Tuesday, May 17, 2011

सबक नहीं सीखे वामपंथी

Amar Ujala 17-03-2011
पश्चिम बंगाल और केरल के विधानसभा चुनाव के आज के परिणाम ने यह साबित कर दिया है कि वामपंथी पार्टियों ने अपनी पुरानी गलतियों से शायद अब तक कुछ नहीं सीखा। माक्र्सवाद और माक्र्सवादी विचारधारा भले ही दुनिया के नक्शे में आज छोटा और असंगत हो गया हो, लेकिन भारत के वामपंथी नेताओं की सोच और कार्यशैली कमोवेश आज भी उसी पुराने ढर्रे पर चलती दिखायी दे रही है। इन नेताओं ने न तो पश्चिम बंगाल में मतदाताओं के रूझान और उनकी संवदेनाओं को संजीदगी से जानने व परखने की कोशिश की और न ही केरल में अन्दरूनी कलह और नेताओं के वर्चस्व की लड़ाई पर काबू पाने में कोई दरियादिली दिखायी।

पश्चिम बंगाल में पिछले 34 सालों में माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी की सरकार और उसके क्रियाकलापों ने यह साबित कर दिया कि माक्र्सवादी विचारधारा आज भी अपने पार्टी कैडर के आगे जाने की हिम्मत नहीं करती। बल्कि आज भी वो अपनी पार्टी की उन पुरानी नीतियों की गुलाम है जो आज के दौर में तर्कसंगत नहीं रह गया है। पश्चिम बंगाल के शीर्षस्थ नेताओं की यह दलील कि साम्यवाद और सर्वहारा का वर्चस्व ही उनके लिए मूलमंत्र है, एक कोरी कल्पना ही बनकर रह गयी। तेजी से बदलते राष्टृीय परिपेक्ष्य तथा समाज की अनगिनत नई चुनौतियों के मद्देनजर पश्चिम बंगाल की सरकार ने उनके निराकरण और सर्वांगीण विकास की तरफ से जैसे आॅंख मूंद ली हों। ऐसे में ममता बनर्जी का उदय उस राजनैतिक खाई को पाटने में बड़ा ही कारगर साबित हुआ और आज पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की ऐतिहासिक जीत इस बात की गवाह है कि जनता सिर्फ खोखले वायदे पर अब बहुत दिनों तक भरोसा नहीं करती।

पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम से साफ जाहिर है कि जनता ने वामपंथी विचारधारा को पूरी तरह नकार दिया है। ममता बनर्जी का अपना व्यक्तित्व और आम लोगों में पड़ोस के घर में रहने वाली एक दीदी की छवि, उनकी पार्टी की ऐसी ऐतिहासिक जीत का एक महत्वपूर्ण कारण है। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और एक आम आदमी का जीवनचर्या उन्हें राज्य के मतदाताओं से जोड़ने में काफी कारगर साबित हुआ।

 यह पहली बार है कि ममता बनर्जी ने अपने बूते पर वो कर दिखाया जो पिछले तीन दशक में काॅंगे्रस पार्टी भी नहीं कर पायी। पश्चिम बंगाल में पिछले 34 सालों के वामपंथी शासन में राज्य के सर्वांगीण विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और इसका सबसे ताजा उदाहरण यह है कि अन्य राज्यों की तुलना में औद्योगिक विकास के आंकड़ों को देखें तो पश्चिम बंगाल सत्रहवें नम्बर पर आता है। वही हाल शिक्षा का है और यह कहा जाये कि वामपंथी सरकारों ने जिस तरह से चाहा, राज्य किया। दरअसल वामपंथियों ने जिस साम्यवादी विचारधारा का आवरण ओढ़ा, उसे अपने आचरण में नहीं उतारा। अगर उतारा होता तो बंगाल में नक्सलवाद का जन्म नहीं हुआ होता। केद्र की सरकारों को हमेशा गरीबी के मुद्दे पर घेरने वाली सी.पी.एम. इसका क्या जबाव देगी कि उसकी दो दशकों की हुकूमत के दौरान पश्चिमी बंगाल के गरीबों की हालत बद से बदतर हुयी है? आज अपने इसी दोहरे आचरण का खामियाजा उसे भुगतना पड़ रहा है।

पश्चिमी बंगाल जिस हालत में ममता बनर्जी को मिला है, वह एक कांटों भरा ताज है। गरीबी और आर्थिक पिछड़ापन तो है ही, बांग्लादेश से जुड़ा एक लम्बी अन्तर्राष्टृीय सीमा अपने आप में एक बड़ी समस्या है। घुसपैठियों का लगातार आना, सीमा पर अवैध अन्तर्राष्टृीय व्यापार और आतंकवाद का खतरा, कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिन्हंे ममता को झेलना होगा। पश्चिमी बंगाल की आबादी भी कुछ कम नहीं। जितने लोग, उतनी अपेक्षाऐं। सबकी अपेक्षा फौरन पूरी करना सरल न होगा। अपेक्षा पूरी न होने की दशा में निराशा भी जल्दी घर कर जाती है। इसलिए जरूरी है कि ममता इस चुनौती को गम्भीरता से लें और गुजरात और बिहार के मुख्यमंत्रियों के अनुभवों से सबक लेते हुए अपनी पहली प्राथमिकता पश्चिमी बंगाल के विकास को बनायें। यह तो जग-जाहिर है कि यह विजय विधायकों की व्यक्तिगत विजय नहीं है, पूरा श्रेय अकेले ममता बनर्जी को जाता है। इसलिए मंत्रिमण्डल के गठन में वे अपनी आवश्यकता के अनुसार निर्णय ले सकती हैं। उन्हें यह देखना होगा कि जाति, धर्म, क्षेत्र को मंत्रिमण्डल में तरजीह देने की बजाय, वे उन व्यक्तियों को मंत्रिमण्डल में लें जिनमें राज्य का विकास तेजी से करवा पाने की झमता हो। लोकप्रिय नेता होने का मतलब जरूरी नहीं कि आप कुशल प्रशासक भी हों। पर ममता जैसा साफ छवि का नेता यह जानता है कि किस काम के लिए कौन व्यक्ति योग्य है? उन्हें काम सौंपकर ममता जनता के बीच ज्यादा समय बिता सकती हैं और राष्टृीय और क्षेत्रीय राजनीति में अपनी भूमिका निभा सकती हैं। यह कुछ ऐसा होगा जैसा अमरीकी राष्टृपति का प्रशासकि माॅडल, जिसमें हर काम के लिए उस क्षेत्र के अनुभवी और योग्य व्यक्तियों को जिम्मा दिया जाता है।

कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि जिस ममता बनर्जी ने सिंगूर में टाटा के नैनो प्लांट का विरोध किया था, उसी नैनो पर चढ़कर वो सिंगूर पर अपना चुनाव प्रचार करने गयीं थीं। लेकिन कई राजनैतिक पर्यवेक्षक यह मानते हैं कि ये सिंगूर आन्दोलन ही था जिसने ममता बनर्जी को यह अहसास दिलाया कि राज्य में उनकी लोकप्रियता क्या है और यहीं से उनके राजनैतिक अभियान को और बल मिला।

