Saturday, September 1, 2007

किसानों की किसे परवाह है ?

 Rajasthan Patrika 01-09-2007
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्री मोंटेकसिंह अहलुवालिया और कांग्रेस के प्रखर नेता व पंचायतराज मंत्री श्री मणि शंकर अय्यर सभी एक स्वर से कहते हैं कि आजादी के बाद कृषि की और किसानों की उपेक्षा की गई है। वहीं दूसरी ओर योजना आयोग किसानों की भागीदारी को 54 प्रतिशत से घटा कर 6 प्रतिशत पर लाना चाहता है। यदि ऐसा हुआ तो 70 करोड़ किसान बेरोजगार हो जाएंगे। पहले से ही बेराजगारी की मार झेल रही सरकार इन करोड़ों बेरोजगार किसानों को कहाँ ले जाएगी, यह बात समझ से परे है। जब देश के लगभग एक लाख किसानांे ने आत्महत्या की तो प्रधानमंत्री ने उन्हें आर्थिक पैकेज दिया लेकिन इस पैकेज के बाद भी देश में किसानों की आत्महत्याएं कम नहीं हुई हैं। अब भी देश में प्रतिदिन औसतन 14 किसान आत्महत्या कर रहे हैं।

आश्चर्य है कि किसानों के वोटों के सहारे संसद में पहुंचने वाले सांसद या बड़े-बड़े राजनैतिक दल कोई भी किसानों की बर्बादी के खिलाफ जोर-शोर से आवाज नहीं उठा रहा है। सरकार के पास खेती, किसानी और किसान के साथ ही गांवों की जिंदगी को बचाने के लिए आखिर क्या दृष्टि है ? क्या सरकार ठेका खेती, निगमित खेती, जींन्स संशोधित बीजों के आधार पर ही खेती करवाना चाहती है ? ऐसी खेती से तो योजना आयोग, विश्व बैंक या डब्ल्यूटीओ सब में सामंजस्य हो जाएगा। सरकार भी खुश और बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी खुश। लेकिन किसान नहीं बचेगा। खेती नहीं बचेगी। कुल मिला कर भारत सरकार चाहती है कि यूरोप और अमेरिका की तरह खेती किसान नहीं मल्टीनेशनल कंपनियां करें। सरकार ये भूल जाती है कि भारत में किसानों के लिए खेती न केवल जीवकोपार्जन का साधन हैं बल्कि जीने का एक तरीका भी है। भारतीय कृषि व्यवस्था में खेती, किसान, उसका परिवार, उसके मवेशी, उसका समाज, उसका परिवेश व उसका पर्यावरण सभी आपस में गंुथे रहते हैं। सब एक दूसरे पर निर्भर हैं। एक दूसरे के बिना जी नहीं सकते। इतना ही नहीं देश के धार्मिक रीति-रिवाज, उत्सव और त्यौहार भी खेती के वार्षिक क्रम से ही जुड़े हैं।

मल्टीनेशनल कंपनियों के हित को ध्यान में रख कर बनाई गई नीतियों से इन कंपनियों को मोटा लाभ तो दिया जा सकता है, लेकिन खेती को नहीं बचाया जा सकता। दुनियां में जींस संशोधित खेती के खतरों पर जो शोध हुआ है उससे यह स्पष्ट हैं कि पर्यावरण व स्वास्थ्य पर इसका विपरीत असर पड़ता है। यही वजह है कि रासायनिक उर्वरकों के निर्माता अमेरिका व यूरोप में भी जैविक उत्पाद, रसायन उत्पादों की तुलना में डेढ गुने महंगे बिक रहे हैं। लोग स्वस्थ्य रहने के लिए और आने वाली पीढियों को बचाने के लिए जैविक उत्पाद ही खरीदना पसंद करते हैं। भारत की खेती तो परंपरागत रूप से ही जैविक थी। कहा गया अधिक से अधिक रासायनिक खाद डालो, कीटनाशक डालो तो फायदा होगा। हुआ इसका उल्टा ही, अब यह स्थिति आ गई है कि अनाज और सब्जियों के माध्यम से धीरे-धीरे जो रासायनिक जहर हमारे शरीर में पहंुच रहा हैं वह कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों को बढा रहा है। शोध ने सब कुछ साबित कर दिया है लेकिन हुक्मरान थोड़े से लाभ के लालच में आंख मूंदे बैंठे है। कहावत है कि बिल्ली को देख कर कबूतर आंख बंद कर लेता है, पर क्या आंख बंद करने से देश का किसान व खेती बच सकती है ?

