Sunday, July 18, 2010

दलित मुख्यमंत्री के राज में निषाद दुखी क्यों?

भगवान राम को सरयू पार कराने वाले निषाद राज केवट ने राम राज में तो सुख भोगा पर यह कभी नहीं सोचा होगा कि कलियुग में जब दलितों का राज आयेगा तो निषादों की संतानों पर अत्याचार होंगे और उनसे उनके जीने के साधन छीन लिये जायेंगे। प्रयागराज इलाहाबाद में यमुना, गंगा व सरस्वती का मिलन स्थल है। यहां लगभग 300 किमी0 यमुना का कछार बहुत बढि़या यमुना रेत से पटा पड़ा है। जिसे खोद कर बेचने का पारंपरिक कानूनी हक स्थानीय समुदाय को होता है, जो इस इलाके में निषाद है। पर स्थानीय खनन माफिया के चलते आज यह निषाद समुदाय दर-दर की ठोकरे खा रहा है। दुर्भाग्यवश भाजपा, बसपा व सपा के स्थानीय विधायक और नेता भी या तो खनन माफिया के साथ हैं या सीधे लूट में शामिल हैं।

इतना ही नहीं उनके पारंपरिक रोजगारों पर भी इसी माफिया का नियंत्रण है। नदी के किनारे गैर मानसूनी महीनों में खेती करना या नाव पार कराना या मछली पकड़ना स्थानीय समुदाय के नैसर्गिक अधिकार हैं। पर यह सब करने के लिए भी उन्हें स्थानीय माफियाओं को टैक्स देना पड़ता है। जैसे खादर में लगने वाले तरबूज के हर पौधे पर पांच रू0, मछली पकड़ने पर हर किलो 50 रु0। इतना ही नहीं नाव चलाने का ठेका भी किसी निषाद के नाम पर लेकर उसे कोई माफिया ही चलाता है और खुद लाखों कमाता है जबकि निषाद भूखे मरते हैं। इलाहाबाद की बारह, कर्चना तहसील, कोशाम्बी की छैल व मंझनपुर तहसील और चित्रकूट की मउ तहसील के निषादों को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान से पढ़े डाॅ. आषीश मित्तल व उनके साथियों ने आल इंडिया किसान मजदूर सभाके झंडे तले संगठित कर इस शोषण के विरुद्ध लगतार बार-बार प्रर्दशन किये। जिला प्रशासन को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सन् 2008 के आदेश व प्रदेश सरकार के सन् 2000 के आदेशों का हवाला दिया। पर कोई सुनवाई नहीं हुई। बल्कि इन सबके विरुद्ध पुलिस और गुंडों का आतंक बढ़ता गया। बार-बार संघर्ष हुये। जिनमें मजदूर घायल हुये और मारे भी गये। पर पुलिस और प्रशासन का रवैया खनन माफियाओं की तरफदारी वाला रहा और माफिया द्वारा सताये जा रहे निषादों के खिलाफ दर्जनों फर्जी मुकदमें कायम कर दिये गये। बावजूद इसके इन जुझारू निषादों का मनोबल नहीं टूटा और यह आज भी अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। क्या यह संभव है कि दलितों के लिए दबंगाई से आवाज उठाने वाली सुश्री मायावती, जोकि प्रदेश की पहली बहुमत वाली दलित सरकार की नेता हैं, को इस दमन चक्र का पता ही न हो?

ऐसी ही लड़ाई छत्तीसगढ़ क्षेत्र में वर्षोंं से छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा स्थानीय वनवासियों के हक के लिए लड़ रहा है। जिनके जंगल, पहाड़ और खदानों पर बाहरी माफियाओं ने कब्जा कर लिया है। इनके लोकप्रिय नेता शंकर गुहा नियोगी की 90 के दशक में माफियाओं द्वारा हत्या कर दी गयी थी। पर उससे उनका संघर्ष दबा नहीं और तीव्र हो गया। यहां तक की उनके ही मजदूर साथी जनक लाल ठाकुर विधायक भी चुन लिये गये। उल्लेखनीय है कि जनक लाल ठाकुर ने न तो मजदूरों की बस्ती में रहना छोड़ा और ना ही उनकी मां ने खदान में पत्थर तोड़ना छोड़ा। 1994 से मैं कई बार रायपुर, राजनंद गांव, भिलाई, दुर्ग, कांकेड़ के इन इलाकों में इन संघर्षों को देखने जा चुका हूं। आईआईटी और लंदन स्कूल आॅफ इक्नाॅमिक्स से पढ़ी सुधा भारद्वाज या दिल्ली के प्रतिष्ठित सैंट स्टीफेंस काॅलेज से पढ़े अनूप सिंह जैसे युवा जो इन मजदूर बस्तियों में रह कर इन मजदूरों को संगठित करते रहे है, कोई अहमक लोग नहीं हैं। गरीब का दर्द उनसे देखा नहीं गया। इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गुलामी और महानगरों की आरामदेह जिंदगी छोड़ इन खदानों में जिंदा शहीद होने चले आये।
तीसरा उदाहरण इन दोनों से अलग है। पर घटनाक्रम एक सा है। राजस्थान के भरतपुर जिले में डीग और काॅमा तहसील के पर्वतों की रक्षा के लिए गत आठ वर्षों से जो संघर्ष चला उसके प्रणेता विरक्त संत रमेश बाबा हैं। जिन पर नक्सलवादी होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। इस संघर्ष में अपनी आध्यात्मिक रूचि के कारण युवा साधु संतों और स्थानीय ग्रामीणों के साथ मैने और मेरे कई साथियों ने अपनी ऊर्जा लगाई। पर अनुभव वैसे ही हुए जैसे नक्सलवादी या प्रगतिशील नेतृत्व वाले संगठनों को होते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि इन पर्वतों का श्रीकृष्ण लीला में भारी महत्व रहा है। उन दिनों राजस्थान में भाजपा की सरकार थी। फिर भी भगवान की लीलास्थली की रक्षा के लिए हमें वर्षों संघर्ष करना पड़ा। बोलखेड़ा के ग्रामवासियों और धरने पर बैठे युवा साधुओं पर झूठे मुकदमें लगाये गये। 7 दिसम्बर 2006 को खान माफियाओं और स्थानीय भाजपा अध्यक्ष ने खुद खड़े होकर ब्रज रक्षक दल की गाड़ी पर हमला किया जिसमें मेरे अलावा भाजपा के राज्य सभा सांसद व उ0 प्र0 के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे बी.पी. सिंघल सहित अन्य लोग भी सवार थे। यह हमें जान से मारने की साजिश थी। पर भगवत् कृृपा से पूरी तरह तोड़ दी गयी गाड़ी में भी जान बचाकर निकल सके। हमारा 32 किमी0 तक पीछा गया। आश्चर्य की बात है कि तमाम चश्मदीद गवाहों के वहां मौजूद होने के बावजूद पुलिस ने इन आक्रमणकारियों के खिलाफ आज तक ईमानदारी से जांच तक नहीं की, कारवाई करना तो दूर की बात रही। इन पर्वतों को आरक्षित वन घोषित करने वाले इंका के मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत को शायद इस घटना की जानकारी नहीं। वरना ये हमलावर अब तक बेखौफ नहीं घूमते।