Monday, May 9, 2011

बाबा रामदेव का शंखनाद

Punjab Kesari 9 May11
पिछले दो वर्षों से भ्रष्टाचार के विरूद्ध मोर्चा खोले हुए बाबा रामदेव ने अब सीधे संघर्ष का शंखनाद कर दिया है। आगामी 4 जून को, बाबा ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल रैली को संबोधित करने के बाद, भूख हड़ताल पर बैठने की घोषणा कर दी है। उनकी माँग है कि सरकार एक हजार व पाँच सौ के नोटों का चलन बन्द करे। जिससे काला धन बाहर निकल सके। इसके अलावा भी उनकी कई दूसरी माँगें हैं।

बाबा की धमकी से घबराये राजनेता यह कहकर बाबा का मजाक उड़ा रहे हैं कि अन्ना हज़ारे की भूख हड़ताल की सफलता से बौखलाये हुए बाबा रामदेव अन्ना की नकल कर रहे हैं। पर यह भूल जा रहे हैं कि लोकपाल विधेयक के समर्थकों को खुले दिल से सहायता और जनशक्ति देकर बाबा रामदेव ने ही उनके आन्दोलन में प्राण फूंक दिये। बाबा के अनुयायियों की संख्या आज देश में सबसे ज्यादा है। एक आंकलन के अनुसार 1 करोड़ लोग सीधे-सीधे बाबा से जुड़े हैं। अगर इसके पाँच फीसदी लोग भी बाबा रामदेव के साथ भूख हड़ताल पर बैठ गये तो उनकी अनदेखी करना सरकार के लिए आसान नहीं होगा। बाबा बड़ी भीड़ जुटाने में सक्षम हैं। उन्हें किसी के प्रायोजन की आवश्यकता नहीं। अगर बाबा के शिष्य पूरे देश से आकर रामलीला मैदान में डंट गये तो उनका आन्दोलन काफी जोर पकड़ लेगा।

जो लोग बाबा की मुहिम को अविवेकपूर्ण बताकर सवाल खड़े कर रहे हैं, उन्हें देश की असलियत की तरफ ध्यान देना चाहिए। आज देश में गरीबों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। विकास का लाभ चन्द लोगों के हाथों में सिमटता जा रहा है। योजना आयोग के अनुसार 2004-05 में भारत में गरीबों की संख्या 27 फीसदी थी। जो योजना आयोग के ही अनुसार अब बढ़कर 32 फीसदी हो गयी है। इतना ही नहीं, विकास की दर 8 या 9 प्रतिशत बताई जा रही है, उसके बावजूद गरीबों की संख्या इतनी बढ़ गयी है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद, जिसकी अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी हैं, ने कहा है कि यदि देश में खाद्य सुरक्षा कानून बनाना है तो भारत की 70 फीसदी आबादी को 2 या 3 रूपये प्रति किलो अनाज देना पड़ेगा। मतलब यह हुआ कि देश की 70 फीसदी आबादी अत्यंत गरीब है। फिर हम दुनिया के मंचों पर, मूँछों पर ताव देकर, यह क्यों कहते हैं कि भारत तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहा है? भारत के कुछ लोग बेहद धनी होते जा रहे हैं, पर साफ ज़ाहिर है कि इस आर्थिक प्रगति का लाभ आम आदमी को नहीं मिल रहा। इसका मूल कारण है भ्रष्टाचार। जो धन जनता के हित की योजनाओं पर खर्च होना चाहिए, वह भ्रष्टाचारियों की जेब में जा रहा है और इस लूट में कई बड़े औद्योगिक घराने भी शामिल हैं। फिर भी भ्रष्टाचार के इस विकराल स्वरूप के बारे में कोई भी राजनैतिक दल गम्भीर नहीं है। बयान सब देते हैं। पर अपना आचरण बदलने को कोई तैयार नहीं। नतीज़तन आम जनता मंहगाई की मार झेल रही है।

ऐसे में जो नेतृत्व का शून्य पैदा हो गया था, उसे भरने के लिए अन्ना हजारे व बाबा रामदेव जैसे लोग मैदान में उतर रहे हैं। भ्रष्टाचार के विरूद्ध इनका अभियान बिल्कुल उचित है और इनका हठ भी सही है। क्योंकि बिना डरे राजनैतिक दल कुछ भी बदलने नहीं जा रहे। ये आपस में छींटाकशी करते रहेंगे और उसका राजनैतिक फायदा लेते रहेंगे। भ्रष्टाचार को निपटाने की कोई कोशिश नहीं करेंगे। इसलिए किसी न किसी को तो यह जिम्मेदारी लेनी ही थी। अब बाबा रामदेव ने ली है तो उन्हें इस लड़ाई को अंजाम तक ले जाना होगा। इसमें अनेक बाधाऐं भी आयेंगी। कुछ तो राजनैतिक दलों की ओर से और कुछ निहित स्वार्थों की ओर से। पर बाबा जैसे हठी हैं, वे मैदान नहीं छोड़ेंगे और उनके अनुयायी भी कमर कसकर बैठे हैं।

इस लड़ाई में देश के हर जागरूक नागरिक को हिस्सा लेना चाहिए। जरूरी नहीं कि सब एक मंच पर से ही लड़ें। भारत-पाकिस्तान का युद्ध होता है तो कश्मीर, पंजाब, राजस्थान और गुजरात के मोर्चे पर अलग-अलग लड़ा जाता है। भ्रष्टाचार से युद्ध भी भारत-पाक युद्ध से कम नहीं है। इसलिए जिसे जहाँ, जैसा मंच मिले, जुट जाना चाहिए। सफलता और असफलता तो भगवान के हाथ में है। रही बात बाबा रामदेव के अभियान की, तो उनके निकट रहने वालों का कहना है कि अपनी समस्त शुभेच्छा के बावजूद बाबा इस लड़ाई की स्पष्ट रणनीति नहीं बना पाये हैं। वे बिना गहरा चिंतन किये कुछ भी बयान देकर विवाद खड़ा कर देते हैं। उनके पास दूसरी पंक्ति के नेतृत्व का भारी अभाव है। वे हर निर्णय खुद लेते हैं, यहाँ तक कि टी.वी. पर क्या प्रसारित हो। इस तरह पूरा आन्दोलन व्यक्ति केन्द्रित बन गया है। बाबा में अभी महात्मा गाँधी जैसी समझ, गम्भीरता, दूरदृष्टि व वैकल्पिक योजना की तैयारी जैसे गुण दिखायी नहीं दे रहे हैं। ऐसे में आन्दोलन के किसी भी मोड़ पर भटक जाने की सम्भावना है।

राजनैतिक विश्लेषक, मीडिया, सिविल सोसाइटी, विभिन्न आन्दोलनों से जुड़े लोग और आम शहरी अब उत्सुकता से बाबा के आन्दोलन का इंतजार करेंगे। हृदय से सभी चाहते हैं कि ऐसे सभी प्रयास सफल हों और आम आदमी को भ्रष्टाचार से राहत मिले। पर लड़ाई इतनी आसान नहीं, जिसे बिना कुशल रणनीति के लड़ा और जीता जा सके। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि बाबा जैसे लोग अपने हृदय को विशाल करें और उन सब लोगों को जोड़ें जो इस लड़ाई में ठोस योगदान कर सकें और इसे सफलता की मंजिल तक ले जा सकें।

