Sunday, April 11, 2010

न्यायमूर्ति दिनाकरण पर महाअभियोग न्यायोचित नहीं

न्यायपालिका के भ्रष्टाचार से त्रस्त भारत की जनता इस प्रश्न का उत्तर यही देगी कि भ्रष्टाचार के आरोपी किसी भी न्यायधीश पर महाअभियोग चलाना उचित है। यह बात दीगर है कि संसदीय जाँच समिति अभी कर्नाटक के मुख्य न्यायाधीश पी. डी. दिनाकरण पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच कर रही है। यदि इस जाँच में आरोप सिद्ध होते हैं तो संसद में उन पर महाअभियोग चल सकता है। जिसके लिए प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है। पहले यह प्रस्ताव राज्यसभा में पारित होना होगा और फिर लोकसभा में। इस प्रक्रिया में साल-डेढ़ साल आसानी से निकल सकता है। तब तक न्यायमूर्ति दिनाकरण वैसे भी सेवानिवृत्त हो जायेंगे।

सवाल उठता है कि न्यायमूर्ति दिनाकरण पर ही यह महाअभियोग क्यों चलाया जा रहा है? क्या यह देश के ऐसे पहले न्यायाधीश हैं जिनपर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हों? यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि 1991 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. रामास्वामी के खिलाफ भी संसद में महाअभियोग प्रस्ताव आया था। पर केवल 108 सांसदों का समर्थन मिला। संसद में बहुमत का समर्थन न मिलने के कारण यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। दिनाकरण के मामले में तो अभी आरोप सिद्ध होने हैं पर न्यायमूर्ति रामास्वामी के मामले में तो सभी आरोपों के प्रमाण मौजूद थे। फिर क्यों महाअभियोग नहीं चलाया गया? सांसदों ने इस प्रस्ताव का समर्थन क्यों नहीं किया?

इससे भी ज्यादा रोचक बात यह है कि अरूण जेटली के नेतृत्व में भाजपा के जिन सांसदों ने न्यायमूर्ति पी. डी. दिनाकरण के खिलाफ इस महाअभियोग प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किये हैं, उन्हें शायद यह याद नहीं कि केन्द्र में जब एन.डी.ए. की सरकार थी और अरूण जेटली उसके कानून मंत्री थे तो उस समय भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डाॅ. ए.एस. आनंद के कई जमीन घोटाले मैंने ही सभी सबूतों के साथ प्रकाशित किये थे। उस समय न तो श्री जेटली ने, न प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने और न ही एन.डी.ए. में शामिल दलों के सांसदों ने न्यायमूर्ति डा. आनंद के विरूद्ध महाअभियोग प्रस्ताव लाने की कोई भी चेष्ठा की। क्या इस देश में एक ही तरह के अपराध को नापने के दो मापदण्ड हैं? क्या वजह है कि जिन न्यायमूर्ति रामास्वामी और न्यायमूर्ति आनन्द के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के प्रमाण प्रकाशित हो चुके थे, उनके खिलाफ तो महाअभियोग चला नहीं पर न्यायमूर्ति दिनाकरण के खिलाफ यह प्रस्ताव लाया गया? इतना ही नहीं हरियाणा उच्च न्यायालय की न्यायाधीश सुश्री निर्मल यादव के घर रिश्वत का नकद रूपया पकड़ा गया, फिर भी उन पर अभी तक महाअभियोग प्रस्ताव नहीं लाया गया तो न्यायमूर्ति दिनाकरण के ही खिलाफ यह प्रस्ताव क्यों? क्या इसलिए कि वे दलित वर्ग से हैं और अब तक जितने भी न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार के मामले सामने आये, वे सभी सवर्ण थे? महाअभियोग चलाने वाले सांसदों के पास इसका कोई जवाब नहीं है। वे पलटवार कर कहते हैं कि यह मुद्दा उठाकर तुम एक भ्रष्ट न्यायाधीश को बचाना चाहते हो। पर जब उनसे यह पूछा जाता है कि इस शुद्धिकरण की शुरूआत बैंगलूर से क्यों की जा रही है, सर्वोच्च न्यायलय से नीचे की ओर या निचली अदालतों से ऊपर की ओर क्यों नहीं, तो इसका भी कोई जवाब उनके पास नहीं। उनकी इस चुप्पी से दाल में काला नजर आता है।

नैतिकता के दो मापदण्ड हो ही नहीं सकते। या तो ये कोई गहरा राजनैतिक खेल है, जिसमें न्यायमूर्ति दिनाकरण को लपेटा जा रहा है या सीधा-सीधा दलितों के विरूद्ध सवर्णों की लामबन्दी का मामला है। न्यायापालिका और राजनीति के गलियारों में दबी जबान से यह चर्चा चल रही है कि न्यायमूर्ति दिनाकरण के कुछ फैसलों से भाजपा की एक वरिष्ठ नेता के प्रबल समर्थकों के हित प्रभावित हुए हैं। इसलिए भाजपा सांसदों ने इस मामले में इतना उत्साह दिखाया है। दूसरी चर्चा यह भी है कि न्यायमूर्ति दिनाकरण ने अपने कुछ फैसलों से तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करूणानिधि को अप्रसन्न कर दिया है। इसलिए वे भी इस महाअभियोग के समर्थन में हैं। इन चर्चाओं में सच्चाई क्या है, यह जाँच का विषय हो सकता है। पर सीधी और सपाट बात जो किसी भी आम पाठक या मतदाता की समझ में आ जायेगी, वह यह है कि न्यायमूर्ति दिनाकरण देश के पहले ऐसे न्यायाधीश नहीं हैं जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हों और वे भी अभी सिद्ध होने बाकी हों। बल्कि ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें अनैतिक आचरण वाले न्यायाधीशों को तमाम सबूतों के बावजूद हाथ नहीं लगाया गया। देशवासी भारत के पूर्व न्यायाधीश वाई. के. सब्बरवाल का प्रकरण भूले नहीं होंगे, जब उन्होंने दिल्ली नगर निगम पर जोर डाल-डालकर दिल्ली में हजारों करोड़ रूपये के अवैध निर्माण गिरवाये थे। उस अफरा-तफरी के दौर में दिल्ली के लाखों घर तबाह हो गये। हजारों उद्योग बन्द हो गये। अनेकों परिवारों ने बदहाली और बेरोजगारी से तंग आकर आत्महत्याऐं कर लीं। दूसरी तरफ इसी दौर में दिल्ली में व्यवसायिक भवनों की कीमत रातों-रात कई गुना बढ़ गई। जिससे भवन निर्माताओं ने हजारों करोड़ कमाये। उस समय तमाम प्रमाणों के साथ यह आरोप लगाये गये कि उन भवन निर्माताओं के साथ न्यायमूर्ति सब्बरवाल के पुत्रों के व्यवसायिक हित जुड़े थे और उन्होंने इसका पूरा लाभ उठाया। सब्बरवाल के पद पर रहते हुए भी और पद से हटने के बाद यह मामला खूब उछला, पर महाअभियोग का कोई प्र्रस्ताव नहीं लाया गया। ऐसे अनेक दूसरे उदाहरण भी हैं।

