पूरा उत्तर भारत भीषण गर्मी की चपेट में है। कई शहरों में तो पारा 50 डिग्री को पार कर गया है। धूप की तपिश ऐसी है कि खाल जलने लगती है। जल स्रोत सूखते जा रहे हैं। इसी हफ्ते पानी के लिए झगड़ें में कई शहरों में लोग मारे जा चुके हैं। पर यह तो सिर्फ आगाज़ है। आने वाले वर्षों में तबाही और मचेगी। ग्लोबल वार्मिंग का शोर नाहक ही नहीं मचाया जा रहा। जिस हाल से हम पृथ्वी का हरित क्षेत्र कम कर रहे हैं, उससे यह तबाही घटेगी नहीं। जल, थल, वायु के वाहनों से निकलने वाला धुंआ हो या कारखानों की चिमनियों से या फिर वातानुकूलन करने वाली मशीनों से - हम प्रकृति में दानवों की तरह जहर उगल रहे हैं।
दूसरे देशों की क्या कहें, अपने ही देश के शहरों को ले लें। जिस तेजी से भवन निर्माण हो रहे हैं उससे ज्यादा तेजी से जंगल काटे जा रहे हैं और पहाड़ तोड़े जा रहे हैं। सारा का सारा विकास पानी की चिंता किये बिना हो रहा है। आज से 15 साल पहले देश की राजधानी के पास गुड़गांव में एक आधुनिक शहर बनाने का दावा किया गया। अंसल, डीएलएफ, सुशांत जैसे बड़े-बड़े भवन निर्माताओं ने गुड़गांव में आधुनिक शहर खड़ा कर भी दिया। दिल्ली के साधन सम्पन्न लोग, काॅरपोरेट जगत के अधिकारी और अप्रवासी भारतीयों ने यहां दिल खोल के बंगले और फ्लैट खरीदे। खरीदते भी क्यों ना, टीवी और अखबारों में जो विज्ञापन दिये गये उनमें इन बंगलों को हरा-भरा और स्विमिंग पूल से सुसज्जित दिखाया गया। पर आज हालत क्या है घ् यहां 2-2 दिन पानी नहीं आता। टैंकरों से आपूर्ति करनी पड़ रही है। फिर भी पूरा नहीं पड़ रहा। पानी के दाम पैप्सी-कोला की तरह हो गये हैं।
यही हाल बिजली का भी है। जब इतने ए.सी. चलेंगे तो बिजली कहां से आयेगी। इस इलाके में रोजाना घंटों बिजली नहीं आती। यह तो एक उदाहरण है। देश के हर शहर में यही हाल है। भवन निर्माता इसी तरह लुभावने सपने दिखाकर लोगों को सुनहरा भविष्य देने का वायदा कर रहे हैं। लोग अपना पारंपरिक, सरल, किफायती, सौहार्दपूर्ण जीवन छोड़कर नये रईसों की तरह नई जीवन पद्धति को अपनाते जा रहे हैं। जिसमें उनके परिवार की प्रति व्यक्ति औसत जल और बिजली की खपत का कोटा तेजी सेे बढ़ता जा रहा है। पानी जमीन की सतह से कई सौ फुट नीचे पहुंच चुका है। बिजली की वर्तमान आपूर्ति किसी भी शहर की आवश्यकता को तीन चैथाई भी पूरा नहीं कर पा रही है। यह आलम तो आज का है, कल क्या हालात होंगे सोचकर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हमें पाॅश मानी जाने वाली दक्षिणी दिल्ली में ही अपने इस्तेमाल के लिए हजारों रूपये महीने का जल खरीदना पड़ रहा है। पर किसी को देश में बढ़ते जल संकट की चिंता नहीं है। राजनेता और मीडिया केवल बयानबाजी करते हंै। हमारे आचरण में कोई बदलाव नहीं है। सरकार की नीति में कोई बदलाव नहीं है। सब बिल्ली के सामने कबूतर की तरह आंख बंद किये बैठे हैं। मानो खतरा टल जायेगा।
पर्यावरण की चिंता करने वाले तीन दशकों से चीख-चीख कर चेतावनी दे रहे हैं। पर उनकी बातों पर गंभीरता से अमल नहीं किया जा रहा है। दंतेवाड़ा जैसे हादसों के बाद भी हमारे राजनेताओं को यह समझ में नहीं आता कि जिस काल्पनिक विकास की ओर वे देश को ले जा रहे हैं वह बहुसंख्यक भारतीय समाज के लिए हासिल कर पाना संभव नहीं है। खासकर तब जब उसकी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो पा रही हैं। ऐसे में यह सोचना कि पूरे भारत को यूरोप बना देंगे, मूर्खतापूर्ण बात है। इस तरह के विकास से दंतेवाड़ा की तरह नक्सलवादी हमले बढ़ेंगे और लोगों का जीना मुहाल हो जायेगा। आज भी शहरों में अपराध का बढ़ता ग्राफ इसी हताशा का प्रमाण है।
चिंता इस बात की होती है कि हम जैसे पत्रकार या लेखक ढोल-ताशे पीटते रहते हैं। फिल्मी सितारे जनहित विज्ञापनों में पर्यावरण चेतना के सारगर्भित उपदेश देकर रस्म अदायगी कर लेते हैं। राजनेता देश-विदेश के विशेषज्ञों को बुलाकर पांच सितारा होटलों में सम्मेलन करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। पर्यावरण के लिए लड़ने वाले खान माफियाओं से पिटते रहते हैं। पुलिस से उन्हें सहयोग नहीं मिलता। प्रशासन मोटी रिश्वत लेकर हर जिले में प्रदूषण के मुद्दों को बड़ी सहजता से अनदेखा कर देता है। नतीजतन हालात बद से बद्तर होते जो रहे हैं। हम खतरे की घंटी को भी नहीं सुन रहे। कोई नहीं है जो विकास के नाम पर किये जा रहे इस विनाश की दिशा मोड़ दे। ऐसे में संतों से आशा की जानी चाहिए कि वे समाज को जीने का नया ढंग बतायेंगे। नया मतलब पारंपरिक और स्वयं सिद्ध जीवन। पर दुर्भाग्य तो यह है कि पैसा देकर टीवी पर अपने को खुद ही परम्पूज्य बताने वाले तथाकथित संत धर्म के सौदागर हो गये हैं। उनका आचरण और उनके अनुयायिओं का आचरण दूर-दूर तक पर्यावरण रक्षा के अनुरुप नहीं है। सब कुछ डिज़नीलैंड की तरह एक धार्मिक मनोरंजन बन कर रह गया है। ऐसे में खुदा ही मालिक है हमारे भविष्य का। फिलहाल तो सूर्य नारायण ने अपनी गर्मी एक अंश ही बढ़ाया है और हम बिलबिला गये हैं। जरा सोचिए अगर हमने और हमारे हुक्मरानों ने जीवन का ढर्रा जल्दी नहीं बदला तो आने वाले वर्षों में हमें भट्टियों में तपना पड़ेगा। तब नर्क जाने की जरूरत नहीं होगी क्योंकि अपने लिये इसी पृथ्वी पर हम खुद नर्क तैयार कर रहे हैं।
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