Monday, May 2, 2011

लोकपाल विधेयक पर सिविल सोसाइटी में सहमति नहीं


 Amar Ujala 02-05-2011
पिछले हफ्ते अरविन्द केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश व किरण बेदी ने देश के कुछ खास लोगों को दिल्ली बुलाकर प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर खुली चर्चा की। इस चर्चा से यह स्पष्ट हुआ कि विधेयक के मौजूदा प्रारूप को लेकर सिविल सोसाइटी में भारी मतभेद हैं।

प्रस्तावित विधेयक में नेताओं और अफसरों के विरूद्ध तो कड़े प्रावधान हैं, लेकिन समिति यह भूल रही है कि भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से नहीं बजती। भ्रष्टाचार बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ, बड़े औद्योगिक घरानों का देखा गया है। जो चुनाव में 500 करोड़ रूपया देकर अगले 5 सालों में 5 हजार करोड़ रूपये का मुनाफा कमाते हैं। जब तक यह व्यवस्था नहीं बदलेगी, तब तक राजनैतिक भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता। ऐसे उद्योगपतियों को पकड़ने के लिए लोकपाल विधेयक में कोई प्रावधान फिलहाल नहीं हैं।

इस बैठक में मैंने याद दिलाया कि लोकपाल तो जब बनेगा, जाँच करेगा और सजा दिलवायेगा, तब तक दो साल और लग जायेंगे; पर जैन हवाला काण्ड में हमने 1996 में ही देश के दर्जनों मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों व बड़े अधिकारियों को भ्रष्टाचार के मामले में चार्जशीट करवाया था। बाद के वर्षों में दूसरे घोटालों में जयललिता, लालू यादव, सुखराम, मधु कोढ़ा, ए.राजा और सुरेश कलमाड़ी तक, बड़े से बड़े राजनेता बिना लोकपाल के ही मौजूदा कानूनों के तहत पकड़े जा चुके हैं। अगर इन्हें सजा नहीं मिली तो हमें सी.बी.आई. की जाँच प्रक्रिया में आने वाली रूकावटों को दूर करना चाहिए। केन्द्रीय सतर्कता आयोग की स्वायत्ता सुनिश्चित करनी चाहिए। एकदम से सारी पुरानी व्यवस्थाओं को खारिज करके नई काल्पनिक व्यवस्था खड़ी करना, जिसकी सफलता अभी परखी जानी है, बुद्धिमानी नहीं होगी।

अनेक वक्ताओं ने कहा कि यद्यपि न्यायपालिका में भारी भ्रष्टाचार है, फिर भी न्यायपालिका को लोकपाल के अधीन लाना सही नहीं होगा। न्यायपालिका की जबावदेही सुनिश्चित करने की अलग व्यवस्था बनानी चाहिए। क्योंकि उसकी कार्यप्रणाली और कार्यपालिका की कार्यप्रणाली में मूलभूत अन्तर होता है। जिसके लिए न्यायपालजैसी कोई व्यवस्था रची जा सकती है।

प्रस्तावित लोकपाल को केवल राजनेताओं के आचरण पर निगाह रखने का काम दिया जाना चाहिए। इस तरह अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जो चैक व बैलेंसकी व्यवस्था है, वह बनी रहेगी। सबसे बड़ा सवाल तो ईमानदार लोकपाल को ढूंढकर लाने का है। जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट आचरण करते रहे हों तो यह काम बहुत मुश्किल हो जाता है। ऐसे में अगर लोकपाल को न्यायपालिका, कार्यपालिका व विधायिका तीनों के ऊपर निगरानी रखने का अधिकार दे दिया तो भ्रष्ट लोकपाल पूरे देश का कबाड़ा कर देगा। फिर कहीं बचने का रास्ता नहीं मिलेगा।

इसके साथ ही यह भी देखने में आया है कि स्वंयसेवी संस्थाऐं (एन.जी.ओ.) जो विदेशी आर्थिक मदद लेती हैं, उसमें भी बड़े घोटाले होते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाऐं भी भारत में बड़े घोटाले कर रही हैं। तो ऐसे सभी मामलों को जाँच के दायरे में लेना चाहिए। इस पर विधेयक में अभी तक कोई प्रावधान नहीं है।

भ्रष्टाचार से आम हिन्दुस्तानी दुखी है और इससे निज़ात चाहता है। इसलिए अन्ना का अनशन शहरी मध्यम वर्ग के आक्रोश की अभिव्यक्ति बन गया। पर इसके साथ ही इस आन्दोलन से जुड़े कुछ अहम सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यह कि भूषण पिता-पुत्र अनैतिक आचरण के अनेक विवादों में घिरे हैं। फिर भी उन्हें अन्ना समिति से हटा नहीं रहे हैं। उस समिति से, जो भ्रष्टाचार से निपटने का कानून बनाने जा रही है। उल्लेखनीय है कि मुख्य सतर्कता आयुक्तपी.जे. थाॅमस की नियुक्ति को चेतावनी देने वाली प्रशांत भूषण की ही जनहित याचिका में तर्क था कि ऐसे संवेदनशील पद पर बैठने वाले का आचरण संदेह से परेहोना चाहिए। अलबŸाा प्रशांत ने अदालत में जिरह करते वक्त यह कहा था कि, ‘‘मैं जानता हूँ कि थाॅमस भ्रष्ट नहीं हैं।’’ पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री लिंग्दोह ने भी थाॅमस को सच्चरित्र बताया था। फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि यदि जनता को संदेह है तो थाॅमस को जाना पड़ेगा।

वही प्रशांत भूषण, थाॅमस से जो अपेक्षा रखते थे, उसे अपने ऊपर लागू नहीं करना चाहते। जब दोनों पिता-पुत्र के आचरण पर इतने सारे सवाल खड़े हो गये हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की भावना के अनुरूप इन दोनों को लोकपाल विधेयक बनाने वाली समिति से हट जाना चाहिए। पर विडम्बना देखिए कि न तो वे खुद हटना चाहते हैं और न ही उनके साथी उन्हें हटा रहे हैं। एक अंग्रेजी टी.वी. चैनल पर बहस के दौरान जस्टिस हेगडे़ और भारत के पूर्व महाअधिवक्ता सोली सोराबजी ने मुझसे कहा कि भूषण का आचरण नहीं, उनकी कार्यक्षमता देखनी चाहिए।मेरा जबाव था कि जिस व्यक्ति के चरित्र पर संदेह हो, उससे पारदर्शी कानून बनाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?