यदि न्यायमूर्ति दिनाकरण पर महाअभियोग मात्र इसलिए चलाया जा रहा है कि वे दलित हैं और सवर्ण नहीं चाहते कि एक और दलित सर्वोच्च न्यायालय पहुँचे। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि न्यायमूर्ति दिनाकरण का नाम सर्वोच्च न्यायालय के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अनुमोदन सहित भारत सरकार के कानून मंत्रालय को भेज दिया था। उसी बीच यह महाअभियोग प्रस्ताव लाया गया और नियुक्ति की यह प्रक्रिया रोक दी गयी। ंअगर यही सच है तो फिर दलित सांसदों, विधायकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और दलितवर्ग के आम लोगों को इसका खुलकर जोरदार विरोध करना चाहिए और महाअभियोग चलाने वालों से ये सारे सवाल पूछने चाहिऐें। अगर न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित की जानी है और उसे पारदर्शी बनाना है तो इस शुद्धिकरण अभियान की शुरूआत सर्वोच्च न्यायालय से की जानी चाहिए। क्योंकि जैसा वहाँ आचरण होगा, उसका वैसा ही अनुसरण उच्च न्यायालयों के या निचली अदालतों के न्यायाधीश करेंगे। इस लेख का उद्देश्य भ्रष्टाचार के आरोपी किसी एक जज को बचाना नहीं है, बल्कि यह मूलभूत प्रश्न खड़े करना है कि एक ही अपराध के दो मापदण्ड इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वीकार नहीं किये जा सकते।

Sunday, April 4, 2010

फिर राम के सहारे भाजपा

अभी उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों मs दो वर्ष का समय बाकी है। पर भाजपा ने अभी से तय कर लिया है कि अयोध्या मs भगवान श्री राम के मन्दिर का निर्माण उनका मुख्य चुनावी मुद्दा होगा। यह पहली दफा नहीं है जब भाजपा को चुनाव से पहले राम की याद आयी है। 1990-91 में हुए राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन से आज तक जब-जब चुनाव आये, तब-तब भाजपा और उसके सहयोगी संगठन विहिप व संघ ने राम मन्दिर का राग अलापा। पर देश और विदेश में रहने वाला हर हिन्दू इस बात से व्यथित है कि भाजपा ने लोगों की आस्था को चुनावी हथकण्डा बनाकर गद्दी हासिल करने के लिए इस्तेमाल किया। अगर भाजपा चाहती तो उत्तर प्रदेश और केन्द्र में अपनी सरकारों के दौर में, तमाम विवादों के बावजूद, राम मन्दिर या अयोध्या के मूलभूत ढाँचे में सुधार का कुछ न कुछ कार्य तो कर ही सकती थी। पर उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया। अब एक बार फिर उसे राम की याद सता रही है।

भाजपा के वरिष्ठतम सक्रिय नेता, जो आज भी दल को रिमोट कंट्रोल से चला रहे हैं, लालकृष्ण आडवाणी ही राम मन्दिर के मुद्दे पर अपनी दृष्टि साफ नहीं कर पाये हैं। सोमनाथ से रथयात्रा लेकर चलने वाले आडवाणी जी हर जनसभा में कहते रहे कि सौगंध राम की खाते हैं हम मन्दिर वहीं बनायेंगे। उत्तर प्रदेश की महिला आई.पी.एस. अधिकारी अंजू गुप्ता की माने तो आडवाणी जी विवादित ढाँचें के गिरते समय काफी सक्रिय और आल्हादित थे। पर बाद में मामले की नजाकत को समझते हुए उन्होंने बयान दिया कि ढाँचे का गिरना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। इतना ही नहीं उन्होंने मन्दिर के मुद्दे पर कई बार अपने बयान बदले हैं और विरोधाभाषी बयान दिये हैं। राम रथयात्रा के जरिये दिल्ली की कुर्सी तक पहुँचने वाले आडवाणी जी अयोध्या जाने की बजाय जिन्ना की मजार तक जा पहुँचे। उन्हें उम्मीद थी कि उनका यह कदम उन्हें दुनिया की नजर में धर्मनिरपेक्ष सिद्ध कर देगा और उन पर से 6 दिसम्बर 1991 का कलंक मिटा देगा। पर हुआ उल्टा ही, ‘न खुदा ही मिला न बिसाले सनम; न इधर के रहे न उधर के रहे।

भारतीय जनता पार्टी ने भारतीय जनमानस की भावनाओं को भ्रमित करते हुए सत्ता की सीढि़याँ चढ़ीं। लेकिन हुआ ये कि मतदाताओं को भ्रमित करने के चक्कर में खुद भाजपा व सहयोगी संगठन इस भ्रम जाल में उलझ गये। नतीजतन इन संगठनों में भारी अन्र्तकलह होने लगी। हालात इतने बिगड़ गये कि अब मजबूरी में नये-नये चेहरे लाकर अपनी साख बचानी पड रही है। फिर भी कलह शांत नहीं हो रही। इसलिए भाजपा को एक बार फिर आत्ममंथन करना चाहिए कि जिस मुद्दे को वे फिर से उठाना चाहते हैं, कहीं वही मुद्दा उन्हें फिर से भ्रमजाल में न उलझा दे। चैबे जी चले छब्बे बनने और दुबे बनकर लौटे। संतो के आशीर्वाद और समर्थन से खड़ी होने वाली भाजपा के नेताओं ने सन्तों का यह प्रवचन बार-बार सुना होगा कि, ‘प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समायें।या तो राम ही ले लो या सत्ता ही ले लो। सत्ता ही लेनी है तो राम का व्यापार क्यों? क्या देश का मतदाता इतना मूर्ख है कि तुम्हारी बातों में आ जायेगा? काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती।

