सरकार न बनाने का केजरीवाल
जो भी कारण बतायें या सरकार बनाने कि जो भी शर्तें रखें, एक बात तो साफ़ दीख रही है
कि उनकी टीम ज़िम्मेदारी लेने से भाग रही है | दरअसल किसी कि आलोचना करना और उस पर
ऊँगली उठाना सबसे सरल काम है | पर कुछ करके दिखाना बहुत मुश्किल होता है | ऊँगली
उठाने वाले को केवल सामने वाले कि गलतियाँ ढूंढने का हुनर आना चाहिये, फिर वो टीवी
चैनल पर शोर मचा सकता है, अख़बारों में लेख लिख सकता है और मौहल्लों कि जन सभाओं
में जा कर ताली या वोट बटोर सकता है | पर काम करने वाले को हजारों मुश्किलों का
सामना करना पड़ता है | फिर भी अगर वो हिम्मत नहीं हारता और काम करके दिखने में जुटा
रहता है तो भी उसके आलोचक कम नहीं होते | उसे सफलता मिले या न मिले वो बाद कि बात
है | पर कहावत है कि ‘गिरते हैं शै सवार ही मैदान ए जंग में, वो क्या लड़ेंगे जो
घुटनों के बल चले’ | अरविन्द केजरीवाल ने चुनाव लड़ने का झोखिम तो बहादुरी से उठाया
और अपेक्षा से ज्यादा सफलता भी हासिल की पर सरकार बनाने में वे जोखिम लेने से डर
रहे हैं |
कारण साफ़ है | चुनाव लड़ते
वक्त रणनीति होती है कि विरोधियों पर हमला बोलो और मतदाताओं को बड़े-बड़े सपने दिखाओ
| केजरीवाल ने ये दोनों काम बड़ी कुशलता से करे हैं | पर अब परीक्षा कि घड़ी है|
सरकार बना लेते हैं और वायदे पूरे नहीं कर पाते तो मतदाता इन्हें दौड़ा लेगा | अपने
वायदे पूरे करना गधे के सिर पर सींग उगाने जैसा है | इसलिए कांग्रेस और भाजपा आआपा
को बिना शर्त समर्थन देने को तैयार हैं | इन्हें विश्वास है कि केजरीवाल सरकार बना
कर जल्दी ही विफल हो जाएंगे | पर ऐसा हो यह ज़रूरी नहीं | अगर केजरीवाल सफल हो गए
तो पूरे उत्तर भारत में पुराने दलों को चुनौती देंगे | अगर विफल हो गए तो एक
बुलबुले कि तरह फूट जाएंगे |
आआपा का यह कहना गलत नहीं
है कि ये दल कुछ समय बाद छल करके उसकी सरकार गिरा देंगे | पर योद्धा ऐसी आशंकाओं
से डरा नहीं करते | अगर सरकार गिरने कि नौबत आ भी जायेगी तो केजरीवाल तब तक अपने
जितने वायदे पूरे कर पाएंगे उन्ही के आधार पर संसदीय चुनाव लड़ सकते हैं | पर केजरीवाल
को मालूम है कि बंद मुठ्ठी लाख की खुल गयी तो खाक
की | इसलिए वे अपनी लोकप्रियता के घोड़े पर चढ़ कर संसद में प्रवेश करना
चाहते हैं | वे संसदीय चुनाव तक अपनी मुठ्ठी खोलना नहीं चाहते | इस सबसे न सिर्फ
दिल्ली के मतदाताओं में असमंजस बना हुआ है बल्कि राजनैतिक पारिदृश्य में भी
अनिश्चितता है |
इससे तो यही लगता है कि
टीम केजरीवाल का मकसद केवल हंगामा खड़ा करना है | लोकतंत्र के इतिहास में ऐसे तमाम उदहारण
है जब व्यवस्था पर हमला करने वाले अपनी इसी भूमिका का मज़ा लेते हैं और अपनी
आक्रामक शैली के कारण चर्चा में बने रहते हैं | पर वे समाज को कभी कुछ ठोस दे नहीं
पाते, सिवाए सपने दिखने के | ऐसे लोग समाज का बड़ा अहित करते हैं| हाल के वर्षों
में भारत और दुनियां के कई देशों में जहाँ-जहाँ ऐसे समूह वाचाल हुए वहां वहां
सुधरा तो कुछ नहीं, जो चल रहा था वह भी पटरी से उतर गया | उन समाजों में हिंसा,
अपराध, बेरोज़गारी व आर्थिक अस्थिरता पैदा हो गयी है | हालात बद से बदतर हो गए हैं|
दरअसल हंगामा करने वाले समूह अंत में केवल अपना भला ही करते हैं | चाहे दावे वो
कितने भी बड़े करें | अब लोकपाल विधेयक को ही ले लें, अन्ना सरकारी विधेयक से
संतुष्ट हैं मगर आआपा इसे जोकपाल बता रही है | जबकि हम पिछले तीन वर्षों से डंके
की चोट पर कहते आ रहे हैं कि केजरीवाल का जनलोकपाल भी देश में भ्रष्टाचार कतई नहीं रोक पायेगा | क्यूंकि उनके
इस विधेयक को बनाने वाले ही न केवल भ्रष्ट हैं बल्कि उन्होंने आज से २० वर्ष पहले
भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारत के सबसे बड़े संघर्ष को सफलता की अंतिम सीढ़ी से नीचे
गिराने की गद्दारी की थी | गाँधी की समाधी पर शपथ ले कर धरने देने वाले केजरीवाल
को यह नहीं भूलना चाहिए कि दोहरे चरित्र के लोग अशुद्ध साधन जैसे हैं उनसे शुद्ध
साध्य प्राप्त नहीं कर सकते |
पूरी
दिल्ली उनके साथ न हो पर तिहाही दिल्ली का समर्थन जुटा कर अब जब केजरीवाल ने
चुनावी मैदान में बाजी मार ही ली है तो सरकार बना कर अपने वायदे पूरे करने की
ईमानदार कोशिश करनी चाहिए | जब प्यार किया तो डरना क्या | जनता समाधान चाहती है –
कोरे वायदे और सपने नहीं | वह बहुत दिन तक धीरज नहीं रख पाती |