फिलहाल इस बहस को अगर यहीं छोड़ दें तो सवाल उठता है कि इस वाली सिविल सोसाइटीने परदे के पीछे बैठकर जल्दबाजी में सारे फैसले कैसे ले लिए। देश को न्यायविदों के नाम सुझाने का 24 घण्टे का भी समय नहीं दिया। पिता-पुत्र को ले लिया और विवाद खड़ा कर दिया। सर्वेंट आॅफ इण्डिया सोसाइटी व ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इस समिति के सदस्यों ने लोकपाल विधेयकपर उनका अर्से से चल रहा आन्दोलन यह कहकर बन्द करवा दिया कि इस मुद्दे पर सब मिलकर लड़ेंगे। फिर उनकों ठेंगा दिखा दिया। उधर बाबा रामदेव का भी आरोप है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध सारी हवा उन्होंने बनाई, इन लोगों को मंच, आस्था टी.वी. चैनल पर कवरेज और इनकी सभाओं में अपने समर्थक भेजकर भारी भीड़ जुटाई। पर अन्ना हजारे के धरने के शुरू होते ही, इन्होंने बाबा से भी पल्ला झाड़ लिया। बाबा इससे आहत हैं और आगे की लड़ाई वे इन्हें बिना साथ लिये लड़ना चाहते हैं।

समिति के प्रवक्ताओं का यह कहना कि इस विधेयक को इन पिता-पुत्र के अलावा कोई नहीं तैयार कर सकता, बड़ा हास्यास्पद लगता है। 121 करोड़ के मुल्क में क्या दो न्यायविद् भी ऐसे नहीं हैं जो इस कानून को बनाने में मदद कर सकें? हजारों हैं जो इनसे कहीं बढि़या और प्रभावी लोकपाल विधेयक तैयार कर सकते हैं। पर समिति की नीयत साफ नज़र नहीं आती और वह दूसरों पर आरोप लगा रही है कि उसके खिलाफ षडयंत्र रचा जा रहा है। पाठक जानते हैं कि हम पिछले कितने वर्षों से उन षडयंत्रों के बारे में लिखते आ रहे हैं जो निहित स्वार्थ भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े जा रहे संघर्षों को पटरी पर से उतारने के लिए रचते हैं। इसमें हमने भूषण पिता-पुत्रों और रामजेठमलानी की भूमिका का भी उल्लेख कई बार किया है। हमारा सी.डी. विवाद से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि हम अन्ना हज़ारे की माँग का पूरा समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़े कानून बनें। पर इस तरह नासमझी से और रहस्यमयी तरीके से नहीं, जैसा आज हो रहा है।

Sunday, May 1, 2011

लोकपाल विधेयक ही काफी नहीं

  भ्रष्टाचार से आम हिन्दुस्तानी दुखी है और इससे निज़ात चाहता है। इसलिए अन्ना का अनशन शहरी मध्यम वर्ग के आक्रोश की अभिव्यक्ति बन गया। पर इसके साथ ही इस आन्दोलन से जुड़े कुछ अहम सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यह कि भूषण पिता-पुत्र अनैतिक आचरण के अनेक विवादों में घिरे हैं। फिर भी उन्हें अन्ना समिति से हटा नहीं रहे हैं। उस समिति से, जो भ्रष्टाचार से निपटने का कानून बनाने जा रही है। उल्लेखनीय है कि मुख्य सतर्कता आयुक्तFkk¡el की नियुक्ति को चेतावनी देने वाली प्रशांत भूषण की ही जनहित याचिका में तर्क था कि ऐसे संवेदनशील पद पर बैठने वाले का आचरण संदेह से परेहोना चाहिए। प्रशांत ने अदालत में जिरह करते वक्त यह कहा था कि, ‘‘मैं जानता हूँ कि Fkk¡मस भ्रष्ट नहीं हैं।’’ पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री लिंग्दोह ने भी थामस को सच्चरित्र बताया था। फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि यदि जनता को संदेह है तो Fkk¡मस को जाना पड़ेगा।
वही प्रशांत भूषण, Fkk¡मस से जो अपेक्षा रखते थे, उसे अपने ऊपर लागू नहीं करना चाहते। जब दोनों पिता-पुत्र के आचरण पर इतने सारे सवाल खड़े हो गये हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की भावना के अनुरूप इन दोनों को लोकपाल विधेयक बनाने वाली समिति से हट जाना चाहिए। पर विडम्बना देखिए कि न तो वे खुद हटना चाहते हैं और न ही उनके साथी उन्हें हटा रहे हैं। एक अंग्रेजी टी.वी. चैनल पर बहस के दौरान जस्टिस हेगडे़ और भारत के पूर्व महाअधिवक्ता सोली सोराबजी ने मुझसे कहा कि भूषण का आचरण नहीं, उनकी कार्यक्षमता देखनी चाहिए।मेरा जबाव था कि जिस व्यक्ति के चरित्र पर संदेह हो, उससे पारदर्शी कानून बनाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
फिलहाल इस बहस को अगर यहीं छोड़ दें तो सवाल उठता है कि इस वाली सिविल सोसाइटीने परदे के पीछे बैठकर जल्दबाजी में सारे फैसले कैसे ले लिए। देश को न्यायविदों के नाम सुझाने का 24 घण्टे का भी समय नहीं दिया। पिता-पुत्र को ले लिया और विवाद खड़ा कर दिया। सर्वेंट vk¡फ इण्डिया सोसाइटी व ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इस समिति के सदस्यों ने लोकपाल विधेयकपर उनका अर्से से चल रहा आन्दोलन यह कहकर बन्द करवा दिया कि इस मुद्दे पर सब मिलकर लड़ेंगे। फिर उनकों ठेंगा दिखा दिया। उधर बाबा रामदेव का भी आरोप है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध सारी हवा उन्होंने बनाई, इन लोगों को मंच, आस्था टी.वी. चैनल पर कवरेज और इनकी सभाओं में अपने समर्थक भेजकर भारी भीड़ जुटाई। पर अन्ना हजारे के धरने के शुरू होते ही, इन्होंने बाबा से भी पल्ला झाड़ लिया। बाबा इससे आहत हैं और आगे की लड़ाई वे इन्हें बिना साथ लिये लड़ना चाहते हैं।
 
समिति के प्रवक्ताओं का यह कहना कि इस विधेयक को इन पिता-पुत्र के अलावा कोई नहीं तैयार कर सकता, बड़ा हास्यास्पद लगता है। 121 करोड़ के मुल्क में क्या दो न्यायविद् भी ऐसे नहीं हैं जो इस कानून को बनाने में मदद कर सकें? हजारों हैं जो इनसे कहीं बढि़या और प्रभावी लोकपाल विधेयक तैयार कर सकते हैं। पर समिति की नीयत साफ नज़र नहीं आती और वह दूसरों पर आरोप लगा रही है कि उसके खिलाफ षडयंत्र रचा जा रहा है। पाठक जानते हैं कि हम पिछले कितने वर्षों से उन षडयंत्रों के बारे में लिखते आ रहे हैं जो निहित स्वार्थ भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े जा रहे संघर्षों को पटरी पर से उतारने के लिए रचते हैं। इसमें हमने भूषण पिता-पुत्रों और रामजेठमलानी की भूमिका का भी उल्लेख कई बार किया है। हमारा सी.डी. विवाद से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि हम अन्ना हज़ारे की माँग का पूरा समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़े कानून बनें। पर इस तरह नासमझी से और रहस्यमयी तरीके से नहीं, जैसा आज हो रहा है।
 
पिछले हफ्ते अरविन्द केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश व किरण बेदी ने देश के कुछ खास लोगों को दिल्ली बुलाकर प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर खुली चर्चा की। इस चर्चा से यह स्पष्ट हुआ कि विधेयक के मौजूदा प्रारूप को लेकर सिविल सोसाइटी में भारी मतभेद हैं।
 