नये चेहरे भी ऐसे जिनके चेहरे पर सौ-सौ दाग हैं। अब नयी बनी उपाध्यक्षा श्रीमती हेमा मालिनी को ही लीजिए या उनके सांसद रहे पति धर्मेन्द्र को ही लीजिए। हिन्दू धर्म के कानून के अनुसार शादी सम्भव नहीं थी इसलिए दोनों आयशा और इफ्तियार बने। हिन्दू धर्म छोड़ा और इस्लाम को अपनाया। कानून की नजर में दोनों आज भी आयशा और इफ्तियार ही हैं। इसलिए अटल जी की एक कविता की पंक्तियाँ भाजपा के नये चेहरों को जरूर पढ़ लेनी चाहिए। अटल जी कहते हैं, ‘‘दागदार चेहरे हैं, घाव बड़े गहरे हैं। मीत नहीं पाता हूँ, गीत नया गाता हूँ।’’ वैसे यह बात तो सभी भाजपाईयों को पता होगी कि भगवान श्रीराम को यूँ ही मर्यादा पुरूषोत्तम नहीं कहते हैं। उन्होंने एक पत्नी धर्म व्रत लिया और उसे आजन्म निभाया। राम का सहारा चाहिए तो राम के आदर्श को अपनाना होगा।

वैसे इसमें शक नहीं है कि राम जन्मभूमि का मुद्दा आज से नहीं बाबर के जमाने से भारत के जनमानस पर हावी रहा है। वे इस नासूर को भुला नहीं पाये हैं और भुला भी नहीं पायेंगे। 1990-1991 में भाजपा ने हिन्दुओं की इस दुखती रग पर हाथ रखकर अपना खेल खड़ा कर लिया। पर उसके बाद से आज तक न तो भाजपा, न उसके सहयोगी संगठन राम मन्दिर के मुद्दे पर कोई प्रभावशाली जन आन्दोलन खड़ा कर पायें हैं। प्रयास तो बहुत किये, पर सफल नहीं हुए। मथुरा में विष्णु यज्ञ बुरी तरह विफल रहा। जबरन शिलान्यास का तूफान खड़ा किया। पर जनता और संत समाज साथ नहीं आया, तो शिला पूजन करके ही कार्यक्रम फुस्स हो गया। विहिप के वरिष्ठ नेताओं ने 1991 के बाद भारत के संत समाज को एकजुट करने के भागीरथी प्रयास किये, पर संत इनके झाँसे में नहीं आये। खेमों में बंट गये। ये बात दूसरी है कि संतों की मनुहार करते-करते विहिप नेता खुद ही संत बन गये और जैसा मंहतों और मठाधीशों में होता है, ये संत बने नेता आपस में ही मठों की गद्दी की लड़ाई लड़ने लगे।

राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ निश्चित रूप से हिन्दू हित के लिए समर्पित संगठन है। पर अपने हित साधने के लिए उनके पास एक मात्र हथियार भाजपा है। यह संघ का दुर्भाग्य समझिये या भाजपा के नेताओं की आत्मकेन्द्रित धूर्तता कि उन्होंने कभी भी संघ के सपने पूरे करने में कोई गम्भीर प्रयास नहीं किया। नतीजतन संघ के समर्पित युवा काॅडर का भी मोह भंग हो गया और आज संघ का¡डर विहीन हो गया है। चर्चा है कि मोहन भागवत ने भाजपा पर नकेल कसी है और संघ का वर्चस्व भाजपा पर कायम हुआ है। पर नितिन गडकरी की टीम के चयन की प्रक्रिया और उसके परिणाम कुछ और ही संकेत करते हैं। आज भी भाजपा को रिमोट कंट्रोल से आडवाणी जी ही चला रहे हैं। जबकि जिन्ना प्रकरण के बाद से संघ ने उनसे दल के अध्यक्ष का पद छीन लिया था और माना जा रहा था कि उन्हें हाशिए पर डाल दिया जायेगा। ऐसे विरोधाभास में कैसे उम्मीद की जाये की नितिन गडकरी की टीम संघ के उद्देश्यों को पूरा करने में सहायक बनेगी। इसके लिए बेचारे नितिन गडकरी को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि उनकी दशा तो उस सेल्समैन की सी है जिसे रातों-रात कम्पनी का एम.डी. बना दिया जाये। ऐसी स्थिति में राम मन्दिर के मुद्दे के सहारे भाजपा की वैतरणी पार होने वाली नहीं है। उसे कोई और बेहतर मुद्दा सोचना होगा।

Sunday, March 28, 2010

थाईलैंड: राजतंत्र बनाम लोकतंत्र

चाणाक्य पंडित ने कहा है कि व्यवस्था कोई भी हो अगर उसको चलाने वाले ठीक हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर चाहे राजतंत्र हो या लोकतंत्र। अगर राजा चरित्रहीन या खुदगर्ज हो तो राजतंत्र जनता के लिए अभिशाप बन जाता है और अगर सांसद अपराधी और भ्रष्ट हों तो लोकतंत्र जनता के लिए नासूर बन जाता है। थाईलैंड जो कभी गुलाम नहीं रहा। पिछले 64 साल से एक ही राजा के आधीन शासित है। 1946 में अपने बड़े भाई की रहस्यमय मृत्यु के दिन ही भूमिबोल का राज्याभिषेक कर दिया गया। तब से आज तक राजा भूमिबोल ने पितातुल्य व्यवहार से शासन किया और जनता के हृदय में स्थान बनाया है। वे आज दुनिया के सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में रहने वाले राजा हैं। यूं तो थाईलैंड में 1932 से आज तक 18 बार फौजी हुकूमत कायम हो चुकी है। पर यह राजा भूमिबोल की सूझ-बूझ थी कि हर बार उन्होंने सत्ता का संतुलन पुनः स्थापित कर दिया। अभी 2008 में ही बैंकाक की सड़कों पर लाल कमीज वाले प्रदर्शनकारियों ने फौज से संर्घष किया था। पिछले वर्ष भी ये सड़कों पर उतर आये। एक बार फिर इस मार्च के दूसरे हफ्ते में डेढ़ लाख लाल कमीज वाले प्रदर्शनकारी एक हफ्ते तक धरना प्रदर्शन करते रहे। ये लोग लोकतंत्र की बहाली चाहते हैं। इन्हें भगोड़े प्रधानमंत्री थकसिन का समर्थन है। जिन्हें 2006 में सैना ने अपदस्थ कर कठपुतली प्रधानमंत्री अभिशित वजाजिवा को सत्ता पर बिठा दिया। राजा ने इस परिवर्तन को स्वीकार कर लिया। थाईलैंड के धनाड्य वर्ग के चहेते अभिशित वजाजिवा जनता की आंखों में खटक रहे हैं। आम जनता विशेष कर पूर्वोतर की जनता थकसिन की जनहित नीतियों के कारण उनकी लोकतांत्रिक बहाली चाहती है। हलाकि थकसिन की अकूत दौलत और शाही जीवन आलोचना का विषय रहा है पर उनकी नीतियां आम जनता के हित में रही।

