Sunday, October 28, 2007

जागो कृष्ण भक्तों

 Rajasthan Patrika 28-10-2007
भारत सरकार की पर्यटन मंत्री श्रीमती अम्बिका सोनी हर मंच पर घोषणा करती हैं कि वे देश में धार्मिक व सांस्कृतिक पर्यटन को बढाने के लिए तत्पर हैं। राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान के हर तीर्थ पर जाकर शीश नवाती हैं। हरियणा सरकर ने भी धार्मिक तीर्थाटन के महत्व को समझ कर अपने राज्य कुरूक्षेत्र जैसे अनेक तीर्थों को सुधारा व संवारा है। पर्यटन आज वैश्वीकरण के दौर में एक तेजी से पनपता उद्योग बन चुका है। माॅरीशस, मलेशिया, हवाई जैसे तमाम देश पर्यटन पर आधारित अर्थ व्यवस्था चला रहे हैं। पर दुःख की बात है कि भारत ने आज अभी भी अपने धार्मिक पर्यटन की संभावनाओं को विकसित नहीं किया है। केवल ताज महल ही ऐसा स्थल नहीं जिसके पीछे पूरी दुनिया भारत आती है। अगर हम अपने सांस्कृतिक महत्व के तीर्थ स्थलों की ओर ध्यान दें तो ताज महल से कहीं ज्यादा पर्यटक इन स्थलों की ओर आएंगे। क्योंकि दुनिया आज भी भारत को विश्व का आध्यात्मिक गुरू मानती है। ताज महल के निकट है, ब्रज क्षेत्र जहां 5 हजार वर्ष का सांस्कृतिक वैभव बिखरा पड़ा है। ब्रज में उत्तर प्रदेश का मथुरा जिला, राजस्थान के भरतपुर जिले की डीग व कामा तहसील और हरियाणा के फरीदाबाद जिले की होडल तहसील भी आती हैं।



कश्मीर से कन्याकुमारी और आसाम से गुजरात तक कृष्ण भक्त बिखरे हुए हैं। भारत की जितनी नृत्य कलाएं हैं, काव्य रचनाएं हैं, चित्र कलाएं हैं, वास्तु कलाएं हैं व संगीत कलाएं हंै, सब पर भगवान श्री राधाकृष्ण के प्रणय प्रसंगों की व लीलाओं की छाप स्पष्ट है। इसलिए ब्रज भारत की सांस्कृतिक राजधानी है। यही वह क्षेत्र है जहां 5 हजार वर्ष पहले भगवाने श्री राधाकृष्ण ने अनेक लीलाएं की। जबसे टीवी चैनलों पर भागवत कथाओं की बाढ आई है तब से ब्रज प्रेमियों की संख्या भी तेजी से बढ़ती जा रही है। पर इसके साथ ही बढता जा रहा है ब्रज का विनाश भी।



भागवतम् के दशम स्कंध के चोबीसवें अध्याय के 24वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण नंद बाबा से कहते हैं, ‘बाबा हम नगरों और गांवों के रहने वाले नहीं। हमारे घर तो ब्रज के वन और पर्वत हैं।ब्रज भक्ति विलास ग्रंथ के अनुसार 137 वन ब्रज में थे। जहां भगवान ने लीलाएं की। इनमें से अब मात्र 3 बचे हैं। शेष में धूल उड़ती है। लताआंे, वृक्षों व निकुंजों का नामोनिशान तक नहीं है। ब्रज में 72 वर्ग किलो मीटर क्षेत्र में पर्वत श्रृखलाएं हंै। जिन पर भगवान ने गो-चारण किया। वंशीवादन किया। रास किया व अनेक लीलाएं की। दुर्भाग्यवश राजस्थान की सरकार इन पर्वतों को खनन उद्योग के हवाले कर रात-दिन इनका विनाश करवा रही है। उधर गोवर्द्धन की परिक्रमा हो या बरसाने की वाटिकाएं। वृंदावन के निकंुज हों या जमुना जी के घाट, हर ओर विनाश का तांडव चल रहा है। अनेक भागवताचार्य एक ओर तो माया का मोह छोडने का उपदेश देते हैं और दूसरी ओर अपने यजमानों को ब्रज वास का लालच दिखा कर ब्रज में प्लाॅट व फ्लेट बेचने में जुटे हैं। दिल्ली और आसपास के बिल्डर्स भी बड़ी तादाद में ब्रज में फ्लैट व मकान बनवा रहे हैं ताकि ब्रज के प्रेम को पैसे में भुनाया जा सके।



इस प्रक्रिया में ब्रज के नैसर्गिक सौंदर्य का तेजी से विनाश हो रहा है। इन मकानों मंे 90 फीसदी से ज्यादा पूरे वर्ष खाली पड़े रहते हैं। दरअसल ब्रज जैसे तीर्थ स्थल के विकास और संवर्द्धन की तीनों ही प्रांतीय सरकारों व केन्द्रीय सरकार के पास न तो कोई दृष्टि है और नही ही कोई ठोस योजना। यहां तैनात प्रशासनिक अधिकारी भी ब्रज को आम शहरों की तरह अपनी कमाई का धंधा बना लेते हैं। स्थानीय नेताओं को भी केवल वोटों से मतलब हैं। उनके वोटर चाहे धरोहरों को नीलाम करें या उन पर अवैध कब्जें करें, वे विरोध नहीं करते। इसके विपरीत कब्जा करने वालों का ही साथ देते हैं। इन हालातों में जब दुनिया भर के करोडों कृष्ण भक्त यहां आते हैं तो यहां चल रही विनाश लीला और यहां की दुर्दशा देख कर धक्क रह जाते हैं।



पर कृष्ण भक्त भी इस विनाश के लिए कोई कम जिम्मेदार नहीं। कृष्ण भक्त देश-विदेश के नगरों में भगवत कथाओं में, छप्पनभोगों में, फूल बंगलों में, मंदिर निर्माणों में व भंडारों में करोडों रूपया पानी की तरह बहा देते हैं। अपने घर का मंदिर तो सजाते हैं पर भगवान के नित्यधाम ब्रज को सजाने के लिए कुछ नहीं करते। आलोचना करने से क्या कुछ बदल जाएगा ? अगर ब्रज को सजाना है तो कृष्ण भक्तों को अपनी सोच बदलनी होगी। मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध व जैन धर्मावलंबी अपने तीर्थों को सजा-सवार कर रखते हैं। पर कृष्ण भक्त ब्रज को सड़ा कर छोड जाने में ही गर्व का अनुभव करते हैं। भंडारे करने, मंदिर और फ्लैट बनवाने से कहीं ठोस सेवा है ब्रज को सजाना और संवारना। सरकारें यह कार्य करती नहीं। भागवताचार्य अपनी कमाई अपने ही ऐश्वर्य में लगा देते हैं। अगर भक्त ही नहीं जागे तो कौन सुधारेगा ब्रज की  दशा घ् ब्रज फाउंडेशन जैसी कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं ब्रज में बहुत ऐतिहासिक कार्य कर रही हैं। जिनसे सलाह लेकर कृष्ण भक्त ब्रज को सजाने, संवारने का काम कर सकते हैं। अगर कृष्ण भक्त नहीं जागे तो ब्रज की इतनी बुरी दशा हो जाएगी कि भला आदमी वहां जाने की हिम्मत भी नहीं करेगा। सरकारों को भी नारे नहीं ठोस योजनाएं देनी चाहिए। वरना हम देश में धार्मिक, सांस्कृतिक पर्यटन की असीम संभावनाओं को विकसित होने से पहले ही कुचल देंगे।

Sunday, October 21, 2007

कौन चाहता है कि पुलिस सुधरे ?