बसपा, भाजपा व इंका शासित इन तीनों राज्यों की इन घटनाओं के संदर्भ में  सोचना हागा कि अगर नक्सलवाद, केन्द्रीय गृहमंत्री और प्रधानमंत्री के लिए सबसे बड़ी समस्या बन गया है तो दोष किसका है? नक्सलवादियों का या उस पुलिस, शासन व न्यायतंत्र का जो आम लोगों के प्राकृतिक हक को छीन कर, दानवीवृत्ति से उनके परिवेश व जीने के साधनों को बर्बाद करने वाले खनन माफियाओं का साथ देता है?

Sunday, July 11, 2010

क्या फुटबाल क्रिकेट को धकिया देगी?

क्रिकेट की तरह तो अभी नहीं हुआ पर फुटबाल का बुखार अब भारत पर भी चढ़ गया है। चढ़ना भी चाहिए था। फुटबाल आम जनता का खेल है। बंगाल और गोवा ही नहीं भारत के पहाड़ी अंचलों में भी फुटबाल लोकप्रिय खेल है। पर इसे कभी ऐसी ख्याति नहीं मिली। जैसी फीफा के कारण मिल रही है। इसका एक कारण भारत में ंचैबीस घंटे चलने वाले 59 टीवी समाचार चैनल भी हैं। जो दिन में कम से कम ढाई घंटे फुटबाल दिखा रहे हैं। इससे इस खेल के प्रति उत्सुकता बढ़ी है। इतने समाचार चैनल तो पूरे यूरोप में भी नहीं। हमारे अखबार भी पहले फुटबाल की खबर खेल के पन्ने पर छोटी सी देते थे। अब फुटबाल पर विशेष संस्करण निकाल रहे हैं।

वैसे भी फुटबाल 134 देशों में खेली जाती है, जबकि क्रिकेट मात्र 13-14 देशों में। औपनिवेशिक देश होने के कारण हमारे देश के कुलीन वर्ग ने क्रिकेट को बड़ी आसानी से अपना लिया। यह प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया। बाद में बाजार की रूचि इस खेल में बढ़ी तो विज्ञापन जगत ने इसे घर-घर का खेल बना दिया। क्रिकेट के खिलाड़ी फिल्मी सितारों से भी ज्यादा विज्ञापनों में दिखने लगे। पर पिछले दशक में विशेष कर पिछले तीन वर्षों में फुटबाल की तरफ बाजार का ध्यान गया। अब फुटबाल उठान पर है। विश्व कप फाईनल देखने भारत से फिल्मी सितारे, उद्योगपति ही नहीं उत्तर-पूर्वी राज्यों के मंत्रीमंडल तक दक्षिण अफ्रिका पहुंच गये हैं। पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा आम दर्शक इस खेल को देखने भारत से जा रहे हैं। यह इसलिए अच्छा है कि एक कम खर्चीले, ज्यादा गतिमान और आम जनता के खेल को बढ़ावा मिल रहा है। पर फुटबाल  के प्रति क्या यह अचानक उमड़ा प्रेम है या यह भी बाजार की एक नई चाल?

देश के सट्टेबाजों से पूछा जाये तो पता चलेगा कि जिस खेल के प्रति देश में कोई रूचि नहीं थी आज उस पर देश में अरबों रूपये का सट्टा लग रहा है। आॅक्टोपस ही नहीं भारत में तोते, गौरेया और तीतर से भविष्य पढ़वाने वालों की भी चांदी हो गयी है। सब सट्टेबाज इनकी तरफ भाग रहे हैं। ताकि भविष्यवाणी जानकर पैसा लगायें। इसलिए इसे एक सामान्य घटना न माना जाये। जाहिरन फुटबाल को लोकप्रिय बनाकर विज्ञापन जगत और सट्टेबाज अपना एक नया बाजार खड़ा करना चाहते हैं। दर्शकों को लुभाने के लिए कार्यक्रमों में आकर्षण होना जरूरी है। क्रिकेट का कवरेज धीरे-धीरे अपना आकर्षण खोने लगा था। आपने पिछले कुछ वर्षों में क्रिकेट मैच के दौरान खाली दर्शक दीर्घाओं को टीवी पर देखा होगा। इसलिए यह एक सोची समझी रणनीति का परिणाम भी हो सकता है। जैसे साबुन या डिटर्जेंट कंपनी अपने उसी उत्पादन को हर वर्ष नये नाम और नये गुणों से भरा बता कर नये-नये विज्ञापनों के माध्यम से बाजार में लाती रहती है। इससे पहले कि क्रिकेट का बुखार उतरे फुटबाल का बुखार चढ़ना शुरू हो गया है। खैर, यह तो पर्दे के पीछे की बातें हैं। आम आदमी को तो जो सामने दिखता है वही सच लगता है और वही अच्छा भी लगता है। चाहे वह नकली ही क्यों न हो। स्वाईनफ्लू का कितना आतंक मचाया गया? पर आज पश्चिमी देशों में भी कुछ जागरूक नागरिकों के कारण यह तथ्य सामने आ रहा है कि दवा कंपनियों ने स्वाईनफ्लू का झूठा आतंक खड़ा किया था। जिससे उन्हें अरबों-खरबों को मुनाफा हो गया।