थाईलैंड के बुद्धिजीवी मानते हैं कि आज की दुनिया में राजतंत्र का कोई औचित्य नहीं बचा है। थाईलैंड को भी यूरोप के देशों की तरह राजा का पद मात्र अलंकरण के लिए ही रखना चाहिए। राजा को शासन में दखल नहीं देना चाहिए। पर यह बात वहां खुलकर नहीं कही जा सकती। जनसभाओं, लेखों और अखबारों में तो बिलकुल नहीं। थाईलैंड का कानून राज परिवार के बारे में कुछ भी नकारात्मक चर्चा करने की अनुमति नहीं देता। ऐसा करने वाले को फौरन कारावास भेज दिया जाता है। इसलिए यह राजनैतिक चर्चा दबी जुबान से निजी दायरों में की जाती है। पर बहुमत लोकतंत्र के पक्ष में है। अलबता जनता राजवंश को पूरी तरह खत्म नहीं करना चाहती। विशेष कर मौजूदा राजा को तो कतई नहीं। समस्या युवराज को लेकर है। 57 वर्षीय युवराज वाजीरालोगोकर्ण का जीवन ढर्रा, स्वभाव, चरित्र व आचरण जनता के बीच चिंता का विषय बना रहता है। राजा भूमिबोल गत सात माह से अस्पताल में है। 82 वर्ष की आयु में उनके बहुत ठीक  होने या लंबे समय तक जिंदा रहने की आशा नहीं की जा सकती। थाईलैंड की जनता को यही चिंता सत्ता रही है कि राजा के बाद उनका उत्तराधिकारी देश को दिशा कैसे दे पायेगा। जबकि दूसरी तरफ राजकुमारी सिरिधौर्न की छवि एक ममतामयी समाज सेवी की है। जनता की हार्दिक इच्छा राजकुमारी सिरिधौर्न को सत्ता में देखने की है।

राजनैतिक विश्लेषकों को भय है कि अगर राजकुमार वाजीरालोगोकर्ण को सत्ता मिलती है तो कहीं थाईलैंड में नेपाल जैसी खूनी क्रांति न हो जाए और कहीं राजतंत्र समाप्त ही न हो जाए। स्वयं वाजीरालोगोकर्ण अपने जीवन को लेकर इतने सशंकित रहते हैं कि उनके अंगरक्षकों को आग्नेय अस्त्र रखकर उनके इर्द-गिर्द खड़े होने की छूट नहीं है। बुजुर्गों का कहना है कि राजा अंत समय में अपनी वसीयत में राजकुमारी सिरिधौर्न को सत्ता देंगे और राजकुमार वाजीरालोगोकर्ण को देश निकाला। राजकुमार वाजीरालोगोकर्ण के पास अकूत दौलत है। इसलिए उन्हें यूरोप जैसे देशों में रहकर ऐशोआराम की जिंदगी बिताना मुश्किल न होगा। राजा ऐसा करेंगे या नहीं यह तो वक्त ही बतायेगा किन्तु इतना निश्चित है कि राजा भूमिबोल की मृत्यु के बाद थाईलैंड के राजतंत्र का स्वरूप और छवि ऐसी नहीं रहने वाली है जैसे आज है।

अच्छा होता कि राजा भूमिबोल अपने जीवनकाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था को विकसित करते। इससे देश में राजनैतिक अस्थिरता का माहौल इस तरह बार-बार न बनता। उन्होंने अपनी मर्जी के श्रेष्ठ लोगों की सलाहकार परिषद् बनाकर और उनसे सलाह लेकर देश तो ठीक चलाया और आर्थिक तरक्की भी खूब की। पर वे देश में सही नेतृत्व विकसित नहीं कर पाये। दरअसल थाईलैंड के राजा का आर्थिक साम्राज्य बहुत विशाल है। थाई अर्थव्यवस्था के लगभग हर क्षेत्र में राज परिवार का मोटा पैसा लगा है। वे प्रशासन कम और तिजारत ज्यादा करते हैं। लोगों को उनकी दौलत का कोई आंकलन नहीं है और न ही उनके खर्चों के हिसाब जनता की जांच के लिए उपलब्ध होते हैं। जबकि यूरोप के देशों में राज परिवारों पर किये जा रहे खर्चे को बाकायदा जनता की जांच के लिए प्रचारित किया जाता है या वेबसाईट पर डाला जाता है।

अगर थाईलैंड के राजपरिवार को लंबे समय तक अपनी स्थिति बनाये रखनी है तो उसे भूटान के राजा से सबक लेकर स्वतः ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बहाल कर देना चाहिए। थाईलैंड के जागरूक लोगों को डर है कि ऐसा न करने पर थाईलैंड के राजवंश की दशा नेपाल के राजवंश जैसी न हो जाए।

Sunday, March 21, 2010

विकंलागों के साथ यह मजाक क्यों?


1995 में भारत सरकार ने विकलांगों को शिक्षा में समान अवसर देने के मकसद से एक कानून बनाया। जिसके तहत हर विकलांग के लिए शिक्षा प्राप्त करना उसका मूलभूत अधिकार बन गया। सर्व शिक्षा अभियान के तहत स्कूलों को निर्देश जारी किये गये कि वे ऐसे सभी बच्चों के पंजीकरण कर लें। दिल्ली में जनवरी 2010 में एक अभियान चलाकर स्कूलों में विकलांगों के पंजीकरण कराये गये। सरकार की इस पहल का बहुत स्वागत हुआ। पंजीकरण के लिए विद्यालयों में काफी बच्चे आये। स्वयंसेवी संस्थाओं ने भी इस अभियान में बढ़-चढ़ कर भाग लिया और उनकी जानकारी में जितने भी विकलांग बच्चे थे उन सबका पंजीकरण करवा दिया।