यह बड़े दुःख और चिंता की बात है कि भारत सरकार अपनी नीति से देश के करोडों किसानों की जिंदगी बर्बाद करने जा रही है। इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि कोई भी राजनैतिक दल इसका मुखर विरोध नहीं कर रहा है। लगता है कि शहरी मानसिकता ने राजनैतिक नेतृत्व को गांवों के प्रति संवेदनाशून्य बना दिया है। गांव उजड़ें तो उजड़ जाएं, कृषि बर्बाद हो तो हो जाए पर हित दूसरों के साधे जाएंग,े अपनों के नहीं। इससे भी आश्चर्य की बात यह है कि चाहे पंजाब के किसान संगठन हों, भारतीय किसान यूनियन हो, कर्नाटक का रैयतबाड़ी संघ हो या महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन कोई भी किसानों के ऊपर मंडरा रहे खतरों के बादलों को देख नहीं पा रहा है। कोई राष्ट्रव्यापी आंदोलन नहीं खड़ा हो रहा है। मध्य प्रदेश की किसान संगठन समिति के संस्थापक अध्यक्ष डा. सुनीलम का आरोप है कि राजनेता और बुद्धिजीवी शहर केन्द्रित हो गए हैं और गांवों की सोचना भी नहीं चाहते। आज अमेरिका से परमाणु संधि पर तो देश में इतना शोर मच रहा है। पर देश के कृषि क्षेत्र में अमेरिकी घुसपैंठ से हम सब काफी अनजान हैं। देश के कृषि क्षेत्र पर कब्जा करके अमेरिका नव-साम्राज्यवाद का विस्तार करना चाहता है। ऐसा लगता है कि अमेरिका को जहां-जहां संसाधन दिखाई देते हैं वहीं-वहीं वह अपनी छुपी रणनीति के तहत काम कर रहा है।

भारत की पूरी खेती ‘इंडो यूएस नाॅलेज इनिशिएटिव’ के नाम पर शहीद की जा रही है। कृषि शोध संस्थानों, भारत के कृषि विश्वविद्यालयों और भारत की कृषि की दिशा को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले छोड़े जाने की साजिश की जा रही है। इसी कार्यक्रम के तहत अमेरिका के साथ हो रहे कृषि समझौते की दिशा को तय करने के लिए बनें बोर्ड में देश के वैज्ञानिकों को न रख कर कारगिल और मोनसेंटों जैसी दुर्दान्त कंपनियों के प्रतिनिधियों को रखा गया है। इस देश के कृषि वैज्ञानिकों के योगदान की यह अनोखी उपेक्षा किसी और विकासशील देश में शायद ही देखने को मिले। देश के कृषि वैज्ञानिकों ने देश को खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर बनाया था। पर जब कृषि योग्य भूमि व उससे जुड़े अनेक पहलुओं पर समझौते हो रहे हैं तो बोर्ड में देश के वैज्ञानिकों के स्थान पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को रखा जाना, देश के हुक्मरानों की कैसी नीति है ? जनता को भी यह सवाल करना चाहिए कि क्या भारत के कृषि वैज्ञानिकों पर भारत सरकार का भरोसा पूरी तरह से समाप्त हो गया है? सरकार यह कह सकती है कि पहली हरित क्रांति के पक्ष में तो आप थे तो अब दूसरी हरित क्रांति का विरोध क्यों कर रहे हैं ? दरअसल दोनों में अंतर है।

विरोध इसलिए कि तब कृषि वैज्ञानिकों ने भारत के किसानों को तकनीकी सांैपी थी। अब तकनीकी का पेंटेंट कंपनियों के पास हैं, जिससे वे अधिकतम मुनाफा कमाना चाहती हैं। अमेरिका के साथ हो रही परमाणु संधि की चर्चा तो बहुत हुई लेकिन कृषि समझौता सुनियोजित तौर पर दबा दिया गया है। जबकि परमाणु संधि की तरह ही सरकार की यह पहल भी राष्ट्रीय सुरक्षा की तरह ही खाद्य सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है। आखिरकार सरकार सब कुछ क्यों इन कंपनियों को सौपना चाहती हैं ? पहले पीने का पानी, फिर बीज और अब किसानों की जमीनें भी कंपनियांे को सौपी जा रही हैं। कृषि उपयोगी भूमि का कंपनियों को हस्तांतरण किसी भी हालत में रोका जाना चाहिए। किसानों की यदि 100 एकड़ जमीन कंपनी को दी जाती है तो उसमें से 25 एकड भी कंपनी वास्तविक उपयोग में नहीं लाती। यह पूरा रीयल स्टेट बिजनेस बन गया है। इसलिए किसान चिंतित और उत्तेजित हैं। सोचने वाली बात है कि देश का किसान अपनी कुर्बानी देकर भी एसईजेड का विरोध क्यों कर रहा है ? जिन देशों को हम आज विकसित राष्ट्र कहते हैं उनमें भी एसईजेड के माध्यम से तरक्की नहीं हुई। हमारी सरकार 2 लाख करोड़ रू. की सब्सिडी कंपनियों को दे रही है। पर खेती के लिए 50 हजार करोड सब्सिडी की बात आती है तो देश के वित्तमंत्री कहते हैं कि संसाधन कहां से आएगा। इच्छा शक्ति होने पर संसाधन जुटाए जाते हैं, जुटाए गए हैं लेकिन केन्द्र सरकारों की पूरी प्राथमिकता आजादी के बाद शहरों और उद्योगों के लिए रही। गांवों को आत्मनिर्भर बनाने का गांधी का रास्ता अगर अपनाया गया होता तो नतीजा आज किसानों की आत्म हत्या के रूप में नहीं बल्कि कुछ अलग ही होता। गांधी की विरासत का झंडा लेकर चलने वाली सरकार को तो इस पूरे मामले पर खुले दिमाग से फिर से सोचना चाहिए। कृषि सुधरे पर किसानों को बर्बाद करके नहीं, उन्हें खुशहाल बना कर, वरना गांव उजड़ेंगे, शहरों पर बोझ बढेगा, हिंसा बढेगी और देश में अराजकता फैलेगी।

No comments:

Post a Comment