 Rajasthan Patrika  21-10-2007
नोएडा की श्रीमती नीमा गोयल आज संतोष के आंसू बहा रही हैं। दस वर्ष पहले दिल्ली के क्नाट प्लेस में पुलिस की फर्जी मुठभेड़ में निरअपराध मारे गए उनके युवा पति प्रदीप गोयल के हत्यारे, दिल्ली पुलिस के सहायक आयुक्त एसएस राठी सहित सभी 10 पुलिस कर्मियों को अदालत ने हत्या का दोषी करार दिया है। देशवासी प्रसन्न हैं कि आखिर दोषी पुलिस कर्मियों को सजा मिलेगी। मिलनी भी चाहिए। तभी तो इस तरह की अहमक हरकत करने वाले पुलिसकर्मी सुधरेंगे।

अक्सर आरोप लगते हैं कि पुलिस अमानवीय व्यवहार करती है। पुलिस थाने में बलात्कार करती है। पुलिस आधी रात में वर्दी में डकैती करती है। पुलिस लाचार लोगों की संपत्ति पर जबरन कब्जा करती है। पुलिस रिपोर्ट लिखने के लिए भी रिश्वत मांगती है। पुलिस जातिगत द्वेष की भावना से काम करती है। पुलिस सांप्रदायिकता से ग्रस्त है। पुलिस को आम आदमी रक्षक नहीं भक्षक मानता है। ऐसे ही आरोपों के इर्द-गिर्द देश के हर प्रांत की पुलिस से जुड़ी खबरें अक्सर आती रहती हैं। पर क्या कभी हमने जानने की कोशिश की कि पुलिस इतनी गैर-जिम्मेदार क्यों है ?
अजमेर की दरगाह शरीफ में आतंकवादी बम का विस्फोट होता है तो हम पुलिस पर लापरवाही का दोष लगाते हैं। अगर पुलिस मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे या चर्च कहीं भी घुसती हैं तो हमारी धार्मिक भावनाओं को ठेस लगती हैं। पुलिस को हम अपने धर्म स्थान में घुसने नहीं देंगे। उधर आतंकवादी नमाजी या भक्त बन कर घुस जाएंगे। फिर जब विस्फोट होगा तो हम इसे पुलिस की लापरवाही बताएंगे। योग्य उम्मीदवारों की उपेक्षा करके रिश्वत में मोटी रकम लेकर अगर सिपाहियों की भर्ती होगी तो हम कैसे उम्मीद करें कि वे अपने जीवन में धर्मराज युधिष्ठिर की तरह आचरण करेंगे ? यदि मुख्यमंत्री अपनी जाति के लोगों को थोक में पुलिस में भर्ती करेंगे तो कैसे इन पुलिस वालों से उम्मीद की जाए कि वे जातिगत द्वेष नहीं पालेंगे। जब पुलिसकर्मी अपनी आंखों से रातदिन देखते हैं कि अनेक बड़े नेता और मंत्री खुलेआम अपराधियों को प्राश्रय दे रहे हंै और स्वयं भी व्यभिचार में लिप्त हैं तो इन पुलिस वालों से सदाचरण की आशा कैसे की जा सकती है? जब पुलिस वाले देखते हैं कि अदालतांे में खुलेआम रिश्वत देकर अपराधी छूट जाते हैं तो उनसे कैसे उम्मीद की जाए कि वे जान जोखिम में डालकर अपराधियों को पकड़े ? वीआईपी सुरक्षा के नाम पर जब पुलिस का दुरूपयोग राजनेताआंे की झूठी शान बढाने में हो रहा हो तो वे कैसे जनता को सुरक्षा मुहैया कराएंगे? जब पुलिस के बड़े हाकिम लाटसाहबों की सी जिंदगी जीते हों और सिपाही को 24 घंटे पिलने के बाद भी दिवाली और ईद की छुट्टी बमुश्किल मिलती हों तो वो कैसे अपना मानसिक संतुलन कायम रख पाएगा ? जब थानों पर तैनाती पुलिस कप्तान को हर महीने मोटी थैली पहुंचाने की एवज में होती तो उस थाने का चार्ज लेकर दरोगा अपराध का ग्राफ कम क्यों करवाएगा ?

दरअसल भारत में पुलिस राज सत्ता के हाथ में जनता के दमन का औजार मात्र है। इसकी जवाबदेही जनता के प्रति नहीं केवल सरकार के प्रति है। दरसल भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 हमारे संविधान की मूल भावना के विरूद्ध है। भारत का संविधान भारत की जनता को सर्वोच्च मानता है। उसको ही समर्पित है। भारतीय गणराज्य की समस्त संस्थाएं जनता की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। किंतु भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में कहीं भी जनता शब्द का उल्लेख नहीं आता। 1857 के गदर के बाद जब ब्रितानी हुकूमत ने ईस्ट इंडिया कंपनी से हिंदुस्तान की बागडोर ली तो उसे ऐसे कानून की जरूरत थी जिसकी मदद से वह भारत की जनता का दमन कर सके। इसीलिए उसने यह कानून बनाया था। पर आश्चर्य की बात तो यह है कि 1947 में आजादी मिलने के बाद और 1950 में नए संविधान के लागू होने के बाद भी पुलिस अधिनियम में संशोधन नहीं किया गया।

1977 में जनता पार्टी की सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग बनाया। जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों को पुलिस सुधार का मसौदा बनाने का काम दिया गया। इस आयोग ने बड़ी मेहनत से काम किया। इसकी रिपोर्ट रोंगटे खडे़ कर देती है। जिसे पढने के बाद हर आदमी यह मान लेगा कि दोष पुलिस का नहीं हमारे राजतंत्र का है। इस रिपोर्ट में पुलिस व्यवस्था में आमूलचूल परिर्वतन की सिफारिश की गई है। संक्षेप में रिपोर्ट कहती है कि पुलिस की कार्यप्रणाली पर लगातार निगाह रखी जाए। पुलिस कर्मियों के प्रशिक्षण और काम की दशा पर संवेनदशीलता से ध्यान दिया। उनका दुरूपयोग रोका जाए। उन पर राजनीतिक नियंत्रण समाप्त किया जाए। उनकी जवाबदेही निर्धारित करने के कड़े मापदंड हों। पुलिस महानिदेशकों का चुनाव केवल राजनैतिक निर्णयों से प्रभावित न हो बल्कि उसमें न्यायपालिका व समाज के अन्य महत्वपूर्ण वर्गों का भी प्रतिनिधित्व हो। पुलिस वालांे के तबादलों की व्यवस्था पारदर्शी हो। उन पर निगरानी रखने के लिए स्वायत्त नागरिक समितियां गठित हांे। पर दुख की बात है कि पिछले 30 वर्षों से पुलिस आयोग की सिफारिशें धूल खा रही है। 1998 में महाराष्ट्र के मशहूर पुलिस अधिकारी श्री जेएफ रिबैरो की अध्यक्षता में पुलिस सुधारों का अध्ययन करने के लिए एक और समिति का गठन किया गया। जिसने मार्च 1999 में अपनी रिपोर्ट दे दी। वह भी धूल खा रही है। इसके बाद पद्मनाभैया समिति का गठन हुआ। पर रहे वही ढाक के तीन पात।