अब पहली अप्रैल से इन बच्चों के बकायदा दाखिले किये जायेंगे। पर इस नई उत्पन्न स्थिति के लिए यह स्कूल  तैयार नहीं है। इसलिए हर ओर अफरा तफरी का माहौल है। विकलांगों के लिए हर स्कूल में जगह-जगह लोहे की रेलिंग, रैम्प व विशेष टा¡यलेट होना जरूरी है। काफी स्कूलों ने दावा किया है कि उनके यहां यह व्यवस्था की जा चुकी है। जबकि हकीकत यह है कि इन स्कूलों के  इन विशेष टा¡यलटों में टूटा फर्नीचर या फाइलें भरी हुई हैं। इन्हें गोदाम बना दिया है। रेलिंग या तो है ही नहीं या टूटी पड़ी हैं। रैम्प बनाने वालों ने यह नहीं सोचा कि इन रैम्पों पर विकलांग बच्चे चलेंगे। इतनी बेहूदा रैम्प हैं कि उन पर चलने से दुर्घटना होने की संभावना ज्यादा है। वैसे भी इन रैम्पों पर स्कूल के कर्मचारी और छात्र दिनभर स्कूटर या साइकिल उतारते रहते हैं।

विकलांग छात्रों को शिक्षा देने के लिए शिक्षकों को जिस विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है उसकी कोई व्यवस्था आज तक नहीं की गयी है। बिना इस प्रशिक्षण के यह पारंपरिक शिक्षक इन बच्चों से कैसा व्यवहार करेंगे? उनकी समस्याओं को कैसे समझेंगे? उनकी सीमाओं में रहते हुए उनके सीखने की क्षमता को कैसे बढ़ायेंगे? यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिनकी चिंता मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नहीं की है। जाहिर है कि जहां इन शिक्षकों में इस नई स्थिति को लेकर असमंजस और तनाव है वहीं विकलांग बच्चों के माता-पिता भी कम चिंतित नहीं। उन्हें डर है कि संवेदनशीलता के अभाव में उनके बच्चों के साथ शिक्षक और सहपाठी ऐसा आक्रामक या व्यंगात्मक व्यवहार कर सकते है जिससे बच्चों  के मनोविज्ञान पर विपरीत प्रभाव पड़ जाए। शिक्षा पाने की बजाय उसका मन टूट जाए और उसका जीवन और भी जटिल हो जाए।

इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय को निर्देश दिये गये हैं कि वह 90-90 दिन के विशेष पाठ्यक्रम चलाकर सभी शिक्षकों को विकलांग बच्चों के साथ उचित व्यवहार करने का प्रशिक्षण दें। यह प्रशिक्षण महज खानापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं है। इसके अलावा इस नीति में यह भी प्रावधान है कि होम ऐजुकेशनदी जाए। यानी शिक्षक विकलांग छात्रों के घर जाकर भी उन्हें शिक्षा दें। आज की भाग दौड़ की जिंदगी में ऐसे कितने शिक्षक हैं जो सहानुभूतिपूर्वक विकलांग बच्चों की समस्याओं को समझे और उनके घर जाकर भी शिक्षा देने को तैयार हों?

वैसे भी सरकारी स्कूलों में हर कक्षा में 80-80 बच्चे हैं। कहीं-कहीं तो सवा सौ बच्चे भी एक कक्षा में भर्ती किये गये हैं। सर्व शिक्षा अभियान में 14 वर्ष तक के हर बच्चे को शिक्षा दिये जाने की नीति बनायी गयी है। नतीजतन गांव, गली, मौहोल्ले के हर बच्चे को ढूंढ-ढूंढ कर दाखिल किया जा रहा है। भेड़-बकरी की तरह बच्चे भर दिये गये हैं। न तो जगह है और न ही फर्नीचर। ऐसे में एक शिक्षक जो ऐसी कक्षा में जायेगा वह कितनी देर में तो हाजिरी लेगा? क्या पढ़ायेगा? कैसे जानेगा कि बच्चे समझे या नहीं? कैसे बच्चे परीक्षा में अच्छा कर पायेंगे? नहीं कर पायेंगे तो शिक्षक की खिंचायी नहीं की जायेगी क्या? फिर इस बेचारे शिक्षक से कैसे उम्मीद की जाए की वह विकलांगों की ओर विशेष ध्यान देगा?

इतना ही नहीं स्कूलों में शिक्षकों का भारी आभाव है। भर्तियां हुई ही नहीं हेैं। अनेक स्कूल तो बिना प्राचार्यों के ही चल रहे हैं। जिस स्कूल में प्राचार्य ही नहीं उसके प्रशासन की क्या दशा होगी? इसकी चिंता शायद सर्व शिक्षा अभियान चलाने वालों को नहीं है।

आजादी के बाद से आज तक प्राथमिक शिक्षा को लेकर नीतियां तो बहुत बनीं। बजट भी बहुत आवंटित किये गये। घोषणाएं भी बहुत हुईं। पर धरातल पर कुछ भी नहीं बदला है। हर नया शिक्षा मंत्री नई नीतियां और नये दावों का ढिंढोरा पीटता है। पर बदलता कुछ नहीं। साधन सम्पन्न लोग ही अपने बच्चों को ठीक शिक्षा दिलवा पाते हैं। बाकी के करोड़ों बच्चे तो भगवान भरोसे जीवन काट देते हैं। फिर वे नक्सलवादी, आतंकवादी या अपराधी बनें तो दोष किसका है। विकलांग बच्चे तो यह भी नहीं कर सकते। आवश्यकता है ईमानदार सोच और व्यवहारिक नीतियों की। नारों से समस्याओं के हल नहीं निकला करते।

