संसद में सबसे बड़ा विपक्षी दल इस बात को ले कर परेशान है
कि सरकार उसके नेता को ‘नेता प्रतिपक्ष’ का दर्ज़ा क्यों नहीं देना चाहती |
कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने श्रीमती सोनिया गांधी की अध्यक्षता में इस मुद्दे पर
सरकार को संसद में घेरने कि रणनीति बनाई है | वैसे ये फैसला लोकसभा की अध्यक्षा
श्रीमती सुमित्रा महाजन को करना है | कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद ने
एक सार्वजनिक बयान देकर यह चिंता जताई है कि नेता प्रतिपक्ष की नियुक्ति न होने से
सीवीसी जैसे अनेक संवैधानिक पदों को भरना असंभव हो जायेगा | जबकि हकीकत यह नहीं है
| सीवीसी एक्ट की धारा चार के अनुसार सीवीसी की नियुक्ति राष्ट्रपति के आदेश पर
प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली एक समिति द्वारा की जाति है | जिसके अन्य दो सदस्य
भारत के गृहमंत्री व नेता प्रतिपक्ष होते हैं | जैन हवाला काण्ड का फैसला देते समय
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था महत्वपूर्ण पदों की नियुक्ति में
पारदर्शिता लाने के लिए की थी | पर इसके साथ ही इस क़ानून के निर्माताओं ने संसद की
मौजूदा स्थिति का शायद पूर्वानुमान लगा कर ही इस अधिनियम के सब-सेक्शन में यह
स्पष्ट कर दिया है कि सीवीसी कि नियुक्ति के सम्बन्ध में ‘नेता प्रतिपक्ष’ का
तात्पर्य लोक सभा में सबसे अधिक सांसदों वाले दल के नेता से है | ऐसे में अगर
श्रीमती सुमित्रा महाजन कांग्रेस की मांग पर उसके नेता को सदन में नेता प्रतिपक्ष
का दर्जा नहीं देतीं तो भी सीवीसी कि नियुक्ति में कोई अड़चन नहीं आएगी |
ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सीवीसी की संरचना को
लेकर सरकार कुछ नई पहल करे | जिस तरह भारत के मुख्य न्यायाधीश ने विशेष मामलों के
लिए सर्वोच्च न्यायायलय में विशेष योग्यता वाले न्यायाधीशों की नियुक्ति की पहल की
है | उसी तरह सीवीसी के भी सदस्यों की संख्या में विस्तार किये जाने की आवश्यकता
है | अभी परंपरा यह बन गयी है कि एक सदस्य भारतीय प्रशासनिक सेवा का होता है, एक
भारतीय पुलिस सेवा का और एक बैंकिंग सेवा का | ये तीन तो ठीक हैं इनके अलावा एक
सदस्य कर विशेषज्ञ होना चाहिए, एक सिविल इन्जीनियरिंग का, एक अंतर्राष्ट्रीय
वित्तीय मामलों का और एक सदस्य कानूनविद होना चाहिए | इनकी भी नियुक्ति उसी तरह हो
जैसी मौजूदा सदस्यों की होती है | क्योंकि सीवीसी के सामने जो ढेरों मामले आते हैं
उनको जांचने परखने के लिए ऐसे विशेषज्ञों का होना अनिवार्य है |
इसके साथ ही एक सबसे बड़ी समस्या मंत्रालयों, सार्वजनिक
उपक्रमों व अन्य सरकारी विभागों में नियुक्त सीवीओ को लेकर है | इस प्राणी का जीवन
मगरमच्छ के मुंह में अटका है | उसी विभाग के संयुक्त सचिव स्तर के व्यक्ति को कुछ
अवधि के लिए उसी विभाग का सीवीओ बना दिया जाता है | जिसका काम अपने विभाग में हो
रहे भ्रष्टाचार की शिकयतों को सुलटाना होता है | अब यदि विभाग का अध्यक्ष ही टेंडर
आदि में बड़े घोटाले कर रहा हो तो उसका अधीनस्त कर्मचारी उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाने की
हिम्मत कैसे कर सकता है ? क्योंकि इस पद से हटने के बाद तो उसे उसी अधिकारी के अधीन
शेष नौकरी करनी होगी | आवश्यक्ता इस बात की है कि सीवीसी को यह अधिकार दिया जाये
कि वो देश के किसी भी राज्य या विभाग के किसी भी योग्य अधिकारी का चयन कर उसे
सीवीओ नियुक्त करे, जिससे वह पूर्ण निष्पक्षता से कार्य कर सके |
सीवीसी की दूसरी बड़ी समस्या यह है कि उसके पास योग्य अफसरों
का अभाव हमेशा बना रहता है | ज्यादा
नियुक्तियां करने से नाहक खर्च बढ़ेगा | अच्छा ये हो कि सीवीसी को अधिकार दिया जाये
कि वह सेवानिवृत्त योग्य व अनुभवी अधिकारीयों को शिकायतों कि जाँच करने के लिए
सलाहकार रूप में बुला सके | इससे पेंशनयाफ्ता खाली बैठे योग्य अधिकारियों का सदुपयोग
होगा और जाँच की प्रक्रिया में तेज़ी भी आएगी |
वैसे तो
सीबीआई की स्वायत्ता और उस पर सीवीसी के नियंत्रण को लेकर कई महत्वपूर्ण मुकदमें
फिलहाल भारत के मुख्य न्यायधीश के विचाराधीन हैं | पर सरकार को भी इस मामले पर
अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए | लोकपाल के गठन और असर को लेकर कई पेच हैं | पर
मौजूदा व्यवस्था में थोड़े से सुधार से भ्रष्टाचार को लेकर जो चिंता लोगों के मन
में है उसके समाधान प्रस्तुत किये जा सकते हैं | इससे नई सरकार की प्रतिबद्धता भी
स्पष्ट होगी और देश में एक सही सन्देश जायेगा |
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