पुलिस व्यवस्था में क्या सुधार किया जाए ये तो इन समितियों की रिपोर्ट से साफ है पर लाख टके का सवाल यह है कि यह सुधार लागू कैसे हो ? यह कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना ये हो नहीं सकता। सच्चाई यह है कि हर राजनैतिक दल पुलिस की मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट हैं। क्योंकि पूरा पुलिस महकमा राजनेताओं की जागीर की तरह काम कर रहा है। इसलिए भारत के गृहमंत्री पुलिस महानिदेशकों की सालाना बैठकों में बडबोले ऐलान करते रहेंगे और जनता यूं ही पुलिस से प्रताडि़त होती रहेगी। अगर जनता चाहती है कि पुलिस का रवैया बदले और वे भक्षक की जगह रक्षक बने, तो उसे अपने क्षेत्र के सांसद को पकड़ना होगा। हर सांसद को जनता इस बात के लिए तैयार करे कि वह संसद में पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने का जोरदार अभियान चलाए। अगले आम चुनावों से पहले पूरे देश में इन सुधारों को लागू करने का महौल बनाया जाए। तभी कुछ बदलेगा। क्या हम ये करंेगे ?

Sunday, October 14, 2007

परमाणु सन्धि का विकल्प मौजूद हैं सरकार क्यों नहीं सोचती इस ओर

Rajasthan Patrika 14-10-2007
1 लाख 35 हजार मेगावाट की उत्पादन क्षमता के बावजूद देश भीषण उर्जा संकट से गुजर रहा है। यsह तो तब है जबकि देश में प्रति व्यsक्ति बिजली खपत मात्र 631 यूनिट है। दुनियk के दूसरे उन्नत देशों के प्रति व्यक्ति उपभोग के स्तर से तुलना करें तो देश का ऊर्जा संकट किसी सुरसा से कम नहीं दिखाई देता। मसलन कनाडा की प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत है 17179, अमरीका की 13338, अमरीका की 13338 इटली की 5644 व चीन की प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत है। 1470 ।ऐसे में विकास की पश्चिमी अवधारणा से पूर्णतय अभिभूत प्रधानमंत्रh श्री मनमोहन सिंह की चिंता वाजिब ही है। चिंता चिता की अग्नि से भी ज्यkदा भयवह होती है.देश को मुद्रा संकट से उबारने वाले श्री सिंह आज देश को ऊर्जा संकट से निकालने की मंशा रखते हैं। उनकी मंशा पर किसी को लेशमात्र भी संशय नहीं हो सकता परन्तु उस मंशा को अमली जामा पहनाने के उनके तरीके से लोगों में बेचैनी है। यह बेचैनी इस स्तर तक पहु¡च चुकी है कि मध्यवधि चुनाव तक की नौबत आ चुकी है। बेचैनी का राजनैतिक गणित चाहे जो कुछ भी हो परन्तु वह राष्ट्रहित का सुरक्षा कवच बनी हुई है।



प्रधानमंत्रh नाभिकीय ऊर्जा के वर्तमान उत्पादन स्तर 4120 मेगावाट को सन 2020 तक 40000 मेगावाट तक पहु¡चा देना चाहते हैं। इस 4120 मेगावाट क्षमता में से 2180 मेगावाट का विकास पिछले 7 सालों में हुआ है और दिसम्बर 2008 तक 2660 मेगावाट की अतिरिक्त क्षमता विकसित हो जाएगी। संतोष की बात यह है कि परमाणु ऊर्जा का  यह समूचा विकास भारतीय नाभिकीय कायर्क्रम के जनक डा¡ होमी जहा¡गीर भाभा की  दूर दृष्टि से  प्रभावित रही परमाणु नीति के तहत हुआ है। डा. भाभा को पता था कि  भारत में यwरेनियम का सीमित भण्डार है। इसलिए यूरेनियम पर आधारित तकनीकी से नाभकीय ऊर्जा का उत्पादन मंहगा पड़ेगा। इतना ही नहीं हमारी निभर्रता दूसरे देषो पर बढ़ती जाएगी। जबकि भारत में थोरियम का विशाल भण्डार हैं। जिसके मद्देनजर अगर नाभिकीय ऊर्जा का उत्पादन थोरियम के ब्रीडर रिएक्टर की तकनीकी से होता है तो भारत नाभिकीय ऊर्जा के मामले में आप निर्भर हो जाएगा। उनकी  यह रणनीति देश की ऊर्जा सुरक्षा के लिए अहम रही है।



रहीम जी का एक दोहा बहुत मषूहर है कि रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे मोती मानस चून आज से करीब 500 वर्ष पूर्व रचे गए इस दोहे में पानी के स्थान पर यदि बिजली शब्द डाल दियk जाए तो दोहा और अधिक प्रासंगिक हो उठेगा। इसका अंदाजा इसी बात से लगायk जा सकता है कि पानी की आपूर्ति भी बिजली की उपलब्धता पर ही निर्भर हो चुकी है। वर्तमान अर्थव्यवस्था में पानी के बगैर तो एक बार जीवन की कल्पना की भी जा सकती है परन्तु बिजली का एक पल का भी अभाव समूची व्यवस्था को चरमरा देने की ताकत रखता है। भारत में ऊर्जा की जरूरत जिस तेजी से बढ रही है उससे भारत की ही कई निजी कंपनियां नाभकीय ऊर्जा के उत्पादन को उत्सुक बैठी हैं। नाभिकीय रियsक्टरों के विविध आयkमों के विकास हेतु भारतीय कम्पनियks के पास पयkZIr कौशल भी मौजूद है। निजी क्षेत्र की कम्पनियks जैसे टाटा पावर रिलांयस एनर्जी एस्सार xqzi व जीएमआर ग्रुप  नाभिकीय ऊर्जा संयU= लगाने को तत्पर हैं। गौरतलब यह है कि जब स्वदेशी संसाधनों के बूते पर पिछले 8 वर्षों में 4840 मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता का विकास कियk जा सकता है तो क्यk आगामी 12 वर्षों में 40000 मेगावाट क्षमता का विकास सम्भव नहीं है \ क्यk भारतीय वैज्ञानिक,  इंजीनियjk औद्यौगिक घराने देष में हुई दूर संचार क्रांति की भा¡ति नाभिकीय ऊर्जा क्रkfUr को गति नहीं दे सकते+ \



दरसल असली बात कुछ और है। सामरिक हितों का निर्धारण सदा से आर्थिक हिsतों के आधार पर ही होता आयk है। भारतीय नाभिकीय कायZdze  पर लगे 33 वर्ष पुराने प्रतिबंध को आज यfn अमरीका ढील दे रहा है तो उसे अगले 3 दशकों में 150 अरब डा¡लर का भारतीय परमाणु ऊर्जा बाजार दिखाई पड रहा है। सन्धि के प्रभाव में आने के साथ ही 14 अरब डाWलर के सौदों के लिए अरीवा, जनरल इलैक्ट्रिक, वेस्टिंग हाउस और रोसाटम जैसी बहुरा’Vªh;  कम्पनिय्ंks में होड लगी हुई है।

