैसे हर धर्म वाले अपने धर्म के प्रचार के साथ समाज की सेवा के भी कार्य करते हैं, उसी प्रकार से पद्मनाभ स्वामी जी के भक्तों की एक समिति का गठन होना चाहिए। जिसमें राजपरिवार के अलावा ऐसे लोग हों, जिनकी धार्मिक आस्था तो हो पर वे उस इलाके की विषमताओं को भी समझते हों। ऐसी समिति दैविक धन का धार्मिक कृत्यों समाज विकास के कृत्यों में प्रयोग कर सकती है। इससे उस धर्म के मानने वालों के मन में तो कोई अशांति होगी और कोई उत्तेजना। वे भी अच्छी भावना के साथ ऐसे कार्यों में जुड़ना पसन्द करेंगे। अब वे अपने धन का कितना प्रतिशत मन्दिर और अनुष्ठानों पर खर्च करते हैं और कितना विकास के कार्यों पर, यह उनके विवेक पर छोड़ना होगा। 


हाँ, इस समिति की पारदर्शिता और जबावदेही सुनिश्चित कर देनी चाहिए। ताकि घोटालों की गुंजाइश रहे। इस समिति पर निगरानी रखने के लिए उस समाज के सामान्य लोगों को लेकर विभिन्न निगरानी समितियों का गठन कर देना चाहिए। जिससे पाई-पाई पर जनता की निगाह बनी रहे। हिन्दू मन्दिरों का धन सरकार द्वारा हथियाना, हिन्दू समाज को स्वीकार्य नहीं होगा। अदालतों को हिन्दुओं की इस भावना का ख्याल रखना चाहिए। अभी तो एक पद्मनाभ मन्दिर का फ़ैसला आया है। देश में ऐसे हजारों मन्दिर हैं, जहाँ नित्य धन लक्ष्मी की वर्षा होती रहती है। पर इस धन का सदुपयोग नहीं हो पाता। आस्थावान समाज को आगे बढ़कर नई दिशा पकड़नी चाहिए और दैविक द्रव्य का उपयोग उस धर्म स्थान या धर्म नगरी या उस धर्म से जुड़े अन्य तीर्थस्थलों के जीर्णोद्धार और विकास पर करना चाहिए। जिससे भक्तों और तीर्थयात्रियों को सुखद अनुभूति हो। इससे धरोहरों की रक्षा भी होगी और आने वालों को प्रेरणा भी मिलेगी।