Sunday, March 14, 2010

मायावती का मायाजाल

15 मार्च को बसपा अपनी रजत जयंती मना रही है। इस मौके पर बसपा सुप्रीमो मायावती ने लखनऊ में एक महारैली बुलाई है। दलित प्रतीकों की स्थापना के अति उत्साह में मायावती ने लखनऊ में अम्बेडकर पार्क, काशीराम मेमोरियल और प्रेरणा स्थली जैसे सैकड़ों करोड़ रूपये के जो भव्य स्मारक बनाये हैं उनको दलित समाज के सम्मुख प्रस्तुत करने का भी यही एक मौका है। क्योंकि इस रैली में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों से भारी संख्या में दलित लखनऊ पहुंच रहे हैं। उन सब के लिए यह भव्य स्मारक कौतूहल का विषय रहेंगे। दो वर्ष पहले जब मायवती ने लखनऊ में एक दलित रैली की थी तो विभिन्न प्रांतों से आने वाले इन दलितों का व्यवहार आम जनता के लिए उत्सुकता भरा था। ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाले अम्बेडकरवादियों के लिए कोई देवालय, चर्च या मस्जि़द् तो है नहीं जहां जाकर वे अपने श्रृद्धा सुमन अर्पित कर सकें। इसलिए जब वे इन स्मारकों पर आये तो उन्होंने मायावती की मूर्ति के सामने नारियल फोड़े, उसे तिलक लगाया, हार पहनाया और परिक्रमा भी की। इस बार सर्वोच्च न्यायालय में हुई खिंचाई के बावजूद जिस युद्ध स्तर पर मायावती ने लखनऊ में इन भव्य स्मारकों का निर्माण कराया है उससे वे पूरी दुनिया के मीडिया का व जनता का ध्यान आकर्षित करने में सफल रही हैैं। इस रैली में आने वाले लाखों दलितों का वैसा ही व्यवहार शायद अब फिर देखने को मिलेगा जो शेष समाज के लिए कौतूहल का विषय होगा।

इस रैली की तैयारी इतने व्यापक स्तर पर की जा रही है कि लखनऊ का चप्पा-चप्पा नीली झंडियों से और हाथी के प्रतीकों से रंगीन हो गया है। दलित समाज सुधारकाs, अम्बेडकर, काशीराम व मायावती के विशाल कट-आउटों से लखनऊ का हर चैराहा पटा पड़ा है। अपनी ताकत और एैश्वर्य के प्रदर्शन का कोई भी अवसर मायावती गंवाना नहीं चाहतीं। जाहिर है कि जब लाखों लोग देशभर से इस रैली में आयेंगे तो मायावती के मायाजाल से प्रभावित हुए बिना नहीं जायेंगे।

इस संदर्भ में लखनऊ की सत्ता के गलियारों में दबी जुबान से इन स्मारकों के असर और भविष्य पर भी चर्चा चल रही है। मायावती के अधिनायकवादी व्यवहार के कारण उनसे शुब्ध अफसरशाही को विश्वास है कि अगले चुनाव तक मायावती अपना करिश्मा खो देंगीं। क्योंकि दलितों के उद्धार के नाम पर उन्होंने प्रदेश के दलितों के लिए कुछ भी उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। सारा का सारा ध्यान लखनऊ में दलित स्मारक बनाने में ही लगा दिया है। पर दूसरी तरफ काफी लोगों का मानना है कि तमाम निंदा, टांगखिंचाई, कानूनी पचड़ों व आलोचनाओं के बावजूद मायावती ने यह विशाल स्मारक बनवाकर अपनी जगह दलित इतिहास में सुरक्षित कर ली है। दलित स्वाभिमान के यह प्रतीक आने वाली दशाब्दियों में भी दलितों को उनके नेतृत्व की याद दिलाते रहsगे। सरकार कोई भी आ जाए, चाहे मुलायम सिंह की क्यों न हो, इन स्मारकों को क्षति नहीं पहुंचा पायेगी। ऐसा कोई भी प्रयास दलित हिंसा और संघर्ष को जन्म देगा। यह बात दूसरी है कि विपरीत परिस्थितियों में इन स्मारकों को दी जा रही सजावट की रोशनी, सशत्र सुरक्षा व विशेष देखभाल जैसी सुविधाओं को आने वाली सरकारें वापस ले लें और यह स्मारक आज की तरह चमचमाते और जगमगाते न रहे। उपेक्षा के कारण इनका स्वरूप बिगड़ जाए पर अस्तित्व समाप्त नहीं होगा और फिर सत्ता में दलितों के आने पर इनका कायाकल्प हो जायेगा। यह कोई अनहोनी बात नहीं है। इतिहास में ऐसे तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं।
कुल मिलाकार यह माना जाना चाहिए कि चाहे मायावती की जितनी आलोचना कोई कर ले पर वे अपने इरादे से डिगती नहीं हैं। सारे विरोध के बावजूद उन्होंने अपनी जिद पूरी की है और इसके पीछे उनकी दूरदृष्टि स्पष्ट है। दलित समाज का भला हुआ हो या न हुआ हो मायावती ने अपनी ऐतिहासिक पहचान जरूर स्थापित कर ली है। एक कम उम्र की दलित महिला नेता का इस तरह उठ खड़े होना और अपनी जिद पूरी करना यह सिद्ध करता है कि मायावती ने प्रदेश की राजनीति में गहरी जड़े जमा ली हैं। इस तरह की महारैली तो उस शक्ति प्रदर्शन का एक प्रमाण मात्र है।

तमिलनाडु की नेता जयललिता व आंध्र प्रदेश के एन.टी रामाराव ऐसे फिल्मी नेता थे जिन्होंने विशाल कट-आउटों के माध्यम से जनता पर अपने महान होने का प्रभाव जमाया। इस तरह अपने राजनैतिक इरादों को बुलंदी तक पहुंचाया। मायावती भी इन स्मारकों के माध्यम से दलितों के ऐतिहासिक नेता बनने का सपना संजोए है। लगता है कि उनका यह सपना तो पूरा हो जायेगा पर आने वाले वर्षों में यह देखना होगा कि मायावती इसी आत्मविश्वास से सत्ता के रास्ते पर आगे बढ़ती हैं या राजनीति की शतरंज में मात खा जाती है।

Sunday, March 7, 2010

आंकड़ों से बदलता व्यापार का संसार

एक बार ला¡स एन्जेलिस में उद्योगपतियों के एक सम्मेलन को सम्बोधित करते समय मैने श्रम आधारित तकनीकी के समर्थन और औद्योगिकरण के विरोध में काफी जोर से भाषण दिया। तब वहां मौजूद एक धनाड्य उद्योगपति गणपत पटेल ने मुझे एक पुस्तक भेंट की। जिसमें बताया गया था कि 1920 में अमरीका में जिन क्षेत्रों में रोजगार काफी मात्रा में उपलब्ध था वे क्षेत्र 1960 के दशक में गायब हो गए। पर इससे बेरोजगारी नहीं बढ़ी क्योंकि अनेक नए रोजगार क्षेत्र विकसित हो गए। उदाहरण के तौर पर 1920 के दशक में हाथ की मशीन पर टाइप करने वालों की भारी मांग थी। पर कम्प्यूटर आने के बाद यह मांग समाप्त हो गयी। 1920 में हवाई जहाज के पायलटों की कोई मांग नहीं थी। पर बाद में हजारों पायलटों की मांग पैदा हो गयी। श्री पटेल ने मुझसे जोर देकर कहा कि तकनीकी आने से बेरोजगारी नहीं बढ़ती। ऐसा ही अनुभव आज देश में सूचना क्रान्ति को देखकर हो रहा है। सूचना क्रान्ति ने हर क्षेत्र को बहुत व्यापक रूप में प्रभावित किया है।

