केन्द्र सरकार राज्यपाल को अपना प्रतिनिधि मानकर उसे अपने प्रति समर्पित देखना चाहतीं हैं। जबकि इस याचिका में सoksZच्च न्यायालय के वकील एच.पी. शर्मा ने संविधान के अनुच्छेद 153 से 156 तक का हवाला देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की कि राज्यपाल का पद संवैधानिक पद है और उसे राजनीति का शिकार नहीं बनाया जा सकता। संविधान के अनुच्छेद 156 में साफ लिखा है कि राज्यपाल राष्ट्रपति की इच्छानुसार अपने पद पर रहेगा। यदि वह अपने हस्ताक्षर से त्यागपत्र सौंपता है तो वह पदभार से मुक्त हो सकता है। इसी अनुच्छेद में यह लिखा है कि राज्यपाल का कार्यकाल पांच वर्ष होगा और यदि उसे हटाया जाना है तो केवल उसी स्थिति में हटाया जायेगा जबकि वह शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग हो जाए या भ्रष्ट आचरण करे या संविधान की उपेक्षा करे या राज्यपाल के लिए अपेक्षित व्यवहार से हटकर व्यवहार करे या राजनीति में सक्रिय हो जाए या लगातार राजनैतिक जनसभाओं को संबोधित करे या देशद्रोही और विघटनकारी तत्वों से संबंध बना ले। इस हिसाब से तो एक भी राज्यपाल को 2004 में नहीं हटाया जा सकता था। फिर भी उन्हें हटाया गया। न तो कोई कारण बताया गया और न ही कोई जांच की गयी और न ही उन राज्यपालों को अपने आचरण को स्पष्ट करने का मौका दिया गया।
जबकि संविधान के अनुसार राज्यपाल राज्य की विधायिका का अभिन्न अंग है। जब विधानसभा का सत्र न चल रहा हो तो वह अध्यादेश जारी करने के लिए अधिकृत है। राज्य की अधिशासी शक्ति उसमें निहित है और हर प्रशासनिक कार्य उसी के नाम से किया जाता है। उसे क्षमादान करने और दण्ड कम करने और राहत देने का अधिकार प्राप्त है। उसे विधानसभा या विधान परिषद का सत्र बुलाने या उन्हें भंग करने का अधिकार होता है। विधानसभा में पारित कोई भी विधेयक तब तक कानून नहीं बनता जब तक उसे राज्यपाल की स्वीकृति प्राप्त न हो। उसे राज्य की असमान्य परिस्थितियों की रिपोर्ट बननी होती है, उन परिस्थितियों में जब उसे यह लगता हो कि राज्य की सरकार संविधान के अनुसार सरकार चलाने में सक्षम नहीं है। इस तरह भारत संघ के राज्य का राज्यपाल एक उच्च संवैधानिक पद पर होता है जिसे अनेक महत्वपूर्ण संवैधानिक कार्य और कर्तव्यों का निर्वाह करना होता है।
राष्ट्रपति की ही तरह राज्यपाल से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वह गैर राजनैतिक होगा और अपने पूर्व राजनैतिक संबंधों से मुक्त होकर केवल संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वाह करेगा। इसलिए उसे केन्द्र सरकार का प्रतिनिधि या उसका मुलाजिम नहीं माना जा सकता। श्री बी.पी. सिंघल की तत्परता और सतत् प्रयास से 6 साल तक लड़ी गयी लंबी कानूनी लड़ाई ने राज्यपाल के पद को राजनीति का शिकार होने से बचा लिया। पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने केन्द्र सरकार के इस दावे को सिरे से खारिज कर दिया कि राज्यपाल को केन्द्र सरकार में बैठे दल की राजनैतिक विचारधारा से ताल-मेल रखना होगा।
यह विजय न सिर्फ बी.पी. सिंघल की है बल्कि भाजपा की भी है, जिसके द्वारा नियुक्त राज्यपालों को 2004 में बेआबरू करके पद से हटाया गया था। आश्चर्य की बात तो यह है कि बावजूद इसके कि यह मामला उसके हितों से सीधा जुड़ा था भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं और उससे जुड़े मशहूर वकीलों ने इस मामले में कभी कोई रूचि नहीं ली। श्री सिंघल को दल की तरफ से कोई मदद नहीं मिली। यहां तक कि उनकी इस ऐतिहासिक जीत पर भाजपा के बड़े नेताओं ने उन्हें बधाई देना या सार्वजनिक वक्तव्य जारी करना भी मुनासिब नहीं समझा। ऐसा भाजपा के साथ ही नहीं है कि सिद्धांतों के लिए लड़ने वालों की उपेक्षा की जाए बल्कि हर दल और हर क्षेत्र में यह बुराई पैंठ चुकी है। फिर भी जुनूनी लोग अपनी मुठ्ठी भर ताकत और फौलादी इरादों से व्यवस्था को यदा-कदा चुनौती देते ही रहते हैं। जिससे इस लोकतंत्र की रक्षा होती है और अनजाने ही इतिहास रचा जाता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में केन्द्र की सरकारें किसी प्रांत के राज्यपाल को इस तरह बेआबरू करके हटाने से पहले दस बार सोचेंगीं।
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