क्या इन नेताओं को आई.पी.एल. या बी.सी.सी.आई. में रूचि इसलिए है कि इससे देश की जनता की ये बेहतर सेवा कर पाते हैं? तो यह सच नहीं है। आई.पी.एल. या बी.सी.सी.आई. क्रिकेट के खेल में जो अरबों रूपये का मुनाफा कमाती हैं, उसका एक अंश भी देश की आम जनता के हित में खर्च नहीं होता। विकास के मुद्दे छोड़ दो और बाकी खेलों की बात भी छोड़ दो तो क्या बी.सी.सी.आई. बता सकती है कि उसने देश के कितने गाँव में क्रिकेट की पिच तैयार करवायीं? कितने गाँव के युवा दलों को क्रिकेट सैट खरीद कर दिये? कितने गाँव और कस्बों में क्रिकेट सिखाने के लिए प्रशिक्षकों की व्यवस्था की? कितने गाँव और शहरों के बीच क्रिकेट मैच करवाये और खिलाडि़यों को उचित पुरस्कार दिये? कितने भूतपूर्व क्रिकेट खिलाडि़यों की आर्थिक अवस्था के अनुरूप, आवश्यकतानुसार, उनकी पेंशन बाँधी? कितने कस्बों और शहरों में क्रिकेट के लिए स्टेडियम बनवाये? देश के कितने स्कूल और काॅलेजों के बीच क्रिकेट के टूर्नामेंट आयोजित किये? इन सब सवालों का जबाव नकारात्मक ही मिलेगा।
देश के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। बड़े-बड़े नेता जनता के दुख-दर्द दूर करने में असफल रहे हैं। इसलिए नक्सलवाद पनप रहा है। पनप ही नहीं रहा, व्यवस्था में भी अपनी जड़ें घुसाता जा रहा है। गृहमंत्री लाख दावे करें, प्रधानमंत्री लाख आश्वासन दें, पर देश की जनता जानती है कि नक्सलवाद से निपटना सरकार के लिए आसान काम नहीं है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्र की जनता से देश के बड़े राजनेता और केन्द्रीय मंत्री जा जाकर पूछें कि उनकी माँग क्या है? उनकी शिकायत क्या है? और यथासम्भव उसे दूर करने का प्रयास करें। पर वे ऐसा नहीं कर रहे। उन्हें लगता है कि गोली और तोप के जोर पर सरकार और उसकी पुलिस नक्सलवाद पर काबू पा लेगी। दंतेवाडा का काण्ड उनके इस दावे को झूठा सिद्ध करता है। यानि लड़ाई दोनों मोर्चों पर लड़ी जानी हैं। एक तरफ आम जनता को राहत मिले, उसके जीवन जीने के हालात सुधरें और दूसरी तरफ नक्सलवादी हिंसा से कड़ाई से निपटा जाऐ। पर इसके लिए उनके पास वक्त नहीं है। यह सब काम त्वरित प्राथमिकता वाले होते हुए भी इन नेताओं की प्राथमिकता सूची में नहीं हैं। पर क्रिकेट की राजनीति को और क्रिकेट के खेल को नियन्त्रित करने के लिए इनके पास खूब वक्त है। और तो और गुजरात के विकास पुरूष नरेन्द्र मोदी से लेकर बिहार के लालू यादव तक क्रिकेट की राजनीति में आकण्ठ डूबे हैं। यह चिन्ता का विषय है।
शशि थरूर को नैतिकता के आधार पर इस्तीफे देने के लिए मजबूर करने वाले राजनीतिक दलों को आत्ममंथन भी करना चाहिए। क्या क्रिकेट में इतनी रूचि इस खेल के प्रति उनके जन्मजात रूझान का फल है, या क्रिकेट में आ रहा अरबों-खरबों रूपया इनके आकर्षण का केन्द्र है। देश का आम आदमी भी समझता है कि कोई राजनेता क्रिकेट की राजनीति में खेल की सेवा भावना से नहीं आया है। बल्कि इस खेल में पैदा हो रहे खरबों रूपये के काले धन को बाँटने के लिए आया है। ऐसे में जो राजनेता क्रिकेट की इस राजनीति से अछूते हैं, उन्हें संसद में तूफान खड़ा करना चाहिए और विधेयक लाना चाहिए जिसके अनुसार खेलों का प्रबन्ध करना खेलों के पुराने खिलाडि़यों, उद्योगपतियों या प्रशासनिक अनुभव वाले व्यवसायिक लोगों के हाथ में छोड़ देना चाहिए। किसी भी राजनेता को जो विधानसभा या संसद का सदस्य है, क्रिकेट की किसी भी समिति का सदस्य बनना प्रतिबन्धित होना चाहिए।
क्रिकेट ही क्यों, अब तो हाॅकी, फुटबाॅल, टेनिस और बाॅक्सिंग तक में ग्लैमर बढ़ने लगा है। भविष्य में इन खेलों की भी हालत क्रिकेट जैसी बन सकती है। इसलिए क्रिकेट ही नहीं सभी खेलांे के संचालन के लिए बनी समितियों में विधायकों व सांसदों के प्रवेश पर उक्त विधेयक में प्रावधान होना चाहिए। आयकर विभाग और फेमा जैसे विभाग तो पूरी छानबीन में जुटे ही हैं, पर देश की जनता, मीडिया और सांसदों व विधायकों को इस विषय में गंभीरता से ठोस प्रयास करने चाहिऐं जिससे हमारा खेल भी सुधरे और हमारे राजनेता भी मैच फिक्सिंग और क्रिकेट के सट्टे के लोभ से बच सकें और अपना ध्यान देश की समस्याओं के हल पर लगायें। कहते हैं कि ‘दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना’। क्रिकेट की राजनीति का कैंसर इस कदर बढ़ चुका था कि शशि थरूर के बहाने जो कुछ होगा वो इसका इलाज ही होगा। देश को इन्तजार रहेगा जाँच एजेंन्सियों की उपलब्धियों का। रही बात ललित मोदी की तो जहाँ तक आई.पी.एल. को आकार देने की बात है, उसका श्रेय तो ललित मोदी को मिलेगा ही और मिल भी रहा है। पर अगर इस आकार देने की प्रक्रिया में बहुत बड़े आर्थिक अपराध जुड़े हैं तो मोदी जैसे लोग भी कानून की पकड़ से बच नहीं पायेंगे।