आर्थिक विकास के लिए सन्धिय और समझkSrs तो जरूरी होते हैं। परन्तु उसमें दोनों पक्षों के लिए मोल भाव का पूरा मौका रहता है। आज भारत के लिए परमाणु बाजार खोलना अमरीका की आर्थिक मजबूरी है। ऐसे में भारत को कोई भी समझkSrk  अपनी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप करना चाहिए।  पिछले 4 दशकों से भारत का परमाणु ऊर्जा कायZक्रम सुचारू रूप से चल ही रहा है। कुछ नीतिगत परिवर्तनों की आव”;drk अवश्यd है जिससे नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में भी टेलीका¡म की तरह तेजी आ सके। आत्मनिर्भरता के ठोस आधार पर हम बेहतर निर्णय ले पाए¡गे।



Tkgk¡ तक ऊर्जा संकट का प्रश्न है तो उसके लिए अन्य वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के विकास का पयkZIr अनुभव व दक्षता हमारे पास मौजूद है। ऊर्जा संकट को धुरी बना एकपक्षीय नाभिकीय सन्धि करने की जल्दी यk मजबूरी भारत की बिलकुल नहीं है।



ऊर्जा के पश्चिमी उपभोग स्तरों को मानदण्ड मानकर भारतीय  vFkZO;oLFkk के विकास का खा¡pk  तैयkर करना तो चार्वाकीय ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत वाले न्यk; से एक मूर्खतापूर्ण अभिप्राय होगा। राष्ट्रपिता की 139वीं  वर्षगा¡ठ हाल ही मना चुके राष्ट्र के कर्णधारों को भारतीय विकास की अवधारणा पर एक बार फिर चिन्तन करने की आवश्यdrk है। पाश्चात्यk भोगवादी दृष्टिकोण से भारत की  leL;k,¡ सुलझsxh नहीं वरन और अधिक जटिल होती चली जाए¡गी।    

Sunday, October 7, 2007

कृषि मंत्री हल नही कर सकते किसानो का संकट

Rajasthan Patrika 07-10-2007
युवराज राहुल गाँधी के राज्याभिषेक की तैयारियाँ शुरू हो गईं हैं। जैसे राजतन्त्र मे युवराजों को गद्दी पर आसीन होने से पहले रणक्षेत्र में अपने शौर्य का प्रदर्शन करना होता था वैसे ही लोकतंत्र के इस युवराज को लोक सभा चुनाव में अपनी विजय पताका फहरानी होगी। जिसके लिये एक अलग तरह के रण कौशल की आवश्यकता होगी। हमारे लोकतंत्र में बहुसंख्यक मतदाता किसान और मजदूर है। इसलिये हर दल चुनाव से पहले किसान और मजदूरों के हक की बढ़चढ़ कर बात करता है। पर सत्ता में आने के बाद वही दल सारी नीतियां केवल औद्योगिक जगत के हितों को ध्यान में रखकर बनाने लगता है। भारत का यह दुर्भाग्य है की न तो योजनाकारों ने और न ही राजनेताओं ने इस कृषि प्रधान देश की जमीनी हकीकत को पहचानने की कोशिश की और न ही इसकी आत्मा को जाना। इसलिये किसानों के हक में खरबों रूपये की योजनायें बनने के बाद भी देश का किसान आज बदहाल है।

आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर, राहुल गाँधी के माध्यम से देश के किसानों और मजदूरों के लिये हजारों करोड़ रूपये की योजनाओं की घोषणाऐं की जा रहीं हैं। ताकि संदेश जाये कि युवराज राहुल गाँधी देश के किसानों के प्रति वाकई गंभीर हैं। इसमें कोई बुराई नहीं। पर समस्या ये है कि ऐसी घोषणाओं से किसानों के हालात सुधरने वाले नही। आज देश में किसान रासायनिक खाद के भारी संकट का सामना कर रहा है। एक तरफ तो इस खाद ने किसान की भूमि की उर्वरकता तेजी से घटायी है। उस पर कर्जे का बोझ बढ़ाया है। दूसरी ओर समय पर इसकी आपूर्ती न हो पाने के कारण किसान की तकलीफ काफी बढ़ी है।

आज पूरी दुनियk के समझदार कृषि वैज्ञानिक यह मानने लगे हैं कि आधुनिक तरीके से की जा रही खर्चीली कृषि न तो किसानों के हित में है और न ही दुनियां के लोगों के हित में। रासायनिक खाद पर आधारित कृषि के विनाशकारी परिणाम सारी दुनियां के सामने आ चुके हैं। इसलिये आज जैविक कृषि का प्रचलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। दुनिया भर के कुलीन और सम्पन्न लोग रासायनिक खादों से उपजे अनाज, दालों व फल सब्जीयों का उपभोग नही करते। हर ओर जैवीक कृषि के उत्पादनों की मांग है। राजस्थान के नवलगढ़ जिले में एम0आर0 मुरारका फाउण्डेशन ने हजारों किसानों की जिंदगी बदल दी है। इस संस्था ने राजस्थान के जैविक कृषि उत्पादों का बाजार विदेशों मे खड़ा कर लिया है। ऐसी ही तमाम संस्थायें देश में किसानों का हित साधने में जुटी हैं। पर रासायनिक खादों के हामी केन्द्रीय कृषि मंत्री श्री शरद पवार ने अभी तक इस दिशा में कोई क्रांतिकारी कदम नही उठाया है। उधर अकसर किसान यह शंका करते हैं कि जैविक कृषि के लिये अभी बाजार परिपक्व नही हुआ है। पर यह गलत सोच है।

डा¡ भारत भूषण त्यागी पश्चिमी उत्तरप्रदेश के जिले के एक ऐसे किसान है जिन्होनें इस धारणा को झुठला दिया। उन्होनें मात्र 6 एकड़ जमीन में जैविक कृषि के माध्यम से न सिर्फ अपने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति की है बल्कि 10 हजार किसान परिवारों की कृषि भी सुधार दी। डा¡ त्यागी का कहना है कि किसानों की समस्या का हल कृर्षि मंत्री या भारत सरकार के पास नहीं है। किसानों की समस्या का हल तो किसानों के ही पास है। उन्हे अपनी सोच बदलनी होगी। आज किसान को बीज बाहर की कंपनियो से खरीदना पड़ता है। खाद बाहर की कंपनियो से खरीदनी पड़ती है। कीटनाशक बाहर की कंपनियों से खरीदने पड़ते हैं। ट्रैक्टर बाहर की कंपनियांे से खरीदना पड़ता है। डीजल बाहर की कंपनियों से खरीदना पड़ता है। साबुन, तेल, मंजन सभी कुछ बाहर की कंपनियो से खरीदने पड़ते है। किसान की आमदनी से ज्यादा मुनाफा बाहर की कंपनियks उससे ले जाती है। किसान पर बचता क्या है कर्जा और बैंक का तकादा। मजबूरी में देश के लाखो किसान अपने परिवारों के साथ आत्महत्या कर रहे हैं। डा¡ त्यागी का कहना है कि खेती बाजार की मांग पूरी करने के लिये नहीं अपने परिवार और गाँव को सुखी बनाने के लिये की जायगी तो किसान की हर समस्या का हल निकल जायेगा।

डा¡ भारत भूषण त्यागी दिल्ली विश्वविद्यालय से ऊंची पढ़ाई पढ़ कर भी नौकरी करने नहीं निकले। पिछले 15 वर्षों से उ0प्र0 के बुलंदशहर के एक सघन वन में जाकर अपनी पुश्तैनी 6 एकड़ जमीन पर खेती करने लगे। पर ऐसी बेवकूफी की खेती नहीं जिसमें मुनाफा बाहर की कंपनियाँ कमाएं और किसान के जवान बेटे ताश खेलने में दिन बिता दें। उन्होनें खेती की नई विधि अपनाई। कुछ ही वर्षों में 6 एकड़ जमीन सोना उगलने लगी। वे बाजार से कुछ नहीं खरीदते, न बीज, न डीजल, न कीट नाशक, न खाद। केवल अच्छी पैदावार करते हैं और अपनी व अपने परिवार की सभी जरूरत घर बैठे पूरी कर लेते हैं। साल में 5-6 लाख रूपया बचता है सो अलग। यही तकनीकि उन्होंने 10 हजार किसान परिवारों को सिखाई। जो आज खुशहाल हैं और डा¡ त्यागी को देव पुरूष मानते हैं।