फिलहाल फुटबाल के मौजूदा बुखार की बात की जाये तो इसमें सबसे सुखद पक्ष यह है कि अब आजादी मिलने के इतने वर्षों के बाद फुटबाल धीरे-धीरे मुख्य धारा का खेल बनता जा रहा है। हमें खुश होना चाहिए कि इससे हमारे बच्चे एक ऐसे खेल में शरीक होंगे कि जो उनके शरीर को सेहतमंद बनायेगा। इस दृष्टि से इस बुखार को बढ़ने देना चाहिए। वैसे भी गरीब और अमीर सब इस खेल को खेल सकते हैं और इसका आनंद ले सकते हैं।

भारत के खेल मंत्रालय को इस बुखार का फायदा उठाना चाहिए और स्कूल और काॅलेजों में इसको बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रम चलाने चाहिए। अगर स्पेन 32 वर्ष बाद फुटबाल के दिग्गजों को हरा कर सामने आ सकता है तो भारत को भी फुटबाल में विश्व खिताब जीतने का लक्ष्य बनाना चाहिए। हो सकता है आने वाले दिनों में फुटबाल की भी आईपीएल जैसी स्थिति बन जाये। जब बड़े-बड़े विनिवेशक इस खेल में पैसा लगाने लगे। तब हो सकता है कि अच्छे खिलाडि़यों को तैयार करने के लिए बढि़या प्रशिक्षण के भी इंतजाम किये जाये। अमरीका में भी फुटबाल की टीमों के मालिक बड़े-बड़े उद्योगपति और फाईनेंसर होते हैं जो आईपीएल की तरह पैसा लगाते हैं और करोड़ों कमाते हैं। आज बाजारीकरण के दौर में हर चीज बिकाऊ है तो फुटबाल क्यों पीछे रहे? अब तो इंतजार होगा फुटबाल के उन सितारों का जो धोनी और तेंदुलकर की तरह भारत के युवाओं के हृदय पर छा जायेंगे। तब हमें इस खेल से आम जनता को होने वाले लाभ की तरफ निगाह रखनी होगी।

Sunday, June 27, 2010

एंडरसन विवाद - इंका शर्मसार क्यों?

यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन अध्यक्ष वारेन एंडरसन को भारत से सुरक्षित भगाने के लिए जिम्मेदार लोगों को लेकर काफी विवाद खड़ा हो गया है। इंका में आपसी आरोप-प्रत्यारोप भी लगाये जा रहे हैं। उधर भाजपा के नेताओं पर भी इस मामले में गुनहगार कम्पनी के खिलाफ राजग सरकार के दौरान कोई कार्यवाही न करने के आरोप लग रहे हैं। इस पूरे विवाद में इंका के प्रवक्ता दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के बचाव में खड़े हो गये हैं।

यह सही है कि मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने वारेन एंडरसेन को भोपाल में गिरफ्तार किया था। पर बाद में उसे तुरत-फुरत जमानती कार्यवाही करके पूरी सुरक्षा के साथ विशेष विमान से दिल्ली पहुँचा दिया गया। जहाँ से वो देश छोड़कर भागने में सफल हो गया। इंका के अन्दरूनी स्रोतों का कहना है कि अर्जुन सिंह ने यह दोनों काम अपनी मर्जी से किये, इसमें केन्द्र सरकार की कोई भूमिका नहीं। पर आक्रामक राजनेताओं ने इसे सिरे से खारिज कर दिया है। कई अधिकारियों के बयान भी इस आशय के आये हैं कि अर्जुन सिंह को केन्द्र से आदेश हुए थे एंडरसन को भोपाल से सुरक्षित बाहर निकालने के लिए। इन दोनों ही आरोपों-प्रत्यारोपों में क्या सच है और क्या झूठ, यह तो आने वाले दिनों में और साफ हो जायेगा, पर इस पूरे विवाद का एक दूसरा पक्ष भी है। प्रधानमंत्री कार्यालय के पूर्व मंत्री रहे कमल मोरारका कहते हैं कि इंका को इसमें इतनी सफाई देने की जरूरत क्यों पड़ रही है? वे बताते हैं कि एंडरसन भारत आया ही इस शर्त पर था कि वो भोपाल गैस त्रासदी के नुकसान ज़ायजा ले सके। पर इसके लिए उसने भारत सरकार से सुरक्षित रास्ते की माँग की थी। जो मान ली गयी थी। सुरक्षित रास्ता यानि भारत आकर बिना गिरफ्तार हुए लौट जाने की शर्त। ऐसे में एंडरसन को गिरफ्तार करना वायदे का उल्लंघन होता। क्योंकि हमारा देश एक सम्मानित देश है जहाँ कानून का शासन है और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के नियमों का सम्मान करता है। यह कोई आतंकवादी देश नहीं जहाँ वायदा कुछ किया जाए और फिर धोखे से गिरफ्तार कर लिया जाए। अगर गिरफ्तार ही करना है तो अन्तर्राष्ट्रीय कानून के तहत हमारी पुलिस को अमरीका से अनुमति लेकर वहाँ जाकर गिरफ्तारी करनी होगी। इसलिए उस वक्त एंडरसन का वापिस भेजा जाना सही प्रशासनिक कदम था। जिसके लिए इंका को शर्मसार होने की कोई जरूरत नहीं। इसका अर्थ यह नहीं कि एंडरसन को अपराधी न माना जाए या उसके खिलाफ गिरफ्तारी की प्रक्रिया को ढीला छोड़ दिया जाए।

उल्लेखनीय है कि संवेदनशील स्थितियों में प्रशासनिक और राजनैतिक निर्णय सूझबूझ के साथ लिये जाते हैं और उसके कुछ अघोषित भी नियम होते हैं। उदाहरण के तौर पर मिजोरम के बागी नेता लालढेंगा एक फरार अपराधी थे और देश की पुलिस को उनकी तलाश थी। उसी दौरान उनकी कई बैठक दिल्ली के पाँच सितारा होटलों में प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के निजी सचिव यशपाल कपूर से हुई। श्रीमती गाँधी की श्री कपूर को हिदायत थी कि इन बैठकों की जानकारी पुलिस, मीडिया और खुफिया एजेन्सियों को न दी जाए। क्योंकि श्रीमती गाँधी नहीं चाहती थीं कि लालढेंगा से किसी समझौते पर सहमति हुए बिना ही स्थिति विस्फोटक बन जाए। यह उनकी राजनैतिक सूझबूझ थी। कोई भी समझौता, और वो भी जो राजनैतिक रूप से इतना संवेदनशील हो, एक दो बैठक में नहीं हुआ करता। इसलिए कई बैठकों की जरूरत होती है जो भूमिगत नेता से बात किये बिना सम्भव नहीं था। भूमिगत नेता को अगर गिरफ्तार कर लिया जाता तो समझौते की सम्भावना समाप्त हो जाती। अगर पुलिस को उन्हें पकड़ना ही था तो मिजोरम जाकर लालढेंगा को पकड़ लाती। कानून और पुलिस अपना काम करते हैं और राजनैतिक प्रक्रिया अलग चलती रहती है। पर सुरक्षा के आश्वासन के बाद गुप्त वार्ता करने आये किसी नेता के साथ, चाहे वह अलगाववादी ही क्यों न हो, विश्वासघात नहीं किया जा सकता था।

