पहले तो इतनी हड़बड़ी थी कि शपथ लेने से पहले ही केजरीवाल ने जनता दरबार लगा लिया। फिर शपथ लेने के बाद जब नहीं संभला तो हड़बड़ाकर 10 दिन की मोहलत मांगी। 10 की बजाय 14 दिन बाद, खूब प्रचार-प्रसार के बाद, 11 जनवरी को जब दोबारा जनता दरबार शुरू किया तो फिर भगदड़ मच गई। मुख्यमंत्री को पुलिस के संरक्षण में जान बचाकर भागना पड़ा। यह एक नमूना है केजरीवाल की अधीरता और अपरिपक्वता का। जनता दरबार का इतिहास अगर आम आदमी पार्टी के नेताओं को पता होता, तो ऐसा बचपना न करते। देश के कई प्रधानमंत्रियों और राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जब जब जनता दरबार लगाए हैं, वे बुरी तरह विफल हुए हैं। कारण करोड़ों के इस देश में करोड़ों लोगों की हर समस्या का हल जनता दरबार नहीं हुआ करता। इसके लिए प्रशासनिक व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त और जिम्मेदार बनाना होता है। जिसके लिए अनुभव की जरूरत होती है। पर सस्ती लोकप्रियता पाने की हड़बड़ी में आम आदमी पार्टी के नेता एक के बाद एक ऐसे ही अपरिपक्व फैसले ले रहे हैं, जिससे दिल्ली की आम जनता के बीच तेजी से निराशा फैल रही है।
शपथ के लिए मैट्रो में आना। मैट्रो के सारे कायदे कानून तोड़कर उसमें अव्यवस्था फैलाना। फिर टैंपो और बसों में दफ्तर आना और विश्वास मत प्राप्त होते ही बड़ी-बड़ी गाड़ियों को लपक लेना ऐसे ही बचकाने फैसले रहे हैं। गाड़ी लेनी ही थी तो पहले ही दिन क्यों नहीं ले ली ? सुरक्षा न लेने की जिद और सादी वर्दी में सुरक्षा के कवच, ये विरोधाभास कब तक चलेगा ? ऐसा नहीं है कि आम आदमी पार्टी से पहले देश में राजनेताओं ने अत्यंत सादगी और सच्चाई का जीवन न जिया हो। ऐसे तमाम उदाहरण हैं। भारत के गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्ता तक छोटे से फ्लैट में रहते रहे। कई मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री आज भी बिना लालबत्ती की गाड़ी के और बिना सुरक्षा के घर से दफ्तर पैदल आते-जाते हैं, जिसका कोई प्रचार नहीं करते। पर अनेक दूसरे झूठे दावों की तरह आम आदमी पार्टी के नेता इन मामलों में भी ऐसे ही झूठे दावे करते आ रहे हैं कि उन्होंने यह काम पहली बार किया।
अरविन्द केजरीवाल को याद होगा कि उन्होंने दिल्ली के आर्य समाज के कार्यालय में जनलोकपाल कानून पर चर्चा करने के लिए उन्होंने एक बैठक बुलाई थी। जिसमें हमने इस कानून की व्यवहारिकता पर सवाल उठाये थे। यह तब की बात है जब इनका जन लोकपाल आंदोलन ठीक से शुरू भी नहीं हुआ था। हमने कहा था कि आपके बनाए जनलोकपाल कानून को लागू करने के लिए कम से कम 2 लाख नए कर्मचारियों की भर्ती करनी पड़ेगी। इस पर कम से कम 50 हजार करोड़ रूपया खर्चा आएगा। फिर ये गारंटी कैसे होगी कि ये 2 लाख कर्मचारी दूध के धुले हों और बने रहें। इसलिए हमने शुरू से अखबारों में अपने लेखों के माध्यम से और टी.