Sunday, October 14, 2007

परमाणु सन्धि का विकल्प मौजूद हैं सरकार क्यों नहीं सोचती इस ओर

Rajasthan Patrika 14-10-2007
1 लाख 35 हजार मेगावाट की उत्पादन क्षमता के बावजूद देश भीषण उर्जा संकट से गुजर रहा है। यsह तो तब है जबकि देश में प्रति व्यsक्ति बिजली खपत मात्र 631 यूनिट है। दुनियk के दूसरे उन्नत देशों के प्रति व्यक्ति उपभोग के स्तर से तुलना करें तो देश का ऊर्जा संकट किसी सुरसा से कम नहीं दिखाई देता। मसलन कनाडा की प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत है 17179, अमरीका की 13338, अमरीका की 13338 इटली की 5644 व चीन की प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत है। 1470 ।ऐसे में विकास की पश्चिमी अवधारणा से पूर्णतय अभिभूत प्रधानमंत्रh श्री मनमोहन सिंह की चिंता वाजिब ही है। चिंता चिता की अग्नि से भी ज्यkदा भयवह होती है.देश को मुद्रा संकट से उबारने वाले श्री सिंह आज देश को ऊर्जा संकट से निकालने की मंशा रखते हैं। उनकी मंशा पर किसी को लेशमात्र भी संशय नहीं हो सकता परन्तु उस मंशा को अमली जामा पहनाने के उनके तरीके से लोगों में बेचैनी है। यह बेचैनी इस स्तर तक पहु¡च चुकी है कि मध्यवधि चुनाव तक की नौबत आ चुकी है। बेचैनी का राजनैतिक गणित चाहे जो कुछ भी हो परन्तु वह राष्ट्रहित का सुरक्षा कवच बनी हुई है।



प्रधानमंत्रh नाभिकीय ऊर्जा के वर्तमान उत्पादन स्तर 4120 मेगावाट को सन 2020 तक 40000 मेगावाट तक पहु¡चा देना चाहते हैं। इस 4120 मेगावाट क्षमता में से 2180 मेगावाट का विकास पिछले 7 सालों में हुआ है और दिसम्बर 2008 तक 2660 मेगावाट की अतिरिक्त क्षमता विकसित हो जाएगी। संतोष की बात यह है कि परमाणु ऊर्जा का  यह समूचा विकास भारतीय नाभिकीय कायर्क्रम के जनक डा¡ होमी जहा¡गीर भाभा की  दूर दृष्टि से  प्रभावित रही परमाणु नीति के तहत हुआ है। डा. भाभा को पता था कि  भारत में यwरेनियम का सीमित भण्डार है। इसलिए यूरेनियम पर आधारित तकनीकी से नाभकीय ऊर्जा का उत्पादन मंहगा पड़ेगा। इतना ही नहीं हमारी निभर्रता दूसरे देषो पर बढ़ती जाएगी। जबकि भारत में थोरियम का विशाल भण्डार हैं। जिसके मद्देनजर अगर नाभिकीय ऊर्जा का उत्पादन थोरियम के ब्रीडर रिएक्टर की तकनीकी से होता है तो भारत नाभिकीय ऊर्जा के मामले में आप निर्भर हो जाएगा। उनकी  यह रणनीति देश की ऊर्जा सुरक्षा के लिए अहम रही है।