लालढेंगा और एंडरसन में कोई समानता नहीं है। एक भारत के ही एक प्रांत के उग्रवादी संगठन का नेता था। जो भारत से आजादी चाहता था और दूसरा हजारों निरीह लोगों की अकारण मौत की जिम्मेदार कम्पनी का मुखिया। पर जैसा पहले उल्लेख किया है कि अपराधी को पकड़ने की भी कानूनी प्रक्रिया होती है। जहाँ अन्धा कानून होता है या आतंक का राज होता है, वहाँ तो यह हो सकता है कि अजमल कसाब को चैराहे पर खड़ा करके गोली मार दी जाए। पर कानून के शासन में उस जाने-माने आतंकवादी को भी पूरी कानूनी लड़ाई लड़ने का हक दिया गया। अगर सबूत उसके पक्ष में होते तो वह आसानी से छूट सकता था। क्योंकि इस पूरे मुकदमें की सुनवाई अदालत में हुई। पर उसके खिलाफ इतने सबूत और चश्मदीद गवाह हैं कि उसको फाँसी की सजा सुनाई गयी। यही बात एंडरसन पर भी लागू होती है। तत्कालीन राज्य और केन्द्रीय सरकारों और उसके बाद सत्ता में आयी सरकारों को एंडरसन की गिरफ्तारी की प्रक्रिया को तीव्रगति से आगे बढ़ाना चाहिए था, जो नहीं किया गया और इसके लिए सत्ता में रहे सभी दल जबावदेह हैं। पर फिलहाल जो विवाद खड़ा किया गया है, उसको लेकर तो श्री मोरारका का तर्क काफी ठीक लगता है जिस पर विचार किया जाना चाहिए।

Sunday, June 20, 2010

होलैंड में साइकिल – भारत में कार

भारतीय विदेश सेवा के कितने ही अधिकारी होलैंड गए होंगे. ‍‌‌‌कितने ही हमारे दूतावास में तैनात भी हैं. न जाने कितने मंत्री, सांसद व देश के आला अफसर देश के खर्चे पर होलैंड की यात्रा कर आये हैं ? पर किसी ने आकर देशवासियों को ये नहीं बताया की इतने संपन्न देश में लोगों को कार व स्कूटर मोटरसाइकिल बेचने पर जोर नहीं है, जैसा की आज हमारे देश में है. बल्कि ज़ोर इस बात पर है की वहां की जनता चाहे धनि हो या साधारण ज्यादा से ज्यादा साइकिल पर सफर करे. जिससे पर्यावरण बचे, सडको पर ट्रैफिक की भीड़ न बढे  और पेट्रोलियम पदार्थों की खपत कम हो सके. ज़ाहिर है इससे लोगों की सेहत तो बनेगी ही.

होलैंड में, योरोप में सबसे ज्यादा साइकिल है. वहां के मंत्री, अफसर और पैसेवाले भी साइकिल को कार या स्कूटर मोटरसाइकिल से ज्यादा पसंद करते हैं. देश में हर सड़क पर साइकिल चलाने की पट्टी अलग बनी हुई है. साइकिल को ट्रेनों में रख कर ले जाने के लिए हर कोच में एक एक दरवाजा अलग होता है जिस पर साइकिल बनी होती है. मतलब यह की आप अपने घर से साइकिल पर निकलें, स्टेशन जाएं, टिकट खरीदें और साइकिल लेकर ट्रेन पर चढ़ जाएं. जब अपने गंतव्य पर उतरें तो स्टेशन से बाहर आते ही साइकिल पर चल दें. हैं न किफ़ायत और फायदे की बात. वहां की सरकार ने कारों पर ऐसे टैक्स लगा रखे हैं की ज्यादातर लोग कार खरीदने से बचें. पर हमारी सरकारों ने आज तक इस बढ़िया उदाहरण को अपनाने की कोई चेष्टा नहीं की है. नतीजतन आज देश की हर सड़क पर ट्रेफिक जाम होना आम बात है. पेट्रोल के धुएँ से बढता प्रदूषण हमारी सबसे बड़ी समस्या बन गया है. पेट्रोल के बड़ते दामों से हमारी अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है. हम निकम्मे और आलसी होते जा रहे हैं. मैं देखता हूँ की गांव के हट्टे कट्टे नौ जवान जो पहले कई किलोमीटर पैदल चलना शान समझते थे, वो आज गांव की गलियों में मोटरसाइकिल दौड़ाना शान समझते हैं. यह आत्मघाती प्रवृत्ति हैं.

होलैंड तो योरोप का वह देश है जिसने अपने औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित किये. खूब धन कमाया. वहां थोड़े लोग हैं. काफी सम्पन्नता है. पर भारत की गरीब जनता और भारत के सीमित संसाधनों पर बढता दबाव हमें इस बात की आजादी नहीं देता की हम पेट्रोलियम आधारित वाहनों को बढने की इस कदर छूट दे दें की सारा देश ही बावला हो जाये. मैं पिछले तीन हफ़्तों से योरोप का भ्रमण कर रहा हूँ. हर शहर में खूब पैदल चलता हूँ. हर शहर में किराय पर साइकिल लेता हूँ और खूब घूमता हूँ. इतना मज़ा आ रहा है साइकिल चलाने में की मुझे लगा की आप सभी सुधि पाठकों का ध्यान इस खास उपलब्धि ओर आकर्षित करूँ. ऐसा नहीं है की यह मेरे लिए नई जानकारी है, गत तीस वर्षों में कई बार विदेश यात्रा पर यह दृश्य देखा. पर होलैंड पहली बार गया तो वहाँ के साइकिल प्रेम ने बहुत प्रभावित किया. पुरानी पीढ़ी के लोगों को याद होगा की ब्रिटिश साम्राज्य के ताकतवर प्रधानमंत्री चर्चिल भी साइकिल चला कर बाजार जाया करते थे.