प्रस्तावित विधेयक में नेताओं और अफसरों के विरूद्ध तो कड़े प्रावधान हैं, लेकिन समिति यह भूल रही है कि भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से नहीं बजती। भ्रष्टाचार बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ, बड़े औद्योगिक घरानों का देखा गया है। जो चुनाव में 500 करोड़ रूपया देकर अगले 5 सालों में 5 हजार करोड़ रूपये का मुनाफा कमाते हैं। जब तक यह व्यवस्था नहीं बदलेगी, तब तक राजनैतिक भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता। ऐसे उद्योगपतियों को पकड़ने के लिए लोकपाल विधेयक में कोई प्रावधान फिलहाल नहीं हैं।
 
इस बैठक में मैंने याद दिलाया कि लोकपाल तो जब बनेगा, जाँच करेगा और सजा दिलवायेगा, तब तक दो साल और लग जायेंगे; पर जैन हवाला काण्ड में हमने 1996 में ही देश के दर्जनों मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों व बड़े अधिकारियों को भ्रष्टाचार के मामले में चार्जशीट करवाया था। बाद के वर्षों में दूसरे घोटालों में जयललिता, लालू यादव, सुखराम, मधु कोढ़ा, ए.राजा और सुरेश कलमाड़ी तक, बड़े से बड़े राजनेता बिना लोकपाल के ही मौजूदा कानूनों के तहत पकड़े जा चुके हैं। अगर इन्हें सजा नहीं मिली तो हमें सी.बी.आई. की जाँच प्रक्रिया में आने वाली रूकावटों को दूर करना चाहिए। केन्द्रीय सतर्कता आयोग की स्वायत्ता सुनिश्चित करनी चाहिए। एकदम से सारी पुरानी व्यवस्थाओं को खारिज करके नई काल्पनिक व्यवस्था खड़ी करना, जिसकी सफलता अभी परखी जानी है, बुद्धिमानी नहीं होगी।
 
अनेक वक्ताओं ने कहा कि यद्यपि न्यायपालिका में भारी भ्रष्टाचार है, फिर भी न्यायपालिका को लोकपाल के अधीन लाना सही नहीं होगा। न्यायपालिका की जबावदेही सुनिश्चित करने की अलग व्यवस्था बनानी चाहिए। क्योंकि उसकी कार्यप्रणाली और कार्यपालिका की कार्यप्रणाली में मूलभूत अन्तर होता है। जिसके लिए न्यायपालजैसी कोई व्यवस्था रची जा सकती है।
 
प्रस्तावित लोकपाल को केवल राजनेताओं के आचरण पर निगाह रखने का काम दिया जाना चाहिए। इस तरह अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जो चैक व बैलेंसकी व्यवस्था है, वह बनी रहेगी। सबसे बड़ा सवाल तो ईमानदार लोकपाल को ढूंढकर लाने का है। जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट आचरण करते रहे हों तो यह काम बहुत मुश्किल हो जाता है। ऐसे में अगर लोकपाल को न्यायपालिका, कार्यपालिका व विधायिका तीनों के ऊपर निगरानी रखने का अधिकार दे दिया तो भ्रष्ट लोकपाल पूरे देश का कबाड़ा कर देगा। फिर कहीं बचने का रास्ता नहीं मिलेगा।
 
इसके साथ ही यह भी देखने में आया है कि स्वंयसेवी संस्थाऐं (एन.जी.ओ.) जो विदेशी आर्थिक मदद लेती हैं, उसमें भी बड़े घोटाले होते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाऐं भी भारत में बड़े घोटाले कर रही हैं। तो ऐसे सभी मामलों को जाँच के दायरे में लेना चाहिए। इस पर विधेयक में अभी तक कोई प्रावधान नहीं है।

Tuesday, April 26, 2011

अन्ना बदनाम हो रहे हैं भूषण के लिए!

Punjab Kesari 25April2011
भ्रष्टाचार से आम हिन्दुस्तानी दुखी है और इससे निज़ात चाहता है। इसलिए अन्ना का अनशन शहरी मध्यम वर्ग के आक्रोश की अभिव्यक्ति बन गया। पर इसके साथ ही इस आन्दोलन से जुड़े कुछ अहम सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यह कि भूषण पिता-पुत्र अनेक विवादों में घिरे हैं। फिर भी उन्हें अन्ना समिति से हटा नहीं रहे हैं। उस समिति से, जो भ्रष्टाचार से निपटने का कानून बनाने जा रही है। उल्लेखनीय है कि ‘मुख्य सतर्कता आयुक्त’ पी.जे. थॉमस की नियुक्ति को चेतावनी देने वाली प्रशांत भूषण की ही जनहित याचिका में तर्क था कि ऐसे संवेदनशील पद पर बैठने वाले का आचरण ‘संदेह से परे’ होना चाहिए। अलबत्ता प्रशांत ने अदालत में जिरह करते वक्त यह कहा था कि, ‘‘मैं जानता हूँ कि थॉमस भ्रष्ट नहीं हैं।’’ उनकी याचिका के सहयाचिकाकर्ता भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री लिंग्दोह ने भी थॉमस के सच्चरित्र होने का वक्तव्य जारी किया था। यानि सच्चरित्र होने पर भी यदि जनता को संदेह है तो उस व्यक्ति को पद पर नहीं रहना चाहिए। ऐसा आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने इस केस में दिया। जिसके बाद थॉमस को जाना पड़ा।

वही प्रशांत भूषण थॉमस से जो अपेक्षा रखते थे, उसे अपने ऊपर लागू नहीं करना चाहते। जब दोनों पिता-पुत्र के आचरण पर इतने सारे सवाल खड़े हो गये हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की भावना के अनुरूप इन दोनों को लोकपाल विधेयक बनाने वाली समिति से हट जाना चाहिए। पर विडम्बना देखिए कि न तो वे खुद हटना चाहते हैं और न ही उनके साथी किरण बेदी, अरविन्द केजरीवाल और संतोष हेगडे़ इससे सहमत हैं। बेदी का तो एक टी.वी. चैनल पर कहना था कि भूषण बंधु अगर भ्रष्ट भी हैं तो हम केवल उनकी कानून में दक्षता का लाभ ले रहे हैं। इसी तरह की बात एक राष्ट्रीय अंग्रेजी टी.वी. चैनल पर बहस के दौरान जस्टिस हेगडे़ और भारत के पूर्व महाअधिवक्ता सोली सोराबजी ने मुझसे कही। मेरा जबाव था कि जिस व्यक्ति के चरित्र पर संदेह हो और जो अतीत में भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े गये युद्धों में निहित स्वार्थों के कारण रोड़े अटकाता रहा हो, ऐसे व्यक्ति से पारदर्शी कानून बनाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?

