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Rajasthan Patrika 09-12-2007 |
भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार एक ऐसी घटना होने जा रही है जो शायद देश के हर मतदाता की तकदीर बदल दे। राज्य सभा के 21 व लोक सभा के 112 सांसदों की पहल पर अब संसद में इस बात पर बहस होगी कि क्यों न देश के हर मतदाता को सरकार 1750 रुपए महीने का भत्ता दे। पाठकों को यह अटपटा लगे पर यह हकीकत है। आगामी बजट सत्र में ही लोक सभा के नियम 193 के तहत इस पर बहस होगी। दरअसल यह प्रस्ताव उस मूल सोच पर आधारित है जिसके अनुसार विकसित देशों मे हर व्यक्ति को हर महीने बेरोजगारी भत्ता दिया जाता है। जिसमें वह ठाट बाट के साथ अपने परिवार का निर्वाह कर लेता है। इसके पीछे मान्यता यह है कि काम का अधिकार हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। खाली बैठकर कोई नहीं खाना चाहता। सरकार का कर्तव्य होता है कि वह हर आदमी को रोजगार के अवसर पैदा करके दे। विकास की आंधी ने हाथ के काम को अब हाशिए पर खड़ा कर दिया है और दिमाग के काम को मुंह मांगे पैसे मिलते हैं। इसलिए हाथ का काम करने वाले भारी तादाद में बेरोजगार होते जा रहे हैं। भारत के संविधान में नीति निर्देशक तत्व हर व्यक्ति को आजीविका का साधन मुहैया कराने का निर्देश देते हैं। पर आजादी के 60 वर्ष बाद भी हमारी सरकार न तो सबको रोजगार दे पायी है और न ही उसने हर मतदाता के लिए सम्मानजनक जीवन जीने की व्यवस्था की है।
इससे क्षुब्ध होकर युवा चिंतक भरत गांधी ने एक 222 पृष्ठ का दस्तावेज तैयार किया जिसमें अनेक तर्कों और आर्थिक विश्लेषणों के माध्यम से यह स्थापित किया कि भारत सरकार को हर मतदाता को 1750 रुपया महीना भत्ता देना चाहिए। ‘मतदातावृत्ति’ या ‘वोटरशिप’ शीर्षक उनका यह दस्तावेज इतना झकझोरने वाला है कि इसको पढ़कर और श्री गांधी से इस विषय पर पूरी बात समझकर देश के 134 सांसद इसके समर्थन में उठकर खड़े हो गये। अब इन्हीं सांसदों की पहल पर इस पर संसद में बहस होने जा रही है।
लोकसभा व राज्यसभा में सांसदों द्वारा वोटरशिप याचिका में कहा गया है कि बाजार के व वैश्वीकरण के दबाव में देश के उद्योग-व्यापार के समक्ष यह मजबूरी पैदा हो गई है कि वे अपने मिल कारखाने व कार्यालय में इतने कम आदमियों से काम चलाये जितने कम आदमी विकसित देशों में काम करते है। वहाँ की तकनीकि उन्नत है, जनसंख्या कम है अतः उत्पादन के काम में कम से कम लोग लगें, यह उनकी जरूरत है। लेकिन यही धर्म जब भारत जैसे देश को निभाना पड़ रहा है, तो वह गले की फांस बन रही है। प्रधानमंत्री सड़क परियोजना व दिल्ली की मैट्रो रेल परियोजना-ये दोनों बहुत विशाल परियोजनाएं थी, जहाँ आशा की गई थी कि इसमें खर्च होने वाला धन आम लोगों के घरों में जाएगा, लेकिन विश्वव्यापी प्रतिस्पर्धा के कारण यह धन बड़े ठेकेदारों-इंजीनियरों व मशीन मालिकों के घर में गया। ठेकेदार के सामने मुसीबत यह है कि अगर वह मशीन की बजाय आदमी से काम करवाता है तो काम पूरा होने में बहुत समय लगेगा और ठेकेदार का मुनाफा भी बहुत कम हो जाएगा। इसलिए आम मेहनतकश अनपढ़ लोगों का काम बुल्डोजर जैसी मशीने लेती छीनती जा रही हैं और पढ़े-लिखे लोगों का काम कम्प्यूटर हथियाता जा रहा है। ऐसे में हर हाथ को काम देने व दिला पाने का नारा केवल एक गैर जिम्मेदार व्यक्ति ही उछाल सकता है, जिसे बदली हुई परिस्थितियों का पर्याप्त अध्ययन नहीं है। इसलिए कोई नेता या सांसद अब जनता को काम दिलाने की गांरटी नहीं दे सकता।