हमारे देश में जब साइकिल आयी थी तो एकदम बहुत लोकप्रिय हो गई. यहाँ तक की शादी में दुल्हिन विदा करने की शर्त दहेज में साइकिल की मांग के साथ जुड़ गई. बहुत कम लोगों को पता होगा की देश के अति महत्वपूर्ण पद पर बैठ चुके एक व्यक्ति ने भी भोपाल में अपनी शादी के दौरान बिना साइकिल दहेज में लिए, विदाई न करने की जिद पकड़ ली थी. रात में ही साइकिल कसवाई गई और तब बारात विदा हुई. कुल मिलकर बात इतनी सी है की हमारे देश की आर्थिक सामाजिक स्तिथि को देखते हुए साइकिल हर दृष्टि से वरदान है. पर आज हम इसे गरीबों और मजदूरों का वाहन मान कर इसकी उपेक्षा कर रहे हैं. यह हमारे हित में नहीं. योरोप और अमरीका के छात्रों में साइकिल बहुत लोकप्रिय है. हर कैम्पस पर विद्यार्थी व शिक्षक साइकिल ही चलाते नज़र आते हैं. जबकि भारतीय शिक्षा संस्थानों में अपने परिसर के भीतर पेट्रोलियम आधारित निजी वाहनों के चलाने पर तो शिक्षा मंत्री कपिल सिबल रोक लगा ही सकते हैं. इससे कुछ उदाहरण सामने आएगा.

हमारे देश के पर्यावरण प्रेमीयों ने भी साइकिल के प्रति अपनी समझ विकसित नहीं की है. वे सब पश्चिम की इस नियामत को अनदेखा कर बैठे हैं. क्यूंकि उनके जीवन में साइकिल कहीं दिखाई नहीं देती. मुझे लगता है की समय आ गया है की जब देश में साइकिल चलाओ  अभियान की शुरुआत होनी चाहिए. सांसदों, विधायकों की दर्जनों प्रशंसकों से भरी गाड़ियों की जगह साइकिल की टोली जब संसद और विधान सभा पहुंचेगी तो नजारा कुछ और ही होगा. सुरक्षा के कारणों को अनदेखा किये बिना राहुल गाँधी को इस दिशा में पहल करनी चाहिए. उन्हें चाहिए की राजनीति में अश्लीलता की हद तक बड गयी पेट्रोल व् डीजल आधारित वाहनों की भीड़ की जगह उनके कार्यकर्ता साइकिल का प्रयोग गर्व से हर दिन करें. दिखावे और फोटो खिचवाने के ढोंग के लिए नहीं. फिर वे दूसरे दलों को भे मजबूर कर सकते हैं. क्यूंकि यह साफ़ होगा की जिस दल के कार्यकर्ताओं पर जितने ज्यादा पेट्रोलियम आधारित वाहन है वह उतना ही ज्यादा काला धन खर्च कर रहा है. मतलब यह की वह दल ज्यादा भ्रष्ट है.

पर्यावरण की चेतना टीवी पर रोजाना देने वाले टीवी चैनलों को भी आत्मविश्लेषण करना चाहिए की वे खुद अपने दैनिक जीवन में पर्यावरण पर कितना बोझ दाल रहे हैं. जब तक हमारी कथनी और करनी एक नहीं होगी तो हम किसी को भी प्रभावित नहीं कर पाएंगे. अपने पर्यावरण को भी नहीं बचा पाएंगे. इसलिए समय की मांग है की हमारे देश के साधन संपन्न लोग साइकिल की ओर चलें.

Sunday, June 13, 2010

क्या टीवी समाचारों पर सेंसर हो

पिछले दिनों अजमल कसाब को जब फांसी की सजा सुनाई गई तो देश के टीवी चैनलों पर रिपोर्टिंग देखकर सिर धुनने को मन करा। रिपोर्टर दौड़ दौड़ कर ओबी वैन के सामने आकर कचहरी के कमरे की खबर ऐसे दे रहे थे मानों कोई बहुत गहरी और गोपनीय जानकारी निकाल लाए हों। ऐंकर पर्सन भी उसी उत्तेजना में ऐसे बोल रहे थे मानों भारत की पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध में विजय हो गई हो। कसाब के कृत्य, उसके विरुद्ध मौजूदा सबूत और गवाहों के बयान आने के बाद इससे इतर और क्या फैसला अदालत दे सकती थी फिर इतनी उत्तेजना और हड़बड़ी किस बात की। 

क्या आपको नहीं लगता कि आज टीवी चैनलों पर जो समाचार दिखाए जा रहे हैं उनपर सेंसर लगाया जाए। बीस बरस पहले सन 1990 में दिल्ली हाई कोर्ट में मैंने वीडियो समाचारों पर सेंसर के विरुद्ध एक जनहित याचिका दायर की थी। तब देश में टीवी चैनल नहीं आए थे। कालचक्र वीडियो की मार्फत मैंने देश में पहली बार हिन्दी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत की थी। जितनी पैनी और खोजी टीवी रिपोर्ट इस वीडियो में तब दिखाई गई थी उनसे घबराकर सरकार ने वीडियो समाचारों पर सेंसर लगा दिया। इसके विरूद्ध हमने एक लंबी लड़ाई लड़ी। बाद में टीवी चैनल आ गए। इसी बीच प्रसार भारती का भी गठन हुआ। बीजी वर्गीज समिति की रिपोर्ट आई। कुल मिलाकर, टीवी समाचारों की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो गई। टीवी दर्शकों और देश के जागरूक नागरिकों ने राहत की सांस ली। फिर तो समाचार चैनलों की बाढ़ सी आ गई।