फिलहाल इस बहस को अगर यहीं छोड़ दें तो सवाल उठता है कि इस वाली ‘सिविल सोसाइटी’ ने परदे के पीछे बैठकर जल्दबाजी में सारे फैसले कैसे ले लिए। देश को न्यायविदों के नाम सुझाने का 24 घण्टे का भी समय नहीं दिया। पिता-पुत्र को ले लिया और विवाद खड़ा कर दिया। ज़ाहिर है इस पूरी प्रक्रिया में किसी दूरगामी षडयंत्र की गन्ध आती है। जिसका खुलासा आने वाले दिनों में हो जायेगा। समिति के प्रवक्ताओं का यह कहना कि इस विधेयक को इन पिता-पुत्र के अलावा कोई नहीं तैयार कर सकता, बड़ा हास्यास्पद लगता है। 121 करोड़ के मुल्क में क्या दो न्यायविद् भी ऐसे नहीं हैं जो इस कानून को बनाने में मदद कर सकें? हजारों हैं जो इनसे कहीं बढ़िया और प्रभावी लोकपाल विधेयक तैयार कर सकते हैं। वैसे इस विधेयक को तैयार करने के लिए न्यायविदों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका अपराध विज्ञान के विशेषज्ञों की होगी। जो भ्रष्टाचार की मानसिकता को समझते हैं और उससे निपटने के लिए कानून बना सकते हैं। पर समिति की नीयत साफ नज़र नहीं आती और वह दूसरों पर आरोप लगा रही है कि उसके खिलाफ षडयंत्र रचा जा रहा है। पाठक जानते हैं कि हम पिछले कितने वर्षों से उन षडयंत्रों के बारे में लिखते आ रहे हैं जो निहित स्वार्थ भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े जा रहे संघर्षों को पटरी पर से उतारने के लिए रचते हैं। इसमें हमने भूषण पिता-पुत्रों और रामजेठमलानी व जे.एस.वर्मा की भूमिका का भी उल्लेख कई बार किया है। हमारा सी.डी. विवाद से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि हम अन्ना हज़ारे की माँग का पूरा समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़े कानून बनें। पर इस तरह नासमझी से और रहस्यमयी तरीके से नहीं, जैसा आज हो रहा है।

समिति के सदस्य विरोध कर रहे हैं कि जो हो रहा है उसे रोकने की कोशिश की जा रही है। पर लोग जानना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के कारणों पर आघात करने की इस समिति की क्या योजना है? तथाकथित ‘सिविल सोसाइटी’ नेताओं और अफसरों के विरूद्ध तो कड़े प्रावधान लागू करना चाहती है, लेकिन यह भूल रही है कि भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से नहीं बजती। भ्रष्टाचार बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ, बड़े औद्योगिक घरानों का देखा गया है। जो थोड़ी रिश्वत देकर बड़ा मुनाफा कमाते हैं। ऐसे उद्योगपतियों को पकड़ने का लोकपाल विधेयक में क्या प्रावधान है? इसके साथ ही यह भी देखने में आया है कि स्वंयसेवी संस्थाऐं (एन.जी.ओ.) जो विदेशी आर्थिक मदद लेती हैं, उसमें भी बड़े घोटाले होते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाऐं भी भारत में बड़े घोटाले कर रही हैं। तो ऐसे सभी मामलों को जाँच के दायरे में लेना चाहिए। क्या समिति इस पर विचार करेगी? सबसे बड़ा सवाल तो ईमानदार लोकपाल को ढूंढकर लाने का है। जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट आचरण करते रहे हों तो यह काम बहुत मुश्किल हो जाता है।

अन्ना हज़ारे के आन्दोलन की सबसे अच्छी बात यह है कि इससे शहरी युवा जुड़ गया है। जिसके लिए अरविन्द केजरीवाल की मेहनत को बधाई देनी चाहिए। पर साथ ही यह बात समझ में नहीं आती कि केजरीवाल और उनके बाकी साथी भूषण पिता-पुत्र के अनैतिक आचरण को क्यों अनदेखा कर रहे हैं? लोकपाल विधेयक तो अभी बनेगा। फिर लोकपाल चुना जायेगा। फिर वो जाँच करेगा। फिर कुछ नेता और अफसर पकड़े जायेंगे। यानि इस प्रक्रिया को पूरा होने में कम से कम दो साल तो लगेंगे ही। 2013 में जाकर कहीं परिणाम आयेगा, अगर आया तो? पर यह काम तो 20 साल पहले 1993 में ही मैंने कर दिया था। देश के 115 बड़े राजनेताओं, केन्द्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, विपक्ष के नेताओं व बड़े अफसरों को, बिना लोकपाल के ही, ‘जैन हवाला काण्ड’ में भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़वा दिया था। सबको जमानतें लेनी पड़ी थीं। भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ था। फिर इस सफलता को विफलता में बदलने का काम प्रशांत भूषण-शांति भूषण, उनके गुरू रामजेठमलानी और उनकी मण्डली के साथी जस्टिस जे.एस.वर्मा ने क्यों किया? मुझे डर है कि जिस तरह उन्होंने ‘हवाला केस’ में घुसपैठ कर उसे पटरी से उतार दिया, उसी तरह ये लोकपाल बिल के आन्दोलन को भी अपने निहित स्वार्थों के लिए कभी भी पटरी से उतार सकते हैं और तब अन्ना हजारे जैसे लोग ठगे से खड़े रह जायेंगे। पर कान के कच्चे अन्ना हजारे को भी यह बात समझ में नहीं आ रही। वे बिना तथ्य जाने ही बयान देते जा रहे हैं या उनसे दिलवाये जा रहे हैं। ऐसे में लोकपाल विधेयक समिति कितनी ईमानदारी से काम कर पायेगी, कहा नहीं जा सकता? फिर इस विधेयक से देश का भ्रष्टाचार दूर हो जायेगा, ऐसी गारण्टी तो इस समिति के सदस्य भी नहीं ले रहे। फिर भी धरने के दौरान टी.वी. चैनलों पर इन्होंने जोर-जोर से यह घोषणा की कि, ‘यह आजादी की दूसरी लड़ाई है और यह विधेयक पारित होते ही भारत से भ्रष्टाचार का खात्मा हो जायेगा।’ ऐसा हो, तो हम सबके लिए बहुत शुभ होगा। पर ऐसा होगा इसके प्रति देश के गम्भीर लोगों में बहुत संशय है। उनका कहना है कि जब इस विधेयक को बनाने वाले कुछ सदस्य ही दागदार हैं तो वे देश के दाग कैसे मिटायेंगे?

Sunday, April 17, 2011

जनलोकपाल विधेयक की सीमाऐं

Rajasthan Patrika 17 Apr 2011
जनलोकपाल विधेयक को तैयार करने वाली समिति की बैठकें होना शुरू हो गयीं हैं। साथ ही इस समिति के सदस्यों और उनके विचारों पर कई ओर से सवाल खड़े किए जा रहे हैं। जहाँ आन्दोलनकारी इस विधेयक को पारित कराने के लिए दृढ़ संकल्प लिये हुए हैं, वहीं राजनैतिक माहौल इसके विरूद्ध बन रहा है। हमें इन दोनों ही पक्षों का निष्पक्ष मूल्यांकन करना चाहिए। 

जहाँ तक जनलोकपाल विधेयक को लाने की बात है तो इस पर देशव्यापी बहस की जरूरत है। 40 बरस पहले जब आजादी नई-नई मिली थी, तब सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार का अंश नगण्य था। उच्च पदों पर बैठने वाले लोग चरित्रवान थे और समाज में भ्रष्टाचार के प्रति घृणा का भाव था। इसलिए तब अगर लोकपाल विधेयक पारित हो जाता तो हालात शायद इतने न बिगड़ते। पर आज यह विधेयक अपनी सार्थकता खो चुका है। जब देश की न्यायपालिका, सी.बी.आई., आयकर विभाग, पुलिस तंत्र आदि मिलकर भी भ्रष्टाचारियों को पकड़ नहीं पाते, उन्हें सजा नहीं दिलवा पाते तो एक अकेला लोकपाल कौन-सा तीर मार लेगा? लोकपाल क्या भारत के मुख्य न्यायाधीश से ज्यादा ताकतवर होगा? भारत के मुख्य न्यायाधीश को आज भी यह शक्ति प्राप्त है कि वह देश के प्रधानमंत्री को जेल भेज सकता है। उसका आदेश कानून बन जाता है जबकि लोकपाल को ऐसा कोई अधिकार नही होगा।