याचिका में निष्कर्ष निकाला गया है कि भारत सरकार की नीति यह नही होनी चाहिए कि वह हर हाथ को काम देने का सपना दिखए। बल्कि उन्हें बेरोजगारी भत्ता देना चाहिए। याचिका में कहा गया है कि 1750 रुपये सभी मतदाताओं को मिलेगा तो कोई व्यक्ति देश में ऐसा नही बचेगा जिसके दिमाग को रोजगार न मिल जाए। मानव के मनोविज्ञान की गहन छानबीन करते हुए याचिका में कहा गया है कि नियमित आमदनी व्यक्ति के मन को स्वस्थ तथा सक्रिय रखता है। जब मन सक्रिय होगा तो हाथ सक्रिय हुए बिना नहीं रह सकता। जब हाथ व मन दोनो सक्रिय हो जाएगा तो ऐसा व्यक्ति उत्पादन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका निभाने से बच ही नहीं सकता। जाने-अनजाने में हर व्यक्ति उत्पादक बन जाता है। जबकि बेरोजगार व्यक्ति जिसकी नियमित आमदनी का जरिया नहीं होता, उसके हाथ को तो काम होता ही नहीं, कुछ ही वर्षों में उसका दिमाग भी कुंद हो जाता है वह विध्वंसक बन जाता है। जिसका देश की अर्थव्यस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
सवाल है कि 1750 रुपये देने के लिए सरकार पैसे का प्रबंध कैसी करेगी? इसका तरीका भी याचिका में सरकार को बताया गया है। पूंजीवाद व साम्यवाद के झगड़े को खत्म करते हुए याचिका में कहा गया है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की गणना करते समय जीडीपी में मशीनों के प्रतिशत की अलग से गणना की जाये तथा इंसानों के परिश्रम की अलग से। याचिका कहती है कि मशीनों के परिश्रम से अर्थव्यवस्था में जो धन पैदा हो रहा है वह मतदाताओं के बीच साम्यवादी तरीके से नकद रुप में वितरित कर दिया जाये व इंसानों के हिस्से को पूंजीवादी तरीके से वितरित किया जाये। इससे वैश्वीकरण के कारण मशीनी अर्थव्यवस्था से पैदा होने वाला धन सभी लोगों में बंट जाएगा और वैश्वीकरण का लाभ चन्द लोग ही नहीं उठाते रहंेगे। जैसा आज हो रहा है। वोटरशिप के माध्यम से हर व्यक्ति उसमें भागीदार बन जाएगा। याचिका में कहा गया है कि वैश्वीकरण की सामाजिक स्वीकृति के लिए भी वोटरशिप आवश्यक हैै।
वोटरशिप संबंधी याचिका कहती है कि अगर कोई यह कहता है कि वोटरशिप की यह रकम तो बिना मेहनत का पैसा माना जाएगा तो सवाल उठेगा कि ब्याज में, मकानों व मशीनों के किराये में तथा संसद द्वारा बनाए गए उत्तराधिकार कानूनों से जो पैसा प्राप्त होता है वह भी तो बिना मेहनत का पैसा ही है। फिर तो इस आमदनी को भी बंद किया जाए।
उक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि इस याचिका में जो गम्भीर खोज की गई है उसका लाभ राष्ट्र मिले, इसके लिए आवश्यक है वोटरशिप के खिलाफ उग्र प्रतिक्रिया व्यक्त करने से पहले मामले का पूरा अध्ययन किया जाये। केप्लर नामक वैज्ञानिक ने जब पहली बार कहा कि 11.5 किलो मीटर प्रति सेकण्ड के वेग से आसमान में फेंका गया कोई पत्थर नीचे नही गिरेगा। तो उस समय यह बात सबको अटपटी लगी थी। यदि इस अटपटी बात को बिना पर्याप्त अध्ययन के खारिज कर दिया जाता तो आज उपग्रहों को आसमान में फंेककर उनको वहाँ टिकाये रहना संभव न हो पाता और रेडियो, टेलीवीजन, मोबाइल, इण्टरनेट जैसी सुविधाओं से आज भी मानवता को वंचित रहना पड़ता।
फिर भी बहुत लोगों के मन में यह शंका होगी कि आखिर घर बैठे सभी मतदाताओं को 1750 रुपए महीना क्यों देना चाहिए। दूसरी तरफ यह माने वाले भी कम नहीं हैं कि यदि आर्थिक उदारीकरण की नीतियों से पैदा हो रही समृद्धि वोटरशिप के माध्यम से नहीं बटेंगी तो फिर इतनी आर्थिक असमानता हो जाएगी कि समाज का शांतिमय जीवन जीना असंभव हो जाएगा और उदारीकरण ही बचाना संभव नहीं होगा। अब निजी सुरक्षा गार्डों की संख्या भारत सरकार की पुलिस व सैन्य बल से भी ज्यादा हो चुकी है। साफ है कि जनजीवन दिन प्रतिदिन असुरक्षित होता जा रहा है। अब देखना है कि संसद वोटरशिप के इस सवाल पर क्या रुख अपनाती है।