आज जितने समाचार चैनल हैं कि आम दर्शक को उनके नाम तक याद नहीं हैं। ज्यादातर चैनलों को विज्ञापन नहीं मिल रहे या इतने कम मिल रहे हैं कि वे घाटे में चल रहे हैं। कोई घाटे में टीवी चैनल भला क्यों चलाएगा? जाहिर है इससे कुछ दूसरे हित साधे जा रहे हैं। नतीजतन खबरों की जगह कचरा परोसा जा रहा है। चाहे वो लोगों की निजी जिन्दगी में ताकझांक हो या अश्लीलता की नुमाईश। इन समाचार चैनलों में न तो विषय के प्रति गंभीरता दिखाई देती है न चैनल की कोई संपादकीय नीति समझ में आती है। दिशाहीन और आत्मविमोहित एंकर पर्सन और रिपोर्टर बौराए से दीखते हैं। बहुतों की तो प्रस्तुति देखकर उन्हें एक थप्पड़ जड़ने का जी होता है। इनमें कई नामी चेहरे भी हैं जिन्हें सवाल पूछने तक की तमीज नहीं है। जिन गिने चुने चेहरों ने विज्ञापनों के माध्यम से खुद को देश का सर्वश्रेष्ठ टीवी ऐंकर स्थापित किया था उनके नाम बड़ी बड़ी दलालियों में आने के बाद वे भी अपनी चमक खो चुके हैं। ऐसे में दर्शक परेशान हैं कि समाचार के नाम पर उसके साथ कैसा मजाक किया जा रहा है।     

टीवी चैनलों पर आने वाले विभिन्न कार्यक्रमों के बारे में अलग-अलग लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है और भिन्न लोग भिन्न कार्यक्रमों को पसंद करते हैं। पहले का बुद्धु बक्सा जब एक साथ कई तरह के कार्यक्रम दिखा सकने वाले मनोरंजन यंत्र में बदल रहा था तो इसका विरोध भी किया गया था और यह आशंका जताई गई थी कि विदेशी कार्यक्रमों से देश की संस्कृति खराब होगी। अब इतने समय बाद कहा जा सकता है कि बाजार रूपी इस विशाल देश ने चैनलों को भारतीय रंग में रंगने के लिए मजबूर कर दिया । कुछेक चैनलों ने अपने कार्यक्रमों का भारतीयकरण भले ही नहीं किया हो और आप चाहे उन्हें अच्छा न मानें पर यह तो सत्य है कि भारतीय बाजार में बने रहने के लिए उन्हें भारतीय भाषाओं को अपनाना पड़ा है।

पर जहां तक खबरों का सवाल है, खबरों का मतलब ही बदल गया है और आज की स्थिति में मैं मानने लगा हूं कि टेलीविजन समाचारों पर नियंत्रण जरूरी है। खबरों को फूहड़ और बिकाऊ बनाने के लिए टीआरपी को बहाना बनाया जाता है और खबरों के नाम पर ज्यादातर चैनल जो कुछ परोस रहे हैं उसे झेलना बेहद मुश्किल हो गया है। एक समय था जब रात में सिर्फ एक बार नौ बजे खबरें प्रसारित होती थीं। पहले रेडियो पर और फिर टीवी पर। उस समय खबरें सुनने या जानने में जो दिलचस्पी होती थी वह क्या अब किसी में रह गई है। तब खबरें नई होती थीं वाकई खबर होती थीं। पर अब दिन भर चलने वाली खबरों को जानने के लिए वो उत्सुकता नहीं रहती है। एक तो संचार के साधन बढ़ने और लगातार सस्ते होते जाने से लोगों तक सूचनाएं बहुत आसानी से और बहुत कम समय में पहुंचने लगी हैं। ऐसे में दर्शकों को खबरों से जोड़ने के लिए कुछ नया और अभिनव किए जाने की जरूरत है। पर ऐसा नहीं करके ज्यादातर चैनल फूहड़पन पर उतर आए हैं।

दूसरी ओर, नए और अपरिपक्व लोगों को समाचार संकलन और संप्रेषण जैसे काम में लगा दिए जाने का भी नुकसान है। किसी भी अधिकार के साथ जिम्मेदारी भी आती है। नए और युवा लोग अधिकार तो मांगते हैं पर जिम्मेदारी निभाने में चूक जाते हैं। उन्हें मीडिया की आजादी तो मालूम है पर इस आजादी के प्रभाव का अनुमान नहीं है। आपने देखा होगा कि दिन भर चलने वाले समाचार चैनल अपने प्रसारण में हिन्सा और अपराध की खबरें खूब दिखाते हैं और कई-कई बार या काफी देर तक दिखाते रहते हैं। दर्शकों को आकर्षित करने के लिए ये अपने हिसाब से अपराधी तय कर लेते हैं और अदातल में मुकदमा कायम होने से पहले ही किसी को भी अपराधी साबित कर दिया जाता है। बाद में अगर वह निर्दोष पाया जाए तो उसकी कोई खबर दिखाई बताई नहीं जाती है। ऐसी खबरों से आहत होकर लोगों के आत्म हत्या कर लेने के भी मामले सामने आए हैं पर टेलीविजन चैनल संयम बरत रहे हों, ऐसा नहीं लगता है। दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में पीड़ितों से बेसिर-पैर के सवाल पूछे जाने के कई उदाहरण हैं। नए और गैरअनुभवी लोगों पर समाचारों के चयन और प्रसारण की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी डाल दिए जाने और टीआरपी की भूख से ऐसा हो रहा है। समय की मांग है समाचार चयन और चनेल का संचालन अनुभवी हाथों में हो और हम तक निष्पक्ष खबरें ही पहुंचें। 

Sunday, May 30, 2010

आसमान से बरसती आग


पूरा उत्तर भारत भीषण गर्मी की चपेट में है। कई शहरों में तो पारा 50 डिग्री को पार कर गया है। धूप की तपिश ऐसी है कि खाल जलने लगती है। जल स्रोत सूखते जा रहे हैं। इसी हफ्ते पानी के लिए झगड़ें में कई शहरों में लोग मारे जा चुके हैं। पर यह तो सिर्फ आगाज़ है। आने वाले वर्षों में तबाही और मचेगी। ग्लोबल वार्मिंग का शोर नाहक ही नहीं मचाया जा रहा। जिस हाल से हम पृथ्वी का हरित क्षेत्र कम कर रहे हैं, उससे यह तबाही घटेगी नहीं। जल, थल, वायु के वाहनों से निकलने वाला धुंआ हो या कारखानों की चिमनियों से या फिर वातानुकूलन करने वाली मशीनों से - हम प्रकृति में दानवों की तरह जहर उगल रहे हैं।