पर चिंता की बात यह है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर भी एक के बाद एक कई भ्रष्ट आचरण वाले व्यक्ति बैठ चुके हैं। फिर लोकपाल कौन-से वैकुण्ठ से ढूंढ कर लाया जायेगा? ऐसी कौन-सी चयन समिति होगी जो इस बात की गारण्टी कर सके कि उनके द्वारा चुना गया व्यक्ति गलत आचरण नहीं करेगा? फिर लोकपाल शिकायत भी लेगा, जाँच भी करायेगा और सजा भी देगा, ऐसी मांग जन लोकपाल विधेयक में की जा रही है। क्या ऐसी व्यवस्था बनाना सम्भव है, जिसमें एक व्यक्ति को इतने सारे अधिकार दे दिए जायें?

महत्वपूर्ण बात यह भी है कि भ्रष्टाचार केवल राजनेताओं, अफसरों और न्यायपालिका तक ही सीमित नहीं, इसकी जड़ें काफी फैल चुकी हैं। जन लोकपाल विधेयक कैंसर का इलाज सिरदर्द की गोली से करने जैसा है। ऐसा काफी लोगों का मानना है।

जनलोकपाल विधेयक पर बहस हो, यह तो इस विचार के हित की बात है। पर अटपटी बात यह है कि अन्ना हजारे के धरने को अचानक मिली इस आशातीत सफलता से देश की राजनैतिक बिरादरी में हड़कम्प मच गया है। यू.पी.ए. के नेताओं से लेकर विपक्ष के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी तक अन्ना के विरूद्ध कड़ी प्रतिक्रियाऐं व्यक्त कर रहे हैं। राजनेताओं का यह व्यवहार उचित और समय के अनुकूल नहीं है। इस तरह की घटनाऐं जब बिना किसी पूर्व सूचना के होती हैं, तो उसे दैव इच्छा मानना चाहिए। परमशक्ति या प्रकृति, जो भी कहंें, समय पर ऐसी चेतावनियाँ देती रहती हैं। जिसे समझना चाहिए। सुनामी, भूकम्प, टोरनाडो और मौसम में तीखे बदलाव, इस बात की चेतावनी है कि हम अपनी पृथ्वी, सागर और आकाश से अविवेकपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं। इसी तरह देशभर के लोगों का अन्ना के समर्थन में एक साथ जुट जाना और शोर मचाना, इस बात की चेतावनी है कि देश की जनता भ्रष्टाचार को अब और बर्दाश्त नहीं करना चाहती। अगर हमारे राजनेता इस पर तीखी प्रतिक्रिया करेंगे तो जनता और नेतृत्व के बीच संघर्ष बढ़ेगा, टकराव होगा और अराजकता भी फैल सकती है। अगर वे संजीदगी से इस चेतावनी को समझने का प्रयास करेंगे और जनता के आक्रोश का समाधान ढूढेंगे तो उन्हें किसी तरह का भय भी नहीं रहेगा और समाज और देश भी ठीक रास्ते पर आगे बढ़ेगा। इसलिए अन्ना का विरोध नहीं, सम्मान करना चाहिए।

महाराष्ट्र के रालेगाँव सिद्धि के एक वयोवृद्ध गाँधीवादी, निष्काम सेवी अन्ना हजारे जो कल तक केवल महाराष्ट्र सरकार के भ्रष्टाचार के विरूद्ध बिगुल फूंकते रहे थे, आज रातों-रात पूरे भारत के सितारे बन गये हैं। देश के हर कोने से अन्ना हजारे के समर्थन में शहरी मध्यम वर्ग ने आवाज उठायी है। यही वो वर्ग है जो मीडिया से प्रभावित होता है और मीडिया प्रायः इसी वर्ग को ध्यान में रखकर मुद्दे उठाता है।

जबसे अन्ना का धरना सफल हुआ है, तबसे दिल्ली के गलियारों में यह चर्चा है कि अन्ना को यू.पी.ए. सरकार ने प्रायोजित करके धरने पर बैठाया। क्योंकि वह गत् दो वर्षों से बाबा रामदेव के हमलों से तिलमिला गयी थी। इसलिए वह अन्ना हजारे को सामने लाकर बाबा रामदेव के आन्दोलन की हवा निकालनी चाहती थी। जो कुछ लोगों की नजर में निकल भी गयी है। बाबा रामदेव के अनुयायियों को भी इस बात पर आश्चर्य है कि धरने के शुरू के तीन दिन भारत माता के चित्र के सामने वन्दे मात्रम के नारे लगाने वाली भीड़ अचानक हट गई और मंच व जनता के बीच साम्यवादी नारे ‘इंक्लाब जिंदाबाद’ लगने लगे। उनका भी यह आरोप है कि इस धरने ने बाबा रामदेव के आन्दोलन का मंच छीन लिया।

इस विवाद में न पड़कर, जो देश के लिए आवश्यक है, उस पर ध्यान देने की जरूरत है। बाबा रामदेव हों, अन्ना हजारे हों या भ्रष्टाचार से लड़ने वाले देश के दूसरे योद्धा हों, समय की माँग है कि सब एकजुट होकर भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक जंग छेड़ें और समाज को इस हद तक बदलें कि हमारा बाकी जीवन और हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भ्रष्ट आचरण करने के लिए मज़बूर न हों।

जरूरत इस बात की है कि न्यायपालिका और पुलिस तंत्र में आ गयी खामियों और गिरावट को दूर करवाने का माहौल बनाया जाये। भ्रष्टाचार से लड़ने वाले सभी लोग साझे मंच से देशवासियों को बतायें कि वे अपने इर्द-गिर्द हो रहे भ्रष्टाचार पर कैसे निगाह रखें और जाँच एजेंसियों और न्यायपालिका पर कैसे दबाव बनायें कि भ्रष्ट आचरण करने वाले बच न सकें? यह ठोस और स्थायी प्रक्रिया होगी। इससे समाज में बदलाव आयेगा। एक लोकपाल लाकर बैठा देने से समाज नहीं बदलेगा। इस बात की पूरी सम्भावना है कि इस नई प्रस्तावित संस्था का भी वही हश्र हो, जो केन्द्रीय सतर्कता आयोग का हुआ। हमें सही दिशा में सोचना और आगे बढ़ना है व जनता के आक्रोश को उस दिशा में ले जाना है, जहाँ भ्रष्टाचार रूपी कैंसर का हल निकल सके।

Sunday, April 10, 2011

अरब देशों में क्या जे़हाद का परचम लहरायेगा ?


