प्रश्न है कि क्या वास्तव में 21वीं सदी के भारत में हमें जाति चेतना की ओर लौटने की जरूरत है? यादव त्रिदेव जोर देकर कहेंगे कि है। पर हकीकत यह है कि इस चेतना से जातिवाद और जातिसंर्घष और बढ़ेगा। आजादी के बाद भी लोग खान-पान तक में जाति का ध्यान रखते थे। पर आज रेल, हवाई जहाज या बस में सफर करने वाले क्या खान-पान में यह परहेज करते हैं? नहीं करते। इससे समाज में एकरसता बढ़ी है। शहरों में सामाजिक संबंधों के लिए जाति अब उतनी महत्वपूर्ण नहीं रही जितनी पहले होती थी। यह शुभ लक्षण है। सूचना व तकनीकी क्रांति, कारोबार का वैश्वीकरण और परिवहन का जाल जाति की सार्थकता को धीरे-धीरे मिटाता जा रहा है। पर जहां कहीं जाति चेतना बाकी है वहां गैर जाति में विवाह करने वाले बच्चों की हत्यायें की जा रही हैं। उन्हें जात बाहर किया जा रहा है। जातिगत आरक्षण के लिए हिंसक आंदोलन किये जा रहे हैं। कुल मिलाकर जो ऊर्जा सद्भाव और विकास में लगनी चाहिए थी वह विध्वंसक कार्यों में लग रही है। राजनेता यही चाहते हैं कि समाज जातियों में बंटा रहे और वो विभिन्न जातियों के बीच लोभ के टुकड़े फेंककर उन्हें लड़ाते रहें और अपना उल्लू सीधा करते रहें। वोट बटोरते रहें और सता हथियाते रहें।
जिन्हें वास्तव में समाज के शोषित, पीडि़त, उपेक्षित वर्ग की चिंता होती है, उनके लिए दिल में दर्द होता है वे उन्हें जाति के नाम पर भड़काकर लड़ाते नहीं हैं। उकसाते नहीं है। समाज में वैमनस्य पैदा नहीं करते। बल्कि ऐसे लोगों को सद्विचार और अच्छे संस्कार देकर उनका वास्तविक उत्थान करते हैं। गुरुनानक देव, स्वामी रैदास, कबीरदास जी, चैतन्य महाप्रभु, नामदेव जी, तुकाराम जी व शिरडी सांई बाबा जैसे संतों ने ऐसे वर्गों को राहत का वह मलहम दिया जिसने उनकी सदियों की पीड़ा को दूर कर दिया। उनके जीवन में नए उत्साह का संचार किया। उन्हें आत्म सम्मान से जीने का मार्ग दिखाया। ऐसे संतो ंके प्रयासों से समाज में प्रेम और सौहार्द बढ़ा। आज भी इन संतों की शिक्षायें करोड़ों लोगों के जीवन में सुख का संचार कर रही हैं। लोग उन्हें भगवान की तरह पूजते हैं। क्या जातिगत जनगणना की मांग करने वाले राजनेता समाज के पिछड़े वर्गोंं को ऐसी राहत और ऐसा सुख दे पायेंगे जैसा शिरडी वाले सांई बाबा आज भी दे रहे हैं? क्या यह राजनेता जिन्हें पिछड़े समाज का तथाकथित शुभचिंतक बताया जा रहा है, इसी तरह पुजेंगे जैसे नानक देव और कबीरदास जी पुजते हैं। उतर है नहंी। मतलब यह हुआ कि पिछड़े वर्गोंं की वकालत करने का दंभ भरने वाले जातिवादी नेताओं को वे लोग भी नहीं पूजेंगे जिनके हितैषी होने का यह दावा कर रहे हैं। फिर यह तूफान क्यों?
वोटों की राजनीति ही ऐसी होती है कि आधुनिक शिक्षा प्राप्त, उद्योगपति परिवार में जन्में युवा सांसद नवीन जिंदल तक खाप फैसलों के पक्ष में बयान देने लगे। साफ जाहिर है कि राजनीतिज्ञ वह नहीं कहते या करते जिसमें उनकी आस्था होती है। बल्कि वह कहते व करते हैं जिससे उन्हें राजनैतिक लाभ मिले। नतीजतन उनके कामों में परमार्थ कम और स्वार्थ ज्यादा होता है। इसीलिए राजनीतिज्ञों पर से मतदाताओं का विश्वास घटता जा रहा है। जातिगत जनगणना से पिछड़ी जातियों को लाभ हो न हो उनके नाम पर राजनीति करने वालों की रोटियां खूब सिकेंगीं। पहले से हिंसक और भ्रष्ट होती चुनावी प्रक्रिया और भी जटिल, हिंसक और सर्घषपूर्ण होगी। जिससे समाज में अराजकता फैलेगी। अशांति फैलेगी और खामियाजा भुगतना पड़ेगा समाज के उसी वर्ग को जिसके फायदे के लिए बताकर इस जहर को बोया जा रहा है। जब प्रधानमंत्री व्यक्तिगत रूप से इसके खिलाफ होने के बावजूद भी बहुमत के आगे असहाय हैं, तब तो देश की हालत सुधारने के लिए और इसे जातिवाद के जाल से मुक्त कराने के लिए शिरडी बाबा जैसे विरक्त संतों की शरण में ही जाना पड़ेगा।
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