वी. चैनलों में केजरीवाल, प्रशांत भूषण, अन्ना हजारे और इनके साथियों के साथ हर बहस में जनलोकपाल कानून की पूरी कल्पना का बार-बार बड़ी मजबूती से विश्लेषण करके इसकी अव्यवहारिकता को रेखांकित किया था। ये वो दौर था जब केजरीवाल की पहल पर दुनियाभर में इनके समर्थक ‘मैं अन्ना हूं’ की टोपी लगाकर घूम रहे थे। उस वक्त इनसे जूझना ऐसा था मानो मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल दिया जाए। अतीत से बेखबर युवा पीढ़ी को भ्रमित करके केजरीवाल एंड पार्टी ने इतने सब्जबाग दिखा दिए हैं कि उन्हें इनके विरूद्ध सही बात सुनना भी उन्हें गंवारा नहीं होता। पर हम हमेशा वेगवती लहरों से जूझते आए हैं और बाद में समय ने यह सिद्ध किया कि हम सही थे और भीड़ की सोच गलत।
यह बात यहां इसलिए जरूरी है कि भ्रष्टाचारविहीन शासन का दावा करने वाले केजरीवाल के गत 3 सप्ताह के शासन में भ्रष्टाचार के विरूद्ध सिवाय बयानबाजी और नारेबाजी के कुछ ठोस नहीं हुआ। अब जनता को अगर स्टिंग ही करना पड़ेगा, तो जनता अपना काम कब करेगी और फिर मोटे वेतन लेने वाला प्रशासन क्या काम करेगा? जबकि केजरीवाल का दावा था कि वे 48 घंटे में शासन को जनता की शिकायतों के प्रति उत्तरदायी बना देंगे। जबकि हालत यह है कि वे शिकायतियों की भीड़ को संभालने की भी व्यवस्था भी नहीं बना पाए। सोचो अगर 122 करोड़ लोग जनलोकपाल को शिकायत भेजेंगे तो उन शिकायतों को जांचने और परखने और उनकी गंभीरता का मूल्यांकन करने में कितना लम्बा समय लगेगा ? कितनी दिक्कत आएगी ? इससे कितनी निराशा फैलेगी, इसका अंदाजा केजरीवाल को नहीं है। इस सबके बावजूद भी शिकायतों के मुकाबले समाधान नगण्य रहेंगे। यह पूरी सोच ही केवल आम जनता की दुखती नब्ज पर हाथ रखकर, उसे छलावे में डालकर, सब्जबाग दिखाकर अपना उल्लू सीधा करने की है, जो आज हो रहा है। हालात इससे और बदतर होंगे, क्योंकि शिकायत करने वालों का जनसैलाब जब बढ़ेगा, तो केजरीवाल प्रशासन के लिए हर शिकायत को जांचना, समझना और समाधान देना दुश्कर होता जाएगा और इससे जनता में और हताशा फैलेगी।
माना कि आम आदमी पार्टी के नेता लोकसभा चुनाव पर दृष्टि रखकर हड़बड़ी में लोक लुभावने काम करने का माहौल बना रहे हैं। पर उससे जो हताशा फैल रही है, उसकी तरफ उनका कोई ध्यान नहीं है। आज आम आदमी और कांग्रेस के समर्थन ने केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाया है। दो हफ्ते के भीतर ही दिल्ली के आम आदमी की छोटी-छोटी और जायज शिकायतें सुनने का प्रबंध भी नहीं हो पाया। जरा सोचिये कि उस आम आदमी की क्या मानसिक स्थिति होगी, जिसने अपनी भावनाएं आम आदमी पार्टी पर न्यौछावर कर दी थीं। दुख और चिंता इस बात की है कि आम आदमी का जो मोहभंग इतनी जल्दी हो गया है, तो अब उसके पास किसी पर विश्वास करने का कौन सा मौका बचेगा ? बीसियों साल से समाज की जटिल समस्याओं को समझने और उनके समाधान में जुटे सामाजिक कार्यकर्ताओं और विद्वानों के लिए क्या अब अपना काम करने में बड़ी मुश्किल खड़ी नहीं हो गई है ?
वक्त अभी भी नहीं गुजरा। अभी भी केजरीवाल अपने काम का तरीका सुधार सकते हैं। बशर्ते कि भावनाओं के आवेग को छोड़कर सबसे पहले राजनीतिक इतिहास और अब तक के राजनीतिक ज्ञान पर एक बार गौर कर लें और फिर जो भी घोषणा प्रेस के सामने करें उसका आगापीछा सोचकर करें। सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए नहीं।