यह सही है कि मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने वारेन एंडरसेन को भोपाल में गिरफ्तार किया था। पर बाद में उसे तुरत-फुरत जमानती कार्यवाही करके पूरी सुरक्षा के साथ विशेष विमान से दिल्ली पहुँचा दिया गया। जहाँ से वो देश छोड़कर भागने में सफल हो गया। इंका के अन्दरूनी स्रोतों का कहना है कि अर्जुन सिंह ने यह दोनों काम अपनी मर्जी से किये, इसमें केन्द्र सरकार की कोई भूमिका नहीं। पर आक्रामक राजनेताओं ने इसे सिरे से खारिज कर दिया है। कई अधिकारियों के बयान भी इस आशय के आये हैं कि अर्जुन सिंह को केन्द्र से आदेश हुए थे एंडरसन को भोपाल से सुरक्षित बाहर निकालने के लिए। इन दोनों ही आरोपों-प्रत्यारोपों में क्या सच है और क्या झूठ, यह तो आने वाले दिनों में और साफ हो जायेगा, पर इस पूरे विवाद का एक दूसरा पक्ष भी है। प्रधानमंत्री कार्यालय के पूर्व मंत्री रहे कमल मोरारका कहते हैं कि इंका को इसमें इतनी सफाई देने की जरूरत क्यों पड़ रही है? वे बताते हैं कि एंडरसन भारत आया ही इस शर्त पर था कि वो भोपाल गैस त्रासदी के नुकसान ज़ायजा ले सके। पर इसके लिए उसने भारत सरकार से सुरक्षित रास्ते की माँग की थी। जो मान ली गयी थी। सुरक्षित रास्ता यानि भारत आकर बिना गिरफ्तार हुए लौट जाने की शर्त। ऐसे में एंडरसन को गिरफ्तार करना वायदे का उल्लंघन होता। क्योंकि हमारा देश एक सम्मानित देश है जहाँ कानून का शासन है और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के नियमों का सम्मान करता है। यह कोई आतंकवादी देश नहीं जहाँ वायदा कुछ किया जाए और फिर धोखे से गिरफ्तार कर लिया जाए। अगर गिरफ्तार ही करना है तो अन्तर्राष्ट्रीय कानून के तहत हमारी पुलिस को अमरीका से अनुमति लेकर वहाँ जाकर गिरफ्तारी करनी होगी। इसलिए उस वक्त एंडरसन का वापिस भेजा जाना सही प्रशासनिक कदम था। जिसके लिए इंका को शर्मसार होने की कोई जरूरत नहीं। इसका अर्थ यह नहीं कि एंडरसन को अपराधी न माना जाए या उसके खिलाफ गिरफ्तारी की प्रक्रिया को ढीला छोड़ दिया जाए।
उल्लेखनीय है कि संवेदनशील स्थितियों में प्रशासनिक और राजनैतिक निर्णय सूझबूझ के साथ लिये जाते हैं और उसके कुछ अघोषित भी नियम होते हैं। उदाहरण के तौर पर मिजोरम के बागी नेता लालढेंगा एक फरार अपराधी थे और देश की पुलिस को उनकी तलाश थी। उसी दौरान उनकी कई बैठक दिल्ली के पाँच सितारा होटलों में प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के निजी सचिव यशपाल कपूर से हुई। श्रीमती गाँधी की श्री कपूर को हिदायत थी कि इन बैठकों की जानकारी पुलिस, मीडिया और खुफिया एजेन्सियों को न दी जाए। क्योंकि श्रीमती गाँधी नहीं चाहती थीं कि लालढेंगा से किसी समझौते पर सहमति हुए बिना ही स्थिति विस्फोटक बन जाए। यह उनकी राजनैतिक सूझबूझ थी। कोई भी समझौता, और वो भी जो राजनैतिक रूप से इतना संवेदनशील हो, एक दो बैठक में नहीं हुआ करता। इसलिए कई बैठकों की जरूरत होती है जो भूमिगत नेता से बात किये बिना सम्भव नहीं था। भूमिगत नेता को अगर गिरफ्तार कर लिया जाता तो समझौते की सम्भावना समाप्त हो जाती। अगर पुलिस को उन्हें पकड़ना ही था तो मिजोरम जाकर लालढेंगा को पकड़ लाती। कानून और पुलिस अपना काम करते हैं और राजनैतिक प्रक्रिया अलग चलती रहती है। पर सुरक्षा के आश्वासन के बाद गुप्त वार्ता करने आये किसी नेता के साथ, चाहे वह अलगाववादी ही क्यों न हो, विश्वासघात नहीं किया जा सकता था।
लालढेंगा और एंडरसन में कोई समानता नहीं है। एक भारत के ही एक प्रांत के उग्रवादी संगठन का नेता था। जो भारत से आजादी चाहता था और दूसरा हजारों निरीह लोगों की अकारण मौत की जिम्मेदार कम्पनी का मुखिया। पर जैसा पहले उल्लेख किया है कि अपराधी को पकड़ने की भी कानूनी प्रक्रिया होती है। जहाँ अन्धा कानून होता है या आतंक का राज होता है, वहाँ तो यह हो सकता है कि अजमल कसाब को चैराहे पर खड़ा करके गोली मार दी जाए। पर कानून के शासन में उस जाने-माने आतंकवादी को भी पूरी कानूनी लड़ाई लड़ने का हक दिया गया। अगर सबूत उसके पक्ष में होते तो वह आसानी से छूट सकता था। क्योंकि इस पूरे मुकदमें की सुनवाई अदालत में हुई। पर उसके खिलाफ इतने सबूत और चश्मदीद गवाह हैं कि उसको फाँसी की सजा सुनाई गयी। यही बात एंडरसन पर भी लागू होती है। तत्कालीन राज्य और केन्द्रीय सरकारों और उसके बाद सत्ता में आयी सरकारों को एंडरसन की गिरफ्तारी की प्रक्रिया को तीव्रगति से आगे बढ़ाना चाहिए था, जो नहीं किया गया और इसके लिए सत्ता में रहे सभी दल जबावदेह हैं। पर फिलहाल जो विवाद खड़ा किया गया है, उसको लेकर तो श्री मोरारका का तर्क काफी ठीक लगता है जिस पर विचार किया जाना चाहिए।
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