दूसरे देशों की क्या कहें, अपने ही देश के शहरों को ले लें। जिस तेजी से भवन निर्माण हो रहे हैं उससे ज्यादा तेजी से जंगल काटे जा रहे हैं और पहाड़ तोड़े जा रहे हैं। सारा का सारा विकास पानी की चिंता किये बिना हो रहा है। आज से 15 साल पहले देश की राजधानी के पास गुड़गांव में एक आधुनिक शहर बनाने का दावा किया गया। अंसल, डीएलएफ, सुशांत जैसे बड़े-बड़े भवन निर्माताओं ने गुड़गांव में आधुनिक शहर खड़ा कर भी दिया। दिल्ली के साधन सम्पन्न लोग, काॅरपोरेट जगत के अधिकारी और अप्रवासी भारतीयों ने यहां दिल खोल के बंगले और फ्लैट खरीदे। खरीदते भी क्यों ना, टीवी और अखबारों में जो विज्ञापन दिये गये उनमें इन बंगलों को हरा-भरा और स्विमिंग पूल से सुसज्जित दिखाया गया। पर आज हालत क्या है घ् यहां 2-2 दिन पानी नहीं आता। टैंकरों से आपूर्ति करनी पड़ रही है। फिर भी पूरा नहीं पड़ रहा। पानी के दाम पैप्सी-कोला की तरह हो गये हैं।

यही हाल बिजली का भी है। जब इतने ए.सी. चलेंगे तो बिजली कहां से आयेगी। इस इलाके में रोजाना घंटों बिजली नहीं आती। यह तो एक उदाहरण है। देश के हर शहर में यही हाल है। भवन निर्माता इसी तरह लुभावने सपने दिखाकर लोगों को सुनहरा भविष्य देने का वायदा कर रहे हैं। लोग अपना पारंपरिक, सरल, किफायती, सौहार्दपूर्ण जीवन छोड़कर नये रईसों की तरह नई जीवन पद्धति को अपनाते जा रहे हैं। जिसमें उनके परिवार की प्रति व्यक्ति औसत जल और बिजली की खपत का कोटा तेजी सेे बढ़ता जा रहा है। पानी जमीन की सतह से कई सौ फुट नीचे पहुंच चुका है। बिजली की वर्तमान आपूर्ति किसी भी शहर की आवश्यकता को तीन चैथाई भी पूरा नहीं कर पा रही है। यह आलम तो आज का है, कल क्या हालात होंगे सोचकर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हमें पाॅश मानी जाने वाली दक्षिणी दिल्ली में ही अपने इस्तेमाल के लिए हजारों रूपये महीने का जल खरीदना पड़ रहा है। पर किसी को देश में बढ़ते जल संकट की चिंता नहीं है। राजनेता और मीडिया केवल बयानबाजी करते हंै। हमारे आचरण में कोई बदलाव नहीं है। सरकार की नीति में कोई बदलाव नहीं है। सब बिल्ली के सामने कबूतर की तरह आंख बंद किये बैठे हैं। मानो खतरा टल जायेगा।

पर्यावरण की चिंता करने वाले तीन दशकों से चीख-चीख कर चेतावनी दे रहे हैं। पर  उनकी बातों पर गंभीरता से अमल नहीं किया जा रहा है। दंतेवाड़ा जैसे हादसों के बाद भी हमारे राजनेताओं को यह समझ में नहीं आता कि जिस काल्पनिक विकास की ओर वे देश को ले जा रहे हैं वह बहुसंख्यक भारतीय समाज के लिए हासिल कर पाना संभव नहीं है। खासकर तब जब उसकी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो पा रही हैं। ऐसे में यह सोचना कि पूरे भारत को यूरोप बना देंगे, मूर्खतापूर्ण बात है। इस तरह के विकास से दंतेवाड़ा की तरह नक्सलवादी हमले बढ़ेंगे और लोगों का जीना मुहाल हो जायेगा। आज भी शहरों में अपराध का बढ़ता ग्राफ इसी हताशा का प्रमाण है।

चिंता इस बात की होती है कि हम जैसे पत्रकार या लेखक ढोल-ताशे पीटते रहते हैं। फिल्मी सितारे जनहित विज्ञापनों में पर्यावरण चेतना के सारगर्भित उपदेश देकर रस्म अदायगी कर लेते हैं। राजनेता देश-विदेश के विशेषज्ञों को बुलाकर पांच सितारा होटलों में सम्मेलन करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। पर्यावरण के लिए लड़ने वाले खान माफियाओं से पिटते रहते हैं। पुलिस से उन्हें सहयोग नहीं मिलता। प्रशासन मोटी रिश्वत लेकर हर जिले में प्रदूषण के मुद्दों को बड़ी सहजता से अनदेखा कर देता है। नतीजतन हालात बद से बद्तर होते जो रहे हैं। हम खतरे की घंटी को भी नहीं सुन रहे। कोई नहीं है जो विकास के नाम पर किये जा रहे इस विनाश की दिशा मोड़ दे। ऐसे में संतों से आशा की जानी चाहिए कि वे समाज को जीने का नया ढंग बतायेंगे। नया मतलब पारंपरिक और स्वयं सिद्ध जीवन। पर दुर्भाग्य तो यह है कि पैसा देकर टीवी पर अपने को खुद ही परम्पूज्य बताने वाले तथाकथित संत धर्म के सौदागर हो गये हैं। उनका आचरण और उनके अनुयायिओं का आचरण दूर-दूर तक पर्यावरण रक्षा के अनुरुप नहीं है। सब कुछ डिज़नीलैंड की तरह एक धार्मिक मनोरंजन बन कर रह गया है। ऐसे में खुदा ही मालिक है हमारे भविष्य का। फिलहाल तो सूर्य नारायण ने अपनी गर्मी एक अंश ही बढ़ाया है और हम बिलबिला गये हैं। जरा सोचिए अगर हमने और हमारे हुक्मरानों ने जीवन का ढर्रा जल्दी नहीं बदला तो आने वाले वर्षों में हमें भट्टियों में तपना पड़ेगा। तब नर्क जाने की जरूरत नहीं होगी क्योंकि अपने लिये इसी पृथ्वी पर हम खुद नर्क तैयार कर रहे हैं।