Rajasthan Patrika 10 Apr 2011
अरब देशों में जो हलचल इस वक्त मची हुई है, उसे दुनिया, खासकर यूरोप और अमरीका दिल थामकर देख रहे हैं। क्योंकि इस बात के साफ संकेत मिल रहे हैं कि अगर इन देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित होती है तो मज़हबी मानसिकता वाले दल, जैसे मुस्लिम ब्रदरहुड या हमास हावी रहेंगे। उस स्थिति में ट्यूनिशिया, मिस्र, लीबिया, सीरिया व यमन में क्या जेहादी मानसिकता का बोलबाला हो जायेगा? क्योंकि इन संगठनों की, इन देशों की आवाम पर अच्छी पकड़ है। हमास ने तो कभी इज़रायल के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं किया और लगातार वहाँ आत्मघाती हमले करता रहा है। ऐसी हालत में लोकतंत्र की स्थापना की यह कवायद बेमानी हो जायेगी। जैसाकि पाकिस्तान में हो रहा है। जहाँ पिछले कुछ वर्षों में लगभग 40 हजार लोग आतंकी हमलों में मारे जा चुके हैं। ज़ाहिर-सी बात है कि अगर ऐसी हुकूमतें इन देशों में काबिज़ होती हैं तो वे सभी गैर इस्लामी देशों के लिए खतरा बन जायेंगी। इसलिए पश्चिमी देशों का चिंतित होना स्वाभाविक है।

पर ज़मीनी हकीकत कुछ और भी बयान कर रही है। जन आन्दोलनों की जो बात इन देशों में आयी है। उसकी पृष्ठभूमि में युवा पीढ़ी का आक्रोश, जो अपने तानाशाह हुक्मरानों या तेल निर्यातक देशों के शेखों के विलासितापूर्ण जीवन से बेहद नाराज हैं। इन युवाओं ने फेसबुक और इण्टरनेट का सहारा लेकर इन आन्दोलनों की ज़मीन तैयार की है। ये वो पीढ़ी है जो कट्टरपंथी इस्लाम की ज़ेहादी मानसिकता से इŸाफाक नहीं रखती। दुनिया की अपनी समझ और आगे बढ़ने की महŸवकांक्षा ने इनके मन में यह बात बैठा दी है कि जे़हादी मानसिकता ने इस्लाम की छवि पूरी दुनिया में खराब की है। यह पीढ़ी मज़हब के खिलाफ नहीं है, पर मज़हब को राजनीति और आर्थिक प्रगति पर हावी होने भी नहीं देना चाहती। इस पीढ़ी ने कठमुल्ला मानसिकता वाले सामाजिक या राजनैतिक नेताओं से भी तीखी बहस छेड़ दी है। यह बहस उनके मुल्कों के राजनैतिक ढाँचे के प्रारूप और उसके भविष्य को लेकर है। इसलिए यह मानना कि अरब देशों की क्रांति दुनिया में जे़हाद बढ़ा देगी, सही नहीं होगा। क्योंकि ये युवापीढ़ी ऐसा आसानी से होने नहीं देगी।

दूसरी तरफ, जहाँ तक मुस्लिम ब्रदरहुड की बात है, उसका रवैया भी बदला हुआ है। दशकों बाद फिर से अपनी राजनैतिक ज़मीन तलाशता हुआ यह बड़ा संगठन मौजूदा हालातों का आंकलन कर रहा है और इसके नेता बार-बार दुनिया की मीडिया के सामने यह बात रख रहे हैं कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो उनका स्वरूप शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का होगा। जिसमें दूसरे मज़हबों, खासकर ईसाइयों और यहूदियों के प्रति कोई द्वेष भावना नहीं होगी। वे ज़ेहाद को समर्थन नहीं देंगे। वे लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करेंगे। वे शरीयत के कानून को उस हद तक ही लागू करेंगे, जिसमें आदमी के मौलिक अधिकारों का हनन न हो। वे शरीयत के कानून के अनुसार महिलाओं को दबायेंगे नहीं, बल्कि उन्हें अपने हक के साथ खुलकर जीने और आगे बढ़ने का मौका देंगे।

पर जैसा हम सब अनुभव से जानते हैं कि इस्लाम के मानने वाले समाज में व्यापक अशिक्षा के कारण कठमुल्ले नेतृत्व का प्रभाव और पकड़ कहीं ज्यादा गहरी और व्यापक होती है। यह वह वर्ग है जो किसी भी धर्म का हो, धर्मान्धता के बाहर न निकल पाता है और न ही सोच पाता है। धर्म के नाम पर दुनिया में पिछले दो हजार सालों में जो हजारों युद्ध हुए हैं और जिनमें करोड़ों लोग मारे गये हैं, औरते बेवा हुयी हैं और बच्चे यतीम हुए हैं, संस्कृतियाँ नष्ट हुयी हैं और खून की नदियाँ बही हैं, वह सब इस धर्मान्धता के कारण ही हुआ है। मज़हब इन लोगों के कारण आदमी को रूहानी नहीं, हैवान बना देता है। फिर भी यह हर मज़हब में बकायदा अपना वजू़द रखते हैं और मौका मिलते ही हावी हो जाते हैं। अरब देशों में अगर नयी राजनैतिक व्यवस्था बनती है तो यह वर्ग निज़ाम और रियाया पर हावी होने की पुरज़ोर कोशिश करेगा। पर दूसरी ओर हमारे सामने मलेशिया, इण्डोनेशिया और तुर्की का उदाहरण है। जहाँ सत्तारूढ़ दल और सरकार दोनों ही इस्लाम को मानते हैं। पर उनकी हुकूमत में हर मज़हब के लोग खुलकर जीते हैं और बराबरी का दर्जा हासिल किये हैं। एक दूसरे के प्रति नफरत नहीं, बल्कि प्रेम और सौहार्द का सम्बन्ध है। यह आदर्श स्थिति है। जिसे अरब देशों की आवाम को अपनाना चाहिए। इस जियो और जीने दोके माहौल में पूरी दुनिया में अमनचैन और तरक्की होगी।

उधर पश्चिमी दुनिया के देशों को भी यह समझना होगा कि यूरोप और अमरीका की तरह धर्मनिरपेक्ष सत्ता की स्थापना पूर्वी देशों में सम्भव नहीं है। फिर वो अरब हो या दक्षिण एशिया या दक्षिण-पूर्व एशिया। यहाँ का समाज धर्म, संस्कृति और राजनीति के घालमेल में भेद नहीं करता। पश्चिमी देशों में मध्य युग में चर्च की हुकूमत और दखलअंदाजी के खिलाफ जो जनान्दोलन हुए थे, उन्होंने धर्म संस्कृति को राजनीति से अलग करके ही दम लिया। इसलिए उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की परिकल्पना विकसित की। जबकि हमारे समाजों में धर्म को सत्ता का मार्गदर्शक माना गया है। फिर वो चाहे इस्लाम हो, हिन्दू धर्म हो या बौद्ध धर्म हो। हाँ, इस सम्बन्ध में बड़ी नाज़ुकता होती है। इसलिए संतुलन बनाकर चलना होता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इण्टरनेट के मार्ग पर दुनिया से जुड़ी अरब देशों की युवापीढ़ी इस ऐतिहासिक और सामाजिक तथ्य को संजीदगी से समझेगी और ऐसी व्यवस्था कायम करवायेगी जिससे दुनिया में अमन चैन कायम हो।