राहुल गाँधी अगर वास्तव में देश के किसानों के हालात बदलना चाहते हैं तो उन्हे केवल युवा सांसदो की टीम साथ लेकर चलने से कामयाबी नहीं मिलनी क्योंकि उन्हें ज्ञान देने और नीति बताने वाले लोग तो वही पोंगापंथी दिमाग वाले हैं। जो आज भी देश को विदेशी कंपनियों की नजर से देखते हैं। युवराज को तो डाॅ0 भारत भूषण त्यागी जैसे उन लोगों की सलाह लेनी चाहिये जिन्होने अपने अनूठे कार्यों से जनहित में सफलता के झंडे गाढ़े हैं। ऐसे लोगों की सलाह से जो विचार बनेंगे, जो नीति बनेगी और जो काम होगा उससे किसानों का ही नही देश की आम जनता का भी हित होगा। राजनैतिक विजय तो मिल ही जायेगी पर देश में जो एतिहासिक परिवर्तन दिखाई देगा वो युवराज को लंबे समय तक शासन करने का नैतिक आधार देगा। तकलीफ इस बात की है कि निहित स्वार्थ सत्ता केंन्द्र तक कभी सद्विचारों को पहुंचने ही नहीं देते। राहुल गाँधी के पिता श्री राजीव गाँधी भले, सरल और सच्चे इंसान थे पर उन्हे स्वार्थी तत्वों ने नाकाम कर दिया। अब राहुल गाँधी ऐसे लोगों से कैसे बचते हैं, समय ही बताएगा।

Sunday, September 30, 2007

सत्यमेव जयते फिर न्यायपालिका को सच से परहेज क्यों है ?

मुंबई मिड-डे के चार पत्रकारों को अदालत की अवमानना के मामले में चार महीने की जेल की सजा सुनाई गई है। देश के कई मशहूर समाजसेवी व बुद्धिजीवी इन पत्रकारों के समर्थन में सर्वोच्च अदालत गए हैं। इन पत्रकारों की गलती यह है कि इन्होंने भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति श्री वाईके सब्बरवाल के पुत्रों को लेकर एक ऐसी रिपोर्ट छापी जिससे यह संकेत मिलते हैं कि न्यायमूर्ति सब्बरवाल द्वारा दिल्ली में करवाई गई सीलिंग व भारी तोड़फोड के पीछे उनके व्यावसायिक स्वार्थ थे। इस संदर्भ में ये पत्रकार किसी भी जांच एजेंसी के सामने सबूत प्रस्तुत करने को भी तैयार हैं। पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने उनकी बात अनसुनी कर उन्हें अदालत की अवमानना की सजा सुनाई है। सीलिंग के मामले में अदालत के रवैए से दिल्ली पहले ही भड़की हुई थी। अब ऐसी बात सामने आई है जिससे जनता का आक्रोश फूटना स्वाभाविक है। ऐसे संगीन आरोप सामने आने के बाद भी अगर अदालत उनकी जांच नहीं करवाती और दोषी न्यायधीश को सजा देने की बजाए सच्चाई उजागर करने वाले को ही अगर सजा देती हैं तो अदालत की विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा प्रश्नचिंह खड़ा हो जाएगा। आजाद भारत ने उपनिषद् के मंत्र सत्यमेव जयतेको अपने शासन का आधार बनाया है जिसका अर्थ है कि हर हालत में सत्यकी ही विजय होगी। फिर अदालतों का ऐसा रवैया क्यों होगा है कि वे सच को भी डिफेंस नहीं मानती।



अदालत की अवमानना कानून में साफ लिखा है कि यदि कोई व्यक्ति अदालती कार्यवाही में विघ्न पैदा करता है या उसको प्रभावित करने की कोशिश करता है या अदालत की गरिमा को हानी पहुंचाता है तो उस पर अदालत की अवमानना कानून के तहत मुकद्दमा चलाया जा सकता है और उसे सजा दी जा सकती है। पर जब कोई न्यायधीश अनैतिक या भ्रष्ट आचरण करे और उसका खुलासा प्रमाण सहित कोई वकील या पत्रकार करे तो इसे अदालत की अवमानना कैसे माना जा सकता है ? लोकतंत्र में विधायिका की जवाबदेही मतदाताओं के प्रति होती है। कार्यपालिका की जवाबदेही अपने राजनैतिक आकाओं के प्रति होती है और मीडिया की जवादेही जनता के प्रति होती है। इस तरह लोकतंत्र के तीनों स्तंभों की जवाबदेही सुनिश्चित की गई है। पर चैथे स्तंभ न्यायपालिका की जवाबदेही अभी तक किसी के प्रति नहीं है। दरअसल संविधान के निर्माताओं ने न्यायधीशों को भगवान के समान माना था। उनसे नापाक चाल-चलन की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। इसीलिए उन्हें अदालतों में मी लाॅर्ड’! कह कर संबोधित किया जाता है। पर सच्चाई यह है कि जो न्यायधीश बनते हैं वो किसी देव लोक से अवतरित नहीं होते। इसी लोक से हैं और उनके लिए समाज के प्रभाव से मुक्त रह पाना संभव नहीं है। इसलिए वे भी अक्सर वही गलतियां कर जाते हैं जो समाज के दूसरे वर्ग करते हैं। पर यहां यह भेद स्पष्ट हो जाना चाहिए कि किसी जज के अनैतिक आचरण को उजागर करने का अर्थ न्यायपालिका की अवमानना नहीं है। वह तो अधिक से अधिक संबंधित न्यायधीश की मानहानी मानी जाएगी। जिसके लिए वह न्यायधीश मौजूदा कानून के तहत मुकद्दमा चलाने को स्वतंत्र हैं। व्यक्तिगत दुराचरण को अदालत की अवमानना कानून से छिपाना न्यायपालिका की विश्वसनीयता को पूरी तरह से समाप्त कर सकता है। इसलिए अदालत की अवमानना कानून में वांछित संशोधन करके यह व्यवस्था बनानी चाहिए कि दोषी न्यायधीशों की जांच हो और उन्हें सजा भी मिले। वरना सत्य मेव जयते का क्या अर्थ रह जाएगा ? आश्चर्य की बात यह है कि आए दिन अदालत से फटकार खाने के बावजूद हमारे नेता व सांसद इस कानून में कोई सुधार करने को तैयार नहीं हैं। कुछ बड़े नेताओं ने तो साफ कहा कि वे इतने मामलों में फंसे हैं कि न्यायपालिका से भिड़ेंगे तो उसका बुरा परिणाम भोगेंगे।



