सवाल उठता है कि न्यायमूर्ति दिनाकरण पर ही यह महाअभियोग क्यों चलाया जा रहा है? क्या यह देश के ऐसे पहले न्यायाधीश हैं जिनपर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हों? यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि 1991 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. रामास्वामी के खिलाफ भी संसद में महाअभियोग प्रस्ताव आया था। पर केवल 108 सांसदों का समर्थन मिला। संसद में बहुमत का समर्थन न मिलने के कारण यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। दिनाकरण के मामले में तो अभी आरोप सिद्ध होने हैं पर न्यायमूर्ति रामास्वामी के मामले में तो सभी आरोपों के प्रमाण मौजूद थे। फिर क्यों महाअभियोग नहीं चलाया गया? सांसदों ने इस प्रस्ताव का समर्थन क्यों नहीं किया?
इससे भी ज्यादा रोचक बात यह है कि अरूण जेटली के नेतृत्व में भाजपा के जिन सांसदों ने न्यायमूर्ति पी. डी. दिनाकरण के खिलाफ इस महाअभियोग प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किये हैं, उन्हें शायद यह याद नहीं कि केन्द्र में जब एन.डी.ए. की सरकार थी और अरूण जेटली उसके कानून मंत्री थे तो उस समय भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डाॅ. ए.एस. आनंद के कई जमीन घोटाले मैंने ही सभी सबूतों के साथ प्रकाशित किये थे। उस समय न तो श्री जेटली ने, न प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने और न ही एन.डी.ए. में शामिल दलों के सांसदों ने न्यायमूर्ति डा. आनंद के विरूद्ध महाअभियोग प्रस्ताव लाने की कोई भी चेष्ठा की। क्या इस देश में एक ही तरह के अपराध को नापने के दो मापदण्ड हैं? क्या वजह है कि जिन न्यायमूर्ति रामास्वामी और न्यायमूर्ति आनन्द के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के प्रमाण प्रकाशित हो चुके थे, उनके खिलाफ तो महाअभियोग चला नहीं पर न्यायमूर्ति दिनाकरण के खिलाफ यह प्रस्ताव लाया गया? इतना ही नहीं हरियाणा उच्च न्यायालय की न्यायाधीश सुश्री निर्मल यादव के घर रिश्वत का नकद रूपया पकड़ा गया, फिर भी उन पर अभी तक महाअभियोग प्रस्ताव नहीं लाया गया तो न्यायमूर्ति दिनाकरण के ही खिलाफ यह प्रस्ताव क्यों? क्या इसलिए कि वे दलित वर्ग से हैं और अब तक जितने भी न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार के मामले सामने आये, वे सभी सवर्ण थे? महाअभियोग चलाने वाले सांसदों के पास इसका कोई जवाब नहीं है। वे पलटवार कर कहते हैं कि यह मुद्दा उठाकर तुम एक भ्रष्ट न्यायाधीश को बचाना चाहते हो। पर जब उनसे यह पूछा जाता है कि इस शुद्धिकरण की शुरूआत बैंगलूर से क्यों की जा रही है, सर्वोच्च न्यायलय से नीचे की ओर या निचली अदालतों से ऊपर की ओर क्यों नहीं, तो इसका भी कोई जवाब उनके पास नहीं। उनकी इस चुप्पी से दाल में काला नजर आता है।
नैतिकता के दो मापदण्ड हो ही नहीं सकते। या तो ये कोई गहरा राजनैतिक खेल है, जिसमें न्यायमूर्ति दिनाकरण को लपेटा जा रहा है या सीधा-सीधा दलितों के विरूद्ध सवर्णों की लामबन्दी का मामला है। न्यायापालिका और राजनीति के गलियारों में दबी जबान से यह चर्चा चल रही है कि न्यायमूर्ति दिनाकरण के कुछ फैसलों से भाजपा की एक वरिष्ठ नेता के प्रबल समर्थकों के हित प्रभावित हुए हैं। इसलिए भाजपा सांसदों ने इस मामले में इतना उत्साह दिखाया है। दूसरी चर्चा यह भी है कि न्यायमूर्ति दिनाकरण ने अपने कुछ फैसलों से तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करूणानिधि को अप्रसन्न कर दिया है। इसलिए वे भी इस महाअभियोग के समर्थन में हैं। इन चर्चाओं में सच्चाई क्या है, यह जाँच का विषय हो सकता है। पर सीधी और सपाट बात जो किसी भी आम पाठक या मतदाता की समझ में आ जायेगी, वह यह है कि न्यायमूर्ति दिनाकरण देश के पहले ऐसे न्यायाधीश नहीं हैं जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हों और वे भी अभी सिद्ध होने बाकी हों। बल्कि ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें अनैतिक आचरण वाले न्यायाधीशों को तमाम सबूतों के बावजूद हाथ नहीं लगाया गया। देशवासी भारत के पूर्व न्यायाधीश वाई. के. सब्बरवाल का प्रकरण भूले नहीं होंगे, जब उन्होंने दिल्ली नगर निगम पर जोर डाल-डालकर दिल्ली में हजारों करोड़ रूपये के अवैध निर्माण गिरवाये थे। उस अफरा-तफरी के दौर में दिल्ली के लाखों घर तबाह हो गये। हजारों उद्योग बन्द हो गये। अनेकों परिवारों ने बदहाली और बेरोजगारी से तंग आकर आत्महत्याऐं कर लीं। दूसरी तरफ इसी दौर में दिल्ली में व्यवसायिक भवनों की कीमत रातों-रात कई गुना बढ़ गई। जिससे भवन निर्माताओं ने हजारों करोड़ कमाये। उस समय तमाम प्रमाणों के साथ यह आरोप लगाये गये कि उन भवन निर्माताओं के साथ न्यायमूर्ति सब्बरवाल के पुत्रों के व्यवसायिक हित जुड़े थे और उन्होंने इसका पूरा लाभ उठाया। सब्बरवाल के पद पर रहते हुए भी और पद से हटने के बाद यह मामला खूब उछला, पर महाअभियोग का कोई प्र्रस्ताव नहीं लाया गया। ऐसे अनेक दूसरे उदाहरण भी हैं।
यदि न्यायमूर्ति दिनाकरण पर महाअभियोग मात्र इसलिए चलाया जा रहा है कि वे दलित हैं और सवर्ण नहीं चाहते कि एक और दलित सर्वोच्च न्यायालय पहुँचे। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि न्यायमूर्ति दिनाकरण का नाम सर्वोच्च न्यायालय के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अनुमोदन सहित भारत सरकार के कानून मंत्रालय को भेज दिया था। उसी बीच यह महाअभियोग प्रस्ताव लाया गया और नियुक्ति की यह प्रक्रिया रोक दी गयी। ंअगर यही सच है तो फिर दलित सांसदों, विधायकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और दलितवर्ग के आम लोगों को इसका खुलकर जोरदार विरोध करना चाहिए और महाअभियोग चलाने वालों से ये सारे सवाल पूछने चाहिऐें। अगर न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित की जानी है और उसे पारदर्शी बनाना है तो इस शुद्धिकरण अभियान की शुरूआत सर्वोच्च न्यायालय से की जानी चाहिए। क्योंकि जैसा वहाँ आचरण होगा, उसका वैसा ही अनुसरण उच्च न्यायालयों के या निचली अदालतों के न्यायाधीश करेंगे। इस लेख का उद्देश्य भ्रष्टाचार के आरोपी किसी एक जज को बचाना नहीं है, बल्कि यह मूलभूत प्रश्न खड़े करना है कि एक ही अपराध के दो मापदण्ड इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वीकार नहीं किये जा सकते।