रहीम जी का एक दोहा बहुत मषूहर है कि रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे मोती मानस चून आज से करीब 500 वर्ष पूर्व रचे गए इस दोहे में पानी के स्थान पर यदि बिजली शब्द डाल दियk जाए तो दोहा और अधिक प्रासंगिक हो उठेगा। इसका अंदाजा इसी बात से लगायk जा सकता है कि पानी की आपूर्ति भी बिजली की उपलब्धता पर ही निर्भर हो चुकी है। वर्तमान अर्थव्यवस्था में पानी के बगैर तो एक बार जीवन की कल्पना की भी जा सकती है परन्तु बिजली का एक पल का भी अभाव समूची व्यवस्था को चरमरा देने की ताकत रखता है। भारत में ऊर्जा की जरूरत जिस तेजी से बढ रही है उससे भारत की ही कई निजी कंपनियां नाभकीय ऊर्जा के उत्पादन को उत्सुक बैठी हैं। नाभिकीय रियsक्टरों के विविध आयkमों के विकास हेतु भारतीय कम्पनियks के पास पयkZIr कौशल भी मौजूद है। निजी क्षेत्र की कम्पनियks जैसे टाटा पावर रिलांयस एनर्जी एस्सार xqzi व जीएमआर ग्रुप  नाभिकीय ऊर्जा संयU= लगाने को तत्पर हैं। गौरतलब यह है कि जब स्वदेशी संसाधनों के बूते पर पिछले 8 वर्षों में 4840 मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता का विकास कियk जा सकता है तो क्यk आगामी 12 वर्षों में 40000 मेगावाट क्षमता का विकास सम्भव नहीं है \ क्यk भारतीय वैज्ञानिक,  इंजीनियjk औद्यौगिक घराने देष में हुई दूर संचार क्रांति की भा¡ति नाभिकीय ऊर्जा क्रkfUr को गति नहीं दे सकते+ \



दरसल असली बात कुछ और है। सामरिक हितों का निर्धारण सदा से आर्थिक हिsतों के आधार पर ही होता आयk है। भारतीय नाभिकीय कायZdze  पर लगे 33 वर्ष पुराने प्रतिबंध को आज यfn अमरीका ढील दे रहा है तो उसे अगले 3 दशकों में 150 अरब डा¡लर का भारतीय परमाणु ऊर्जा बाजार दिखाई पड रहा है। सन्धि के प्रभाव में आने के साथ ही 14 अरब डाWलर के सौदों के लिए अरीवा, जनरल इलैक्ट्रिक, वेस्टिंग हाउस और रोसाटम जैसी बहुरा’Vªh;  कम्पनिय्ंks में होड लगी हुई है।

आर्थिक विकास के लिए सन्धिय और समझkSrs तो जरूरी होते हैं। परन्तु उसमें दोनों पक्षों के लिए मोल भाव का पूरा मौका रहता है। आज भारत के लिए परमाणु बाजार खोलना अमरीका की आर्थिक मजबूरी है। ऐसे में भारत को कोई भी समझkSrk  अपनी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप करना चाहिए।  पिछले 4 दशकों से भारत का परमाणु ऊर्जा कायZक्रम सुचारू रूप से चल ही रहा है। कुछ नीतिगत परिवर्तनों की आव”;drk अवश्यd है जिससे नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में भी टेलीका¡म की तरह तेजी आ सके। आत्मनिर्भरता के ठोस आधार पर हम बेहतर निर्णय ले पाए¡गे।



Tkgk¡ तक ऊर्जा संकट का प्रश्न है तो उसके लिए अन्य वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के विकास का पयkZIr अनुभव व दक्षता हमारे पास मौजूद है। ऊर्जा संकट को धुरी बना एकपक्षीय नाभिकीय सन्धि करने की जल्दी यk मजबूरी भारत की बिलकुल नहीं है।



ऊर्जा के पश्चिमी उपभोग स्तरों को मानदण्ड मानकर भारतीय  vFkZO;oLFkk के विकास का खा¡pk  तैयkर करना तो चार्वाकीय ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत वाले न्यk; से एक मूर्खतापूर्ण अभिप्राय होगा। राष्ट्रपिता की 139वीं  वर्षगा¡ठ हाल ही मना चुके राष्ट्र के कर्णधारों को भारतीय विकास की अवधारणा पर एक बार फिर चिन्तन करने की आवश्यdrk है। पाश्चात्यk भोगवादी दृष्टिकोण से भारत की  leL;k,¡ सुलझsxh नहीं वरन और अधिक जटिल होती चली जाए¡गी।    

No comments:

Post a Comment