Sunday, May 23, 2010

सर्वाेच्च न्यायालय ने बचाई राज्यपालों की गरिमा

दो हफ्ते पहले भारत के सoksZच्च  न्यायालय ने राज्यपालों के हटाये जाने के संदर्भ में जो ऐतिहासिक फैसला दिया उसकी मीडिया में वैसी चर्चा नहीं हुई जैसी होनी चाहिए थी। जबकि 7 मई 2010 को पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने इस फैसले से किसी भी केन्द्र सरकार से राज्यपालों को मनमानी तरीके से हटाने का अधिकार छीन लिया। यह फैसला भाजपा के पूर्व सांसद श्री बी. पी. सिंघल की एक जनहित याचिका पर दिया गया। उल्लेखनीय है कि 2 जुलाई 2004 को संप्रग की तत्कालीन केन्द्रीय सरकार ने उ0 प्र0, गुजरात, हरियाणा और गोवा के राज्यपालों को इसलिए पद से हटा दिया क्योंकि वे पूर्ववर्ती राजग सरकार के द्वारा नियुक्त किये गये थे। ऐसा पहली बार नहीं हुआ। आजादी के बाद से खासकर गत तीन दशकों में राज्यपालों को इस तरह हटाने की कई सफल और असफल कोशिशें की गयी। जिससे राज्यपाल जैसे महत्वपूर्ण पद की गरिमा को ठेस लगी।

केन्द्र सरकार राज्यपाल को अपना प्रतिनिधि मानकर उसे अपने प्रति समर्पित देखना चाहतीं हैं। जबकि इस याचिका में सoksZच्च न्यायालय के वकील एच.पी. शर्मा ने संविधान के अनुच्छेद 153 से 156 तक का हवाला देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की कि राज्यपाल का पद संवैधानिक पद है और उसे राजनीति का शिकार नहीं बनाया जा सकता। संविधान के अनुच्छेद 156 में साफ लिखा है कि राज्यपाल राष्ट्रपति की इच्छानुसार अपने पद पर रहेगा। यदि वह अपने हस्ताक्षर से त्यागपत्र सौंपता है तो वह पदभार से मुक्त हो सकता है। इसी अनुच्छेद में यह लिखा है कि राज्यपाल का कार्यकाल पांच वर्ष होगा और यदि उसे हटाया जाना है तो केवल उसी स्थिति में हटाया जायेगा जबकि वह शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग हो जाए या भ्रष्ट आचरण करे या संविधान की उपेक्षा करे या राज्यपाल के लिए अपेक्षित व्यवहार से हटकर व्यवहार करे या राजनीति में सक्रिय हो जाए या लगातार राजनैतिक जनसभाओं को संबोधित करे या देशद्रोही और विघटनकारी तत्वों से संबंध बना ले। इस हिसाब से तो एक भी राज्यपाल को 2004 में नहीं हटाया जा सकता था। फिर भी उन्हें हटाया गया। न तो कोई कारण बताया गया और न ही कोई जांच की गयी और न ही उन राज्यपालों को अपने आचरण को स्पष्ट करने का मौका दिया गया।

जबकि संविधान के अनुसार राज्यपाल राज्य की विधायिका का अभिन्न अंग है। जब विधानसभा का सत्र न चल रहा हो तो वह अध्यादेश जारी करने के लिए अधिकृत है। राज्य की अधिशासी शक्ति उसमें निहित है और हर प्रशासनिक कार्य उसी के नाम से किया जाता है। उसे क्षमादान करने और दण्ड कम करने और राहत देने का अधिकार प्राप्त है। उसे विधानसभा या विधान परिषद का सत्र बुलाने या उन्हें भंग करने का अधिकार होता है। विधानसभा में पारित कोई भी विधेयक तब तक कानून नहीं बनता जब तक उसे राज्यपाल की स्वीकृति प्राप्त न हो। उसे राज्य की असमान्य परिस्थितियों की रिपोर्ट बननी होती है, उन परिस्थितियों में जब उसे यह लगता हो कि राज्य की सरकार संविधान के अनुसार सरकार चलाने में सक्षम नहीं है। इस तरह भारत संघ के राज्य का राज्यपाल एक उच्च संवैधानिक पद पर होता है जिसे अनेक महत्वपूर्ण संवैधानिक कार्य और कर्तव्यों का निर्वाह करना होता है।

राष्ट्रपति की ही तरह राज्यपाल से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वह गैर राजनैतिक होगा और अपने पूर्व राजनैतिक संबंधों से मुक्त होकर केवल संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वाह करेगा। इसलिए उसे केन्द्र सरकार का प्रतिनिधि या उसका मुलाजिम नहीं माना जा सकता। श्री बी.पी. सिंघल की तत्परता और सतत् प्रयास से 6 साल तक लड़ी गयी लंबी कानूनी लड़ाई ने राज्यपाल के पद को राजनीति का शिकार होने से बचा लिया। पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने केन्द्र सरकार के इस दावे को सिरे से खारिज कर दिया कि राज्यपाल को केन्द्र सरकार में बैठे दल की राजनैतिक विचारधारा से ताल-मेल रखना होगा।

यह विजय न सिर्फ बी.पी. सिंघल की है बल्कि भाजपा की भी है, जिसके द्वारा नियुक्त राज्यपालों को 2004 में बेआबरू करके पद से हटाया गया था। आश्चर्य की बात तो यह है कि बावजूद इसके कि यह मामला उसके हितों से सीधा जुड़ा था भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं और उससे जुड़े मशहूर वकीलों ने इस मामले में कभी कोई रूचि नहीं ली। श्री सिंघल को दल की तरफ से कोई मदद नहीं मिली। यहां तक कि उनकी इस ऐतिहासिक जीत पर भाजपा के बड़े नेताओं ने उन्हें बधाई देना या सार्वजनिक वक्तव्य जारी करना भी मुनासिब नहीं समझा। ऐसा भाजपा के साथ ही नहीं है कि सिद्धांतों के लिए लड़ने वालों की उपेक्षा की जाए बल्कि हर दल और हर क्षेत्र में यह बुराई पैंठ चुकी है। फिर भी जुनूनी लोग अपनी मुठ्ठी भर ताकत और फौलादी इरादों से व्यवस्था को यदा-कदा चुनौती देते ही रहते हैं। जिससे इस लोकतंत्र की रक्षा होती है और अनजाने ही इतिहास रचा जाता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में केन्द्र की सरकारें किसी प्रांत के राज्यपाल को इस तरह बेआबरू करके हटाने से पहले दस बार सोचेंगीं।