यह पहली दफा नहीं है जब सर्वोच्च न्यापालिका पर उंगली उठी है। 1997 से 2001 तक मैंने भारत के तीन  मुख्य न्यायधीशों के घोटाले व अनैतिक कार्यों के प्रमाण उनके कार्यकाल में ही अपने टेबलाॅइड कालचक्रमें प्रकाशित किए थी। जिन पर देश में काफी विवाद हुआ और तत्कालीन कानून मंत्री श्री राम जेठमलानी को इस्तीफा भी देना पड़ा। मुझ पर अदालत की अवमानना का मुकद्दमा सर्वोच्च न्यायालय में नहीं बल्कि आतंकवाद से ग्रस्त कश्मीर की घाटी में चलाया गया। मुझे जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में इस मुकद्दमें के दौरान श्रीनगर में ही रहने के आदेश दिए गए। जब मैं वहां नहीं गया तो मुझे भगोड़ा अपराधी घोषित कर दिया गया। जम्मू पुलिस मुझे रोज गिरफ्तार करने आने लगी। डेढ वर्ष तक मैंने देश में जगह-जगह भूमिगत रह कर अदालत की अवमानना कानून में संशोधन की मांग जनसभाओं में उठाई। इससे पहले की पुलिस वहां पहुंचती मैं दूसरे शहर निकल जाता था। पर न तो कोई बड़ा वकील मेरे समर्थन में खड़ा हुआ और न कोई नामी पत्रकार और न कोई बड़ा समाजसेवी। सबको लगा कि पदासीन मुख्य न्यायधीश के मामले में बोल कर कहीं उन्हें जेल न जाना पडे़। आखिर मुझे जान बचाने के लिए देश छोड कर भागना पड़ा। लंदन और न्यूयार्क में पूरी दुनिया के पत्रकार संगठनों का मुझे भरपूर समर्थन मिला। बीबीसी और सीएनएन जैसे बड़े टीवी चैनलों ने मेरे साक्षात्कारों का सीधा प्रसारण उन देशों से किया। इस सबके बाद मेरी नैतिक विजय हुई। भारत के नए बने मुख्य न्यायधीश श्री एसपी भरूचा को सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा की उच्च न्यायपालिका में भी 20 फीसदी भ्रष्टाचार है। जिससे निपटने में मौजूदा कानून नाकाफी है। प्रश्न उठता है कि अगर उच्च न्यायपालिका में 20 फीसदी भ्रष्टाचार है तो भारत की सवा सौ करोड जनता को यह कैसे पता चलेगा कि उसकी किस्मत का फैसला करने वाला न्यायधीश ईमानदार है या भ्रष्ट ? एक भ्रष्ट न्यायधीश किसी दूसरे के आचरण का मूल्यांकन कैसे कर सकता है ?



संसद दोषी न्यायधीश पर महा अभियोग प्रस्ताव लाएगी नहीं। न्यायपालिका अपने भ्रष्ट साथी को सजा नहीं देगी और सच छापने वाले पत्रकारों को जेल जाना पड़ेगा। अगर यही होना है तो भारत सकार को अपने सरकारी दस्तावेजों व संसद भवन की दीवारों से सत्यमेव जयतेहटा कर लिखना चाहिए असत्यमेव जयते।यह गंभीर मुद्दा है। न्यायपालिका को इस पर मंथन करना चाहिए। सर्वमान्य नियम बना कर न्यायधीशों की जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए। इससे न्यापालिका की प्रतिष्ठा बढ़ेगी घटेगी नहीं।

Sunday, September 9, 2007

भ्रष्टाचार कैसे रूके ? केन्द्रीय सतर्कता आयोग की मजबूरियां

सेवानिवृत्त होकर अब तक वही प्रशासनिक अधिकारी मजे मारते थे जो अपने सेवा काल में बड़े औद्योगिक घरानों को फायदा पहुंचाते थे और बाद में उनके सलाहकार बन जाते थे। लेकिन अब जीवन भर ईमानदार रहे अधिकारियों की भी पूछ होगी। यह पहल करने जा रहा है केन्द्रीय सतर्कता आयोग। दरअसल भ्रष्टाचार से सभी त्रस्त हैं। पर हैरान है यह देख कर कि ये घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। लोग सोचते हैं कि सीबीआई है, केन्द्रीय सतर्कता आयोग है फिर भी इस पर अंकुश क्यों नहीं लगता ? सीबीआई केन्द्र की सरकारों के हाथ में अपने विरोधियों को परेशान करने का एक औजार मात्र बन कर रह गई थी। इसीलिए जैन हवाला कांड की सुनवाई के बाद सर्चोच्च न्यायालय ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग के हाथ मजबूत करने का फैसला लिया और एक की बजाए तीन सदस्यों वाले आयोग का गठन कर दिया और सरकार को आदेश दिया कि इस आयोग को पूर्ण स्वायतत्ता प्रदान की जाए।



होता यह आया था कि बड़े अधिकारियों और मंत्रियों आदि के भ्रष्टाचार के मामलों में जांच शुरू करने से पहले सीबीआई को सरकार से अनुमति लेनी होती थी। सरकार वर्षों अनुमति नहीं देती थी। इस तरह भ्रष्ट अधिकारी और मंत्री सरकार के ही संरक्षण में फलते-फूलते रहते थे। विनीत नारायण बनाम भारत सरकारनाम से मशहूर इस मुकद्दमें में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार को स्पष्ट निर्देश दिए कि वह कानून में बदलाव करके इस तरह की अनुमति लेने की बाध्यता को समाप्त कर दे। उस समय इस फैसले को देश के मीडिया ने ऐतिहासिक बता कर प्रमुख खबर बनाया। लोेगों को भी लगा कि अब हालात बदलेंगे। पर जब यह मामला कानून बनाने के लिए संसदीय समिति के पास पहुंचा तो श्री शरद पवार की अध्यक्षता वाली समिति ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का जनाजा निकाल दिया। इसके बाद जो केन्द्रीय सतर्कता आयोग कानूनबना उसमें आयोग की स्वायतत्ता दिखावा मात्र थी। असली नियंत्रण सरकार ने अपने पास ही रखा। जो भी हो आयोग का नया रूप सामने आया और अब इसमें तीन सदस्यों की नियुक्ति होने लगी। इन सदस्यों ने उत्साह से काम करना शुरू किया। जनता ने भी शिकायतों के ढेर लगा दिए। पर फिर जल्दी ही समझ में आया कि आयोग के पास भ्रष्टाचार की जांच करने के लिए समुचित मात्रा में अनुभवी लोग ही नहीं हैं। मौजूदा मुख्य सतर्कता आयुक्त श्री प्रत्यूष सिन्हा और उनके साथी सदस्य श्रीमती रंजना कुमार व श्री सुधीर कुमार ने इस समस्या का हल खोजा और तय किया कि क्यों न सेवानिवृत्त व ईमानदार छवि वाले वरिष्ठ अधिकारियों, बैंक प्रबंधकों व काॅरपोरेट मैंनेजमेंट के अनुभवी लोगों को बुला कर उनसे जांच करवाई जाए। ऐसा प्रस्ताव श्री सिन्हा ने सरकार को भेजा। सरकार कुछ फैसला ले पाती उससे पहले ही अदालत का एक आदेश आ गया कि आयोग को ऐसा करना चाहिए।



