भाजपा के वरिष्ठतम सक्रिय नेता, जो आज भी दल को रिमोट कंट्रोल से चला रहे हैं, लालकृष्ण आडवाणी ही राम मन्दिर के मुद्दे पर अपनी दृष्टि साफ नहीं कर पाये हैं। सोमनाथ से रथयात्रा लेकर चलने वाले आडवाणी जी हर जनसभा में कहते रहे कि सौगंध राम की खाते हैं हम मन्दिर वहीं बनायेंगे। उत्तर प्रदेश की महिला आई.पी.एस. अधिकारी अंजू गुप्ता की माने तो आडवाणी जी विवादित ढाँचें के गिरते समय काफी सक्रिय और आल्हादित थे। पर बाद में मामले की नजाकत को समझते हुए उन्होंने बयान दिया कि ढाँचे का गिरना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। इतना ही नहीं उन्होंने मन्दिर के मुद्दे पर कई बार अपने बयान बदले हैं और विरोधाभाषी बयान दिये हैं। राम रथयात्रा के जरिये दिल्ली की कुर्सी तक पहुँचने वाले आडवाणी जी अयोध्या जाने की बजाय जिन्ना की मजार तक जा पहुँचे। उन्हें उम्मीद थी कि उनका यह कदम उन्हें दुनिया की नजर में धर्मनिरपेक्ष सिद्ध कर देगा और उन पर से 6 दिसम्बर 1991 का कलंक मिटा देगा। पर हुआ उल्टा ही, ‘न खुदा ही मिला न बिसाले सनम; न इधर के रहे न उधर के रहे।’
भारतीय जनता पार्टी ने भारतीय जनमानस की भावनाओं को भ्रमित करते हुए सत्ता की सीढि़याँ चढ़ीं। लेकिन हुआ ये कि मतदाताओं को भ्रमित करने के चक्कर में खुद भाजपा व सहयोगी संगठन इस भ्रम जाल में उलझ गये। नतीजतन इन संगठनों में भारी अन्र्तकलह होने लगी। हालात इतने बिगड़ गये कि अब मजबूरी में नये-नये चेहरे लाकर अपनी साख बचानी पड रही है। फिर भी कलह शांत नहीं हो रही। इसलिए भाजपा को एक बार फिर आत्ममंथन करना चाहिए कि जिस मुद्दे को वे फिर से उठाना चाहते हैं, कहीं वही मुद्दा उन्हें फिर से भ्रमजाल में न उलझा दे। चैबे जी चले छब्बे बनने और दुबे बनकर लौटे। संतो के आशीर्वाद और समर्थन से खड़ी होने वाली भाजपा के नेताओं ने सन्तों का यह प्रवचन बार-बार सुना होगा कि, ‘प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समायें।’ या तो राम ही ले लो या सत्ता ही ले लो। सत्ता ही लेनी है तो राम का व्यापार क्यों? क्या देश का मतदाता इतना मूर्ख है कि तुम्हारी बातों में आ जायेगा? काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती।
नये चेहरे भी ऐसे जिनके चेहरे पर सौ-सौ दाग हैं। अब नयी बनी उपाध्यक्षा श्रीमती हेमा मालिनी को ही लीजिए या उनके सांसद रहे पति धर्मेन्द्र को ही लीजिए। हिन्दू धर्म के कानून के अनुसार शादी सम्भव नहीं थी इसलिए दोनों आयशा और इफ्तियार बने। हिन्दू धर्म छोड़ा और इस्लाम को अपनाया। कानून की नजर में दोनों आज भी आयशा और इफ्तियार ही हैं। इसलिए अटल जी की एक कविता की पंक्तियाँ भाजपा के नये चेहरों को जरूर पढ़ लेनी चाहिए। अटल जी कहते हैं, ‘‘दागदार चेहरे हैं, घाव बड़े गहरे हैं। मीत नहीं पाता हूँ, गीत नया गाता हूँ।’’ वैसे यह बात तो सभी भाजपाईयों को पता होगी कि भगवान श्रीराम को यूँ ही मर्यादा पुरूषोत्तम नहीं कहते हैं। उन्होंने एक पत्नी धर्म व्रत लिया और उसे आजन्म निभाया। राम का सहारा चाहिए तो राम के आदर्श को अपनाना होगा।
वैसे इसमें शक नहीं है कि राम जन्मभूमि का मुद्दा आज से नहीं बाबर के जमाने से भारत के जनमानस पर हावी रहा है। वे इस नासूर को भुला नहीं पाये हैं और भुला भी नहीं पायेंगे। 1990-1991 में भाजपा ने हिन्दुओं की इस दुखती रग पर हाथ रखकर अपना खेल खड़ा कर लिया। पर उसके बाद से आज तक न तो भाजपा, न उसके सहयोगी संगठन राम मन्दिर के मुद्दे पर कोई प्रभावशाली जन आन्दोलन खड़ा कर पायें हैं। प्रयास तो बहुत किये, पर सफल नहीं हुए। मथुरा में विष्णु यज्ञ बुरी तरह विफल रहा। जबरन शिलान्यास का तूफान खड़ा किया। पर जनता और संत समाज साथ नहीं आया, तो शिला पूजन करके ही कार्यक्रम फुस्स हो गया। विहिप के वरिष्ठ नेताओं ने 1991 के बाद भारत के संत समाज को एकजुट करने के भागीरथी प्रयास किये, पर संत इनके झाँसे में नहीं आये। खेमों में बंट गये। ये बात दूसरी है कि संतों की मनुहार करते-करते विहिप नेता खुद ही संत बन गये और जैसा मंहतों और मठाधीशों में होता है, ये संत बने नेता आपस में ही मठों की गद्दी की लड़ाई लड़ने लगे।
राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ निश्चित रूप से हिन्दू हित के लिए समर्पित संगठन है। पर अपने हित साधने के लिए उनके पास एक मात्र हथियार भाजपा है। यह संघ का दुर्भाग्य समझिये या भाजपा के नेताओं की आत्मकेन्द्रित धूर्तता कि उन्होंने कभी भी संघ के सपने पूरे करने में कोई गम्भीर प्रयास नहीं किया। नतीजतन संघ के समर्पित युवा काॅडर का भी मोह भंग हो गया और आज संघ का¡डर विहीन हो गया है। चर्चा है कि मोहन भागवत ने भाजपा पर नकेल कसी है और संघ का वर्चस्व भाजपा पर कायम हुआ है। पर नितिन गडकरी की टीम के चयन की प्रक्रिया और उसके परिणाम कुछ और ही संकेत करते हैं। आज भी भाजपा को रिमोट कंट्रोल से आडवाणी जी ही चला रहे हैं। जबकि जिन्ना प्रकरण के बाद से संघ ने उनसे दल के अध्यक्ष का पद छीन लिया था और माना जा रहा था कि उन्हें हाशिए पर डाल दिया जायेगा। ऐसे विरोधाभास में कैसे उम्मीद की जाये की नितिन गडकरी की टीम संघ के उद्देश्यों को पूरा करने में सहायक बनेगी। इसके लिए बेचारे नितिन गडकरी को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि उनकी दशा तो उस सेल्समैन की सी है जिसे रातों-रात कम्पनी का एम.डी. बना दिया जाये। ऐसी स्थिति में राम मन्दिर के मुद्दे के सहारे भाजपा की वैतरणी पार होने वाली नहीं है। उसे कोई और बेहतर मुद्दा सोचना होगा।