Sunday, September 30, 2007

सत्यमेव जयते फिर न्यायपालिका को सच से परहेज क्यों है ?

मुंबई मिड-डे के चार पत्रकारों को अदालत की अवमानना के मामले में चार महीने की जेल की सजा सुनाई गई है। देश के कई मशहूर समाजसेवी व बुद्धिजीवी इन पत्रकारों के समर्थन में सर्वोच्च अदालत गए हैं। इन पत्रकारों की गलती यह है कि इन्होंने भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति श्री वाईके सब्बरवाल के पुत्रों को लेकर एक ऐसी रिपोर्ट छापी जिससे यह संकेत मिलते हैं कि न्यायमूर्ति सब्बरवाल द्वारा दिल्ली में करवाई गई सीलिंग व भारी तोड़फोड के पीछे उनके व्यावसायिक स्वार्थ थे। इस संदर्भ में ये पत्रकार किसी भी जांच एजेंसी के सामने सबूत प्रस्तुत करने को भी तैयार हैं। पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने उनकी बात अनसुनी कर उन्हें अदालत की अवमानना की सजा सुनाई है। सीलिंग के मामले में अदालत के रवैए से दिल्ली पहले ही भड़की हुई थी। अब ऐसी बात सामने आई है जिससे जनता का आक्रोश फूटना स्वाभाविक है। ऐसे संगीन आरोप सामने आने के बाद भी अगर अदालत उनकी जांच नहीं करवाती और दोषी न्यायधीश को सजा देने की बजाए सच्चाई उजागर करने वाले को ही अगर सजा देती हैं तो अदालत की विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा प्रश्नचिंह खड़ा हो जाएगा। आजाद भारत ने उपनिषद् के मंत्र सत्यमेव जयतेको अपने शासन का आधार बनाया है जिसका अर्थ है कि हर हालत में सत्यकी ही विजय होगी। फिर अदालतों का ऐसा रवैया क्यों होगा है कि वे सच को भी डिफेंस नहीं मानती।



अदालत की अवमानना कानून में साफ लिखा है कि यदि कोई व्यक्ति अदालती कार्यवाही में विघ्न पैदा करता है या उसको प्रभावित करने की कोशिश करता है या अदालत की गरिमा को हानी पहुंचाता है तो उस पर अदालत की अवमानना कानून के तहत मुकद्दमा चलाया जा सकता है और उसे सजा दी जा सकती है। पर जब कोई न्यायधीश अनैतिक या भ्रष्ट आचरण करे और उसका खुलासा प्रमाण सहित कोई वकील या पत्रकार करे तो इसे अदालत की अवमानना कैसे माना जा सकता है ? लोकतंत्र में विधायिका की जवाबदेही मतदाताओं के प्रति होती है। कार्यपालिका की जवाबदेही अपने राजनैतिक आकाओं के प्रति होती है और मीडिया की जवादेही जनता के प्रति होती है। इस तरह लोकतंत्र के तीनों स्तंभों की जवाबदेही सुनिश्चित की गई है। पर चैथे स्तंभ न्यायपालिका की जवाबदेही अभी तक किसी के प्रति नहीं है। दरअसल संविधान के निर्माताओं ने न्यायधीशों को भगवान के समान माना था। उनसे नापाक चाल-चलन की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। इसीलिए उन्हें अदालतों में मी लाॅर्ड’! कह कर संबोधित किया जाता है। पर सच्चाई यह है कि जो न्यायधीश बनते हैं वो किसी देव लोक से अवतरित नहीं होते। इसी लोक से हैं और उनके लिए समाज के प्रभाव से मुक्त रह पाना संभव नहीं है। इसलिए वे भी अक्सर वही गलतियां कर जाते हैं जो समाज के दूसरे वर्ग करते हैं। पर यहां यह भेद स्पष्ट हो जाना चाहिए कि किसी जज के अनैतिक आचरण को उजागर करने का अर्थ न्यायपालिका की अवमानना नहीं है। वह तो अधिक से अधिक संबंधित न्यायधीश की मानहानी मानी जाएगी। जिसके लिए वह न्यायधीश मौजूदा कानून के तहत मुकद्दमा चलाने को स्वतंत्र हैं। व्यक्तिगत दुराचरण को अदालत की अवमानना कानून से छिपाना न्यायपालिका की विश्वसनीयता को पूरी तरह से समाप्त कर सकता है। इसलिए अदालत की अवमानना कानून में वांछित संशोधन करके यह व्यवस्था बनानी चाहिए कि दोषी न्यायधीशों की जांच हो और उन्हें सजा भी मिले। वरना सत्य मेव जयते का क्या अर्थ रह जाएगा ? आश्चर्य की बात यह है कि आए दिन अदालत से फटकार खाने के बावजूद हमारे नेता व सांसद इस कानून में कोई सुधार करने को तैयार नहीं हैं। कुछ बड़े नेताओं ने तो साफ कहा कि वे इतने मामलों में फंसे हैं कि न्यायपालिका से भिड़ेंगे तो उसका बुरा परिणाम भोगेंगे।