वैसे भी इस कानून के 8वें अनुच्छेद के तहत आयोग को अधिकार है कि आवश्यकता अनुसार वह सीधे जांच करवा सकता है। सामान्यतः आयोग यह जांच संबंधित विभाग के मुख्य सतर्कता अधिकारी व सीबीआई के अधिकारियों की मदद से करवाता है। पर यह प्रक्रिया काफी लंबी होती है और अपराधी को जल्दी सजा नहीं मिल पाती। भारत सरकार के विभाग, निगम और सार्वजनिक उपक्रम हर साल लगभग 1 लाख करोड रूपए की खरीदारी करते हैं। ये खरीदारी निविदाएं आमंत्रित करके की जाती हैं। अक्सर इनमें काफी घपले होते हैं। पर आयोग चाह कर भी इनकी जांच नहीं कर पाता। कारण आयोग के पास जांच करवाने के लिए अपने तीन सदस्यों के अलावा तीन सचिव, दो अतिरिक्त सचिव, 16 उप सचिव और लगभग 11 सीडीआई हैं। इनके अलावा मात्र दो चीफ इंजीनियर हैं। बाकी लगभग 250 कर्मचारी और हैं। यह अमला पूरी ताकत लगाने के बाद भी सरकारी खरीद के कुल मामलों में 5 फीसदी मामले भी पकड़ नहीं पाता। उनकी जांच करना तो दूर की बात है। इसलिए इन उपक्रमों में लगे भ्रष्ट लोगों के मन में आयोग का कोई खौफ नहीं। वे जानते हैं कि आयोग के पास इतने साधन ही नहीं कि वह उनके खिलाफ जांच कर सके। इसलिए बेखौफ हो कर काली कमाई में लगे रहते हैं।



श्री सिन्हा का कहना है कि सरकार को चाहिए कि वह यह नियम बना दे कि सौ करोड रूपए सालाना से ज्यादा की खरीदारी करने वाले हर सौदे की जांच का अधिकार आयोग को होगा। फिर आयोग किसी भी सौदे की फाइलें मंगवा सकेगा। इससे निश्चित आयोग का डर बढ़ेगा। आज आयोग के पास गंभीर किस्म के लगभग 200 मामले विचाराधीन हैं पर उनको परखने वालों की कमी है। इसलिए अदालती आदेश के बाद आयोग ने फिलहाल 6 विशेषज्ञांे का पैनल बना लिया है। जिनमें से दो लोग प्रशासकीय अनुभव वाले हैं। दो पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं और दो प्रबंधकीय क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। अब कोई शिकायत आने पर आयोग इन विशेषज्ञों की मौजूदगी में फैसला करता है कि उसे मामले की जांच करनी है या नहीं। पर इससे भी समस्या हल नहीं होती। इसलिए आयोग अपने सलाहकारों का पैनल बड़ा करना चाहता है। जिसमें ईमानदार, अनुभवी व बेदाग लोगों को रखा जाए और उनसे समय-समय पर शिकायतों की जांच करवाई जाए। ऐसे लोगों की सूची आयोग तैयार करना चाहता है जो पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता से हर मामले की जांच करें और इन्हंे सम्मानजनक मानदेय भी दिया जाए।



इसके साथ ही एक सुखद शुरूआत और हुई है। बर्लिन पैक्टनाम से मशहूर एक फैसले ने भ्रष्टाचार को रोकने का नया तरीका ईजाद कर लिया है। अब इसे भारत में भी लागू किया जाने लगा है। इसमें माल देने वाली फर्म और माल खरीदने वाली संस्था जैसे ओएनजीसी दोनों को एक साझे करार पर दस्तखत करने होते हैं। जिसमें दोनों पक्ष घूस न लेने और न देने की घोषणा करते हैं और ट्रांस्पेरेंसी इंटरनेशनल यह ध्यान रखती है कि समझौते की शर्तों का उल्लंघन न हो। आयोग इस परंपरा को आगे बढाना चाहता है।



सरकार को चाहिए कि वह आयोग को बाहर से विशेषज्ञ बुला कर जांच करवाने की अनुमति प्रदान करें और आयोग को चाहिए कि वह ऐसे विशेषज्ञों के चयन की प्रक्रिया को इतना पारदर्शी बनाए कि देश भर से सच्चे, ईमानदार, अनुभवी व कार्यकुशल लोग आयोग की मदद के लिए सामने आ सके। उनके अनुभव का फायदा उठा कर आयोग बड़े स्तर के भ्रष्टाचार की जांच इनसे करवा सकता है। यह एक अच्छी पहल होगी। फिर भी अगर सरकार आयोग को यह अनुमति नहीं देती है तो यही मानना पड़ेगा कि सरकार नहीं चाहती की भ्रष्टाचार पर अकुंश लगे। तब यह देश के लिए दुःखद स्थिति होगी।

Saturday, September 1, 2007

किसानों की किसे परवाह है ?

 Rajasthan Patrika 01-09-2007
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्री मोंटेकसिंह अहलुवालिया और कांग्रेस के प्रखर नेता व पंचायतराज मंत्री श्री मणि शंकर अय्यर सभी एक स्वर से कहते हैं कि आजादी के बाद कृषि की और किसानों की उपेक्षा की गई है। वहीं दूसरी ओर योजना आयोग किसानों की भागीदारी को 54 प्रतिशत से घटा कर 6 प्रतिशत पर लाना चाहता है। यदि ऐसा हुआ तो 70 करोड़ किसान बेरोजगार हो जाएंगे। पहले से ही बेराजगारी की मार झेल रही सरकार इन करोड़ों बेरोजगार किसानों को कहाँ ले जाएगी, यह बात समझ से परे है। जब देश के लगभग एक लाख किसानांे ने आत्महत्या की तो प्रधानमंत्री ने उन्हें आर्थिक पैकेज दिया लेकिन इस पैकेज के बाद भी देश में किसानों की आत्महत्याएं कम नहीं हुई हैं। अब भी देश में प्रतिदिन औसतन 14 किसान आत्महत्या कर रहे हैं।

आश्चर्य है कि किसानों के वोटों के सहारे संसद में पहुंचने वाले सांसद या बड़े-बड़े राजनैतिक दल कोई भी किसानों की बर्बादी के खिलाफ जोर-शोर से आवाज नहीं उठा रहा है। सरकार के पास खेती, किसानी और किसान के साथ ही गांवों की जिंदगी को बचाने के लिए आखिर क्या दृष्टि है ? क्या सरकार ठेका खेती, निगमित खेती, जींन्स संशोधित बीजों के आधार पर ही खेती करवाना चाहती है ? ऐसी खेती से तो योजना आयोग, विश्व बैंक या डब्ल्यूटीओ सब में सामंजस्य हो जाएगा। सरकार भी खुश और बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी खुश। लेकिन किसान नहीं बचेगा। खेती नहीं बचेगी। कुल मिला कर भारत सरकार चाहती है कि यूरोप और अमेरिका की तरह खेती किसान नहीं मल्टीनेशनल कंपनियां करें। सरकार ये भूल जाती है कि भारत में किसानों के लिए खेती न केवल जीवकोपार्जन का साधन हैं बल्कि जीने का एक तरीका भी है। भारतीय कृषि व्यवस्था में खेती, किसान, उसका परिवार, उसके मवेशी, उसका समाज, उसका परिवेश व उसका पर्यावरण सभी आपस में गंुथे रहते हैं। सब एक दूसरे पर निर्भर हैं। एक दूसरे के बिना जी नहीं सकते। इतना ही नहीं देश के धार्मिक रीति-रिवाज, उत्सव और त्यौहार भी खेती के वार्षिक क्रम से ही जुड़े हैं।