कुछ वर्ष पहले तक व्यापारी के बहीखातों में आमदनी-खर्च का जो हिसाब रखा जाता था वो इतना माकूल होता था कि उसमें एक पैसे की भी गलती नहीं होती थी। सदियों से भारत में यही प्रथा चल रही थी। पर कम्प्यूटर का्रंति ने सब बदल कर रख दिया। अब व्यापार के आंकडे़ केवल आमदनी खर्च तक सीमित नहीं है। अब तो व्यापारी यह जानना चाहता है कि उसका कौन सा उत्पादन किस इलाके में ज्यादा बिक रहा है। उसके ग्राहक किस वर्ग के हैं। साल के किस महीने में उसकी बिक्री बढ़ जाती है। कौन सी राजनैतिक या सामाजिक घटनाओं के बाद किस वस्तु की मांग अचानक बढ़ जाती है। जैसे-जैसे यह जानकारी उत्पादक या वितरक कम्पनी के पास आती जाती है वैसे-वैसे उसका नजरिया और नीति बदलने लगती है। जबकि बहीखाते में केवल आमदनी-खर्च या लाभ-घाटे का हिसाब रखा जाता था।

साम्प्रदायिक दंगों का अंदेशा हो तो अचानक शहर में डबल रोटी, दूध, चाय, काॅफी के पैकेट, दाल-चावल, चीनी, मोमबत्ती, टाॅर्च, शस्त्रों की मांग बढ़ जाती है। जाहिर है कि इन वस्तुओं के निर्माताओं को देश की नाड़ी पर इस नजरिये से निगाह रखनी पड़ती है। जिस इलाके में साम्प्रदायिक तनाव बढ़े वहां इन वस्तुओं की आपूर्ति तेजी से बढ़ा दी जाए। इसी तरह बरसात से पहले छाते और बरसाती की मांग, गर्मी से पहले कूलर और एसी की मांग, जाड़े से पहले हीटर और गीजर की मांग बढ़ जाना सामान्य सी बात है। पर एसी दस हजार रू0 वाला बिकेगा या चालीस हजार रु0 वाला यह जानने के लिए उसे ग्राहकों का मनोविज्ञान और उनकी हैसियत जानना जरूरी है। अगर निम्न वर्गीय रिहायशी क्षेत्र में लिप्टन की ग्रीन लेबल चाय के डिब्बे दुकानों पर सजा दिए जाएं तो शायद एक डिब्बा भी न बिके। पर रैड लेबल चाय धड़ल्ले से बिकती है। धनी बस्ती में पांच रु0 वाला ग्लूकोज बिस्कुट का पैकेट खरीदने कोई नहीं आयेगा। पर पांच सौ रू0 किलो की कूकीज़ के पैकेट धड़ल्ले से बिकते हैं। इसलिए इन कम्पनियों को हर पल बाजार और ग्राहक के मूड़ पर निगाह रखनी होती है।

इससे यह कम्पनियां कई अहम फैसले ले पाती हैं। मसलन उत्पादन कब, कैसा और कितना किया जाए। वितरण कहां, कब और कितना किया जाए।  विज्ञापन का स्वरूप कैसा हो। उसमें किस वर्ग का प्रतिनिधित्व किया जाए और क्या कहा जाए जो ग्राहक का ध्यान आकर्षित कर सके। इसी सूचना संकलन का यह असर था कि 10 वर्ष पहले सभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने विज्ञापन अंग्रेजी की बजाय क्षेत्रीय भाषाओं में देने शुरू कर दिए। वरना हमारे बचपन में तो लक्स साबुन का विज्ञापन हिंदी के अखबार में भी अंग्रेजी भाषा में आता था। जब सूचना का इतना महत्व बढ़ गया है तो जाहिर है कि इस सूचना को एकत्र करने वाले, प्रोसेस करने वाले और उसका विश्लेषण करने वाले सभी की मांग बजार में बेहद बढ़ गयी है। यहां तक कि केवल इसी किस्म की सेवायें देने वाली कम्पनियों की बाढ़ आ गयी है। जैसे पहले शेयर मार्केट को चलाने वाले बड़े-बड़े दलाल और बड़ी कम्पनियां होती थीं। पर आज इंटरनेट की मदद से देश के हर कस्बे और शहर में शेयर मार्केट में खेलने वाली हजारों कम्पनियां खड़ी हो गयीं है।

अर्थव्यवस्था ही नहीं कानून की स्थिति को बनाये रखने के लिए भी इस सूचना का्रंति ने भारी मदद की है। आज अपराधियों या आतंकवादियों के बारे में सूचना का भंडार पुलिस विभाग के पास उपलब्ध है और आवश्यकता पड़ने पर मिनटों में देश में इधर से उधर भेज दिया जाता है। इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी इस सूचना का्रंति ने शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए ज्ञान के सैकड़ों दरवाजे खोल दिये हैं। आज देश के आम शहरों में इंटरनेट की मदद से बच्चों के पास दुनिया भर की जानकारी पहुंच रही है।

जब 1985 में युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कम्प्यूटराईजेशन की बाद की थी तो विपक्षी दलों और उनसे जुड़े पत्रकारों ने श्री गांधी का खूब मखौल बनाया था। उन पर कार्टून बनाये गये थे। जिनमें दिखाया गया कि भूखे लोगों को राजीव गांधी कम्प्यूटर सिखा रहे हैं। उस वक्त हमला करने वाले आज सबसे ज्यादा कम्प्यूटर का प्रयोग कर रहे हैं। यह अनुभव यही बताता है कि हम राजनीति में हों या मीडिया में तथ्यों का विवेकपूर्ण मूल्यांकन करें तो देश का लाभ होगा। विरोध के लिए विरोध करना सनसनीखेज तो हो सकता है पर इससे जनहित नहीं होता। क्या यह बात हमारे सांसद सोचेंगे?