यह पहली दफा नहीं है जब सर्वोच्च न्यापालिका पर उंगली उठी है। 1997 से 2001 तक मैंने भारत के तीन  मुख्य न्यायधीशों के घोटाले व अनैतिक कार्यों के प्रमाण उनके कार्यकाल में ही अपने टेबलाॅइड कालचक्रमें प्रकाशित किए थी। जिन पर देश में काफी विवाद हुआ और तत्कालीन कानून मंत्री श्री राम जेठमलानी को इस्तीफा भी देना पड़ा। मुझ पर अदालत की अवमानना का मुकद्दमा सर्वोच्च न्यायालय में नहीं बल्कि आतंकवाद से ग्रस्त कश्मीर की घाटी में चलाया गया। मुझे जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में इस मुकद्दमें के दौरान श्रीनगर में ही रहने के आदेश दिए गए। जब मैं वहां नहीं गया तो मुझे भगोड़ा अपराधी घोषित कर दिया गया। जम्मू पुलिस मुझे रोज गिरफ्तार करने आने लगी। डेढ वर्ष तक मैंने देश में जगह-जगह भूमिगत रह कर अदालत की अवमानना कानून में संशोधन की मांग जनसभाओं में उठाई। इससे पहले की पुलिस वहां पहुंचती मैं दूसरे शहर निकल जाता था। पर न तो कोई बड़ा वकील मेरे समर्थन में खड़ा हुआ और न कोई नामी पत्रकार और न कोई बड़ा समाजसेवी। सबको लगा कि पदासीन मुख्य न्यायधीश के मामले में बोल कर कहीं उन्हें जेल न जाना पडे़। आखिर मुझे जान बचाने के लिए देश छोड कर भागना पड़ा। लंदन और न्यूयार्क में पूरी दुनिया के पत्रकार संगठनों का मुझे भरपूर समर्थन मिला। बीबीसी और सीएनएन जैसे बड़े टीवी चैनलों ने मेरे साक्षात्कारों का सीधा प्रसारण उन देशों से किया। इस सबके बाद मेरी नैतिक विजय हुई। भारत के नए बने मुख्य न्यायधीश श्री एसपी भरूचा को सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा की उच्च न्यायपालिका में भी 20 फीसदी भ्रष्टाचार है। जिससे निपटने में मौजूदा कानून नाकाफी है। प्रश्न उठता है कि अगर उच्च न्यायपालिका में 20 फीसदी भ्रष्टाचार है तो भारत की सवा सौ करोड जनता को यह कैसे पता चलेगा कि उसकी किस्मत का फैसला करने वाला न्यायधीश ईमानदार है या भ्रष्ट ? एक भ्रष्ट न्यायधीश किसी दूसरे के आचरण का मूल्यांकन कैसे कर सकता है ?



संसद दोषी न्यायधीश पर महा अभियोग प्रस्ताव लाएगी नहीं। न्यायपालिका अपने भ्रष्ट साथी को सजा नहीं देगी और सच छापने वाले पत्रकारों को जेल जाना पड़ेगा। अगर यही होना है तो भारत सकार को अपने सरकारी दस्तावेजों व संसद भवन की दीवारों से सत्यमेव जयतेहटा कर लिखना चाहिए असत्यमेव जयते।यह गंभीर मुद्दा है। न्यायपालिका को इस पर मंथन करना चाहिए। सर्वमान्य नियम बना कर न्यायधीशों की जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए। इससे न्यापालिका की प्रतिष्ठा बढ़ेगी घटेगी नहीं।

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