मल्टीनेशनल कंपनियों के हित को ध्यान में रख कर बनाई गई नीतियों से इन कंपनियों को मोटा लाभ तो दिया जा सकता है, लेकिन खेती को नहीं बचाया जा सकता। दुनियां में जींस संशोधित खेती के खतरों पर जो शोध हुआ है उससे यह स्पष्ट हैं कि पर्यावरण व स्वास्थ्य पर इसका विपरीत असर पड़ता है। यही वजह है कि रासायनिक उर्वरकों के निर्माता अमेरिका व यूरोप में भी जैविक उत्पाद, रसायन उत्पादों की तुलना में डेढ गुने महंगे बिक रहे हैं। लोग स्वस्थ्य रहने के लिए और आने वाली पीढियों को बचाने के लिए जैविक उत्पाद ही खरीदना पसंद करते हैं। भारत की खेती तो परंपरागत रूप से ही जैविक थी। कहा गया अधिक से अधिक रासायनिक खाद डालो, कीटनाशक डालो तो फायदा होगा। हुआ इसका उल्टा ही, अब यह स्थिति आ गई है कि अनाज और सब्जियों के माध्यम से धीरे-धीरे जो रासायनिक जहर हमारे शरीर में पहंुच रहा हैं वह कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों को बढा रहा है। शोध ने सब कुछ साबित कर दिया है लेकिन हुक्मरान थोड़े से लाभ के लालच में आंख मूंदे बैंठे है। कहावत है कि बिल्ली को देख कर कबूतर आंख बंद कर लेता है, पर क्या आंख बंद करने से देश का किसान व खेती बच सकती है ?

यह बड़े दुःख और चिंता की बात है कि भारत सरकार अपनी नीति से देश के करोडों किसानों की जिंदगी बर्बाद करने जा रही है। इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि कोई भी राजनैतिक दल इसका मुखर विरोध नहीं कर रहा है। लगता है कि शहरी मानसिकता ने राजनैतिक नेतृत्व को गांवों के प्रति संवेदनाशून्य बना दिया है। गांव उजड़ें तो उजड़ जाएं, कृषि बर्बाद हो तो हो जाए पर हित दूसरों के साधे जाएंग,े अपनों के नहीं। इससे भी आश्चर्य की बात यह है कि चाहे पंजाब के किसान संगठन हों, भारतीय किसान यूनियन हो, कर्नाटक का रैयतबाड़ी संघ हो या महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन कोई भी किसानों के ऊपर मंडरा रहे खतरों के बादलों को देख नहीं पा रहा है। कोई राष्ट्रव्यापी आंदोलन नहीं खड़ा हो रहा है। मध्य प्रदेश की किसान संगठन समिति के संस्थापक अध्यक्ष डा. सुनीलम का आरोप है कि राजनेता और बुद्धिजीवी शहर केन्द्रित हो गए हैं और गांवों की सोचना भी नहीं चाहते। आज अमेरिका से परमाणु संधि पर तो देश में इतना शोर मच रहा है। पर देश के कृषि क्षेत्र में अमेरिकी घुसपैंठ से हम सब काफी अनजान हैं। देश के कृषि क्षेत्र पर कब्जा करके अमेरिका नव-साम्राज्यवाद का विस्तार करना चाहता है। ऐसा लगता है कि अमेरिका को जहां-जहां संसाधन दिखाई देते हैं वहीं-वहीं वह अपनी छुपी रणनीति के तहत काम कर रहा है।

भारत की पूरी खेती ‘इंडो यूएस नाॅलेज इनिशिएटिव’ के नाम पर शहीद की जा रही है। कृषि शोध संस्थानों, भारत के कृषि विश्वविद्यालयों और भारत की कृषि की दिशा को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले छोड़े जाने की साजिश की जा रही है। इसी कार्यक्रम के तहत अमेरिका के साथ हो रहे कृषि समझौते की दिशा को तय करने के लिए बनें बोर्ड में देश के वैज्ञानिकों को न रख कर कारगिल और मोनसेंटों जैसी दुर्दान्त कंपनियों के प्रतिनिधियों को रखा गया है। इस देश के कृषि वैज्ञानिकों के योगदान की यह अनोखी उपेक्षा किसी और विकासशील देश में शायद ही देखने को मिले। देश के कृषि वैज्ञानिकों ने देश को खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर बनाया था। पर जब कृषि योग्य भूमि व उससे जुड़े अनेक पहलुओं पर समझौते हो रहे हैं तो बोर्ड में देश के वैज्ञानिकों के स्थान पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को रखा जाना, देश के हुक्मरानों की कैसी नीति है ? जनता को भी यह सवाल करना चाहिए कि क्या भारत के कृषि वैज्ञानिकों पर भारत सरकार का भरोसा पूरी तरह से समाप्त हो गया है? सरकार यह कह सकती है कि पहली हरित क्रांति के पक्ष में तो आप थे तो अब दूसरी हरित क्रांति का विरोध क्यों कर रहे हैं ? दरअसल दोनों में अंतर है।

विरोध इसलिए कि तब कृषि वैज्ञानिकों ने भारत के किसानों को तकनीकी सांैपी थी। अब तकनीकी का पेंटेंट कंपनियों के पास हैं, जिससे वे अधिकतम मुनाफा कमाना चाहती हैं। अमेरिका के साथ हो रही परमाणु संधि की चर्चा तो बहुत हुई लेकिन कृषि समझौता सुनियोजित तौर पर दबा दिया गया है। जबकि परमाणु संधि की तरह ही सरकार की यह पहल भी राष्ट्रीय सुरक्षा की तरह ही खाद्य सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है। आखिरकार सरकार सब कुछ क्यों इन कंपनियों को सौपना चाहती हैं ? पहले पीने का पानी, फिर बीज और अब किसानों की जमीनें भी कंपनियांे को सौपी जा रही हैं। कृषि उपयोगी भूमि का कंपनियों को हस्तांतरण किसी भी हालत में रोका जाना चाहिए। किसानों की यदि 100 एकड़ जमीन कंपनी को दी जाती है तो उसमें से 25 एकड भी कंपनी वास्तविक उपयोग में नहीं लाती। यह पूरा रीयल स्टेट बिजनेस बन गया है। इसलिए किसान चिंतित और उत्तेजित हैं। सोचने वाली बात है कि देश का किसान अपनी कुर्बानी देकर भी एसईजेड का विरोध क्यों कर रहा है ? जिन देशों को हम आज विकसित राष्ट्र कहते हैं उनमें भी एसईजेड के माध्यम से तरक्की नहीं हुई। हमारी सरकार 2 लाख करोड़ रू. की सब्सिडी कंपनियों को दे रही है। पर खेती के लिए 50 हजार करोड सब्सिडी की बात आती है तो देश के वित्तमंत्री कहते हैं कि संसाधन कहां से आएगा। इच्छा शक्ति होने पर संसाधन जुटाए जाते हैं, जुटाए गए हैं लेकिन केन्द्र सरकारों की पूरी प्राथमिकता आजादी के बाद शहरों और उद्योगों के लिए रही। गांवों को आत्मनिर्भर बनाने का गांधी का रास्ता अगर अपनाया गया होता तो नतीजा आज किसानों की आत्म हत्या के रूप में नहीं बल्कि कुछ अलग ही होता। गांधी की विरासत का झंडा लेकर चलने वाली सरकार को तो इस पूरे मामले पर खुले दिमाग से फिर से सोचना चाहिए। कृषि सुधरे पर किसानों को बर्बाद करके नहीं, उन्हें खुशहाल बना कर, वरना गांव उजड़ेंगे, शहरों पर बोझ बढेगा, हिंसा बढेगी और देश में अराजकता फैलेगी।