Sunday, February 28, 2010

खान हूं तो जो करूं

रेल बजट, आम बजट, महंगाई पर संसद में हंगामा, पाकिस्तान के विदेश सचिव की अर्से बाद दिल्ली यात्रा और प्रधानमंत्री की 28 वर्ष बाद सउदी अरब यात्रा की तैयारी- एैसे सभी मुद्दों पर मीडिया में बहुत कुछ लिखा और कुछ कहा जा रहा है। इसलिए कुछ नया बताने को नहीं है। पर इस सब के बीच बा¡लीवुड की एक बहुचर्चित फिल्म रिलीज हुई। बड़े दिन से हल्ला था इस फिल्म का। माई नेम इज़ खानफिल्म रिलीज होने से पहले विवादों में घिर गई। शिव सैनिकों ने महाराष्ट्र में इसके पोस्टर फाड़ डाले। शाहरूख खान और बालठाकरे के बीच वाक्युद्ध भी चला। इस तरह बड़े हंगामे के साथ फिल्म रिलीज हुई और आजकल देशभर में दिखायी जा रही है। इस हंगामें के प्रचार के चक्कर में हम भी आ गए। पर ढाई घंटे थियेटर में काटने भारी पड़ गये। इस फिल्म का मूल है एक छोटी सी घटना। जो पिछले वर्ष अमरीका में घटी।

न्यूया¡र्क के हवाई अड्डे पर सुरक्षा जांच के लिए रोके गए भारतीय फिल्मी सितारे शाहरूख खान को अपनी ये बेइज्जतीबर्दाश्त नहीं हुई, तो उन्होंने यह फिल्म बनवा डाली। जिसमें बार-बार यह बात दोहराई गयी है कि, ‘माई नेम इज़ खान एण्ड आई एम ना¡ट ए टैरेरिस्टमैं खान हूं पर आतंकवादी नहीं। 9/11 के बाद से अमरीका में रह रहे मुसलमानों को स्थानीय आबादी की घृणा का शिकार होना पड़ा है। इसलिए तब से अब तक इस मुद्दे पर दर्जनों फिल्में भारत और अमरीका में भारतीय मूल के निर्माता बना चुका हैं। जिनमें इस्लाम के मानने वालों की मानवीय संवेदनाओं को दिखाने की कोशिश की गयी है। अपने आप में यह कोशिश सही भी है और जरूरी भी। पर इसका मतलब यह नहीं कि चाहे जो दर्शकों को परोस दिया जाए।

माई नेम इ़ज खानएक ऐसी फिल्म है जिसमें तथ्य दो मिनट का है कहानी को नाहक ही ढाई घंटे घसीटा गया है। फिल्म का कथानक दमदार नहीं है। रेंगती हुई कहानी बढ़ती है। बार-बार वही डायला¡ग दोहराये जाते हैं। बोझिल दृश्यों की भरमार है। शाहरूख खान को अमन का मसीहा बनाकर पेश किया गया है। फिल्म के दौरान दर्शक थियेटर से उठने को बेताब रहते हैं और कुछ तो उठकर चले भी जाते हैं। पिछले दो-तीन वर्षों से शाहरूख खान की फिल्मों में उनकी शख्सियत को कई गुना बढ़ा कर पेश किया जा रहा है। जहां एक तरफ कामयाबी और दौलत ने शाहरूख खान को भारत के सफलतम फिल्मी सितारों की श्रेणी में खड़ा कर दिया है वहीं लगता है कि अब उन्हें शिखर से नीचे उतरने का डर सताने लगा है। इसलिए उनकी पत्नी गौरी खान के बैनर तले एक के बाद एक फिल्म शाहरूख खान को टिकाये रखने के मकसद से बनाई जा रही है। माई नेम इ़ज खानभी कुछ ऐसी ही फिल्म है। 

पश्चिमी देशों में एक रिवाज है कि जब कोई फिल्मी सितारा, गायक कलाकार या उद्योगपत्ति बहुत ज्यादा सफल हो जाता है और उसके पास दौलत का अंबार लग जाता है तो वह जन सेवा के कामों की ओर बढ़ जाता हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य या राहत के कार्यों में अपना धन और अपनी शक्ति लगता देता है। इससे उसे यश भी मिलता है और संतोष भी। आज शाहरूख खान के पास बेशुमार दौलत है। वे चाहे तो अपनी रूचि के क्षेत्र में अपनी ऊर्जा लगाकर जनहित के कार्य कर सकते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि वे फिल्मी दुनिया से सन्यास ले लें। बल्कि हर तरह की फिल्म करने की बजाय चुनिन्दा फिल्मों में काम करें और अपने अभिनय के झंडे गाढ़ते रहे। इस मामले में शाहरूख खान को आमिर खान से सबक लेना चाहिए। जिन्होंने कछुए की चाल चलकर खरगोशों को पछाड़ा है। साल डेढ साल में एक फिल्म लाते हैं। यश भी कमाते हैं, धन भी कमाते हैं और समाज को कुछ ठोस संदेश भी दे जाते हैं। लगान, तारे जमीन पर, रंग दे बंसती व थ्री इडियट जैसी फिल्मों ने पूरी दुनिया के दर्शकों को प्रभावित किया है।

फिल्म सबसे सशक्त माध्यम है जिससे समाज में बड़ा परिवर्तन किया जा सकता है। राजनीति में आने वाले फिल्मी सितारों ने अपनी लोकप्रियता को भुनाया तो खूब पर समाज का कुछ भला नहीं कर पाए। चाहे गोविन्दा हो या धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन हो या एन.टी.रामाराव। शाहरूख खान अपनी लोकप्रियता की उस बुलंदी पर है जहां से वे युवाओं का सैलाब सही दिशा में मोड़ सकते हैं। बशर्तें कि उन्हें खुद इस बात का अहसास हो कि दिशा क्या है। खुद ना हो तो उन्हें बताने वाले सही सलाह दें। फिर उन्हें अच्छी फिल्म का कथानक भी मिलेगा और अपने किरदार के लिए मौका भी। उनकी फिल्म उन्हें यश भी दिलायेगी और कुछ परिवर्तन भी ला पायेगी। उम्मीद है कि शाहरूख खान इन बातों पर गंभीरता से मनन करेंगे और अपनी कामयाबी के सूरज के डूबने से पहले एक बार फिर नए भूमिका में जनता के दिल के सितारे बनेंगे। माइ नेम इज़ खानबनाकर नहीं बल्कि काम से नाम पैदा करके।